(पिछली कड़ी – सूरज की मिस्ड काल भाग- 1)
न जाने नछत्रों से कौन, निमंत्रण देता मुझको मौन – सुमित्रानंदन पंत
पिछले हफ़्ते अखबार में एक खबर पढ़ी. ब्रह्माण्ड में एक बेहद भारी ब्लैकहोल एक सूदूरवर्ती आकाशगंगा से लाखो मील प्रतिघंटा की गति से दूर भागा जा रहा है. इस ब्लैकहोल का द्रव्यमान सूरज के द्वव्यमान से एक अरब गुना ज्यादा है. इसकी गति अंतरिक्ष में छह लाख 70 हजार मील प्रति घंटा है. खबर के अनुसार इस ब्लैकहोल की पृथ्वी से दूरी एक अरब प्रकाश वर्ष है.
जबसे मैंने यह खबर पढ़ी है, अखबार लिये घूम रहे हैं. घूम रहे हैं मतलब उसको रद्दी में नहीं शामिल किया है अभी तक. तबसे दूरी, द्रव्यमान का तुलनात्मक अध्ययन चल रहा है. बताओ ब्लैकहोल हमसे एक अरब प्रकाश वर्ष दूर है. कल्पना किया जाये क्या?
प्रकाशवर्ष मतलब वह दूरी जिसको प्रकाश एक साल में तय करे – लगभग तीन लाख किलोमीटर प्रति सेकेंड की गति से. उससे एक अरब गुना दूरी पर एक तारा, अपनी उमर निपटाकर बना ब्लैकहोल, लुढ़क-पुढ़क रहा है. हमसे दूर भागा चला जा रहा है करीबन सात लाख किलोमीटर प्रति घंटा की स्पीड से. वजन देखो – अपने सूरज से एक अरब गुना ज्यादा वजनी. अभी तो खैर कुछ सिकुड़ गया होगा लेकिन जब जवान रहा होगा, भीगती मसों वाला गबरू जवान तारा तो 60 हजार x एक अरब पृथ्वियों को अपनी कांख में दबाने लायक जगह होगी उसके अंदर. एक बार फ़िर लगा कि दुनिया बड़ी डम्प्लाट है.
बचपन में हमारे चाचा जब उनका मन आ जाये तब पूछने लगते थे- अस्सी मन का लकड़ा, उसपर बैठा मकड़ा. रत्ती-रत्ती रोज चुने तो बताओ कित्ते दिन में चुन जाये? इसका जबाब न तब हमारे पास था , न अब है. कुछ इसई तरह का मामला है इधर भी. कोई सोचे कि उस ब्लैकहोल को छूकर वापस आ जायें तो बस भैया सोच ही सकता है. जिस प्रकाश की गति तीन लाख किलोमीटर प्रति सेकेंड है उस गति से भी जाने में एक अरब साल लग जायेंगे. अगर जाना संभव भी हो तो इत्ते समय में करोड़ों पीढ़ियां गुजर जायेंगी. बस सोचा ही जा सकता है. तुलनात्मक अध्ययन ही किये जा सकते हैं. गति देखो भाई साहब की -हमारी कार की सबसे तेज गति से भी दस हजार गुना तेज गति से भगे चले रहे हैं. वो तो कहो पेट्रोल नहीं लगता वर्ना हालत खराब हो गयी होगी.
प्रकाश की गति से भले हम न उस ब्लैकहोल को पकड़ पायें लेकिन मन की गति से उसको पिछिया के पकड़ ही सकते हैं. दौड़कर उसके आगे निकल सकते हैं. रास्ता रोककर खड़े हो सकते हैं. कह सकते हैं – कहां जा रहे हो भाईजान! आओ जरा चाय लड़ जाये. ब्लैकहोल बेचारा कहो झुंझलाकर कहे -हटो, हमें मजाक पसंद नहीं. जब देखो हमारे रास्ते में आकर खड़े हो जाते हो ठेलुहों की तरह. हमारी स्पीड पर असर पड़ता है.
जहां जा रहा होगा बेचारा ब्लैकहोल वहां न जाने कित्ता अंधेरा होगा. मोमबत्ती भी तो नहीं जल सकती वहां. जलेगी तो उसकी सब रोशनी तो ये खुद सोख लेगा. लेकिन अगर रास्ते की सोचा जाये तो कैसा होगा रास्ता. भागा चला रहा है लाखों किलोमीटर की स्पीड से.
क्या पता ब्लैकहोल जिस रास्ते जा रहा हो वह कोई पहाड़ टाइप की चीज हो और वह बेचारा किसी बरतन की तरह लुढ़कते-पुढ़कते चला जा रहा हो . छह लाख 70 हजार किलोमीटर की स्पीड से.
ये आकाशीय पिंड कद-काठी में चाहे जितने डम्प्लाट हों लेकिन गुरु इनकी जिंदगी बड़ी नरक है. एक्को दिन का वीकेन्ड नहीं. न कोई होली दीवाली की छुट्टी. हर समय घूमते रहो, भागते रहो. चरैवैति-चरैवेति जपते हुये. जबकि उनका न कोई बॉस न कोई हाजिरी रजिस्टर न कौनौ मस्टर रोल. जब मन आये तब छुट्टी मार गये. लेकिन न! कभी आराम से नहीं बैठेंगे. चलते रहेंगे.
बोलने-बतियाने वाला भी कोई नहीं. कोई हो जिससे हेलो हाय कह लें. कभी-कभी लगता है कि ये लोग एक-दूसरे को देखते,निहारते भले हों, लेकिन बतियाते नहीं होंगे. सोचते होंगे किसी की जाती जिंदगी में क्या दखल देना? मुंह दबाये बस भागते-भागते जिन्दगी बिता देते हैं बेचारे. कभी-कभी गियर बदलकर स्पीड कम- ज्यादा करते होंगे लेकिन वह भी इत्ती होशियारी से करते होंगे कि हमें पता ही न चलता होगा.
लोग कहते हैं कि दुनिया गोल है. अगर ऐसा है तो क्या पता कि लाखों किलोमीटर की गति से हमसे दूर भागता ब्लैकहोल किसी दिन मुस्कराता हुआ दूसरी तरफ़ से हमारे सामने आकर खड़ा हो जाये और दांत चियारते हुये बोले -हाऊ डु यू डू!
क्या पता इस गोलाकर, चक्करदार रास्ते में ब्लैकहोल को उससे भी बड़ा , बहुत बड़ा , उससे कई गुना बड़ा, कोई तारा मिले और इस ब्लैकहोल को देखकर इसके प्रति उसके मन में वात्सल्य उमड़ आये और वह कहने लगे- किलकत कान्ह घुटुरुवन आवत.
न जाने वह ब्लैकहोल कैसा होगा, किस तरह का होगा. कौन से पदार्थ उसमें रहे होंगे. कैसी सभ्यता रही होगी उसके अन्दर. लेकिन हम जब भी सोचेंगे उसके बारे में तो वैसा ही तो सोचेंगे जैसा हमारे सोच की सीमा है. यह बात हर जगह लागू होती है. हम दूसरे के बारे में जो भी सोचते हैं वह वैसा ही तो सोच सकते हैं जैसा हमारे अनुभवों की पूंजी है.
अभी हम सभ्यता का मतलब प्राणियों के जीवन से लेते हैं. यह भी तो हो सकता है कि वहां सभ्यता का मतलब कुछ और हो. ज्यादा दूर क्यों जाते हैं. हमसे आठ प्रकाश मिनट की दूरी पर स्थित सूरज के बारे में ही कित्ता जानते हैं हम ! उसके केन्द्र का तापमान लाखों डिग्री है और सतह का हजारो डिग्री. क्या पता वहां का भी प्रधानमंत्री किसी से कहता हो –” जित्ती ऊर्जा सतह के लिये चलती है उसका बहुत छोटा सा हिस्सा ही सतह तक पहुंचता है. बहुत भ्रष्टाचार है यहां!”
न जाने कित्ती -कित्ती बातें रोज सामने आती हैं. लाखों, करोड़ों तारे, आकाशगंगायें एक दूसरे से दूर भाग रही हैं. पुराने तारे निपट रहे हैं, नये पैदा हो रहे हैं. भड़ाम-भड़ाम हो रही है. सांय-सांय भी. जहां तारे स्पीड से मर रहे होंगे वहां कोई बहुत ज्ञानी तारा उनके लिये वैक्सीन बनाने में लगा होगा कोई. क्या पता तारों की बढ़ती संख्या से घबराकर वहां भी तारा जनसंख्या नियंत्रण की कोई व्यवस्था चलती हो. क्या पता वहां भी तारा नियोजन होता हो.
क्या पता तारे भी आपस में आइस-पाइस खेलते हों. किसी ब्लैकहोल की आड़ में छिप जाते हों. दूसरा तारा जब उसको खोजता इधर-उधर उचककर देखता हो तब तक उसको दूसरा तारा ढपली मार देता हो. उस ढपली के निशान को आने वाली पीढियां -यहां उल्का पिंड गिरा होगा, यहां ये हुआ होगा, वो हुआ होगा कहते हुये मनमाने कयास लगाती रहें. कोई तारा खेल-खेल में किसी दूसरे तारे को गुदगुदा दे. गुदगुदी से उससे इतनी रोशनी निकल पड़े कि उसके किसी ग्रह में ऊष्मा तूफ़ान आ जाये और न जाने कित्ते जंतुओं का सफ़ाया हो जाये.
हम छह फ़ुटा शरीर लिये साठ-सत्तर साल की उमर लिये जब-तब अपने आप को तीसमार खां समझते रहते हैं. उधर ब्रह्माण्ड की सोची जाये वहां जो भी होता है वह सब प्रकाश वर्ष की इकाई में होता है. लाखों वर्षों की इकाई में. हमारे जैसे लोग अपने लाखों, करोड़ों ,अरबों, खरबों बार अपना जीवन बिता लें इत्ता समय. क्या औकात है अपनी इस दुनिया की तुलना में.
फ़िर भी लगता है कि वो ब्लैकहोल हमसे डरकर ही हमसे दूर भाग जा रहा है. डरा भले न हो लेकिन शरमा सा तो होगा. अब वह किसी को रोशनी तो दे नहीं सकता. रोशनी न दे सकने के चलते उसका आत्मविश्वास लड़खड़ा गया होगा और वह वह हमसे दूर भागता जा रहा होगा.
मन तो कह रहा है उसको वापस बुला लें- आ जाओ यार, तुमको कोई कुछ नहीं कहेगा. लेकिन आवाज की गति उसकी गति से बहुत कम है.
ब्लैकहोल भन्नाया भागा जा रहा होगा. क्या पता बेचारा सोच रहा होगा किसी ने उसको रोका भी नहीं , टोंका भी नहीं. अब सोचने से भी क्या होगा. सोचने पर किसी का बस थोड़ी है.
16 सितम्बर 1963 को कानपुर के एक गाँव में जन्मे अनूप शुक्ल पेशे से इन्जीनियर हैं और भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय में कार्यरत हैं. हिन्दी में ब्लॉगिंग के बिल्कुल शुरुआती समय से जुड़े रहे अनूप फुरसतिया नाम के एक लोकप्रिय ब्लॉग के संचालक हैं. रोज़मर्रा के जीवन पर पैनी निगाह रखते हुए वे नियमित लेखन करते हैं और अपनी चुटीली भाषाशैली से पाठकों के बांधे रखते हैं. उनकी किताब ‘सूरज की मिस्ड कॉल’ को हाल ही में एक महत्वपूर्ण सम्मान प्राप्त हुआ है
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