फिर आई दिवाली, मां ने फिर वहीं पुराना राग अलापा. “सब कबाड़ घर का बाहर निकाल दो साफ सफाई करके घर में पुताई करनी है.” “चनी! तेरा एक संदूक है स्टोर में, मतलब का सामान छांट कर एक तरफ रख दे और बाकी बचा कुचा कचरा सब बाहर फेंक.” अलास में मैं अक्सर टाल दिया करता था मां की फरमाइश, कि रहने दो इस साल कभी फिर समय मिलेगा तो. पर इस बार न जाने क्यों आलस हार गया, सोचा आखिर देख ही लूं क्या है वो समान जिसे कचरा-कबाड़ कहती हैं मम्मी. (Memoirs of Chiranjeevi Tamta)
संदूक जिसके बीचों-बीच में एक कुंदा लटका था, कई साल पहले उसमें नवताल का पीला ताला लटका रहता था जो अब वहां नहीं था. उन दिनों छात्रावास में मैं अपनी करधनी में बांधकर सोता था संदूक की चाबी, बहुत अचरज होता है और गर्व भी मुझे अपने बचपन में जुटाए भोलेपन पर. छात्रावास की पहली रात मैंने इसी संदूक के साथ बिताई थी. पापा मुझे हॉस्टल छोड़कर चले गए थे. पांच साल मेरे साथ रहा ये संदूक. हॉस्टल में सिफ्टिंग करते वक्त न जाने कितनी बार एक जगह से दूसरी जगह उठाया था. हॉस्टल की लम्बी सीढ़ियां पार करने के लिए मैं बड़ा हुआ, पर ये संदूक आज भी उतना ही बड़ा मेरी मासूम उतरनों को समेटे हुए है. काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें
इसमें मेरे स्कूल, भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय नैनीताल, की नीले रंग की एक स्वेटर थी, जो थोड़ी गंदी थी. मिड डे मील का खाना कभी बच जाता था तो 12-अ वालों को बुला लेते थे पीटीआई गोविंद सर क्योंकि इस कक्षा में स्पोर्ट्स वाले लड़के ज्यादा थे. होड़ में सर्वप्रथम मैं पहुंच जाता था खाने के लिए. शायद विद्यालय के अंतिम दिनों में मैं मिड डे मील खाने गया होऊंगा और वहां स्वेटर में दाल गिर गई होगी. उस दाल को मैंने नाखूनों से खुरचकर साफ़ करने की कोशिश की होगी पर जिन लम्हों को ‘याद’ बनना है वो नाखूनों से कहां साफ़ होते हैं? एक वेब बेल्ड थी मैली-कुचली सी, उसका लॉक अभी भी लगा ही हुआ था. कॉलेज एनसीसी की एक खाकी ड्रेस गुड़ी मुड़ी हालत में. एक मोटे चमड़े की बेल्ट. एक बैरेट और एक लाल पंखों वाला एनसीसी का हैकल जिसकी पंखुड़ियां उस लोहे के तार से अब तक चिपकी थी परन्तु जंग ने उसे अपने चपेट में ले ही लिया था. एक सेंट की शीशी और उसके साथ उबलती हुई एक अजीब सी सुगंध. एक नेम प्लेट थी काले रंग की जिस पर उकेरे हुए सफेद शब्द अब धूमिल होने लगे थे. एक डायरी थी गुलाबी कवर वाली, मैंने खोल कर देखा तो उसमें हॉस्टल की यादों के कुछ पहलू लिखे थे. उसी पर एक पेन भी रखी हुई थी. आज मैंने उसी डायरी के एक पेज पर लिखने की कोशिश की पर बहुत अंतर था.
“हैं कुछ काम का?” मम्मी ने आकर मुझे लगभग जागते हुए पूछा
“नहीं, पर पड़ा रहने दो. एक कोने पर पड़ा रहेगा. ऐसा तो कुछ नहीं है जो वक्त के साथ सड़ जाए.”
ऐसा इसलिए— क्योंकि जो गुजर जाता है अक्सर आसानी से भूत हो जाता है. वे जगहें वहीं रह जाती हैं वे खंडहर नहीं होती वे सांस लेते कई पलों और घटनाओं को समेटे रहती हैं. वे घटनाएं जो लोगों के लिए आसानी से भूत हो जाती हैं वे उन जगहों या वस्तुओं के लिए कभी भूत नहीं हो पाती. अक्सर हमें इस संघर्ष का आनन्द तब नहीं मिलता जब ये चल रहा होता है.और जब पूर्ण हो जाता है कई बार उस जगह की मिट्टी को कुरेदने का जी करता है.
यह उस कुरेदी हुई मिट्टी की अदनी सी खेप भर है.
अभावों से भरे जीवन के सपनों से शुरू हुई कहानी आज हमें ऐसी दुनिया में ले गई है जहां से बस ऊपर देखना, उड़ना और आकाश को चूमना ही जीवन का एकमात्र सपना रह गया है. जब आंखों की परछाइयां मां-बाप के सपनों के बोझ तले घटती जाती हैं. हर पल संघर्ष होता है. यह संघर्ष मां-बाप के बिना लड़ा जाता है. वक्त की बदतमीजियां ऐसी होती हैं कि इंसान को पता नहीं लगता कि कोई उस पर हंस रहा है. लेकिन इतना जरूर कहूंगा आपकी थकी हुई मिट्टी देर सबेर जरूर फूल खिलाती ही है.
चिरंजीवी टम्टा नैनीताल जिले के बेतालघाट ब्लॉक के सीमांत गांव बनखेता से हैं.
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