हम उन्हें ताऊजी कहते थे परंतु हमारी इजा की दीदी के श्रीमान होने के नाते दिल्ली की देसी भाषा में वे हमारे मौसा जी होते. ताऊजी का व्यक्तित्व कमाल का था. जो भी उनसे मिलता, उनका मुरीद हो जाता. क्या बच्चे और क्या बुजुर्ग सब उनसे मिलने को लालायित रहते. (Memoirs by Tara Prakash Tripathi)
ताऊजी थे तो एक सामान्य पहाड़ी परिवार से पर उन्होंने जो नाम कमाया, वह निश्चित रूप से असामान्य ही था. वे सेल्फ मेड मैन होने का जीता जागता उदाहरण थे. उन्होंने बिजली से सम्बंधित हर काम खुद ही सीखा और देखते ही देखते उनके हुनर के चर्चे दूर-दूर तक गूंजने लगे. वैसे पहाड़ में गूंज होना कोई असामान्य बात नहीं है पर ताऊजी तो जैसे गूंजने के मानो पर्यायवाची ही थे.
वैसे तो वे सरकारी और व्यावसायिक प्रतिष्ठानों का नियमित विद्युत प्रबंधन कर या लोगों के घर जा कर उनकी बिजली सम्बन्धी समस्याओं का समाधान कर ही जीवनयापन करते थे, पर बाद में उन्होंने नैनीताल के बड़ा बाजार में खुद की दुकान भी स्थापित की. यह दुकान आज भी उनके योग्य सुपुत्रों और ताऊजी द्वारा प्रशिक्षित कर्मचारियों की वजह से चल रही है, पर ताऊजी हम सब को अलविदा कहकर अंतिम प्रस्थान कर चुके हैं. वे बेशक अब सशरीर हमारे बीच नहीं हैं, पर उनसे जुड़ी स्मृतियाँ उनके रिश्तेदारों और ग्राहकों के दिलों में हमेशा राज करती हैं और उनकी उपस्थिति का एहसास कराती रहती हैं.
साल में कम से कम एक बार गर्मी की छुट्टियों में हमें उनके सानिघ्य का आनंद उठाने का मौक़ा मिलता. छुट्टियों में नैनीताल की अलग ही शोभा रहती. माल रोड का लुत्फ़ उठाते लोग तनाव भूल कर मदमस्त नज़र आते. इस दौरान बड़ा बाज़ार भी नाम के मुताबिक़ बड़ी भीड़ को आकर्षित करता. ताऊजी की दुकान पर भी उन दिनों अपार भीड़ दस्तक देती. लोग उनसे यूँ ही— मिलने या अपनी बिजली सम्बन्धी या व्यक्तिगत समस्याएं सुलझाने वहां पहुंचते. ताऊजी तसल्लीबख्श तरीक़े से सबको सुनते और उनसे जो बन पड़ता सबके लिए करते थे. निश्चित रूप से ताऊजी अपार प्रतिभा के धनी तो थे ही, संयम की भी उनमें कोई कमी नहीं थी. झुँझलाहट, चिड़चिड़ापन, ग़ुस्सा इत्यादि जो एक सफल व्यक्ति के व्यक्तित्व का अभिन्न हिस्सा बन जाते हैं, ताऊजी के व्यक्तित्व को मानो छू भी ना पाए थे.
यह सम्भव है कि उस दिन की घटना के बाद से वे कुछ अधिक ही अपने व्यक्तित्व के इस पहलू के बारे में सचेत हो गए हों. उस दिन भी नैनीताल में बहुत भीड़ थी. लोग न जाने कहाँ से आ रहे थे और कहाँ जा रहे थे. एक ओर घोड़े पर बैठने को बच्चे लालायित दिखते तो एक ओर नाव की सवारी को. मानो हर नैनीताल वासी हर पर्यटक की अगवानी करने माल रोड पर पहुँच गया था. हल्की गुनगुनी धूप के आनंद से मानो सब लोग अपने दिल के तनाव और अपने मस्तिष्क की तपिश को धो रहे थे. हर ओर आनंद और उल्लास बिखरा जान पड़ता था. नैनीताल का उल्लास बड़ा बाज़ार में भी परिलक्षित होता था. जनसमुदाय बाज़ार के सम्मोहन से विस्मृत हुआ जाता था लेकिन ताऊजी को बाज़ार का जादू छू भी नहीं गया था. जिनका जीवन सेवा में समर्पित हो, उन्हें अपने व्यक्तिगत आनंद के लिए फ़ुरसत ही कहां होती है.
वे अपने स्वभाव के मुताबिक़ अपनी दुकान पर आए लोगों को उनकी ज़रूरत का सामान दे रहे थे, उनके दुःख दर्द बाँट रहे थे, उनको समाधान सूझा रहे थे. किसी को हीटर ठीक कराना था तो किसी को नया हीटर ख़रीदना था. कोई नया बल्ब ख़रीदने आया था तो किसी को खिलौने में बैटरी बदलवानी थी. किसी को कुछ रुपए उधार चाहिए थे तो किसी को कुछ अन्य तरह का उद्धार. इन सबके बीच रात काफ़ी हो गई थी. ताऊजी भी कुछ थके नज़र आ रहे थे और वो घर जाकर कुछ खा-पीकर रोज़ ही की तरह एक अच्छी नींद लेकर अगले दिन के लिए तैयार होना चाहते थे. हम बच्चों के लिए तो उन्होंने कोल्ड ड्रिंक्स और समोसे इत्यादि मंगा दिए थे, पर खुद वे बाज़ार के खाने में उतनी रुचि नहीं लेते थे. अभी कुछ आवश्यक सामान बँटवा, बैग इत्यादि बंटवा कर जैसे ही वे दुकान से निकलने को तैयार हुए, एक 6 फुट का लम्बा, गोरा अंग्रेज व्यक्ति वहां पहुंचा. ताऊजी कभी ग्राहकों में उनकी जाति, धर्म, रंग इत्यादि के आधार पर भेदभाव नहीं करते थे. “काले गोरे का भेद नहीं, हर दिल से हमारा नाता है” इस सिद्धांत में ताऊजी का परम विश्वास था. पर आज शायद देर कुछ ज़्यादा हो गई थी. हमें इंगित करते हुए उन्होंने कुमाऊनी भाषा में कहा “तौ ख्वर पीड़ कां बटी ऐ गौ?” हमसे वैसे वो हिंदी में बात किया करते पर उन्हें इतना मालूम था की हम समझ जाएँगे कि वे कह रहे है, “ये सर दर्द कहाँ से आ गया?” उनका विश्वास था कि अंग्रेज बेशक थोड़ी बहुत हिंदी समझ लेते हों पर कुमाऊनी में कही बात गोरा आदमी नहीं समझ पाएगा.
नैनीताल अंग्रेजों का प्रिय शहर था ऐसा माना जाता है. पर जब वहाँ के स्थानीय निवासी ही पहाड़ी बोली से अनभिज्ञ हों तो अंग्रेजों के वह भाषा जानने का कोई भी कारण होना अस्वाभाविक ही है. परंतु ये अंग्रेज महाशय किसी और ही मिट्टी से बने थे शायद. तपाक से बोले, “तस किलै कूंछा, ग्राहक भगवान हूंछ.” (आप ऐसा क्यूँ कहते हैं, ग्राहक तो भगवान होता है) ताऊजी के पैरों के नीचे से तो मानो ज़मीन ही खिसक गई. उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा होगा की एक अंग्रेज वास्तविक तौर पर उन्हें उन्हीं की भाषा में जवाब दे देगा. एक तरफ़ सुखद आश्चर्य से उनका मन कहीं उड़ा जा रहा था, तो दूसरी ओर से एक आगंतुक को कहे अनुपयुक्त वचनों की ग्लानि से अक्लांत उनका तन कहीं छिप जाना चाहता था. खैर, उन्होंने खुद को सम्भाला, व्यावसायिकता के चोले को पुनः पहना और अंग्रेज आगंतुक से हाथ मिलाकर उसे जो चाहिए था दिया. जब अंग्रेज ने पूछा कि उसे कितना पैसा देना है, ताऊजी ने कहा शाम के इस टाइम हम भगवान से कुछ लेते नहीं, उसे देते ही हैं. अंग्रेज के लाख ज़िद करने पर भी ताऊजी ने उससे पैसे नहीं लिए और इस तरह एक घटना जो शर्मिंदा कर सकती थी, उसका सुखद अंत हुआ. अंत नहीं हुआ तो इस कसमसाहट का कि एक अंग्रेज अगर कुमाऊनी सीखकर तपाक से ताऊजी को जवाब दे सकता है, तो जिनके पूर्वज पुश्तों से पहाड़ी बोलते आए हैं उनको कुमाऊनी से इतना परहेज़ क्यों होता है.
मूल रूप से चम्पावत के रहने वाले तारा प्रकाश त्रिपाठी की शिक्षा-दीक्षा दिल्ली में हुई, इन दिनों संयुक्त राज्य अमेरिका के मैरीलैंड राज्य में शोध और अध्यापन कार्य कर रहे हैं. दृष्टिहीनों के लिए उपयोगी टेक्नॉलजी के विकास में भी उनका उल्लेखनीय योगदान है.
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