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हर गांव में एक न एक मोहन दा जरूर होता है

मैंने मोहनदा को होश सँभालने के साथ-साथ देखा था. जैसे गाँव के अन्य दूसरे लोगों को देखा जाता है, पहचाना जाता है. बचपन में उनके प्रति मन में एक विचित्र भय-मिश्रित स्नेह रहा था. ऐसी भावना शायद और भी लोगों के लिए मन में रही हो, लेकिन अधिकांश लोगों की बातें अब याद नहीं रहीं. मोहनदा का व्यक्तित्व ही कुछ ऐसा था कि उनकी बात भुलाए नहीं भूलती.
(Mohan Da Shekhar Joshi Memoir)

नाम-मोहनसिंह. बल्दियत-अज्ञात . गाँव, मौजा, पट्टी, परगना-सब कुछ अज्ञात. यह नाम भी शायद इस अज्ञात कुलशील व्यक्ति को सुविधा के लिए किसी ने दे दिया था. बड़े-बूढों का कहना था कि एक दिन अचानक ही एक लावारिस छोकरे के रूप में वह गाँव में आया था और फिर वहीं का होकर रह गया. गाँव वालों को अपने ढोर-पशुओं के लिए एक चरवाहे की जरूरत थी. पंचायती ग्वाले के रूप में यह जिम्मेवारी मोहन सिंह ने पहले दिन से ही सम्भाल ली.

जिन बछियों को कुलाँचे मारते उसने देखा था, उनकी पाँच-पाँच, छह-छह पीढ़ियाँ उसकी आँखों के सामने फलती-फूलती गई और अपने जीवन के 62-65 वर्ष पूरे करने पर भी मोहनदा एकांकी ठूठ-सा उस गौ-परिवार के प्रति समर्पित रहा. न मोहनदा को ही ख्याल रहा कि उसे घर-गृहस्थी बसानी है, और न गाँव के अयाने-सयानों ने ही इस ओर ध्यान दिया.

उस ठिगने, क्रोधी, वन मानुष-से जीव की दूल्हे के रूप में यों भी कल्पना हास्यास्पद लगती है. उस पर एक आँख का न होना, जैसे आजीवन कुँवारेपन के लिए और भी सहायक हो गया हो. समय के अन्तराल के साथ-साथ वह बच्चों-बूढ़ों सभी के लिए केवल ‘मोहनदा’ होकर रह गया था. मेरी पीढ़ी के लोगों ने उसे बचपन से ही एक ठिगने, घुटी चाँद वाले क्रोधी, सनातन बूढ़े के रूप में देखा था.

मोहनदा के जीवन में कितनी ऋतुएँ पलटी होंगी, गणनाथ की वह घाटी कितनी बार लाल बुरांश फूलों से गदराई होगी, फागुनी हवा के झोकों ने कितनी बार वनांचल की वनस्पतियों को झकझोरा होगा. लेकिन उस बौने ठूंठ में भी कभी प्रेम-प्यार की कपोलें फूटी, कभी बसन्त की रंगीनी आई, कहा नहीं जा सकता.

सुनते हैं, गाँव की छोटी सी दुकान से साँझ के धुंधलके में गोला और मिसरी लेकर एक अरसे तक रोज-रोज वह न जाने किस उम्मीद में गाँव के उस रास्ते की ओर चला जाता जिधर से होकर वह रूपवान, कद्दावर अकाल विधवा पार्वती अपनी बुढ़िया माँ के साथ छप्पर से भैंसों को दुहकर लौटती थी.
(Mohan Da Shekhar Joshi Memoir)

दस-बारह घरों के छोटे से पहाड़ी गाँव में बारी-बारी से उसके खाने-पीने की व्यवस्था हो जाती और ऊपरी जरूरतों के लिए एक माहवारी रकम बाँध दी गई थी. मोहनदा अपने निर्लिप्त और क्रोधी स्वभाव के कारण घर की बहुओं के लिए आतंक का मूर्तिमान रूप हुआ करता था. उसकी पारी के दिन गृहणियाँ रोज की अपेक्षा जल्दी उठ जातीं. पानी के नौल (बावड़ी) पर बतकही में उस दिन समय बर्बाद करने की गुंजाइश न रहती. “आज मोहनदा की बारी है” की सूचना ही उनकी जल्दबाजी का यथेष्ट स्पष्टीकरण होता.

सूर्य की पहली किरण के साथ ही ढोरों का गोठ से निकल जाना जरूरी था और उससे पहले मोहनदा का कलेवा और दिन का चबैना तैयार होना लाजमी था. जरा-सी देर होने पर मोहनदा चमक उठता- ‘उनमें भी प्राण है, उनको भी भूख-प्यास लगती है. कल शाम से बेचारे ढोर गोठ में बँधे हैं, किसी को उनकी परवाह ही नहीं. ढोर-पशु ही पाल लो, या घोड़ा बेच नींद सो लो.’

मोहनदा अपनी नाराजगी की घोषणा दबे स्वर में नहीं, खुलेआम सार्वजनिक रूप में चीख-चीख कर करता ताकि ऐसी अकुशल गृहणियों की कीर्ति गाँव भर में फैल जाए. प्रत्येक घर के गोठ से ढोर निकाल कर गाँव की सीमा में पहुंचा दिये जाते. नंगे पाँव, घुटनों तक धोती, मिर्जई पहने, हाथ में लाठी और कन्धे पर काला कम्बल डाले मोहनदा अपनी लाड़ली गाय सुरमा के गले में घन्टी बाँध देता और एक कुशल सेनापति की तरह उन्हें चलने का आदेश देता-हेऽऽ ला! हे!

सुरमा के गले में घन्टी घन-घन बजती. चीड़-बाँज के वन में कफू पक्षी बोलता और उपयुक्त मार्ग के रूप में, मोहनदा को गुहार सुनाई देती- गाई उप! उप! लछमा रौ! रौ! और सेनापति मोहनदा अपने पूरे ठाट में पहाड़ों के उतार चढाव पार करता, अपनी सेना के साथ जैसे शस्य श्यामल वनखण्ड को जीतने पहुँच जाता.
(Mohan Da Shekhar Joshi Memoir)

पशु मनोविज्ञान और वनस्पति जगत् की मोहनदा की जानकारी अचूक थी. अलग-अलग वनखण्डों के लिए अलग-अलग दिन या ऋतुएं निर्धारित थीं. कब कहाँ चीड़ की पत्तियाँ या काई की फिसलन रहेगी. कहाँ तुषार अधिक रहेगा, कहाँ कल शाम बाघ की गर्जन सुनाई पड़ी थी या जंगली हिरन की चीख सुनाई दी थी जो बाघ का शिकार हुआ होगा. इन्हीं संकेतो, शकुन-अपशुकनों को लेकर मोहनदा की दैनिक योजना बनती और कार्यान्वित होती.

इन योजनाओं में अपना अमन-चैन गौण रहता, मुख्य चिंता ढोर-पशुओं के हित-अहित की रहती. ढोर-पशुओं का संसार ही मोहनदा का संसार था. उन्हीं को देखकर उसका दुःख-चिन्ता, उसका राग-द्वेष परिचालित होता था. उसकी लाडली गाय को किसी दूसरे पशु ने सींग मार दिया तो अपराधी पशु की शामत तो आती ही थी, कई दिनों तक उसके मालिक-मालकिन को भी मोहनदा की नाराजगी का शिकार होना पड़ता था.

बार-बार अनुशासन की उपेक्षा करने वाले पशु को भी मोहनदा की उपेक्षा का शिकार होना पड़ता था. ऐसे पशु के प्रति उसकी कटुता इस सीमा तक पहुँच जाती कि गाँव की सीमा पार करने के बाद वह उसकी पीठ पर दो-चार लाठी मारकर उसे गोल के बाहर कर देता. इधर-उधर डोलने के बाद जानवर समय से पूर्व ही घर पहुँच जाता, या किसी के खेत-खलिहान में पहुँच जाता. दोनों ही स्थितियों में उसके मालिक की परेशानी बढ़ जाती. उस पशु विशेष को जाति-बहिष्कृत कर दिए जाने पर अपनी अनुशासनहीनता के लिए ग्लानि होती होगी या नहीं, कहा नहीं जा सकता, लेकिन मालिकान अवश्य ही परेशानी में पड़ जाते.
(Mohan Da Shekhar Joshi Memoir)

गोधूलि की बेला में चीड़ वन की सांय-सांय के बीच फिर सुरमा की घन्टी की घन-घन और मोहनदा की गोहार सुनाई देती. यह समय हम लोगों के लिए विशेष आनन्द और उत्सुकता का होता था क्योंकि इसी समय हम बच्चों को उम्मीद रहती थी कि मोहनदा के अंगोछे में मौसमी जंगली फल-फूल होंगे और हम लोग कम ही निराश होते थे.

साँझ के समय जब पशु अपने-अपने गोठों में बँध जाते, मोहनदा गाँव का चक्कर लगा लेता था, जैसे अभिभावकों को उनके बच्चे की दैनिक रपट देने कोई जाता हो. कौन गाय नई हुई है, किस गाय को अब जंगल भेजना ठीक नहीं, किसे नमक देना है, किसके पैर में मोच आ गई है, किसकी नाक में जोंक हो गई है, किसकी खुरों में फिनायल डालना है- ये छोटी-मोटी सूचनाएँ शाम के दौरे में दी जातीं. चौमासे में जब मच्छरों का प्रकोप होता तो गौशाला के बाहर धुंआ न देखकर मोहनदा वैसे ही उत्तेजित हो जाता, जैसे कोई मैट्रन अस्पताल में गन्दगी देख कर निचले कर्मचारियों पर भड़कती.

एक दिन गायों के जीवन में व्यतिक्रम हुआ. उस दिन संध्या को सभी पशु एक गोल में घर नहीं पहुंचे और न ही मोहनदा की गुहार सुनाई पड़ी. दो-दो चार-चार के झुण्ड में और पशु तो आ गए, लेकिन सुरमा नहीं आई. लोग जंगल की ओर दौड़े. एक पेड़ के नीचे पड़ा मोहनदा पीड़ा से कराह रहा था और सुरमा उसे चाट रही थी. बच्चों के लिए काफल तोड़ने मोहनदा पेड़ पर चढ़ा था, पैर फिसलने के कारण भूमि पर आ गिरा. उसे उठाकर घर लाया गया. पीछे-पीछे सुरमा रम्भाती हुई आई, जैसे कोई माँ अपने बेटे के प्रति चिंतित होकर खोई-खोई सी चलती है. उन दोनों में से कौन माँ थी, कौन बेटा था-यह समझना कठिन था.
(Mohan Da Shekhar Joshi Memoir)

शेखर जोशी

यह लेख पुरवासी पत्रिका से साभार लिया गया है.

इसे भी पढ़ें: शेखर जोशी की कालजयी कहानी ‘दाज्यू’

शेखर जोशी का जन्म 10 सितंबर 1932 को उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले के ओलिया गांव में जन्म हुआ. अनेक सम्मानों से नवाजे जा चुके हिन्दी के शीर्षस्थ कहानीकारों में गिने जाने वाले शेखर जोशी के अनेक कहानी संग्रह प्रकाशित हैं. उनका पहला संग्रह था ‘कोसी का घटवार’ जो 1958 में छप कर आया था. इसी शीर्षक की उनकी कहानी ने उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति दिलाई. ‘कोसी का घटवार’ अपने प्रकाशन के करीब साठ साल बाद भी पाठक के मर्म में सीधे उतरती है. 

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  • हमारे गांव में भी थे एक। पर उनको हम अमरदा कहते थे। पूरे गांव के तो नहीं पर वे गांव के एक समृद्ध परिवार की सेवा में जीवन पर्यंत लगे रहे। उनके पशुओं को ग्वाला ले जाना, उनके भाबरी बैलों की देखभाल और उनके खेतों में हल आदि लगाना। उनके बड़े बड़े भाबरी बैलों को केवल छोटी काठी के अमरदा ही सम्भाल सकते थे।
    सुना था कि गढ़वाल के किसी क्षेत्र से बचपन में ही कुमाऊं के हमारे गांव में वे आ गए थे और उस परिवार की सेवा में ही पूरा जीवन बिता दिया। शादी उनकी भी नहीं हुई। हम तो बस उनको एक वृद्ध के रूप में ग्वाले जाते समय देखते थे जहां हम अपने गोरु बल्दों कोले जाते और वे अपने बड़े बड़े भाबरी बैलें को लाते थे।

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