डीएसबी की एनसीसी कथा

सन 1962-64 के दौरान नैनीताल के डी एस बी कालेज में पढ़ते समय मैंने और मेरे दोस्त नवीन भट्ट ने एनसीसी भी ले ली. उन दिनों एनसीसी लेना अनिवार्य नहीं था. कड़े अनुशासन का पालन किया जाता था और गलती या अनुशासनहीनता पर कोहनियों के बल क्राउलिंग कराना मामूली बात थी. तब कुछ लोगों ने कहा भी कि यह कला संकाय के विद्यार्थियों के लिए ठीक रहती है, विज्ञान के विद्यार्थियों को तो इन चीजों के लिए समय ही नहीं मिल पाता. लेकिन, हम भी सीनियर सहपाठी कैडेटों की तरह वर्दी पहनना चाहते थे, चुस्त-दुरुस्त रहना चाहते थे, अनुशासन में रहना चाहते थे, राइफल चलाना चाहते थे. इसलिए कैमिस्ट्री के चैहान सर से मिले. वे एनसीसी के आॅफीसर इंचार्ज थे. तब एनसीसी सभी विद्यार्थियों के लिए अनिवार्य नहीं होती थी. उस्ताद और सीनियर कैडेट बहुत सख्ती बरतते थे. कड़े अनुशासन का पालन करना पड़ता था. अनुशासनहीनता की कड़ी सजा मिलती थी और एनसीसी से निकाल देते थे.

चैहान सर ने हमारी बातें सुनीं, समझाया और हमें भर्ती कर लिया. हम नैनीताल इंडिपेंडेंट कंपनी, एनसीसी, नैनीताल की डी एस बी गवर्नमेंट कालेज प्लाटून के कैडेट बन गए. हमें वर्दी, बूट और बेल्ट के साथ पूरा किट मिल गया. कैप के साथ बैज, और लाल पंखों से बना हैकिल मिल गया. बाद में कुछ सीनियर कैडेटों ने हमें बूट चमकाने और वर्दी को कड़क रखने के गुर बताए जिनमें बूट के ‘टो’ पर अंडे की सफेदी घिसना और उस पर मुंह से ‘हा-हा’ करके सांस छोड़ कर लंबे सूखे कपड़े की पट्टी घिसना भी शामिल था.

अंडर आफीसर डी.एस. बिष्ट, सार्जेंट पांडे, सीनियर कैडेट बिशन बिष्ट और एल.एम.एस. तोमर का बड़ा दबदबा था. उस्ताद धाम सिंह और भी सख्ती बरतते थे. परेड में जरा-सा सीना भीतर देखा नहीं कि चिल्ला पड़ते थे, “सीना तान कर डंडे की माफिक खड़े होना सीखो. हमें बीमारों की तरह खड़े होने वाले कैडेट नहीं चाहिए. फौजी बनना है तो फौजी की तरह खड़े रहो.”

“सावधान! विश्राम! सावधान! परेड दाहिने मुड़ेगा-दाहिने मुड़!” और, फिर लगातार “परेड, लेफ्ट राइट लेफ्ट! लेफ्ट राइट लेफ्ट!”… क्या मजाल कि कोई जरा-सा भी हुक्म-उदूली कर दे. उस्ताद चीखते, “सामने की लाइन में दाएं से तीन नंबर कैडेट, एक कदम बाहर निकल!” और फिर, “कैडेट राइफल को दोनों हाथों में सिर के ऊपर उठा कर इमारत के तीन चक्कर लगाएगा … नीम दरख्त गोेऽ प!“ कैडेट भागता और हम इस चक्कर में कि यह ‘नीम दरख्त गोप’ क्या है. यह तो बाद में पता लगा कि उस्ताद ने पहले जहां सीखा-सिखाया होगा, वहां मैदान में दूसरे कोने पर नीम का पेड़ था. दंड देने पर उस पेड़ तक भाग कर जाना पड़ता था. वही उनको याद हो गया.

एक बार एक और उस्ताद आ पड़े. उनके काॅसन का उच्चारण बिलकुल अलग तरह का था. सुन कर ही हंसी आ जाती थी. खूब खींच कर काॅसन देते थे- ”प्रेड…दाहिनेऽऽ प मुड़ि! ज्वान रैफड़ को धाणे कंधे में लेगा….बा जोऽऽ प श स .“ एक बार उनका उच्चारण सुन कर किसी की ‘फिक्क’ करके हंसी निकल गई. बस फिर क्या था, उन्होंने ‘थम्म’ कराया और हंसने वाले कैडेड को दो कदम बाहर निकलने को कहा. लेकिन, निकला कोई नहीं. तब उन्होंने काॅसन दिया- ”सभी कैडेट अपणी-अपणी रैफड़ बाजुओं में सिर के ऊपर उठाएंगे…..रैफड़ उठा! धाणे से तेज चल…एक, दो, तीन! एक, दो, तीन!“ उस दिन उस्ताद ने सैकड़ों बार गिनती गिन डाली…एक, दो, तीन! लेफ्ट, राइट, लेफ्ट! एक, दो, तीन! हाथ ऊपर!

गलती एक दिन मुझसे भी हो गई. उस्ताद मोर्चे पर दुश्मन के इलाके की जासूसी करने के लिए रात के घुप अंधेरे में तरह-तरह से चलने की ‘चालों’ के बारे में बता रहे थे. बताने के साथ-साथ खुद चल कर भी दिखा रहे थे…यह देखो…इस तरह धीरे-धीरे चलोगे बिल्ली की चाल….और, यह भूत की चाल…

गजब की चाल थी. दिमाग में पूरा दृश्य घूम गया कि अंधेरे में गश्त पर कोई कैसे भूत की तरह चुपचाप चल रहा होगा…उस्ताद ने चाल दिखा कर ज्यों ही पूछा- कोई शक? तो मैंने पूछ लिया, ”सर! अगर हम भूत की चाल से चल रहे हों और उस घुप अंधेरे में दुश्मन का जासूस भी उसी चाल से चला आ रहा हो और अचानक दोनों आपस में टकरा पड़ें तो?“

मेरी बात सुन कर सबके दिमाग में वह दृश्य कौंध गया. सभी कैडेट हंस पड़े. उस्ताद बौखला उठे. बोले, ”एक कदम बाहर निकल. राइफल हाथों में सिर के ऊपर. इमारत के तीन चक्कर लगाओ. गोप!“

ज्यादातर उस्ताद सख्ती और बड़ी मेहनत से सिखाते थे. एक बुजुर्ग सिख उस्ताद ने हमें नैनीताल की टिफिन टाॅप पहाड़ी पर ले जाकर ‘मैप रीडिंग’ के तरीके समझाए थे. पलक झपकते मशीनगन का पुर्जा-पुर्जा खोल देना और फिर उसी फुरती से उन सभी पुर्जों को जोड़ देना उन्हीं ने सिखाया था. उन्हीं ने नैनीताल में कैलाखान के छावनी क्षेत्र में चांदमारी के मैदान पर थ्री-नाॅट-थ्री राइफल से निशाने पर गोली चलाना सिखाया था. जमीन पर लेट कर जब उस्ताद की ‘फायर’ की आवाज पर ट्रिगर दबाते तो कंधे से टिकी राइफल के कुंदे के धक्के से शरीर छिपकली की तरह फड़फड़ा उठता था. बैनेट फाइटिंग यानी संगीन की लड़ाई के समय दिल दहला कर चैंका देने वाली चीख के साथ बेहद चुस्ती से ‘चाऽर्ज, बट, कट, विदड्राॅ’ का एक्सन करना भी उन्हीं ने सिखाया. बाद में मुझे कई बार सेरिमोनियल परेडों के मौके पर बैनेट फाइटिंग का नमूना देने के लिए चुना गया. हमारी गार्ड ने सारी रात जाग कर मुस्तैदी से गार्ड ड्यूटी भी निभाई थी.

बी.एस-सी. की पढ़ाई के उन दो वर्षों के दौरान मुझे एन.सी.सी. के चार कैम्पों में भाग लेने का मौका मिला. गांव से शहर नैनीताल आने के बाद पहले ही वर्ष दिसंबर 1962 में इटावा में आयोजित एन.सी.सी. कैम्प में भाग लिया. गांव से नैनीताल और नैनीताल से बाहर कहीं और जाकर कैम्प में रहने का मेरा वह पहला अवसर था. अनजानी जगह थी. ददा-भौजी ने अपना ध्यान रखने की हिदायत दी. इटावा में हमें एक बड़े प्रदर्शनी मैदान में टिकाया गया जिसमें खुली बैरकें जैसी बनी थीं, यानी पीछे दीवाल, ऊपर छत और फर्श. वहां एन.सी.सी. की तमाम प्लाटूनें पहुंची हुई थीं. लाउडस्पीकर से घोषणा की जाती थी. ठीक समय पर नाश्ता, दिन का और रात का भोजन. हम अपनी प्लेट लेकर कतार में खड़े हो जाते. फिर ठीक समय पर ‘लाइट आॅफ’ के साथ ही सो जाना पड़ता था.

एकदम सुबह उठ कर कदम ताल, कसरत और परेड. फिर नाश्ते के तुरंत बाद अभ्यास के लिए आसपास की ऊबड़-खाबड़ जगहों पर ले जाए जाते जहां बबूल के कांटे बिखरे रहते थे. वहां जमीन पर कुहनियों के बल रेंग कर चलना सिखाया जाता था. कैम्प में लाउडस्पीकर पर गाने बजते रहते थे- ‘जरूरत है, जरूरत है, जरूरत है. एक श्रीमती की, कलावती की, सेवा करे जो पती…ई की’ और ‘मेरे बन्ने की बात न पूछो, मेरा बंदा हरियाला है. मेरे बन्ने के रूप के आगे चांद का रंग भी काला है’, और यह भी ‘ये हरियाली और ये रास्ता’. कैंप की किसी प्लाटून का एक लंबा, पतला अंडर आॅफीसर मैदान में चलता था तो उसके बूटों की एड़ियों से मिट्टी उखड़-उखड़ कर गिरती थी. उसे कैम्प का अनुशासन देखने की जिम्मेदारी दी गई थी. उसने कड़ा अनुशासन बनाए रखा.

एक दिन शाम को मैं और नवीन यों ही कुतुहलवश मुख्य गेट से बाहर आए और खड़े होकर आसपास की दुनिया को देखने लगे. दूसरी प्लाटूनों के भी कुछ कैडेट खड़े थे. अचानक वही अंडर आॅफीसर अपनी छड़ी फटकारता हुआ गेट से बाहर आया, इधर-उधर देखा और चिल्लाया, ”गेट बंद कर दो!“ गेट की ड्यूटी पर तैनात कैडेटों ने तुरंत गेट बंद कर दिया. हम भीतर जाने लगे तब तक छोटा गेट भी बंद कर दिया गया. अचानक सीटी बजी. घोषणा की गई कि कुछ कैडेट बिना अनुमति गेट से बाहर गए हुए हैं. उनके इंचार्ज गेट पर आकर जांच करके रिपोर्ट दें.

हम हैरान और परेशान. अब क्या कर सकते थे? तभी कानों-कान खबर फैली कि असल में कुछ तेज कैडेट चुपचाप शहर के बाजार में गए और वहां उनका झगड़ा-फसाद हो गया. पुलिस में रिपोर्ट हो गई और पुलिस ने कैम्प के आफीसरों से पता किया है. हमारा माथा ठनका. हम तो यों ही गेट से बाहर कदम रख बैठे थे. बहरहाल, हमारे अंडर-आॅफीसर और सार्जेंट ने गेट पर हमें अविश्वास से देखा और हमारा नाम नोट कराने के बाद चीख कर आदेश दिया, ”जमीन पर लेट जाओ. और अब, कुहनियों और पंजों के बल क्राॅल करते हुए अपनी बैरक तक चलो. स्टार्ट!“

हम घिघियाए. सच बताने की कोशिश की तो वे और जोर से चीखे, ”नो आर्ग्युमेंट!“

बैरक गेट के ठीक दूसरी ओर काफी दूर थी और वहां तक रास्ते में लाल बजरी बिछी थी. हमने रेंगना शुरू किया. पेट या घुटना नीचे लगते ही कमर पर बेंत या बूट पड़ता. लेकिन गए, अपनी बैरक तक गए. कुहनियां बुरी तरह छिल गई थीं.
वहां पहुंच कर उन्होंने पूछा, ”यस, अब बताओ, क्या कहना चाहते हो?“

”सर, हम तो गेट के सामने ही खड़े थे. भीतर आने लगे तो वह बंद कर दिया गया?“

”और कहीं नहीं गए?“

”नहीं सर.“

”ठीक है, हम यही लिख कर दे देंगे. आगे से बिना अनुमति के गेट से बाहर भी मत निकलना.“

”सर“, हमने सावधान की मुद्रा में कहा.

फिर कुहनियां सहलाते हुए बैरक के पक्के फर्श पर अपनी जगह आकर बैठ गए.

एक दिन हमें फुल ड्रैस यानी वर्दी, बूट, एंकिल गार्ड, बेल्ट, हैट, पीठ पर हैवरसैक और उसमें पर्याप्त वजन, उसके नीचे पानी भरा तामलेट कस कर इटावा-मैनपुरी रोड पर 18 किलोमीटर का रूट-मार्च कराया गया. कड़ी धूप थी. रास्ते में पानी पीने की मनाही थी. दिन का खाना मंजिल पर पहुंचने के बाद मिलने वाला था जो गाड़ियों में वहां भेजा जा रहा था. रूट-मार्च के दौरान हम लोग एक नहर के पास से भी निकले. चलते-चलते बहुत प्यास लग चुकी थी. लेकिन, हमें पहले ही बता दिया गया था कि न कुछ खाना है, न कुछ पीना. शरीर की सहन शक्ति की परीक्षा तभी होगी. किसी और प्लाटून के एक कैडेट ने शायद पानी पीने की कोशिश की थी. उससे रोड पर कुछ दूर तक क्राॅलिंग कराई गई.

हम आखिर मंजिल पर पहुंचे. वहां खूब हंसते-बोलते खाना खिलाया गया. हम लोगों ने जम कर कई तामलेट पानी पिया और भरपेट खाना खाया. वापसी में ट्रकों में बैठा कर लाए गए.

कैंप का समापन सेरिमोनियल परेड से हुआ. परेड में चीते की तरह फुरती से चलने और कड़ा अनुशासन कायम करने वाले उस अंडर आॅफीसर को ‘बेस्ट कैडेट’ का खिताब दिया गया. सेरिमोनियल परेड के बाद दूर-दूर से आए हुए कैडेटों की वापसी शुरू हो गई. अपने लंबे किट कंधों पर रख कर कैडेट प्रदर्शनी मैदान की बैरकें खाली करके जाने लगे. अपरिचित कैडेट भी एक-दूसरे को विदा का हाथ हिला रहे थे. वे कैम्प छोड़ने के बेहद भावुक क्षण थे. हम लोग भी लौटे. नवीन और मैंने टूंडला जंक्शन से चीनी मिट्टी के भूरे रंग के फूलदान खरीदे जो बहुत दिनों तक हमारे घरों की शोभा बढ़ाते रहे. अलग-अलग स्वभाव, भिन्न-भिन्न रुचियों और अपनी-अपनी तरह व्यवहार करने वाले भांति-भांति के लड़कों के साथ रहने का वह मेरा पहला अनुभव था. उससे मैंने अलग-अलग रुचियों के लड़कों के बीच मेल-जोल के साथ रहने का पहला पाठ सीखा.

कैंप खत्म हो जाने के बाद पढ़ाई में जुट गए. बी.एस-सी. प्रथम वर्ष की परीक्षा दी. परीक्षा के बाद सूचना मिली कि देहरादून से आगे कालसी में अखिल भारतीय समाज सेवा तथा संयुक्त कैडर कैम्प में भाग लेना है. छुट्टियां हो गई थीं. मैं खालगड़ा ददा-भौजी के पास गया और वहां से गांव चला गया था.

जून के आखिरी सप्ताह में एक दिन सुबह-सुबह सीधे अपने गांव कालाआगर से बस पकड़ने के लिए पैदल ओखलकांडा, खालगड़ा, मूरा और देवस्थल के जंगल से होते हुए मनाघेर गया लेकिन वहां बस नहीं मिली. वहां से धानाचूली मोड़, सुंदरखाल और लेटीबूंगा होकर भटलिया तक पैदल गया. चलते-चलते आठ-नौ घंटे हो चुके थे. दोपहर ढल चुकी थी. खैर, भटलिया से नैनीताल के लिए बस मिल गई. देर शाम नैनीताल पहुंचा.

अगले दिन हम साथी कैडेटों के साथ कालसी कैंप के लिए रवाना हो गए. मुरादाबाद से ट्रेन पकड़ी और देहरादून पहुंच गए. वहां से बस से कालसी. कालसी में उमस भरी महागर्मी पड़ रही थी. पसीने से तर-बतर कैम्प में पहुंचे. कैंप के भीतर जाते ही सामने कतार में लगे नलों पर नहाते, साबुन मलते वस्त्रहीन आदमजात प्राणियों को देखा तो आंखें फटी रह गईं. न कोई परदा, न झिझक, बल्कि वे आराम से पूछ रहे थे- कहां से आए हो? हम चुपचाप पता पूछते हुए अपनी बैरक में पहुंचे. पता लगा, नलों पर मेडिकल कोर के कैडेट नहा रहे थे. वह कैंप में पहुंचने का दिन था. सभी कैडेटा­ के पहुंचने के बाद अगले दिन सुबह से ही कड़ा अनुशासन लागू हो गया.

लेकिन, कुछ लोग किसी और ही मिट्टी के बने होते हैं. हमारा साथी कैडेट गोस्वामी भी उनमें से ही एक था. वह अक्सर रात को वर्दी को हाथों से गुचुड़-मुचुड़ करके सिरहाने रख लेता. सुबह परेड की सीटी सुनते ही सावधानी से उस मुड़ी-तुड़ी वर्दी को पहनता और बीमार चेहरा बना कर साथ चल पड़ता. उस्ताद को बताता कि तबियत रात से ही बहुत खराब है. उसे ‘सिक कैडेट’ मान कर अलग भेज दिया जाता. जाते-जाते हमारे कान में कह जाता, ”खाना ज्यादा ले लेना. मेरे लिए रोटियां जेब में छिपा कर ले आना. मौका मिलने पर खा लूंगा. मरीजों वाले भोजन से मेरा क्या होगा?“ बीमार का नाटक करने में उसने महारत हासिल कर ली थी. कोई उसकी बात न मानता तो रात में नींद आ जाने पर तामलेट में पानी के बजाय कुछ और भर देने की धमकी दे देता. एकाध बार उसने यह करके भी दिखा दिया. किसी कैडेट के ‘यह मेरा पानी ऐसा क्यों हो गया है? इसमें से चुरैन (पेशाब की गंध) आ रही है,’ कहने पर उसने हंसते हुए कहा, ”रोटी नहीं लाएगा तो ऐसा ही होगा.“

एक साथी कैडेट था पपनै. वह बड़े हाव-भाव के साथ गाता था- ‘झूठ बोले कौवा काटे….मैं पेड़ में चढ़ जावूंगी…मैं कुंए में गिर जाऊंगी!’ वर्षों बाद किसी फिल्म में यह गाना सुन कर मुझे बहुत आश्चर्य हुआ था.

कालसी में हमने गांव में सड़क के किनारे-किनारे दूर तक पानी के निकास की नाली खोदी थी. एक दिन समय मिलने पर मैं और नवीन चकराता रोड पर यमुना के किनारे-किनारे दूर तक घूमने निकल गए. रास्ते में किसी बाग के मालिक ने हमें रसीले आम खिलाए. हम आगे बढ़े. चारों ओर सब कुछ कितना सुंदर था. लौटने को मन ही नहीं करता था. देश के विभिन्न इलाकों से आए हुए सैकड़ों कैडेटों के साथ कैम्प में रहने का मेरा यह एक और अनुभव था.

जनवरी 1964 में नैनीताल में वार्षिक प्रशिक्षण कैम्प लगा तो हम उसमें भी शामिल हुए. जनवरी माह की कंपा देने वाली उस ठंडे में जब आर्डवैल कैम्प में सुबह उठने की घंटी बजती तो मजबूर होकर उठना पड़ता. उठते ही कवायद के लिए भागते. एक दिन मौका मिला तो साथी कैडेट शेरजंग बहादुर सिंह के साथ दिन में शहर में निकले. शेरजंग तो लौट गया मगर हम भागते हुए अपने कमरे में गए. स्विमिंग कस्ट्यूम निकाले और न जाने कब से तैरने की तमन्ना लिए तल्लीताल पहुंचे. पहुंचे और डाइव करके छपाक से ताल के पानी में कूद गए. बस थोड़ी देर तैरने की कोशिश की, मगर ठंड बहुत थी. बाहर निकले तो एक-दूसरे की ओर देख कर कहा, ”अरे, होंठ तो ठंड से नीले पड़ गए हैं.“

खैर, समय पर, कैंप में वापस लौट आए. उस कैंप में जम्मू-कश्मीर से आए हुए कैडेट मक्खन लाल बख्शी और त्रिभुवन टैंग से मेरी खूब दोस्ती हो गई. हम लोग नए साल के दूसरे दिन बाजार गए और कलामंदिर में फोटो खिंचवाया. मक्खन अनंतनाग से आया था और हम दोनों में इतना भावनात्मक लगाव हो गया था कि कैंप की आखिरी शाम हम गले लग कर खूब रोए.

उसके बाद मैंने और नवीन ने एक बार फिर नैनीताल में आयोजित अखिल भारतीय आइएनएस नौसैनिक कैंप में थल सेना की ओर से उत्तर प्रदेश राज्य का प्रतिनिधित्व किया. यह हमारा आखिरी कैंप था. यों भी, एन.सी.सी. में बी.एस-सी. तक ही भाग ले सकते थे. हमारे आॅफिसर इंचार्ज और कैमिस्ट्री के प्रोफेसर आर.एन. सिंह चैहान ने 14 दिसंबर 1964 को मुझे लिख कर प्रमाणपत्र दिया, ‘नं. 71074 सार्जेंट डी.एस.मेवाड़ी ने सत्र 1962-63 तथा 1963-64 के दौरान 2 वर्ष तक सीनियर डिविजन एन.सी.सी. की सेवा की. ये एन.सी.सी. की नैनीताल इंडिपेंडेंट कंपनी की डी एस बी गवर्नमेंट कालेज प्लाटून के कैडेट रहे….इन्होंने ‘बी’ सर्टिफिकेट पास कर लिया है और ‘सी’ सर्टिफिकेट की परीक्षा दी है जिसमें अवश्य पास हो जाएंगे.’
प्रोफेसर चैहान की याददाश्त का कोई जवाब नहीं था. छोटी से छोटी चीज को भी भूलते नहीं थे. किट लेते समय एक बार नवीन ने कहा, ”सर, मुझे बूट के तस्मे भी चाहिए.“

चैहान साब बोले, ”तस्मे? सो तो बात ये है नवीन भट्ट कि तुमने बूट के तस्मे मार्च 22 तारीख को भी लिए थे. ठीक है? एक सैट और ले लो. लौटा देना.“ हम सुन कर हैरान रह गए. न कोई रसीद, न रजिस्टर लेकिन उन्हें याद था. इसलिए उनसे कोई भी कैडेट कभी भी फालतू सामान नहीं ले सकता था.

डी एस बी कालेज के प्रांगण में एन सी सी प्लाटून की परेड के दौरान एक दिन सावधान!…विश्राम! के बाद सुस्ताते समय एक कैडेट ने धीरे से पूछा, ”तुम देवेन एकाकी हो?“

मैंने उसकी ओर अपरिचय से देख कर कहा, ”हां“.

वह बोला, ”तुम कहानियां लिखते हो?“

”हां“ मैंने सकुचा कर कहा.

”मैं बटरोही हूं, लक्ष्मण सिंह बिष्ट बटरोही. मैं भी कहानियां लिखता हूं. फिर मिलना. तुमसे बात करनी है.“

परेड विसर्जन के बाद हम मिले. उसने बताया, वह बी.ए. में है और कालेज पत्रिका का छात्र संपादक है. मेरी कहानी को हिंदी परिषद् की कहानी प्रतियोगिता में पुरस्कार मिला था. मैं विज्ञान वर्ग का विद्यार्थी था. उसे उत्सुकता थी कि कहानी लिखने वाला विज्ञान का विद्यार्थी कौन है. हमारी थोड़ी देर ही बातचीत हुई जिसमें उसने बताया कि एन. सी. सी. में उसकी कोई रुचि नहीं है. यों ही नाम लिखा दिया था और जल्दी छोड़ देगा. उसकी रुचि केवल कहानियां लिखने में है और कुछ कहानियां छप भी चुकी हैं. उसने कहा, उसे प्रेमचंद की कहानियां सबसे अच्छी लगती हैं. ”मिलते रहना,“ कह कर वह भारी बूट खटखटाता चला गया.

मैं बहुत खुश हुआ कि कालेज में कहानियां लिखने वाला एक साथी मिल गया. सोचा, उसके साथ कहानियां पढ़ूंगा और उन पर चर्चा करूंगा. विज्ञान वर्ग में यह वर्जित क्षेत्र था. बटरोही के साथ मिलते-मिलाते परिचय बढ़ता गया और हम कुछ कर दिखाने के मंसूबे बांधने लगे. मैं स्वभाव से जितना ही संकोची था, बटरोही उतना ही मुखर. इसलिए उसका परिचय भी काफी था. उसके कारण कई सहपाठियों से मेरा भी परिचय हो गया.

देवेंद्र मेवाड़ी

लोकप्रिय विज्ञान की दर्ज़नों किताबें लिख चुके देवेन मेवाड़ी देश के वरिष्ठतम विज्ञान लेखकों में गिने जाते हैं. अनेक राष्ट्रीय पुरुस्कारों से सम्मानित देवेन मेवाड़ी मूलतः उत्तराखण्ड के निवासी हैं और ‘मेरी यादों का पहाड़’ शीर्षक उनकी आत्मकथात्मक रचना हाल के वर्षों में बहुत लोकप्रिय रही है.

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