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कोरोना संकट: दोषपूर्ण विकासवादी नज़रिए का परिणाम

कोरोना का संकट हमें बहुत कुछ सिखाने-समझाने आया है. आज विश्व अकल्पनीय संकट से जूझ रहा है. दूसरे विश्वयुद्ध के बाद यह सबसे बड़ा मानवीय संकट है. पहले चीन, फिर ईरान, इटली, स्पेन, ब्रिटेन और अमेरिका जैसे विकसित और उच्च साधन-संपन्न देशों के होश उड़े हुए हैं. जो देश एटम बम, लंबी दूरी की विनाशकारी मिसाइलों, अत्याधुनिक अस्त्र-शस्त्रों का दम दिखाया करते थे, आज उनके अस्पतालों की गलियारों में लोग खांस रहे हैं, बुखार से तड़प रहे हैं. क्योंकि उनकी देखभाल करने के लिए जरूरी चिकित्सा उपकरण और डॉक्टरों-नर्सों की कमी पड़ गई है. डॉक्टरों को सोचना पड़ रहा है कि दस मरीजों में किन्हें बचाया जाए और किन्हें मरने के लिए छोड़ दिया जाए. अमेरिका में ऑटोमोबाइल और हवाई जहाज बनाने वाली बड़ी-बड़ी कंपनियों ने अपनी असेम्बली लाइन रोक कर अब ‘जीवनदायी’ उपकरणों का उत्पादन करना शुरु कर दिया है. आज इन देशों के विशाल हाईवे सूनी पड़ी हुई हैं. मॉल, प्लेक्स, सुपरमार्केट्स, ट्राम, मेट्रो, ट्रेन सेवाएं ठप्प पड़ी हुई हैं. लोग अपने-अपने घर में बंद हैं और हर दिन अस्पतालों से शवों का काफ़िला निकल रहा है. जिनकी इस वायरस से मौत हुई, आख़िरी वक्त में उनके परिजन उनके पास नहीं थे. स्थान और संसाधन की कमी होने के कारण शवों को सेना के ट्रकों में भर कर शहर के बाहर सामुहिक रूप दफ़्नाया जा रहा है. आज 29 मार्च की सुबह तक अकेले अमेरिका में 1 लाख 24 हजार लोग इस वायरस से संक्रमित हो चुके हैं. पूरी दुनिया भर में इसकी संख्या साढ़े 6 लाख हो चुकी है. हर दिन हजारों लोग इस सूची में शामिल होते जा रहे हैं. हालात वाकई बहुत डरावने हैं. (Modern Development and Corona)

हमारे देश में भी लोग घरों में बंद हैं. भारत में अबतक 1000 से अधिक लोग इस वायरस के शिकार हो चुके हैं. राहत की बात है कि विश्व के अन्य साधन-संपन्न देशों के मुकाबले भारत में इस संक्रमण से होने वाली मृत्यु दर बेहद कम है. यदि हम संकट की इस घड़ी में आत्मानुशासन का पालन करें तो निश्चित रूप से हम इसके तेज प्रसार को रोक सकते हैं और भारत को इस संकट से उबरने में मदद कर सकते हैं. याद रखिए, इस संकट के दौर में कोई सरकार, कोई मशीनरी आपकी सुरक्षा की गारंटी लेने में सक्षम नहीं है. हम सभी को अपनी-अपनी गारंटी स्वयं लेनी है. आज दिहाड़ी करने वाले हजारों-लाखों लोग बड़े शहरों से अपने गाँवों की ओर चल पड़े हैं. उनके साथ बच्चे, महिलाएं, बुजुर्ग शामिल है. साधन न मिलने के कारण वे जहां-तहां रोक दिए गए हैं. किसी तरह से उनका खाना-पीना चल पा रहा है. सरकार और स्वयंसेवी संगठन और कई अन्य समूह उनकी मदद करने को आगे आ रहे हैं. ये तो उनके संकट में राहत पहुंचाने की बात हुई, पर उनमें से यदि एक भी व्यक्ति संक्रमित निकलते हैं, तो सभी की जान खतरे में आ जाएगी. तब हम मौत के बेहद करीब पहुंच जाएंगे. इसलिए जो लोग अपने घर में सुरक्षित हैं वे सभी अन्य लोगों के लिए प्रार्थना करें कि वे भी सुरक्षित रहें और उनसे कोई अगला प्रसार न हो.

दोषपूर्ण विकासवादी नज़रिए का परिणाम

अब जरा सोचिए हम इस मुहाने पर क्यों आ खड़े हुए? क्यों कुछ सौ साल के भीतर ही हमारे तथाकथित विकास के हाथ-पांव फूलने लगे हैं? क्यों हम ‘ग्लोबल विलेज’ और संचार-क्रांति के इस चमकते दौर में एक-दूसरे पर संदेह करने लगे? विचार कीजिए इस महामारी की जड़, दुनिया की महाशक्ति, चीन के विनाशकारी क्रियाकलापों पर. प्रकृति के बदन को खुरचने, छीलने और लहुलुहान करने की कीमत पर होने वाले तथाकथित विकास के बारे में सोचिए. जरा सोचिए, अठारहवीं सदी से यूरोप में आरंभ हुई औद्योगिक क्रांति के महज ढाई सौ साल ही तो हुए हैं. अमेरिका और यूरोप के कई देशों में जहां मानव की आजादी का विशेष आग्रह रखा जा रहा है, आज मौत के दहशत में उनकी आजादी न जाने कहां गुम हो गई है. सभी ख़ामोश हैं, सभी के होश उड़े हुए हैं.

कारण खोजने के लिए आपको ज़्यादा दूर नहीं जाना पड़ेगा. जरा सोचिए, इस बह्मांड को बनाने वाली ईश्वरीय सत्ता ने हम मानव को एक सुंदर और खुशहाल जीवन जीने के लिए धरती पर तमाम अनुकूल व्यवस्थाएं दी थीं. पर हुआ यह कि विश्व के औद्योगिक विकास के पिछले ढाई सौ-तीन सौ सालों में हमारा चिंतन पूरी तरह से बदल गया. भौतिक साधन-संसाधनों से अपने जीवन में सहूलियतें आने से हमारे अंदर अहंकार भाव भरते चले गए और हमने स्वयं को परम सत्ता द्वारा निर्मित विराट प्रकृति का हिस्सा मानना बंद कर दिया.

इन सब की शुरुआत हुई सन 1760 में यूरोप की औद्योगिक क्रांति से. जब अधिक से अधिक उत्पादन करने के लिए प्रकृति को हमने छीलना और लहुलुहान करना शुरु कर दिया. कल-कारखाने बनाने, नए-नए शहरों को बसाने, खेतों के विस्तार के लिए प्रकृति को बड़े पैमाने पर बरबाद करने लगे. मीलों-मील हरे-भरे जंगल काट कर गिराए गये. पहाड़ों को छीला-तराशा गया. नदियों को रोका-टोका गया. अपने वैज्ञानिक अनुसंधान के बल पर हमने कई असाध्य रोगों से लड़ने के टीका और दवाइयां बना लीं. कृत्रिम साधन-संसाधनों के बल पर जीवन की कठिनाइयों पर हमने विजय पाई और दुनिया भर में मानव की आबादी तेजी से बढ़ने लगी और फिर अपने भौतिक विकास को हम दिन-दूना रात-चौगुना करने के लिए हम विकास के अंतहीन होड़ में उलझ गए. जिन देशों ने औद्योगिक विकास किया उन्हें और विकसित होना था, जिन्होंने देर से विकास शुरु किया वे अपनी रफ़्तार बढ़ाने में लग गए.

फिर हम अपनी विकास गतिविधियों को अपने-अपने राष्ट्र को श्रेष्ठ सिद्ध करने और दूसरे राष्ट्रों को अपने अधीन करने के विनाशकारी भाव से भरते चले गए. बहुत जल्द ही हमने दो-दो विश्वयुद्ध निपटा दिए. अमेरिका द्वारा जापान पर किए परमाणु हमले में उस राष्ट्र का सब कुछ तबाह हो गया. इस युद्ध में दुनिया भर में करोड़ों मौतें होने के बाद भी हम ठहरे नहीं. आगे बढ़ते ही रहे. आगे नए-नए विनाशक हथियारों के निर्माण और स्वामित्व का होड़ शुरु हुआ. और अब हम दूसरे विश्वयुद्ध के बाद सबसे विनाशकारी दौर में आ चुके हैं, जहां सारे साधन-सामर्थ्य मौजूद होते हुए भी दुनिया भर के हमारे भाई-बहन, परिजन हमसे बिछुड़ते जा रहे हैं और हम सभी अपने-अपने घरों में कैद रहने के लिए बेबस हैं. तड़पते इंसानों के पास अब कोई खड़ा होने वाला नहीं है. आज मानव की ‘अनुशासनहीन’ आजादी की दुहाई देने वाले लोग भी सोचें कि क्या कोई भी आज़ादी विश्व कल्याण के भाव से बड़ी है? यदि नहीं तो ऐसे-ऐसी ‘आज़ादियों’ का क्या फ़ायदा! तब, क्या यह महज हमारे-आपके अंदर के अहं की परिणति नहीं है? क्या अब भी हमें ठहरकर जरा सांस लेने की जरूरत नहीं है? या हम 3-4 महीनों के बाद इस महामारी से उबरते ही दुगने उत्साह के साथ विनाश की अंधी दिशा में चल पड़ेंगे?  अपने-अपने घर में बंद रहकर आप भी चिंतन कीजिए कि हमारी दिशा कहां-कहां गलत हुई थी.

मूल रूप से बेंगलूरु के रहने वाले सुमित सिंह का दिमाग अनुवाद में रमता है तो दिल हिमालय के प्रेम में पगा है. दुनिया भर के अनुवादकों के साथ अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद के वैश्विक प्लेटफार्म  www.translinguaglobal.com का संचालन करते हैं. फिलहाल हिमालय के सम्मोहन में उत्तराखण्ड की निरंतर यात्रा कर रहे हैं और मजखाली, रानीखेत में रहते हैं.   

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Sudhir Kumar

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  • बिल्कुल सही बात! जीवन को सपोर्ट करने वाले शाश्वत तौर-तरीकों की तरफ लौटना तो पड़ेगा ही। कोरोना जैसी परिस्थितियां साफ-साफ बताती हैंं एंटीबायोटिक कल्चर पर आप और नहीं टिके रह सकते।

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