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उत्तराखंड में रजस्वला स्त्रियों का गोठ-प्रवास

मकानों के गोठ में हर महीने के चार-पांच दिनों तक मवेशियों के साथ-साथ खड़कुवा और हमारी मां और भाभियां भी रहती थीं. मिट्टी-गोबर से सनी हुई ये औरतें गोठ-प्रवास के पांचवे दिन मील भर की दूरी पर स्थित नदी पर जाती थीं और खुद को तथा अपने गोबर-सने कपड़ों को रामबांस के रस से धोती थीं.

नहाने और कपड़े धोने के बाद ये औरतें तब तक नदी किनारे की एक प्राकृतिक गुफा में दुबकी रहती थीं जब तक कि उनके कपड़े धूप में सूख नहीं जाते थे. उनके पास सिर्फ एक ही जोड़ी कपड़े होते थे – चार-पांच मीटर का, ढेरों चुन्नटों वाला राजस्थानी घाघरा और पूरी आस्तीन का मोटे कपड़े का ब्लाउज. ये कपड़े दिन में पहनने और रात को ओढ़ने के काम आते थे और तब तक पहने जाते थे जब तक कि उनसे शरीर के बहुत निजी हिस्से पूरे-के-पूरे दिखायी नहीं देने लगते थे. जिस दिन औरतें नदी से नहाकर लौटतीं, उनके सिर, माथे, कंधे और पाँवों के पास जबरदस्त सूजन होती और हम लोग इस तरह की सूजन से उनके रूपाकार में जो अंतर आ गया होता, उसे देखने के लिए कई-कई बार किसी-न-किसी बहाने से उन्हें छूने की कोशिश करते. गाँव के बड़े-बूढ़े इन चोटों में कोई रुचि नहीं दिखाते और बताते कि रात को सोये हुए किसी बैल या भैंस का पाँव उनके ऊपर पड़ गया होगा जो अगले महीने के गौशाला प्रवास के दिनों तक खुद ही ठीक हो जाएंगे. मगर गौशाला प्रवास की अवधि में भी औरतों को सिर्फ खाना बनाने और घर के अंदर प्रवेश की मनाही थी. बाकी सारा काम रोज की तरह उन्हें ही करना पड़ता.

गोठ प्रवास के दिनों में भी उन्हें भोर की चिड़िया की आवाज सुनते ही उठना पड़ता था और चाहे कहीं भी कितनी गहरी चोटें क्यों न आई हों, लगभग अंधेरे में ही उन्हें गोबर समेटकर बाहर फेंकना पड़ता. इस दौरान कभी गोठ की फर्श पर बन गए सांप के बिलों पर भी उनका हाथ चला जाता और सांप उन्हें डस भी लेता. कभी किसी औरत की मौत भी हो जाती और बिना किसी प्रकार की शोक-सभा के गांव के लोग ऐसी औरत को दोपहर तक नदी किनारे के श्मशान घाट में ले जाकर जला भी आते. जो औरतें बची रह जातीं, वे रोज़ की तरह लकड़ी और घास लेने के लिए जंगल जातीं और जब वहां से लौटतीं तो सामान्य हालत में चबूतरे पर रखे हुए घर-भर के बरतनों को मलकर खाना बनातीं और फिर सबको खिलाकर खुद भी खातीं. गोठ-प्रवास वाली औरतों को पहले चबूतरे पर रखे बरतन मलने पड़ते. उसके बाद जब घर का कोई पुरुष-सदस्य बरतनों पर गोमूत्र छिड़ककर उन्हें अन्दर ले जाता तो नमक की एक डली के साथ दो प्लेटनुमा मोटी रोटियाँ लाकर चबूतरे की फर्श पर रख जाता. ऐसी औरतों के लिए छौंकी हुई सब्जी या दही-दूध को अपनी अस्पृश्य नजरों से देखना भी मना था क्योंकि इससे कोई अदृश्य संक्रमण मवेशियों के बीच फैल सकता था जिससे कि उनकी दूध की मात्रा घट सकती थी.

प्लेटनुमा उन मोटी रोटियों को नमक के साथ खाने के बाद वे औरतें गुड़ाई-निराई या फसल काटने के लिए, जैसा भी मौसम होता, खेतों में चली जातीं और अँधेरा होने के बाद शाम को ही घर लौटतीं. जो औरतें गोठ-प्रवास में नहीं रहती थीं, खेतों से घर लौटकर खाना बनातीं, घर के लोगों को खिलातीं, बरतन मलतीं और फिर लगभग आधी रात के समय अपने मर्द के बगल में जाकर सो जातीं. गोठ-प्रवास के दिन एक तरह से औरतों के लिए आराम के दिन होते इसलिए वे इन दिनों का महीने भर बेसबरी से इन्तजार करतीं. मगर साल-डेढ़ साल में उन्हें गोठ-प्रवास से पूरी मुक्ति का एक-दो महीने के लिए ही अवसर मिलता और जब तक उन्हें इस आवागमन से पूरी तरह मुक्ति मिलती, उनकी देह अंदर और बाहर से इतनी जख्मी हो चुकी होती कि उसके होने का अहसास ही पूरी तरह से मिट चुका होता.

फ़ोटो: मृगेश पाण्डे

 

लक्ष्मण सिह बिष्ट ‘बटरोही‘ हिन्दी के जाने-माने उपन्यासकार-कहानीकार हैं. कुमाऊँ विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रह चुके बटरोही रामगढ़ स्थित महादेवी वर्मा सृजन पीठ के संस्थापक और भूतपूर्व निदेशक हैं. उनकी मुख्य कृतियों में ‘थोकदार किसी की नहीं सुनता’ ‘सड़क का भूगोल, ‘अनाथ मुहल्ले के ठुल दा’ और ‘महर ठाकुरों का गांव’ शामिल हैं. काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.

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Girish Lohani

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