पहाड़ से मैदान की ओर जाने पर लगता है जैसे सीढ़ी से उतरते हुए चौक में आ रहे हों. कोटद्वार रेलवे स्टेशन की सीढ़ियों में पटर-पटर उतरते हुए मन में अक्सर यही बात आती है. करीब बीस साल पहले की बात होगी मुझे भी अचानक किसी काम से दिल्ली जाना था. वैसे कोई नई बात नहीं थी लेकिन उस दिन प्लेटफार्म पर न के बराबर लोग थे. सूना-सूना सा लग रहा था, प्लेटफार्म पर अकेले टहलते हुए मन में कई बातें आ रही थी. क्योंकि मैं जब भी गाँव से आया प्लेटफार्म खचाखच भरा हुआ मिला. ट्रेन के आते ही यात्रियों का बिल्ल खड़े होकर धकापेल घुसा घुस आम बात रहती है. यह अलग बात है कि जाने वालों से छोड़ने वालों की संख्या अधिक रहती है.
(Migration Story Uttarakhand)
गिने-चुने यात्रियों को देख अजीब सा भी लग रहा था पर ध्यान आया, त्योहारों के दिन लोग मजबूरी में ही जाते हैं. प्लेटफार्म पर खड़ा में तरह-तरह की बातें सोच रहा था कि रेल सीटी मारती सरड़-सरड़ कर प्लेटफार्म पर आयी. खुली जगह मिल तो जायेगी यह सोच में आराम से डिब्बे की ओर बढ़ा और बर्थ पर थच्च अपना थैला रख खिड़की के पास बैठ गया. मिंदली रोशनी के कारण आस-पास पीला-पीला दिखाई दे रहा था. प्लेटफार्म पर दूधिया ट्यूबों की रोशनी मच्छरों से छितर रही थी. इतने में एक यात्री प्रवेश करते हुए झिण्ड सा लगा और सामने बर्थ पर सिकुड़ कर बैठ गया. मैं तो अपने आप बतिया रहा था- देखो उजाला नहीं तमाशा है. क्या फायदा ऐसे उजाले से कुछ भी तो साफ नहीं दीखता. मेरी कुछ चुप्पी के बाद उस आदमी ने पूछा- भै साब इस रेलगाड़ी ने नजिमबाद तक जाणा है.
‘हां जायगी, इसमें लखनऊ दिल्ली के डिब्बे हैं’. उसका चेहरा साफ नहीं दिखाई दे रहा था.
-पट्याला का डिब्बा भी होगा.
-‘नहीं’ मैंने उत्तर दिया.
-कहां जाना है’? मैंने पूछा.
– ‘पटयाला जाणा है, आपने तो नी जाणा उधर को. मुझको ठीक पता नहीं चल रहा है’.
– ‘स्टेशन से पता चल जाएगा ट्रेन मिल जाएगी’.
टिकट बाबू ने भी बताया ‘सच बात होगी भै साब’
– पता करेंगे. कहां से आये हो.
– ढाईज्यूली से, दया राम नाम है.
बाहर घुप्प अन्धेरा था पर ट्रेन चलने से डिब्बे में रोशनी तेज हो गयी. छितराये बाल, गहरे सांवले रंग का कद, औसतन उम्र, कमीज में काली फतुगी (वास्कट) मैला पंजामा, हापोज पहने और टल्ली लगे रबड़ सोल थे. दाहिने हाथ में कलाई पर नाले के धागे बंधे, कन्धे में कटपीसों का थैला जिस की गांठ ऊपर टन्न से थी.
(Migration Story Uttarakhand)
दयाराम हाथ पर लटकते हुए धागे को उंगलियों से बंटता कभी दोनों हाथों से बर्थ की मुंडेर पकड़कर उगलियों से बजाता अंगूठी की खट-खट की आवाज करते हुए कभी इधर-उधर, कभी मेरी ओर देखता. मैं उसकी इन सब बातों को अनजान हो देख समझ रहा था. मैंने फिर पूछा- पटियाला कुछ काम है क्या ?
— नहीं, भैसाब नौकरी के लिए जा रहा हूँ. देखो क्या होता है. लोग तो दिल्ली जाते हैं ज्यादेतर, हँसता हुआ मुंह बनाकर बोला. मैं पहले भी रहा हूं और भी हैं अपने लोग सहारा तो है ही वहाँ. मेरी तरफ घूरकर देखते हुए ऐसा लग रहा था कि उसकी योग्यता को सन्देह से देख रहा है. विवशता और अहं मिश्रित अजीब सी तिलमिलाहट उसके चेहरे से झलकने लगी.
भैसाब क्या बोलू समै की बात है. अब तो कुछ भी न समझो. वैसे मैं मशीन का काम जानता हूँ, गाना बजाना भी आता है. डान्सर हूं. कई सालों से रामलीला में पाट खेलता रहा हूं.
-‘फिर क्या’?
इन बातों को कहते हुए बार-बार खांसी भी आ रही थी. बीड़ी की सुट्ट मारते वह कुछ और सोचने लग जाता. उसका मन बहुत कुछ कहने को था.
‘इतने सारे काम आते हैं तो भटकने की जरूरत क्या? धक्के भी तो खाने पड़ सकते हैं परदेश तो परदेश ही ठहरा.
दयाराम उदासी घोलते हुए बोला- ये बात तो है भै साब, पर अपनी-अपनी बीपदा है. कौन क्या जाने पर हमारे यहां तो जो परदेश रहता है उसी की बड़ी ईज्जत करते हैं. जरा सुकिले (चमकीले) कपड़े पहने दो चार इधर-उधर की बोली, फिर तो क्या कहने. पर सब पर ये बात नहीं होती. यहाँ कैसा भी हो उसे घरगुदड़या ही कहते हैं. मैंने भी सोचा चलो चार दिन फिर इधर ही सही. काम बनने पर बात है.
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-अब तो गांवों में भी सहूलियतें हो रही है. पहले जैसी बात तो नहीं. काम की भी कमी नहीं होगी फिर क्यों.
-ये बात तो है पर…
– कैसा डान्स करते हो?
– पतले पत्थरों की छोटी पटरी बनाकर दोनों हाथों में अलग-अलग बजाकर ताल निकालता हूँ और उसी में भजन गाता हूं. कांसी की थाली में दिया जलाकर नाचता हूँ. ऐसे भौत ऐटम हैं. खूब गम्मत होती है. उसमें पर जिसकी किस्मत में परेशानी होती है वह जन्म से ही लग जाती है. बोलना भी क्या है. माँ दो ढाई साल का छोड़ गई बाप ग्यारह साल में. गमत वाला आदमी था मेरा बाप साथ रहकर ही यह सीखा, और कोई था नहीं चचेरे भाईयों के साथ जैसे-तैसे रहा. स्कूल भी देखा पर नाम को ही.
एक बार हमारे यहां से ढाईज्यूली बारात गयी. रात को गमत थी. मैंने भी खूब भजन गाये. डान्स किया. तब तो मैं गिट्टा सा था. आवाज और तरज भी बढ़िया थी ब्रह्मानन्द भजन माला के कई भजन याद हो गए थे. झुलमुल-झुलमुल रात खुली हम गांव के गरीब दास के यहाँ बैठ गए. कुछ देर बाद एक जवान लड़की गिलासों में चाय लेकर आई और देकर सड़ाम से चली गयी, गरीबदास मशीन भी चला रहा था. चाय पीने के बाद मैंने कहा- जरा मशीन मुझे दो और गर-गर-गर्र सीने लगा. बिन्दी चाय का गिलास थमाते हुए मुल्ल तो हँसी थी. मुझे लगा कि रात गम्मत में जरूर रही होगी.
गरीबदास हुक्का सुड़कते हुए मुझे देख रहा था और मेरे बारे में भी पूछता. मशीन और बातें साथ-साथ चल रही थी इतने में बिन्दी कपड़े का टुकड़ा लेकर आयी. बोली कुर्ता (पहाड़ी ब्लाउज) सिल दो.
‘रहने दे इसे अभी और बहुत काम है’ गरीबदास झिड़ककर बोला. उसे कुछ बुरा सा लगा और कपड़ा उठाकर ले जाने लगी.
-हो जायेगा रख दो यहां मशीन का हैण्डल जोर से घुमाते हुए मैंने कहा. मैंने फटाफट ब्लाउज भी सिला. वह जरूर बोलने लगा-आते रहना यहां. तब मुझे पता नहीं था कि मेरे बारे में चचेरे भाई से भी कुछ बातें हो सकती हैं. कुछ दिनों बाद मैं पट्याला चला गया. दो ढाई साल बाद घर आया तो बिन्दी से मेरी बात चल गयी. उस समय मेरे में बात ही कुछ और थी. उनको भी क्या चाहिए था. बिना माँ-बाप का छोकरा मिल गया सोचा अब जाऊँ तब जाऊँ पर घर में ही घिर गया. काम धन्धे मिले. चल्ती भी खूब हुयी आज यहाँ कल वहाँ. खाली में कभी-कभी स्लीपर बगान में भी काम करता. गुजारा तो चला पर धीरे-धीरे बस्स…
(Migration Story Uttarakhand)
साल जाने में क्या देर लगती. पर इस बार तो मैंने अपनी घरवाली से भी कह दिया. रामलीला हुयी और मैं गया. रात मैंने ऐटम किये और सुबह झोला उठाकर पलैन (पलायन). आज हो रहा होगा वहां राजतिलक और मैंने अपना बुणवास (परदेश) कर दिया. अब जब पांव बाहर निकाल ही दिये तो जो भी होगा’.
दयाराम के चेहरे पर घर बच्चों की याद और भविष्य का अनिश्चय साफ झलक रहा था. पता नहीं चला. ट्रेन छुक-छुक करती नजीबाबाद पहुंच गयी.
भड़क्क से ट्रेन रुकी मैंने कहा ‘ओ सामने है ट्रेन खड़ी जल्दी जाओ मिल जायेगी’.
दयाराम हड़बड़ा कर उठा. थैला उसके कन्धे में ही था डिब्बे के पायदानों में पाँव रखते हुए बोला अच्छा भैसाब’ और वह प्लेटफार्म पर हाकरों की आवाजों और यात्रियों की भीड़ में खो गया. लेकिन दया राम का राज तिलक के दिन न रहने का दुःखी चेहरा मेरी आंखों से ओझल न हो सका कि क्या कभी फिर वह राज तिलक में सम्मिलित हो सकेगा.
(Migration Story Uttarakhand)
योगेश पांथरी
योगेश पांथरी की यह कहानी ‘श्री लक्ष्मी भंडार हुक्का क्लब, अल्मोड़ा’ द्वारा प्रकाशित प्रतिष्ठित पत्रिका पुरवासी के 1992 के अंक में छपी थी. काफल ट्री में यह लेख पुरवासी पत्रिका से साभार लिया गया है.
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