कॉलम

माइकल चाचा का मर्म

ललित मोहन रयाल

उत्तराखण्ड सरकार की प्रशासनिक सेवा में कार्यरत ललित मोहन रयाल का लेखन अपनी चुटीली भाषा और पैनी निगाह के लिए जाना जाता है. 2018 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘खड़कमाफी की स्मृतियों से’ को आलोचकों और पाठकों की खासी सराहना मिली. उनकी दो अन्य पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य हैं. काफल ट्री के नियमित सहयोगी.

 

चाचा बहुत ही चौकन्ने रहते थे. उनके मोहल्ले में बीस-पच्चीस घर रहे होंगे. आधी रात में भी वे मोहल्ले की सुरक्षा के प्रति एकदम सचेत रहते थे. बेहद चिंतित और बेचैन. हालांकि उस समय वे पी हुई अवस्था में पाए जाते थे लेकिन खुद को काफी मुस्तैद समझते थे. मोहल्ले के एकमात्र रक्षक. कम-से- कम उनकी खुद की ऐसी मान्यता हुआ करती थी. पीकर जब लौटते, आधी रात बीत चुकी होती. जिस भी घर के पास से गुजरते, उसका दरवाजा भड़भड़ाते. बाकायदा खुलवाते. कच्ची नींद में अंदर से कोई-न-कोई जाग ही जाता था. चाचा की  लड़खड़ाती जबान फुल वॉल्यूम में सुनता. चाचा, जगा-जगाकर केस्टोवाले(सिनेमा वाले) लहजे में कुछ अलर्टनुमा सवाल पूछते थे, जिनका भावानुवाद कुछ इस तरह से बताया जाता था- “तुम इतने लापरवाह क्यों हो. मैं तुम्हें कितनी बार समझा चुका हूँ, एकदम चौकस रहना चाहिए. सोते हुए भी होशियार रहना चाहिए. मूरख कहीं के. कुछ चोरी हो गया तो कौन जिम्मेदार होगा. मुझ अकेले ने तुम्हारा ठेका नहीं ले रखा है.”

इस बर्ताव पर टोके जाने पर चाचा बुरा मान जाते. खिसिया जाते. जागने वाला जानता था कि इनके साथ इस समय उज्र की, तो पूरी नींद खराब किए बिना नहीं मानेगा. शराबी की टेक. एक बार लग गई तो लग गई. मामला तूल पकड़े बिना नहीं रहेगा. डायलॉग भी जबान को मोड़ दे-देकर बोले हुए. जो समझने में वक्त बहुत माँगते थे. अतः श्रोता फौरन से पेश्तर उन्हें विदा करने में भलाई समझते. तूल पकड़ता मामला हमेशा लंबा खिंच जाता है. अतः स्थिति को सहज करते हुए कहते, “हाँ चाचा! बस तुम्हारी वजह से हम बेखटके सो पाते हैं. बस एक तुम्हारा ही सहारा है.” यह सुनते ही चौकन्ने चाचा आश्वस्त होकर आगे बढ़ जाते. रोज किसी-न-किसी का नंबर लगाते. इस तरह से आधी रात में, मोहल्ले में शोर मचा- मचाकर, वे शांति- सुरक्षा स्थापित किए रहते थे. इस बात की उन्हें भरपूर तसल्ली सी रहती थी कि मेरे कारण बहुत कुछ होता है. वो तो मैंने सब संभाला हुआ है, वरना…’ भूमंडल थामने पर जो तृप्ति और संतोष का भाव रहता है, वही भाव. साक्षात् शेषनाग वाली भावना. संभवतः इस तरह की कारगुजारी से उन्हें अपने अस्तित्व और अर्थ का बोध होता था. उनके मन को चैन मिलता बल्कि उनका मन-मयूर नाच उठता.

मोहल्ले की रात्रि-सुरक्षा को वे अपना कॉपीराइट जैसा मानते थे. आधी रात जब उनके पीकर लौटने का टाइम होता, तब तक लोग गहरी नींद में सो रहे होते. इस दृश्य में चाचा की सुरक्षा की ललक एकाएक बढ़ जाती थी. यह नायाब सुनहरा मौका उन्हें रोज मिल जाया करता था क्योंकि उनके लौटने का यही समय होता था. कारण जो भी रहा हो, पर तथ्य यही था कि वे अंधेरे में अपनी नशीली आंखों से गाँव की सुरक्षा पर पैनी नजर रखते थे. आवाज ऊँची करके सोये हुए संसार को चेताते जाते- “स..ब स्सा…ले, सो ..र.हे हैं. कु..छ हो ग् ….या तो कौ…औ..न जु…म्..मे..दा..र हो..गा. फी..ई..ई..र क..हें..गे…”

कुछ घरों में बोर्ड कक्षाओं में पढ़ने वाले लड़के अभी तक जगे ही रहते थे. गली में चाचा का शोरगुल सुनते ही लड़के पढ़ना-लिखना मुल्तवी कर देते और अपने भाईयों से कहते, “लो भैया, आ गए माइकल चाचा. अब कुछ देर बिना टिकट के मनोरंजन कर लो.” दरअसल उन दिनों टेलीविजन पर अमिताभ बच्चन की मजबूर(1974) पिक्चर देखी गई थी. ‘मजबूर’ में प्राण साहब ने माइकल का किरदार निभाया था, जो सड़क पर ‘माइकल दारू पी के दंगा करता है’ गाने में दर्शकों को खूब भाए. गाँव में एक बहुत बड़ा मैदान था. शाम होते ही लड़के वहाँ हॉकी, फुटबॉल खेलते थे. अंधेरा होने पर उसी मैदान में जफड़ी जमती. कई टोलियाँ यहाँ-वहाँ पर बैठी मिलतीं. उम्र और टेस्ट के हिसाब से सबकी अपनी-अपनी विषय-चर्चा. इंटरनेशनल रिलेशन से लेकर सिनेमा तक. धर्म-अध्यात्म-जादू-तिलस्म से लेकर गाँव के पच्चीसों किस्म के किस्सों तक. समसामयिक घटनाओं के नए-नए एंगल. कोई टोली मैदान के कोने में सुट्टा खींचने में व्यस्त रहती, तो कोई मोमबत्ती की लौ में पत्ते खेलने में मगन. यह तो उस मैदान का ‘रूटीन’ वर्णन हुआ. उस दिन की खास बात यह थी कि, अच्छा-खासा अंधेरा हो चला था. सहसा मैदान के बीचों-बीच माइकल चाचा अवतरित हुए थे टुन्नावस्था में ही. पहले तो उनके ‘श वर्गीय व्यंजन’ के स्थान पर लंबी सीटी की आवाज सुनाई दी, फिर कुछ टूटे- फूटे शब्द. फिर सिसकारी. फिर भग्नाक्षर. शर्तिया वे माइकल चाचा ही थे. एक लड़के ने अनुमान लगाया, ‘माइकल चाचा, यहाँ सुस्ताने के लिए बैठे हैं. शायद खुमारी उतारने के लिए. घर पहुँचने से पहले चुस्त-दुरुस्त हो जाना चाहते हों. बिना शराब पिये, शराबी की एक्टिंग करना काफी मुश्किल होता है. पीकर, ना पिए हुए की एक्टिंग करना उससे भी ज्यादा मुश्किल पड़ता होगा. शायद चाचा इस समय इसी संकट से जूझ रहे हैं.’

उसी समय किसी फुरसतिए को उनसे चुहल करने की सूझी. तमाशाइयों की कमी न थी. कुछ तमाशा प्रेमियों ने तो उसका साथ देने का वचन भी दे दिया. अतः वह कुछ ही देर में पाँच-सात टॉर्च की व्यवस्था कर लाया. प्लॉट कुछ यूँ था- घनघोर अंधेरे में टॉर्च का फोकस, चाचा पर चमकाते हुए ‘पुलिस आ गई, पुलिस आ गई’  चिल्लाना था. तमाशा- प्रेमी इस योजना से अभिभूत थे. अतः योजनानुसार, कुछ फुरसतियों ने चोर-पुलिस का खेल खेलते हुए सभी टॉर्चों का फोकस, एकसाथ माइकल चाचा के ऊपर झोंक दिया और ‘पुलिस आ गई, पुलिस आ गई’ का शोर मचाना शुरू कर दिया. यह सुनकर माइकल चाचा के बगल में बैठी टोली, सरपट भाग निकली. चाचा की प्रेरणा के लिए इतना काफी था. रोशनी में स्पष्ट दिखाई पड़ा कि पहले तो चाचा के चेहरे पर हैरत भरे भाव उभरे. फिर आस-पड़ोस में मची भगदड़ को देखते हुए असमंजस का भाव. उनके चेतन से अचेतन तक खलबली मची हुई थी. चाचा के मुँह से निकला मर्मस्पर्शी उद्गार सबने सुना- ‘पु…ई..स.’    फिर उन्होंने उठने की भरसक कोशिश की, लेकिन हड़बड़ी में वे उठ न पाए. तो मजबूरी में उन्होंने घुटनों के बल ही दौड़ना चालू कर दिया. उनका यह भागने का प्रयास, एक किस्म का निष्फल प्रयास ही कहलाएगा. मुँह के बल लेटकर, कोई कितनी दूर तक भाग सकता है. हालाकि उन्होंने अनजाने में ही सही, नीचे- नीचे भागते हुए, भागने की कला में एक ऊँचे किस्म का प्रयोग दर्ज कर डाला. रेंगकर अथवा दंडवत् होकर दौड़ने का यह एक किस्म से अभिनव प्रयोग था. इस तरह से उन्होंने ‘एथलेटिक्स’ के क्षेत्र में न केवल एक नयी विधा का आविर्भाव किया अपितु तमाशबीनों का ‘फ्री फंड’ में अच्छा-खासा मनोरंजन भी किया.

चाचा मौजी आदमी थे. दो-चार लोग हरदम उनके साथ लगे रहते थे. इसी वजह से उनके दोस्त कहलाते थे. खेतों के किनारे, नदी-किनारे अथवा जंगल-किनारे, वे अक्सर देशाटन के लिए निकल पड़ते. चूँकि ये स्थान एकांत में पड़ते थे और दुनिया की नजर से महफूज रहते थे. इन प्रोग्राम्स में अक्सर देशाटन-उद्देश्य गौण हो जाता था, इसके बरक्स आसव-पान का आकर्षण ज्यादा जोर मारने लगता था.

उस दिन का आमोद-उत्सव खेतों के किनारे जमा. जो विधिवत् चला. रंग-बिरंगे जंगली फूल, पेड़-पौधे, नदिया किनारा. जबरदस्त शमाँ बँधा हुआ था. उमरखैयामी वातावरण सजीव हो उठा. इधर बोतल ढ़लती गई, उधर उनका प्रकृति-प्रेम गहराता गया. प्राकृतिक-सौंदर्य में ईश्वर का वास यूँ ही नहीं बताया जाता है और फिर नीमनशे में तो क्या कहने. सब उल्लास में थे. मुग्ध होते-होते वे भावुक होते चले गए. उधर मामला खल्लास. टोली ने रंग में भंग जैसा अनुभव किया. आमोदजीवी अतृप्त रह गए. और पीने की इच्छा बलवती हो उठी. जेबें टटोलने पर पता चला कि घनघोर अर्थाभाव मुँह बाए खड़ा है. अब क्या हो. दारू अंदर पहुँचकर कामभर का असर पैदा कर चुकी थी. और पीने की चाह निरंतर जोर मारने लगी. एक ने इसरार करते हुए जताया- “थोड़ा और का जुगाड़ हो जाता तो, कसम से मजा आ जाता.”

शराबियों की दोस्ती थोड़ी अनूठे किस्म की होती है. किसी दोस्त ने डिमांड की नहीं कि, समकक्ष डिमांड पूरी करने को उतावले होने लगते हैं. भावुकता के दौरे पड़ने लगते हैं. पहले ही कुछ अंदर गया हो तो फिर क्या कहने. नशा, सचमुच थोड़ा सा कम पड़ा था. बस यूँ मानिये कि वे अभी सलीके से पैरों पर खड़े होने लायक बचे थे. जबतक ‘भूपतित’ होने की अवस्था को प्राप्त न हों, तबतक पिया तो क्या पिया. फलस्वरूप ‘कुछ और ‘व्यवस्था’ होनी चाहिए’ का आग्रह जोर मारने लगा. आम सहमति बनते ही ‘ये दिल माँगे मोर’ का जोर ठाठें मारने लगा. पर ‘व्यवस्था’ कहाँ से हो, किस तरह से हो’ का प्रश्न अनुत्तरित ही रह गया. इसी उधेड़बुन में उन्होंने नदी किनारे नजर डाली. तभी एक हृष्ट-पुष्ट भैंसे ने एकसाथ उन सबका दिल चुरा लिया. ‘जफड़ी’ की नजर उस पर जाकर जमी रह गई. वे चुंबकीय आकर्षण से खिंचे-खिंचे उसकी ओर चल पड़े. पास पहुँचकर हर ऐंगल से उसका जायजा लिया. आसपास देखा. कोई रखवाला नजर न आया. नशे का असर चालू था, जिसे वे जारी रखने की गहरी हसरत पाले हुए थे. अतः इस समय वे किसी किस्म की रियायत के मूड में नहीं थे. सो उन्होंने उसका ‘ज्वाइंट मालिक’ बनने की ठान ली. शराब के प्रभाव में चमत्कारिक प्रतिभा और साहस को तो सभी विद्वान एकमत से सराहते आए हैं. परस्पर, हिम्मत की दाद देते-देते उन्हें थकान हो आई. अब सामूहिक निर्णय लेने में देरी करना मुनासिब नहीं था. नशे की गिरफ्त में निर्णय-क्षमता अद्भुत हो जाती है. सारी कायनात  अपने कब्जे में लगने लगती है. एकस्वर से महिष महाराज का सौदा करने का निर्णय तय पाया गया. इस तरह की दोस्ती में एक खास बात पायी जाती है. आप चाहो न चाहो, साथ तो देना ही पड़ता है. शराबी यार, स्नेह उड़ेलकर प्यार जताते हैं. बात की शुरुआत ‘अपने भाई के लिए जान लड़ाने’ से करते हैं. आप चाहें न चाहें, ऐसे दोस्त आपको अपने मनचाहे मार्ग अर्थात् अपने सोचे हुए मार्ग पर घसीटते हुए ले चलते हैं. आपको मुरव्वत में साथ देना ही पड़ता है.

इस प्रकार वह टोली महिष महाराज को हाँकने लगी. वे उसे हाँकते ही चले गए. शुरुआत में तो भैंसे ने टोह लेने की चेष्टा की. हाँकने वाले उसे ‘मालिक’ जैसे तो नहीं दिखे, न ही जान पहचान वाले लगे. फिर न जाने उसे क्या लगा कि उसने किसी किस्म का कोई विरोध या प्रतिरोध करने के बजाय, सहयोग करने की ठानी. ‘चले चलते हैं, अपने बाप का क्या जाता है. यहाँ भी टहलना हैं. थोड़ा लंबा टहल आते हैं. आज लंबा रौंड ले ही लिया जाए.’ की भावना के साथ वह आगे-आगे चलने लगा. उसका यह सहयोगात्मक रुख उन्हें काफी अच्छा लगा. बेचारे ने मारपीट की नौबत तक नहीं आने दी. इस तरह से खरामा-खरामा चलते-चलते वे हाइवे तक जा पहुँचे. वहीं पर एक ‘झाला’ था. जिसमें कुछ पशु-व्यापारी रहते थे. डौल जमते ही उन्होंने उसका सौदा कर डाला. क्रय-विक्रय के सिद्धांत के अधीन राशि हाथ लगी- नकद डेढ़ सौ रुपये. हार्ड कैश लेकर उसे व्यापारी के सुपुर्द कर दिया गया. सौदा निपटने तक उन्होंने नशे को किसी तरह से पेंडिंग में डाला हुआ था.

जैसे ही रोकड़ा जेब में गया, मन एकदम ताजातरीन हो उठा. ‘विटामिन एम’ की महिमा यूँ ही निराली नहीं बताई जाती है. खोया हुआ कॉन्फिडेंस अपने आप लौट चला आता है. बात की बात में वे ठेके पर जा पहुँचे. दो बोतल खरीदी. बचे हुए पचास रुपए में मुर्ग-मुसल्लम. फौरन अपने पूर्व स्थान पर पहुँचकर उन्होंने पेंडिंग में रखे गए आमोद उत्सव को आगे बढाया और उसे पूरे रास-रंग के साथ संपन्न किया. भगवान बड़ा कारसाज़ है. उससे आगे का दृश्य कुछ यूँ बन पड़ा.

महिष स्वामी बड़ा जोरदार आदमी था. वह हमेशा नंगे पांव रहता था, लेकिन हर विवाद में, हर जगह मौजूद मिलता था. अंदर की बात ताड़ने में एकदम माहिर. उड़ती चिड़िया के पर गिरने का शौकीन. दीवानी और फौजदारी के मुकदमों में अच्छा खासा हुनरमंद. इन कारणों से वह अक्सर दुःखी और व्याकुल रहता था. ‘अंधेर मचा रखी है छोडूंगा नहीं’ मंत्र का निरंतर जाप करता रहता था. इस समय वह ठेके के ठीक बाहर बैठा हुआ था. शायद खुली कैंटीन में कोई दावत चल रही थी. वहाँ पर वह मुफ्त की दावत उड़ा रहा था. लगेहाथ स्ट्रैटेजिक पोजीशन पर बैठा, हाईवे की आमदरफ्त पर पैनी नजर गड़ाए बैठा था.एकदम मौन और विचारमग्न. चेहरा कुछ-कुछ खिन्न सा. शायद पीते-पीते दुनिया की दुर्दशा पर सोच रहा था, अहर्निश चिंतन. वह विकट चिंतक था. अब तक वह दो भारी-भारी पैग उदरस्थ कर चुका था और तीसरे के बारे में सोच रहा था. लूँ या न लूँ. घर भी लौटना है. तभी उसे ‘हीरा’ को हाँकते हुए घर ले जाने का कर्तव्य स्मरण हो आया. तभी एक चमत्कार घटा, जो उसे ईश्वरीय चमत्कार से से कम नहीं लगा. वह हीरा को याद ही कर रहा था कि हीरा उसे हाइवे के किनारे खड़े मिनी ट्रक पर सवार दिखाई दिया. उसे सहसा विश्वास न हुआ. हैरानी की ही बात थी. उसने आंखें मींचकर फिर से देखा. तत्पश्चात् भेदभरी दृष्टि से देखा. इस समय हीरा नायलॉन की पीले रंग की रस्सी से जकड़ा हुआ खुले ट्रक में सवार था. यह देखकर वह व्यक्ति अवाक् सा रह गया और उसका नशा काफूर हो चला. पीने से मन और शरीर पर जो यथोचित प्रभाव पड़ा था, वह प्रभाव जाता रहा. बल्कि आकस्मिक रुप से गायब ही हो गया. उसने सोचा, ‘हीरा शौक पूरा करने तो ट्रक में चढ़ा नहीं होगा. उसके स्वेच्छा से ट्रक में चढ़ने का सवाल ही पैदा नहीं होता था. न तो उसे यात्रा का शौक था, न ही देशाटन का.’ यह दृश्य देखकर महिष स्वामी इतना पीड़ित हुआ कि पूछिए मत. उसकी खुलासा जानने की इच्छा तीव्र हो चली थी. अतः नंगे पाँव दौड़ते हुए वह लगभग बिजली की गति से दौड़ा. दो-तीन छलाँग मारते हुए उसने ‘ये जा वो जा’ स्टाइल में हाईवे को पार किया और ट्रक के पीछे जा पहुँचा. ‘ऐसा क्यों हुआ’ के गहन तत्व का पता लगाना उसे निहायत जरूरी जान पड़ा. नजदीक जाकर उसने हीरा को अर्थपूर्ण नजरों से झाँका. उसका पृष्ठभाग तो सहजदृश्य था, मुँह नहीं दिखाई दिया. पशुओं को इस ‘पॉश्चर’ में शायद इसलिए यात्रा कराई जाती है, ताकि उनकी एकाग्रता में भारी यातायात से किसी किस्म का विघ्न न पड़े. अर्थात् वे बिदकने से बचें. मालिक के मन में इस समय भारी उथल-पुथल मची हुई थी. अपने भावों को किसी तरह संयत करते हुए उसने आवाज दी, “हीरा! बेटा हीरा!” स्वर मार्मिक था. अतः हीरा पर वांछित असर पैदा करने में सफल हुआ. बेहद संक्षिप्त सा जवाब आया, “ह्वांईईं….”

अपने हाथों से पालित हीरा की आवाज सुनकर उसका कलेजा मुँह को आने लगा. बड़ा हृदयविदारक दृश्य था. अब चाहे इसे विधि की विडंबना कहिए या किस्मत का खेल अथवा माथे पर लिखा गया भवितव्य. अगर ट्रक चल दिया होता तो क्या होता. वह तो हीरा की ही किस्मत कहिए कि इस समय वह ‘इंतजार करो और देखो’ की नीति के तहत रुका हुआ था. चूँकि उसका ‘नया मालिक’ रवन्ना कटाने की फॉर्मेलिटी कर रहा था अर्थात् सामने ही थाने में जूझ रहा था. अब तक असली मालिक के हृदय में इतना रोष जमा हो चुका था कि उसका उद्गार अचानक फूट  पड़ा. संयम खोते ही वह ड्राइवर के केबिन में जा पहुँचा और सड़क से ही उसका गिरेबाँ खींचकर उसे सड़क पर खींचने लगा. खूब हील हुज्जत हुई. पहले तो ड्राइवर को समझ ही नहीं आया कि यह क्या हो रहा है. धरती पर प्रस्थान करते हुए उसने विचार किया कि आखिर उसका कसूर क्या है. वह पूछता भर रह गया. इधर भैंसा- मालिक आपे से बाहर. वह कुछ बताने के बजाय उसे ‘बजाने’ में ज्यादा रुचि ले रहा था. हल्लागुल्ला सुनकर थानेवालों ने घटनास्थल की ओर दौड़ लगा दी. दोनों गुत्थमगुत्था थे.किसी तरह से उन्हें अलग किया गया. तत्पश्चात् छोटे दरोगा ने सवाल किया, “हाँ भई, इब बता के मामला है. क्यों पिला पड़ा है, उसपे?” भैंसा मालिक ने जवाब दिया,”साब!मैं मालिक. ये मेरे हीरा को ‘अनलीगली’ ले जा रहा था.” इस बीच नया मालिक रवन्ना लहराते हुए बोला, “साब, नकद पैसे देके झोट्टा खरीदा. बकायदा हुलिया लिखाके अबि-अबि थाणै से रवन्ना कटाया.” “लेकिन इसका मालिक तो मैं हूँ.”

फिर से घपला मच उठा. छोटे दरोगा ने किसी तरह दोनों पक्षों को शांत कराया. शायद अब मामला उसे समझ में आना शुरू हुआ. न्याय करने की नीयत से उसने वही पुराना जनप्रिय दाँव खेलना चाहा, जो उसने कभी बचपन में राजा-रानी की कहानी में सुना था. “तू इतने यकीन से कैसे कैरा कि तू ई मालिक है.”

मालिक ने बताया, “जी, इसका नाम हीरा और मैं इसका मालिक.”

“इससे तो कुछ भी साबित नी होया भई, कहाँ साबित होरा कि ये तेरा है.” जानवरों में हमशक्ल होने और कइयों की एक जैसी सूरत होने की आशंका जाहिर करते हुए दरोगा जी ने उसे कड़ी फटकार लगाई.

“जानवरों की शकल भी तो एक जैसी हुआ करे.” कहते हुए दरोगाजी ट्रक पर चढ़ गए. उन्होंने सघनता और तल्लीनता से झोट्टे का बारीकी से निरीक्षण किया. फिर उसे हीरा-हीरा कहकर पुचकारा. उधर सन्नाटा पसरा रहा. शायद पुलिस को देखकर भैंसा स्वयं संकोच से गड़ गया. बेचारा बमुश्किल अपनी बेचैनी को एडजस्ट कर पा रहा था. “बता रे, ये तो कुछ ना बोल रिया. अब तो तू ये बता कि ये तेरा कैसे हुआ.”

मालिक को पड़ती डाँट सुनकर ‘झोट्टे’ का सबकुछ बयान करने का मन होने लगा. लेकिन इस हसरत को पूरा करने में एक टैकनीकल अड़चन पड़ती थी-वह भगवान की इच्छा के खिलाफ कैसे जा सकता था. मूक पशु का ईश्वरीय विधान के विरूद्ध जाना असंभव था. झोट्टे ने सोचा, ‘काश मैं खुदमुख्तार होता तो पूरा का पूरा एपीसोड बयाँ कर डालता.’  इधर पुलिस के ‘मृदु व्यवहार’ से मालिक सकते में था. अब उसे उसी का सहारा था, जो खुद दूसरों के सहारे ट्रक पर चढ़ा हुआ था और इस शौक के चक्कर में हलकान हुआ जा रहा था. समर्थन पाने के इरादे से मालिक ने एकबार फिर से हीरा की तरफ देखा. अपने दावे को साबित करने की सारी जिम्मेदारी, अब हीरा और उसके मालिक पर आन पड़ी. एकबारगी मालिक को यह डर सताने लगा कि ‘ऐन मौके पर कहीं हीरा शर्माने ना लगे या संकोच में ना पड़ जाए. अगर यह मासूम या अनजान होने की एक्टिंग करने लगे तो मैं तो कहीं का नहीं रहूँगा. क्या मैं इसके लच्छन नहीं जानता हूँ.’ दरोगा जी की चुनौती ने उसकी चिंतन प्रक्रिया में फिर से बाधा डाली, “अरे भई, क्यों अटका रा. बता सटाक से.” पुलिस से इस तरह का ‘प्रोत्साहन’ पाकर उसने मुलायमियत के साथ हीरा को पुकारा, “बेटा हीरा! बेटा हीरा!” हीरा पर इस पुकार का बड़ा ही वाजिब असर पड़ा. मालिक के मन में चल रही आशंका के विपरीत वह काफी स्पष्टवादी निकला. सो उसने बेखटके नॉनस्टॉप जवाब दिया, “ह्वांईंईं.. ह्वांईंईं… ह्वांईंईं…” प्रभाव जमाने के इरादे से उसने फिर पुकारा तो उधर से जवाब फिर से दोहराया गया . इस जवाब में हामी, पहचान, गुहार-पुकार, सखा-भाव सब कुछ एकसाथ था. भैंसे की पुकार थी भी इतनी जोरदार कि अगर मापने की कोशिश करते तो कम-से-कम पाँच-सात सौ डेसीबल निकलती. मानो भरी सभा में बिना माइक के बोल रहा हो. इसके बावजूद उसके स्वर में एक अजीब किस्म की सी तड़पन थी. एकदम भावविह्वल स्वर. इतने जोरदार रेस्पोंस से उसने अपने मालिक के ऊपर ऐसा स्नेह उड़ेला कि सब के सब भीग गए. क्रेता से लेकर पुलिस तक सब. इस दृश्य का सब पर जगजाहिर प्रभाव पड़ा. ऐसे सीन की उन दिनों बड़ी ‘मार्केट’ वैल्यू होती थी. पुलिस को असली मर्म समझते देर न लगी. अतः छोटे दरोगा ने रवन्ना वाले को थपड़ियाते हुए पूछा, “क्यों बे, कहाँ से उड़ा लाया.”

फिर उसे जवाब देने के लिए कुछ देर तक घूरा. हिंदी साहित्य में एक मूर्धन्य विद्वान ने काफी समय पहले यह सिद्धांत स्थापित किया था कि, ‘पुलिस के घूरने भर से शरीर में नीलगू निशान उभर आते हैं.’ इस हमले से वह उखड़ गया. हीरा की गवाही से वह पहले से ही उखड़ा हुआ था. फिर पुलिस के एकटक घूरने से तो अच्छे-अच्छे उखड़ जाते हैं. दरोगा जी तो डायरेक्ट एक्स-रे अल्ट्रावायलेट टाइप की किरणें फेंक रहे थे. अतः उसने हालात- हुलिया बयान करने में देर न की. खरीद की लिखी हुई कच्ची रसीद भी दिखाई और अतिरिक्त सूचना देते हुए बताया कि ‘वे अच्छे-खासे सुरूर में थे और पैसे लेकर इसी तरफ आए.’ यह सुनकर छोटे दरोगा अपनी पुलिस वाली रौ में आ गए. ठेका सामने ही पड़ता था. सेल्समैन छोकरे को बुलाकर उन्होंने पूछताछ शुरू की. हुलिए के आधार पर उसने भी ग्राहकों की तस्दीक की. चूल-से- चूल मिल चुकी थी. माल-मुकदमाती बरामद, इतने सारे चश्मदीद गवाह. पुलिस को और क्या चाहिए. क्राइम केस टोटली सॉल्व था, बस मुलजिमान के नाम भर पता लगाने शेष थे. उधर माइकल चाचा और उनकी टोली को न तो इस डेवलपमेंट की सूचना थी, ना ही चिंता. वे साधनारत थे और आनंद में गले-गले तक डूबे हुए थे. दोस्ती परवान चढ़ती जा रही थी. भैंसा मालिक की तहरीर के आधार पर मुकदमा दर्ज कर लिया गया. नाम-पता मालूम न थे, इसलिए अभियुक्त के कॉलम में ‘अज्ञात’ दर्ज कर लिया गया. उसे ‘ज्ञात’ में बदलना तो पुलिस के लिए बाएँ हाथ का खेल था. कुछ ही देर में नाम-पता मालूम चलते ही मुकदमे का सिलसिला चल निकला. पुलिस ने सबसे पहले ‘क्राइम स्पॉट’ अर्थात् उस स्थान का मुआयना करना जरूरी समझा, जहाँ पर भैंसा चर रहा था. पुलिस जब वहाँ पहुंची तो उन्हें इस बात पर घोर आश्चर्य हुआ कि मुलजिमान मौके से नदारद थे. हाँ, उत्सव-स्थल अवशेषों से जरूर खचाखच भरा हुआ मिला. शायद तुरीयावस्था में ही उन्हें किसी अनहोनी के संकेत मिल चुके थे. सिग्नल पाते ही वे घटनास्थल से फौरन रफूचक्कर हो लिए. पुलिस डेरा डाले रही. माइकल चाचा न तो घर पर मिले, न बाहर. पुलिस सोचती रही- ‘कौन गली गए मोरे श्याम.’ बीट के पुलिस-प्रवक्ता के मुताबिक वे किसी अप्रत्याशित दिशा में भाग निकले. फिर भी उन्होंने तलाशी में कोई कसर नहीं रख छोड़ी. तो पुलिस, माइकल चाचा को गलियन में, कूजन में, बगियन में ढ़ूँढने लगी. उधर माइकल चाचा नाचते-कूदते, जंगल-जंगल प्रकृति से साक्षात्कार करते रहे. वैसे भी वे तो पैदाइशी देशाटन-प्रेमी थे.

पूस का महीना. रात की भयंकर ठण्ड. पेड़ ओस से भीगे होते थे. पत्तियों से पानी टपकता रहता. इस मौसम में माइकल चाचा फरारी काट रहे थे. मजेदार और हैरतअंगेज बात यह थी कि वे फरारी की औपचारिकताओ के बीच में छुप-छुपाकर देर रात मोहल्ले में पहुँचते. हिचकिचाहट का नामोनिशान तक नहीं. हाँ, हिचकियाँ लेते हुए मुहल्ले वालों को जरूर चेता जाते,

“सब…स्साले.. सो रहे.. हैं….मेरी.. इकेले …जु..जु..जुम्मेबरी..है..क्या. कुछ..हो..ग्या..तो.”

भले ही प्रत्येक संवाद को वे किश्तों में पूरा करते हों, लेकिन थे ‘कमिटेड’ किस्म के इनसान. हाड़कँपाती सर्दी में भी चिल्ला-चिल्लाकर लोगों को सजग कर जाते. इन दिनों कुछ ज्यादा जोर से चिल्लाने लगे थे. ज्यादा उछलकूद से शायद उनकी सर्दी भाग जाती हो. मौका मिलते ही वे न जाने किस कौशल से अपनी ‘यूनीक’ जिम्मेदारी निभा जाते. लंबे समय तक नदारद रहना या चुप रहना शायद उनकी तासीर के विरुद्ध पड़ता था. लोग उनकी इसी अदा के कायल थे. इन परिस्थितियों में उनके विरोधी भी उनकी इस तरह की ‘स्पिरिट’ को सच्ची और ‘जेनुइन’ मानने को बाध्य हुए.

इस बीच ब्रेकिंग खबर आई कि माइकल चाचा ने कोर्ट में सरेंडर कर दिया है. फिर एक और सनसनीखेज खबर आई कि उन्हें ‘बेल’ मिल गई है. इन उपलब्धियों से, लोगों पर उनका आदर मिश्रित भय छाने लगा. किस्मत का फेर देखिए कि इस बीच उनसे एक भारी भूल हो गई. अपने यायावर स्वभाव के चलते वे ‘बेल जंप’ कर बैठे. इससे पहले उन्हें किसी मुकदमे का व्यक्तिगत अनुभव था भी नहीं. वो तो बस एक बार इस झमेले में पड़े कि बस पड़े ही रह गए. कोर्ट ने उन पर सख्त पाबंदियाँ लगा दीं. उन पर लगातार सख्त निगरानी रखी जा रही थी. उनके मुकाम छोड़ने की सख्त मुमानियत कर दी गई थी. इन प्रतिबंधों के बावजूद उनका ‘नाइट शो’ बदस्तूर जारी रहा- ‘शो मस्ट गो ऑन.’ लड़के मजाक में कहते, “यार सुना! कोर्ट के ऑर्डर से माइकल चाचा का पासपोर्ट जब्त हो गया है. बहुत सख्त जमाना आ गया है.” दरअसल उन दिनों किसी सिनेमा-सेलिब्रिटी के विदेश जाने पर रोक लगी हुई थी.

इसे कहते हैं किस्मत का खेल. इस बीच चाचा को नौकरी के एक के बाद एक ऑफर आने शुरू हो गए. पाँच सितारा होटल से लेकर तीन सितारा तक. माइकल चाचा हुनरमंद बावर्ची थे. वे लंबे अरसे से धीरज धरे बैठे थे. जहाँ-जहाँ से भी बुलावा आया, वह-वह उनकी ‘ड्रीम जॉब’ हुआ करती थी. बढ़िया काम, ड्यूटी का फिक्स टाइम. मांस-मच्छी-कॉकटेल. प्रॉमिसिंग कैरियर. माइकल चाचा की बस इतनी ही तमन्ना थी लेकिन यह ‘विंडफॉल’ हुआ भी तो उस समय, जब उनके स्टेशन छोड़ने पर कानूनी रोक लगी हुई थी. समस्या से निजात पाने के लिए चाचा ने अब ऐसा नुस्खा इस्तेमाल करने की ठानी, जो कभी फेल नहीं हुआ था. उनके खैरख्वाह महिष-स्वामी की शरण में जा पहुँचे. उन्होंने उसे फौरन एक दुनियादारी वाली सलाह दी, “तुम्हारा हीरा तुम्हें मिल गया. कुछ मोती भी गिन लो.” इस नाटकीय संवाद पर उसने अनजान बनने का दिखावा किया तो इन्हें कुछ ज्यादा ही खुलासा करना पड़ा, “तेरा झोट्टा तुझे मिल गया. उसकी कीमत पकड़. झोट्टा तुई रखियो. सौ-पचास ऊपर से और रख. बस इस मामले को यईं पे रफा-दफा कर.” महिष-स्वामी थोड़ा अनूठे किस्म का था और अजीबोगरीब शौक रखता था. जिन दिनों उसका कोई मुकदमा न चल रहा होता, उसे सूना-सूना लगता था. जैसे जीवन में कोई कमी रह गई हो. उसे लगने लगता कि वह  बात पैदा नहीं हो रही, जो होनी चाहिए. उसके आसपड़ोस में रहने वाले एक संभ्रांत व्यक्ति का मत था, “उसे दीवानी और फौजदारी, दोनों तरह के मुकदमे एकसाथ लड़ने का गजब का शौक है. जब उसका कोई मुकदमा नहीं रहता तो वह राहगीरों को सरसरी निगाह से देखता है. उड़ती-उड़ती नजरों से. आशाभरी दृष्टि से निहारता, कि किस पर मुकदमा ठोकूँ. फिर महिष-प्रकरण तो एक तरह से अव्वल वाला मामला है, शुद्ध-खालिस. जिसमें ‘फेब्रिकेशन’ का दूर-दूर तक कोई नामोनिशान तक नहीं है. विशुद्ध चौबीस कैरेट का मामला. आप मुगालते में न रहें. वो ऐसेई कैसे छोड़ देगा.” अन्य लोगों की यह भी मान्यता थी कि, “तुम वक्त बरबाद कर रहे हो. इसने तो मुकदमे लड़ने की जिद सी ठानी हुई है.”

फिर भी उससे संधि के प्रयास जारी थे. उसने प्रकट में दूतमंडल से कहा, “बहुत गलत हुआ. बहुत ही बुरा हुआ. कई बार गलती हो जाती है. जानबूझकर ही नहीं, अनजाने में भी हो जाती है.” इन निरापद वाक्यों को बोलकर, उनके दुःख से सहमत होते हुए भी उसका मत बिलकुल स्पष्ट रहा. उसने फिर दोहराया, “हालांकि मुकदमों में उतार-चढ़ाव तो आते ही रहते हैं. व्यावहारिक कठिनाइयाँ भी आती हैं, लेकिन अब मेरा मन है, तो मुकदमा हो ही जाने दो. हाल-फिलहाल मुकदमा चलेगा और चलता ही रहेगा.” चाचा दो गहरे पाटों के बीच कायदे से फँस गए. बैठे-बैठे क्या करते, कुछ-न-कुछ तो करना ही था. उन्होंने गाँव में ही कुछ काम पकड़ने की ठानी. कोई बड़ा वैवाहिक कार्यक्रम उनके हाथ लगा, जिसमें वे ‘फर्स्ट असिस्टेंट की हैसियत से काम कर रहे थे. रात्रिभोज निपट चुका था. सुबह की तैयारियाँ शेष थी, जो माइकल चाचा के जिम्मे थीं. उससे पहले बावर्ची टीम भोज से निपटना चाहती थी. माइकल चाचा की शागिर्दी में दो-चार असिस्टेंट छोड़ सबको घर चले जाना था. बावर्ची भोज चल रहा था, कॉकटेल भी. ऐसे मौकों पर माइकल चाचा भावुक होने लगते थे. खुद को बिलकुल भी नहीं रोक पाते थे. दचक के पीते थे, अपनी हो या फोकट की. वे पीने में शरमाते-वरमाते नहीं थे. शर्माते होते तो ऐसी नौबत क्योंकर आती. वे तबतक पीते, जबतक जान के लाले न पड़ जाते. फिर जो कोना मिलता, वहीं सो जाते. पीते-पीते वे इतना पी चुके थेे कि, पंगत में बैठे-बैठे ही सुषुप्तावस्था को प्राप्त हो लिए. बहुतेरी कोशिशों के बाद उनके शागिर्द भी घर चले गए. कड़ाके की ठंड थी. माइकल चाचा शीत-निष्क्रियता में जाना ही चाहते थे कि उस घर का एक नौजवान फारिग होने बाहर निकला. तभी उसकी नजर ‘ढ़ेर हुए’ इनसान पर पड़ी. उसने नजदीक जाकर देखा तो टूआईसी बावर्ची. प्राणी को संकट में जानकर उसने दरी बिछाई और चाचा को किसी तरह लुढ़काकर दरी में लपेट दिया. बेचारे ने एक पुण्य का काम यह किया कि ऊपर से ‘पल्ली’ का ओढ़ना भी डाल गया. नौजवान को भोर में याद आया तो उसे चिंता हुई. चार बजे वह यह देखने बाहर निकला कि, माइकल चाचा अभी शेष हैं या स्मृति-शेष हो चुके हैं. माइकल चाचा उस स्थान पर विद्यमान नहीं थे. मौके से अंतर्धान हो चुके थे. इस घटना से उनका ‘धवल यश’ फैलने में देर न लगी- “यार, माइकल चाचा तो बिलकुल ही ढ़ुलान लायक हो जाता है.” “हाँ भई, अब मेहमानों को निभाएँ कि माइकल चाचा का लदान-उतरान करें.” “भाई साहब, ये चाचा तो लदाई-उतराई में बिलकुल भी सहयोग नहीं करता. एकदम निष्क्रिय बना रहता है-निष्प्राण सा. आटे-सरसों की बोरी भी थोड़ा सा सहयोग कर लेती है.”

हालांकि उन्हें मृत्युभोज- तेरहवीं-श्राद्ध के कांट्रैक्ट खूब मिलते रहे. कभी-कभार मुंडन और कर्णबेधन के भी. लेकिन उनकी इस फितरत के चलते लोगों ने उन्हें वैवाहिक कार्यक्रमों से दूर रखना ही श्रेयस्कर समझा. कैरियर में लगे दाग से चाचा चिंतातुर थे. तनाव में एकदम परेशान. एकदिन अंधेरे में, उसी हरे-भरे मैदान में माइकल चाचा अपने फेवरेट पोज में प्रकट हुए. मात्र अभ्यास के सहारे, वे उस टोली की तरफ बढ़े, जहाँ उनके भतीजे के होने की सबसे अधिक संभावना थी. चाचा आहिस्ते से अपने भतीजे के पहलू में जाकर बैठ गए. चल रही बातचीत में उन्होंने विघ्न नहीं डाला. धैर्य से प्रतीक्षा की. प्रसंग समाप्त होते ही चाचा ने भतीजे की कोहनी झकझोर कर पूछा,

“या..र..बे..ट्टा..रा..म…ज..रा…मे..रा..हा..थतो…दे…ख….या.र…मे..रे…हा..थ..में.म.ड्..डर ..की.. ला..ई..न ..है…?”

चाचा नशे में चूर थे. उस अंधेरे में वे स्वयं नहीं दिखाई पड़ रहे थे. हाथ की लकीरें कहाँ से दिखती. फिर भी भतीजे ने चाचा की श्रद्धा का अनादर नहीं किया. चाचा की हथेली थपथपाकर कहा, “है चाचा, है. हंड्रेड परसेंट है.” फिर चाचा को समझाया-बुझाया. “हाँ, चाचा तुम्हारे हाथ में तुम्हारी मनचाही लाईन है. उससे तुम्हारा मनचाहा काम भी हो जाएगा.” कहकर चाचा को विदा किया. चाचा के जाने की बाद  फुरसतिया ‘गॉसिप’ चल निकली. नजारा कुछ यूँ था- अनुमान के आधार पर निष्कर्ष यह निकला कि चाचा का इंगित महिष-स्वामी की तरफ जान पड़ता है.

“लेकिन यार, तुमनें तो कह दिया कि उनके हाथ में मर्डर वाली लाईन है.” “इतने अंधेरे में जब हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा हो, कोई भी लाईन, कोई कैसे देख सकता है. उन्हें हाँ कहकर टालना पड़ा. नहीं तो रातभर पकड़े रहते.” “लेकिन माइकल चाचा की हथेली की आकृति पर कभी उजाले में गौर करना.” “इसका मतलब उनके हाथ में वो लाईन है?” “नहीं, मेरा ये मतलब नहीं. उनका अंगूठा देखा कभी. लगभग ‘मेस-साईज्ड’ है. मतलब गदा की आकृति का. अंगुलियाँ भी छोटी-छोटी और बेढ़ब .” “तो क्या, चाचा सचमुच उसका मर्डर कर देगा.” “नहीं, उनका हाथ इतना ‘प्रोमिनेंट’ तो नहीं है. लेकिन, अगर चाचा माइकल वाले पोज में हों और वो सामने पड़ जाए तो हद से हद मारपीट. फिर, ये बात भी सोचने की है कि वो अँधेरे में माइकल चाचा के सामने पड़ेगा ही क्यों.”

माइकल चाचा मुकदमे से बचते रहे. पेशी पड़ने पर कभी हाजिर नहीं हुए. समन पर नहीं गए. वारंट पर मिले नहीं. वस्तुतः उनकी दिलचस्पी, मुकदमे से ज्यादा, महिषस्वामी में होकर रह गई थी. वैसे उससे ज्यादा उम्मीदें भी नहीं रखते थे. बस सीधे धावा और आमने-सामने की मुठभेड़. लंबे समय तक इसे वे अपनी ‘छोटी सी हसरत’ मानते रहे. महिषस्वामी की किस्मत शायद ज्यादा बुलंद थी. वो कभी हत्थे ही नहीं चढ़ा. इधर माइकल चाचा के खिलाफ कुर्की का ऑर्डर चल निकला. माइकल चाचा अंतर्धान. सरकारी अमला कुर्की के इरादे से उनके घर तक आ पहुँचा. उन्होंने पूरे घर की तलाशी ली. कुछ भी नहीं मिला. आखिर में वे उनकी ‘ख्वाबगाह’ में गए. एक प्रागैतिहासिक चारपाई और तीन टाँग की कुरसी. कुल मिलाकर यही साजोसामान निकला. ‘चल संपत्ति’ के नाम पर यही सबकुछ था. अपनी ‘प्रिय पुलिस’ के लिए फरारी से पहले वे यही ‘धरोहर’ छोड़ गए थे. ‘पार्टी’ की माली हालत का अंदाजा लगाकर, ‘इंचार्ज’ की आँखें भर आई. हालांकि तमाशबीनों के मुताबिक इस ‘विपन्नता’ के पीछे कुछ होशियारी थी और कुछ सच्चाई.

बहरहाल कारिंदे भुनभुनाते रहे. उनका आधा दिन बर्बाद हुआ था. इंचार्ज ने तो खीझ में आकर टुटही कुर्सी की एक और टाँग तोड़ दी. कुर्की का क्षोभ कुर्सी पर उतरा. इस प्रकार, कुर्की की सांकेतिक रस्म अदायगी संपन्न हुई. चलते-चलते ‘इंचार्ज’ ने अपने हमराह से एकदम दुनियादारी वाली बात कही, “आँख खोल के देख ले. ‘बिन घरनी घर भूत का डेरा.” उसकी यह ऑब्जर्वेशन एकदम दुरुस्त निकली. दरअसल चार-पाँच वर्षों से चाचा की गृहस्थी ‘डग्गर-मग्गर’ चल रही थी. हल्के-फुल्के गृहयुद्ध के बाद चाची, मायके जा बैठी. पाँच साल पूरे होने को थे. कोई निबाहे भी, तो किस सीमा तक. उनके जाते ही, जो रही-सही रोक-टोक थी, वो भी खत्म हो गई. चाचा सटाक से ‘फ्रीलांसर’ हो गए और फिर तरक्की करते हुए ‘माइकल चाचा’ बन बैठे.

समय ने फिर तेजी से करवट बदली. चाची वापस आ गई. आते ही गृहस्थी की बागडोर अपने हाथों में ले ली. मुखरा होकर लौटी थीं. जिरह करने में दक्ष. जरा भी आयँ-बायँ करने पर आड़े हाथों लेती. बचकाने जवाब एकदम पकड़ लेतीं. जिसे चाचा अपना ‘आंका-बांका’ जीवन समझते थे, चाची उसे मुँह पर ही ‘गोरखधंधा’ कहती. जिसे चाचा ‘स्टंट’ कहते, उसे चाची उनके ‘बेमतलब और बेफजूल’ काम कहती थी. कुल मिलाकर, चाची उनके प्रसिद्ध नाम माइकल का ‘टैग’ उतारने को कटिबद्ध थी.

देरी से लौटने पर धुंआधार ‘रैगिंग’ लेती. उनके पीने पर, रणचंडी बन जाती. इस बीच उनकी नासिका, नासिका न होकर ‘अल्कोमीटर’ बन चुकी थी. वास्तविक खतरे को देखते हुए, चाचा बदल-बदलकर रणनीति अपनाते, लेकिन हरबार पकड़े जाने लगे. अकेले में, ‘धत्तेरे की..’ बोलते. स्वर में झुँझलाहट. दोनों में काफी समय तक मानसिक दाँवपेंच चलते रहे. चाचा चुप्पी साधे रहते. आत्मग्लानि से घिरे रहते. वे अंतर्मन से महसूस करने लगे थे कि, वह घर सँवारने को दिन-रात खटती है. खेती-बाड़ी देखती है और गाय-भैंस भी. भावना और आवेग में आकर वे पहले ही बहुत कुछ खो चुके थे. क्षमायाचना और शर्मिंदगी की मुद्रा में कोई कितने दिन रह सकता है. उन्होंने अच्छे से जान लिया कि इसबार वह रियायत के मूड में नहीं है. तंग आकर चाचा सीधी राह चलने लगे और इनसान बन गए. चौबीस इंची साइकिल पर सवारी गाँठते हुए चाचा जब काम पर जाते, तो विश्वास ही नहीं होता था कि, ये वही ‘हैरतअंगेज कारनामे’ वाले माइकल चाचा हैं. चाचा का नजरिया बदल गया. सार्वजनिक जीवन से निजी जीवन में उन्होंने भयंकर ‘यूटर्न’ लिया. अब वे खानसामे का काम करने लगे. पूरी शिद्दत से. बंधे-बंधाये रुटीन का काम. कभी-कभी, ‘वीकेंड’ पर ‘फ्रीलांसिंग’ भी.

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Girish Lohani

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  • बेहतरीन चित्रण, 24 इंची साईकल बड़े डिंबाद चर्चा में आयी, ऐसे ही कई अन्य बिम्ब। लेखक को साधुवाद।

  • बेहतरीन चित्रण, 24 इंची साईकल बड़े दिन बाद चर्चा में आयी, ऐसे ही कई अन्य बिम्ब। लेखक को साधुवाद।

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