चीड़ के पेड़ कब के पीछे छूट गये थे और अब तो ठंडी हवा और सर्पीली सड़क भी गुम हो गई. जानवरों के रेवड़ के साथ मोतिया भी घिसटता हुआ आगे बढ़ रहा था. हांकने वाले निर्दयी के डंडे की मार खाता हुआ मोतिया डगमगाते हुये कदमों से आगे बढ़ रहा था कि अचानक उसे याद आने लगा. अरे यह तो जाना पहचाना सा रास्ता है. लेकिन जाना पहचाना कैसे ? सारी उमर तो उसने हँसिया के साथ पहाड़ों की ठंडी हवा और मीठे पानी में मेहनत करके गुजारी फिर इस गर्म व मैदानी इलाके का यह सीधा-सपाट रास्ता उसे पहचाना सा क्यों लगने लगा है. (Stories From the Mountain)
डगमगाती चाल में जिस तरह वह धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा था, ठीक उसके विपरीत उसका दिमाग अतीत की यादों में कुलाचें मारता सा इस रास्ते को तलाश रहा था. अरे हाँ! याद आया, इसी रास्ते से तो वह अल्हड़ मस्ती में उपर पहाड़ों की तरफ को गया था, बात बहुत पुरानी है. तब की, जब उसका नाम मोतिया तक नहीं पढ़ा था. माँ का दूध पीना छोड़कर उसने चारा-पानी लेना शुरू कर दिया था, वह अपने को कुछ समझने लगा था. उन्हीं दिनों की बात है, उसके साथ उसकी आगे की जिंदगी का साथी. हॅसिया को उसका जोड़ीदार बनाकर एक ही रस्से में बांधकर उपर पहाड़ों की ओर इसी रास्ते से हाककर ले जाया गया था. तब की बात ही और थी. वे दोनों खूब तेज-तेज दौड़ रहे थे, सीधे कम, दायें-बाएं ज्यादा भाग रहे थे. उनको हाँक कर ले जा रहा मालिक इस निर्दयी की तरह डंडे नहीं चलाता था. बस जोर से हाकता था. डंडा मारता नहीं था, दिखाता था. हाँ कभी ज्यादा दायें-बाएं चले जाने पर उनकी जूड़ को पकड़ कर उन्हें दर्द भरी गुदगुदी करते हुये सीधे रास्ते पर लाता था. दौड़ते-कूदते-फांदते कब मैदान का यह रास्ता छूट कर पहाड़ी इलाका शुरू हुआ, उसे ध्यान तक नहीं रहा. अलबत्ता पहाड़ी इलाके की हरियाली व ठंडी हवा ने उसे और हंसिया को और भी मस्त कर दिया था. पहाड़ी सोत का ठंडा पानी पीकर तो वह और भी उन्मुक्त हो गये थे. दौड़ा-भागी की मस्ती में एकाध बार तो वह गाड़ी की चपेट में आते-आते बचा. दरअसल उसका जोड़ीदार हँसिया अपनी आगे की जिंदगी की तरह शुरू से ही थोड़ा ढीला व सीधा था, उसके साथ बँधे होने के कारण भी वह थोड़ा कंट्रोल में था नहीं तो बचपन की नासमझी वाली मस्ती में वह जरूर पहाड़ी खाई में लुढ़क कर मर गया होता.
उसे पहाड़ के उस मालिक की उसके पूरे परिवार की याद आ गई, जिनसे उसकी अच्छी पहचान हो गई थी, क्योंकि उस यात्रा के बाद बरषों तक वह उन्हीं के साथ रहा था. उस यात्रा की समाप्ति के बाद मालिक के घर के पटांगण में गोठ के बाहर लगे खूँटों से उन दोनों को बाँध दिया गया था. फिर वह गोठ व वो खूंटे ही उनके रहने, आराम करने के स्थाई अड्डे बन गये थे. हँसिया के साथ उसकी मित्रता भी वहीं पर परवान चढ़ी थी.
बहरहाल उन शुरुआती दिनों में उन दोनों की खूब खातिर हुई थी. खूब तेल पिलाया गया, गुड़ खिलाया गया. आटा मिलाकर चारा दिया गया हरी घास भी मालकिन खूब खिलाती थी. बूढ़ी अमा तो उन दोनों को रात की बची रोटियां भी खिलाती थी. बूढ़ी अमा ने ही उन दोनों का रंग व हरकतें देखकर हँसिया–मोतिया नाम रखा था. उनके आगे के कुछ दिन असह्य वेदना में भी गुजरे थे. मालिक ने उनकी नाक को छेद कर रस्सी डाल दी थी और भी बहुत कुछ हुआ था. खूब दर्द में तड़फे थे वे दोनों, हालांकि मालिक ने दवाई और सेवा भी की. धीरे-धीरे वे उस वेदना का भूल गये थे. सब कुछ सामान्य हो गया था. उसके कुछ दिनों बाद उनकी खेतों में काम करने की ट्रेनिंग शुरू हुई थी, बेचारा हँसिया थोड़ा कमजोर पड़ जाता था. इसी कारण काम सीखने में उसने मार भी उससे ज्यादा खाई थी. पर उनका जोड़ा बना रहा, समय कटता रहा. खूब मेहनत व अच्छी खुराक ने उन दोनों के शरीरों को मजबूत बना दिया. साथ-साथ काम करने रहने व खाने-पीने से उसका व हँसिया का आपसी लगाव बन गया. फुर्सत के समय जुगाली करते हुये वो दोनों एक दूसरे को चाट कर अपने प्रेम का इजहार भी करते रहते.
और हां ऐसा भी नहीं था कि उन दोनों ने वहाँ मेहनत ही की हो, साल भर में कुछ महीने गर्मी व बरसात में वो काम नहीं करते थे. उन दिनों मालिक का लड़का उन दोनों को अन्य जानवरों के साथ जंगल चुगाने ले जाता था, वहाँ गाँव के अन्य लोगों के जानवर भी होते. उन दिनों की स्वछंद घुमाई, चराई करते उसे कावेरी की याद आ गई. कावेरी भी उसी गाँव की थी, जंगल जाना-आना तो साथ-साथ होता ही था. वैसे वह और हँसिया साथ-साथ ही रहते थे, पर कावेरी, जो उसी के जैसे रंग की थी, न जाने कब से उसके निकट ही रह घूमते हुये चरने लगी थी. आराम के समय भी वह उसके निकट रहती और कभी-कभी उसकी गरदन के आस-पास अपनी जीभ से चाटने लगती वह भी प्रत्युत्तर में वैसा ही कर उसे करता. उसे कावेरी काथ अच्छा लगने लगा था. पहले तो हँसिया जब चरते-चरते उससे दूर चला जाता तो वह चरना छोड़कर उसके पास चला जाता ऐसा ही हँसिया भी करता था. पर कावेरी के साथ जंगल में चुगते समय अब वह हँसिया से दूर होने पर भी उसके पास नहीं जाता था, हँसिया भी उससे दूर रहता था. कावेरी जंगल में हँसिया की जगह उसकी जोड़ीदार बन जाती थी. खैर जंगल से लौटकर गोठ में जब वह हँसिया के साथ जुगाली करता तो हँसिया उसको अपना असली साथी लगता. कुल मिलाकर बहुत अच्छे दिन थे. मेहनत तो खैर उनके भाग्य में ही थी, पर जो भी था ठीक ही था. समय कट रहा था.
उसके लिये बुरा वक्त तब आया जब हँसिया ने जंगल में पता नहीं क्या खाया कि वह बीमार हो गया. मालिक ने तमाम प्रयास किये पर वह ठीक नहीं हो पाया. एक दिन जमीन पर लुढ़का तो फिर नहीं उठा. मालिक ने उसे वहीं की धरती पर दफन कर दिया. बस मोतिया अकेला पड़ गया. अकेला क्या पड़ा उसकी कद्र ही घटती गई. धीरे-धीरे उसके खाने-पीने पर भी ध्यान कम दिया जाने लगा. सूखी घास व पानी पीकर इस पकी उम्र में वह कब तक मजबूत बना रह पाता. उससे काम लेना बंद कर दिया गया. जोड़ीदार ही नहीं रहा तो काम होता भी क्या? हाँ बूढ़ी अमा अब भी उसका ख्याल रखती थी. दिन में जब सब काम पर इधर-उधर चले जाते वह नाती पोतों के संग घर के पटागण में बैठी उसे बच्चों का बचा दाल-भात, रोटी देती और कभी-कभी हरी घास भी. हरी घास मालकिन लाती थी, मालकिन अमा के उसको हरी घास देने पर नाराज भी होती थी.
वह ऐसे ही उदास निराश रहकर जीवन के दिन काट रहा था कि यह निर्दयी उसे उसके मालिक को रुपये देकर अपने साथ हाँक ले आया. नीचे सड़क पर आने के बाद उसे अपनी तरह ही अन्य बूढ़े, कमजोर, थके-पिटे अन्य जानवर भी मिले जिनके साथ वह अब भी घिसटता हुआ चल रहा है. यहाँ तक आते-आते वह बहुत ही थक गया था, मैदानी गर्भ हवा भी परेशान करने लगी थी. निर्दयी के डंडे अलग आफत बनकर पढ़ रहे थे. क्या करे. चलने की ताकत बची नहीं और चलकर जाना कहां है यह भी पता नहीं. उसे हँसिया की याद आ गई. भागवान था जो वहीं पहाड़ में मर-खप गया, आज का यह दुर्दिन तो नहीं देखा उसने. हँसिया जिंदा रहता तो वह उसके साथ खेतों में कुछ दिन और मेहनत करता मिट्टी को उलटते-पलटते उसी मिट्टी में मिल जाता. उसे अपने पहाड़ी मालिक पर गुस्सा आया, अरे काम का नहीं रहा था तो क्या इस निर्दयी के हाथों पकड़ा देना था. उसने सोचा होगा— मोतिया काम का तो रहा नहीं खाली खाने-पीने का बोझा कौन रखे. अरे! नहीं देता सूखी घास भी. कम-से-कम वह भी हँसिया की तरह उसी हवा मिट्टी में मिल जाता, जहाँ उसने मेहनत की थी. जीवन जिया था वैसे भी वह अब जीता कितना ? वह काम का नहीं रहा खाली खाने-पीने का बोझा हो गया तो इस निर्दयी के हाथों उसका देश निकाला कर दिया. उसकी माँ यानि बूढ़ी अमा भी तो मोतिया की तरह बेकाम की है, क्या मालिक उसका भी देश निकाला कर देगा. यह सोचते ही उसे अमा पर प्यार उमड़ आया. वो अच्छी औरत थी. उसे दाल-भात रोटी देती थी, ब्वारी की डांट खाकर भी उसे हरी घास देती थी. बूढ़ी अमा और वह उस घर में एक जैसे थे— महत्वहीन, बेकार, खाने-पीने के बोझ. तभी शायद अमा का उससे लगाव होगा. उसने भरे मन से सोचा— हे भगवान! मालिक अमा का देश निकाला न करे.
अचानक उसके दिमाग में अतीत से यथार्थ तक आते-आते एक स्फूर्तिदायक विचार आया. वह सोचने लगा कि कभी इन्हीं रास्तों से होकर ही तो वह पहाड़ को गया था, आज वापस आ रहा है,उसकी मूल मातृ-भूमि तो आगे कहीं है, जहाँ उसकी माँ होगी जिसका दूध पीकर वह पहाड़ों की तरफ गया था. ओह! इतनी जिंदगी बीत गई बचपन की मस्ती गई. जवानी की वह ताकत गई. जोडीदार हँसिया गया. वर्षों का पालनहार वह पहाड़ी परिवार भी छोड़ गया और वह इस सब में ही इतना मगन रहा कि उसको अपनी माँ की याद तक नहीं आई. उसकी जननी, जन्मभूमि तो इन्हीं मैदानों में आगे कहीं है. उसकी माँ क्या पता उसको अब भी याद करती हो. उसे पहाड़ की बूढ़ी अमा जैसी अपनी माँ की याद आने लगी और प्रत्यक्षतः उसके कदमों में तेजी आ गई. वह स्वयं अचरज में पढ़ गया कि उसमें कहाँ से इतनी ताकत आ गई है. शायद माँ से मिलने की इच्छा उल्लास बनकर उसके कदमों को शक्ति देने लगी थी. (Stories From the Mountain)
यातायात सहकारी संस्था से लेखाकार के पद से सेवानिवृत्त निखिलेश उपाध्याय मूल रूप से रानीखेत के रहने वाले हैं वर्तमान में रामनगर, नैनीताल में रहते हैं.
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