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सरकार की नाकामयाबी व जनता की उससे शिकायतों पर चोट करती फिल्म मोती बाग

डॉक्युमेंट्री फिल्म मोती बाग की ऑस्कर एंट्री की खबर हम काफल ट्री के माध्यम से पहले ही आप तक पहुँचा चुके हैं. आज हम फिल्म की समीक्षा करेंगे. पिछले हफ्ते गढ़वाल विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञान व पर्यटन विभाग ने मिलकर निर्देशक निर्मल चंद्र डंडरियाल द्वारा निर्देशित फिल्म मोती बाग की स्पेशल स्क्रीनिंग अपने विश्वविद्यालय के लोक कला एवं निष्पादन केंद्र के प्रेक्षागृह में रखी. दर्शकों से खचाखच भरे प्रेक्षागृह में फिल्म के अंतिम दृश्य तक कोई अपनी जगह से टस से मस तक नहीं हुआ. इसी से आप फिल्म की प्रभाविकता के मायने निकाले सकते हैं. Moti Bagh Movie Review

डॉक्युमेंट्री और फिक्शन में वही अंतर है जो सपने में मर्सिडीज और असल में नैनो कार चलाने में है. फिक्शन एक परिकल्पना पर आधारित होता है लेकिन डॉक्युमेंट्री फिल्म हकीकत को बयॉं करती है. अब तक 3 राष्ट्रीय पुरस्कार जीत चुके निर्देशक निर्मल चंद्र डंडरियाल की फिल्म मोती बाग पौड़ी के सांगुड़ा गॉंव में रहने वाले 83 वर्षीय बुजुर्ग विद्यादत्त शर्मा व उनके बनाए बाग (मोती बाग) के इर्द-गिर्द घूमती है. फिल्म के माध्यम से निर्देशक ने पहाड़ के उन अनछुए पहलुओं को उजागर करने की कोशिश की है जो असल में अब विराट समस्या का रूप ले चुके हैं. साथ ही निर्देशक ने एक बुजुर्ग की जीवटता को कैमरे में ऐसे कैद किया है मानो कोई पहाड़ अपना सिर उठाए खड़ा हो. Moti Bagh Movie Review

वैसे तो डॉक्युमेंट्री फिल्म में कोई नायक नहीं होता लेकिन मोती बाग देखने के बाद हर किसी की जुबान में एक ही नायक थे-विद्यादत्त शर्मा. प्रोग्रेसिव फार्मर का खिताब जीत चुके विद्यादत्त शर्मा अपनी कहानी बताते हुए कहते हैं कि उत्तर प्रदेश के राजस्व विभाग में नौकरी छोड़कर वो सिर्फ इसलिए वापस गॉंव आए क्योंकि उन्हें किसानी से प्रेम था. उनकी 52 सालों की मेहनत का नतीजा है कि आज मोती बाग दुनिया के हर कोने में अपना नाम कर रहा है. लगभग एक घंटे की फिल्म में शर्मा जी ने पहाड़ की समस्याओं को अपने ही लिखे जनगीतों के माध्यम से कई बार सामने रखा. गढ़वाली में गाए गए उनके जनगीतों का शाब्दिक अर्थ हर बार दिल और दिमाग में चोट करता है. एक जगह वह गाते हैं-

आठ महीने सूखे के बाद,
बीज खत्म हो गए,
अब क्या खाएँ?
इससे ज्यादा अब क्या होगा?
पहले एक दो बार,
भूकंप आते थे,
अब रोज आते हैं.
इससे ज्यादा अब क्या होगा?

फिल्म जैसे-जैसे आगे बढ़ती है पलायन की परतें खोलती चलती है. गॉंव के लोग बताते हैं कि 2013-14 तक उत्तराखंड के लगभग 3500 गॉंव खाली थे और आज की तारीख में यह ऑंकड़ा 7000 पार कर गया है. अकेले पौड़ी में लगभग 220 सरकारी स्कूलों में ताले लग गए और अगर पूरे पर्वतीय क्षेत्र की बात करें तो लगभग 2724 स्कूल बंद हो चुके हैं. न सिर्फ मूलभूत समस्याओं की कमी की वजह से लोग पहाड़ों से पलायित हुए हैं बल्कि शारीरिक श्रम न कर पाने की इच्छाशक्ति के चलते भी उन्होंने अपने गॉंव छोड़ दिये हैं. अनुसूचित जाति के लोगों की वजह से पहाड़ आज भी बचे हुए हैं अन्यथा सवर्ण तो लगभग पलायित हो चुके हैं.

शर्मा जी कहते हैं कि पौड़ी आज पानी की समस्या से जूझ रहा है. 5000 फीट के ऊपर पानी का कोई स्रोत नहीं है. पानी की समस्या के चलते 3-4 महीने सूखा रहता है जिस वजह से बरसात के पानी के संरक्षण की जरूरत महसूस होती है. मैंने जब जल संरक्षण की बात की तो लोग मुझे पागल कहने लगे. तब मुझे लगा कि यही तो विचारधारा का अंतर है. कृषि योग्य भूमि पौड़ी में बहुत है लेकिन पलायन के चलते सारे खेत बंजर हो चुके हैं. शारीरिक बल की जगह बुद्धि बल के पीछे भागता युवा आज की तारीख में टमाटर का एक दाना भी पैदा नहीं कर सकता. पहाड़ों में खेती की सबसे बड़ी समस्या है छितरी जोत. लोगों के खेत एक जगह न होकर बिखरे हुए व अलग-अलग जगहों पर हैं. अगर सरकार इन छितरी जोतों को एक जगह जोड़ दे तो शायद लोग खेती की तरफ ज्यादा उन्मुख हों.

फिल्म का दूसरा सबसे अहम किरदार है नेपाल से अपने परिवार के साथ आया राम सिंह जो शर्मा जी के मोती बाग में पिछले 18 साल से काम कर रहा है. एक ओर पहाड़ के लोग अपनी गरीबी का रोना रोकर तराई की तरफ पलायित हुए जा रहे हैं तो वहीं दूसरी तरफ राम सिंह अपनी गरीबी के चलते पहाड़ की तरफ पौड़ी आ गया. वह कहता है कि अगर सीजन अच्छा हो तो उसका परिवार 2-3 लाख रूपए आराम से कमा लेता है. शर्मा जी को इस बात का सबसे ज्यादा दुख है कि पहाड़ के लोग पहाड़ों में खेती नहीं करना चाहते जबकि पौड़ी से लेकर नीचे सतपुली तक हर उपजाऊ जमीन पर नेपाली मूल के लोग खेती कर अच्छी खासी फसलें उगा रहे हैं.

फिल्म सरकार की नाकामयाबी व जनता की उससे शिकायतों पर भी चोट करती है. किस तरह चारधाम यात्रा के समय लोगों को स्थानीय आवागमन के लिए बसों की समस्या का सामना करना पड़ता है क्योंकि आरटीओ अधिकतर बसों को स्थानीय रूट से हटा कर यात्रा रूट पर लगा देता है. इस समस्या को लेकर शर्मा जी खुद गॉंव वालों के साथ आरटीओ ऑफिस जाते हैं. खेतों में जंगली जानवरों, बाघ, सुअर, बंदरों व लंगूर की समस्या हुई सो अलग. शर्मा जी कहते हैं बाघ घरों के अंदर से जानवरों को ले जा रहे हैं और हो सकता है कल इंसानों को भी ले जाने लगें. लेकिन इस समस्या की तरफ सरकारों का कोई ध्यान नहीं है. पहाड़ में बचे लोगों को बचा पाना आज की सबसे बड़ी चुनौती है, पलायित लोगों की वापसी तो दूर की कौड़ी है.

आज गॉंव की खेती नेपालियों के दम पर टिकी हुई है. गॉंव में अर्थी उठाने के लिए भी लोग नहीं हैं उसके लिए भी नेपाली ढूँढने पड़ते हैं. गॉंव में नेपाली-गढ़वाली एक दूसरे का सहारा बनकर रह रहे हैं. लेकिन गॉंव में नेपालियों से जलने वालों की भी कमी नहीं है. जो खुद मेहनत नहीं करना चाहते वो नेपालियों को अच्छा कमाता देख जलते हैं. राम सिंह कहता है शर्मा जी के भरोसे नेपाली श्रमिक पौड़ी में टिके हुए हैं वरना अब तक तो भगा दिये गये होते. शर्मा जी का खेती के प्रति एक ही मूल मंत्र है जिसे वो दोहराते रहते हैं-

 तेरे राम बसे हैं मंदिर में,
मेरे राम खेत खलिहानों में.

शर्मा जी मानते हैं कि औरतें पहाड़ की रीढ़ हैं लेकिन आज की पीढ़ी पहाड़ों में रहकर काम नहीं करना चाहती और जो नेपाली अपनी मेहनत से अच्छा कमा-खा रहे हैं उन्हें डोटियाल, बहादुर कह कर चिढ़ाने में अपनी शान समझती है. लोगों की इच्छाशक्ति और जिजीविषा का मर जाना ही उसे पलायन को मजबूर कर रहा है. शारीरिक कर्म ही इंसान का आत्मसुख होना चाहिये.

आपके बाद मोती बाग का क्या होगा पूछा जाने पर शर्मा जी कहते हैं कि ये बात आप मुझसे क्यों पूछते हैं उनसे पूछिये जिन्होंने इसे संभालना है. मैं तो अपने हिस्से का शारीरिक श्रम कर चुका हूँ. मोती बाग में उगाई गई सब्जियों ने राष्ट्रीय रिकॉर्ड बनाए और तोड़े हैं तो यह कहना कि पहाड़ में संभावनाओं की कमी है बेईमानी होगा.

मोती बाग फिल्म के निर्देशक निर्मल चंद्र डंडरियाल के साथ लेखक

कुल मिलाकर मोती बाग एक बेहतरीन डॉक्युमेंट्री है जिसके खत्म होते ही आपके मन में एक टीस उभरकर आती है कि आखिर इतनी जल्दी यह फिल्म समाप्त क्यों हो गई? शायद ये सब पढ़ने के बाद आपके मन में भी फिल्म देखने की इच्छा प्रबल होने लगे लेकिन अभी आप इस फिल्म को सिर्फ निर्देशक की निगरानी में स्पेशल स्क्रीनिंग के जरिये ही देख सकते हैं. ऑस्कर ज्यूरी की पाबंदियों के चलते जब तक ऑस्कर का परिणाम सार्वजनिक नहीं हो जाता तब तक फिल्म को पब्लिक डोमेन में नहीं रखा जा सकता. परिणाम आने के तुरंत बाद फिल्म निर्देशक की तरफ से आम दर्शकों के लिए यूट्यूब पर उपलब्ध करा दी जाएगी.

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नानकमत्ता (ऊधम सिंह नगर) के रहने वाले कमलेश जोशीने दिल्ली विश्वविद्यालय से राजनीति शास्त्र में स्नातक व भारतीय पर्यटन एवं यात्रा प्रबन्ध संस्थान (IITTM), ग्वालियर से MBA किया है. वर्तमान में हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय के पर्यटन विभाग में शोध छात्र हैं.

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Girish Lohani

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