इक नग़मा है पहलू में बजता हुआ
– शंभू राणा
करीब पांचेक साल बीत गए सतीश को गुजरे हुए. वह मेरा बालसखा था और इस शहर में बनने वाला पहला दोस्त भी. करीब पैंतीस-छत्तीस साल पहले जब हम पहली बार मिले तो दोस्ताना अंदाज में नहीं मिले थे, हमारे बीच न जाने क्या बात हुई कि उसने बुरी तरह मेरी बांह मरोड़ दी और मुझे रोता छोड़ भाग खड़ा हुआ. उस उम्र का झगड़ा ज्यादा दिन चलता नहीं. हम दोनों जल्दी ही अच्छे दोस्त बन गए.
सतीश जिला पंचायत परिसर में बने सरकारी क्वार्टर में अपने पिता व बड़े भाई के साथ रहता था. उसके पिता जिला पंचायत में नौकर थे. मेरे पिता का दफ्तर भी इसी परिसर में था.
अल्मोड़ा जिला पंचायत का यह परिसर तब आज से बिल्कुल अलग था. काफी खुला-खुला सा. कई पेड़-पौंधे वहां थे. हमारे खेलने-कूदने को इफरात से जगह थी. आज की तरह इतनी इमारतें नहीं थी कि आदमी एक गली से निकलता है तो दूसरी में जा घुसता है. और न जाने क्यों एक मंदिर भी वहां बन गया है. कुछ ही दिनों में उस जगह से मैं अच्छी तरह से परिचित हो गया. गिनती के दफ्तर थे. उन दफ्तरों के कई पुराने कर्मचारियों को आज भी पहचान लेता हूं. भले ही उनसे कभी राब्ता न रहा हो. कुछ गुजर गए होंगे. कई रिटायर होकर अपने गांव या कहीं और जा बसे होंगे. आज जब कभी किसी काम से उस परिसर में जाना होता है तो कुछ वैसा ही अहसास होता है जैसे कोई भूतपूर्व प्रेमी जोड़ा एक जमाने बाद मिलने पर एक-दूसरे को देखकर सोचता होगा- कैसे थे, क्या हो गए, क्या वो तुम ही थे?
कुछ दिन बाद मेरा भी दाखिला उसी स्कूल में करवा दिया गया जहां सतीश जाता था. वह मुझसे एक दर्जा आगे था. सतीश मुझसे कुछ लम्बा और तगड़ा था. उसका हैंडराइटिंग काफी अच्छा था और पढ़ाई में मुझसे कहीं बेहतर भी. वह शुरू से ही बड़ा फितरती किस्म का रहा. चूल्हे के धुंए की आड़ लेकर अपने पिताजी की मौजूदगी में बीड़ी पीने की कला वह तभी सीख चुका था. किसी लावारिस मगर काम की चीज को वह यूं उठाकर झोले में रख लेता जैसे वह उसी की हो. खाली अध्धे-पव्वे, टिन-प्लास्टिक को बटोरकर कबाड़ी को बेचना और पैसा कमाना मैंने उसी से सीखा. और यह भी कि अगर पांच लीटर कैरोसीन मंगवाया है तो साढ़े चार लीटर लो और बाकी पैसों से ऐश की जाए. उसमें चालाकी धूर्तता की हद तक थी. काश कि वह रचनात्मक और सकारात्मक हो पाती.
आठवीं के बाद उसका दाखिला जीआईसी में हो गया. तब अल्मोड़ा जीआईसी में जिस लड़के को एडमिशन मिलता था वह पढ़ाई में औसत से अच्छा माना जाता था. दाखिले के लिए बकायदा एक इम्तहान होता था. सतीश मुझसे बेहतर था पर इतना भी नहीं कि जीआईसी वाले उसे ले लेते. मेरा ख्याल है कि उसके दाखिले के पीछे उसके पिता के किसी प्रभावशाली यजमान का हाथ रहा होगा. वे नौकरी के साथ-साथ पार्ट टाइम पुरोहिती भी किया करते थे. सतीश नवीं में फेल हो गया. दुबारा दाखिल मिला नहीं या उसने खुद ही सख्त अनुशासन से तंग आकर नाम कटवा लिया, याद नहीं. वो नवीं फेल, मैं आठवीं पास. हम दोनों ने अल्मोड़ा इंटर कॉलेज का रूख किया. एक से विषय, एक ही क्लास. हम रहते भी एक ही दिशा में थे. स्कूल आना-जाना साथ ही होता. तब हम ये सोच के इतराते थे कि कुल जमा सोलह जमातें तो पढ़नी होती हैं. आधी तो हमने पढ़ डालीं.
सतीश में दूसरों की आवाज का मीटर पकड़ने की अद्भुत काबिलियत थी. यही नहीं वह सामने वाले आदमी के चलने, बोलने या किसी खास अदा को झट से आत्मसात कर लेता और उसे हू-ब-हू कर-बोलकर हंसाता था. उसमें एक अच्छा मिमिक्री कलाकार के गुण जन्मजात थे. फिल्मी गीतों की अश्लील पैरोडी करने में उसे महारत थी. बल्कि उसने स्कूल में की जाने वाली प्रार्थना के भी कुछ हिस्सों की ऐसी ही पैरोडी रच डाली थी. प्रार्थना के समय चेहरे को निर्विकार रखकर वह उसे गाता जिससे अगल-बगल खड़े लड़कों की हंसी छूट जाती. और वो पिट जाते.
इसी दौरान हमें फिल्में देखने का चस्का लगा. हम दोनों ही कड़के बापों की औलाद थे. सिनेमा का सबसे सस्ता टिकट सवा दो या ढाई रूपये का मिलता था. यह रकम तब हमारे लिए बड़े मायने रखती थी. पैसों के लिए हम क्या-क्या जुगत नहीं करते थे. लिपाई के काम आने वाली लाल मिट्टी खोदकर बेचने से लेकर कबाड़ी को बेच जा सकने लायक चीजें उठाने और छोटी-मोटी चोरी तक. जिस दिन स्कूल की फीस पड़ती उस दिन दूसरे पीरियड के बाद भागकर हर हाल में सिनेमा हॉल पहुंच जाते. एक बार सतीश ने किसी को पिछले दिन का टिकट यह कहकर बेच दिया कि हमार एक साथी नहीं आया, एक टिकट बच गया है. टिकट न जाने कैसे गेटकीपर के हाथों से बचा रह गया और उसका एक हिस्सा जो गेटकीपर फाड़कर अपने पास रख लेता था, नहीं फटा था. यकीनन बाद में एक सीट के दो दावेदारों में झगड़ा हुआ होगा.
दसवीं में हम दोनों साथ फेल हुए. एक बार प्राइवेट इम्तहान दिया. फिर दोनों ने ही हाथ जोड़ दिए. मैं घर बैठकर मशीन की-सी तेजी और सफाई से लिफाफे बनाने लगा. सतीश ने कोई काम नहीं छोड़ा. बल्कि यूं कहना बेहतर होगा कि किसी भी काम को कभी ढंग से पकड़ा ही नहीं. शुरू में उसे ड्राईवर बनने का शौक था. शुरूआत उसने यहीं से की. उसने एक पंडित जी से दोस्ती गांठ ली. पंडित जी नगर पालिका में कूड़ा-ट्राली ढोने वाला टैक्टर चलाते थे. सतीश उनका शागिर्द हो गया. तबके गुरू लोग अपनी विद्या इतनी आसानी से चेलों को नहीं दिया करते थे. फिर भले ही वह टैक्टर चलाने का हुनर ही क्यों न हो. हर गुरू अपने फन का बड़े गुलाम अली खां हुआ करता था. मैं बीच-बीच में पूछता रहता- कितना आ गया सतीश ? कभी वह बताता कि स्टार्ट करना आ गया तो कभी यह प्रगति टैक्टर को आगे-पीछे करने तक भी चली जाती. उसे शिकायत थी कि बुढ़ढा स्टेयरिंग मुझे देता ही नहीं. प्रगति बेहद धीमी रही. फिर एक दिन पंडितजी के दिन पूरे हो गए. स्टाफ ने उन्हें शाल-श्रीफल, लाठी और गीता थमा कर विदा कर दिया. और यूं सतीश की पहली हसरत का अंतिम संस्कार संपन्न हुआ.
एक दिन पता चला कि उसकी शादी होने वाली है. मैंने उससे पूछा कि भाई खाएगा क्या ? मेरा इशारा उसकी बेरोजगारी की ओर था. उसने जबाब दिया- घर वाले जिद कर रहे हैं. ज्यादातर लोग घर वालों की ही ‘जिद’ पर शादी करते हैं. अपनी इच्छा से करने वालों का आंकड़ा बड़ा छोटा है. करीब साल भर बाद एक दिन उसने अपना हाथ मेरे आगे फैला कर कहा- यार देख तो मेरे हाथ में दूसरी शादी का योग है या नहीं ? न जाने कैसे उसे मेरे भविष्यवक्ता होने की गलतफहमी हो गई. मैंने पूछा- क्या बात है ? उसने मुझे एक अन्तर्देशीय पत्र दिखाकर कहा- क्या बताऊं यार, मेरी शादी एक भ्यास से हो गई. अब देख, चिट्ठी लिख रही है मायके को और पता लिखा है ससुराल का. हुई कि नहीं अधपगली ? तू ही बता ? भला मैं क्या बताता.
सतीश के पिता रिटायर होकर गांव जा चुके थे. कुछ समय बाद सरकारी क्वार्टर भी नहीं रहा. सतीश एक तरह से खानाबदोशों की-सी जिंदगी जीने लगा. किसी चीज का कोई ठिकाना नहीं रह गया था. वह अकसर जिला पंचायत के चौकीदार के साथ सो जाता या गर्मियों के दिन हुए तो बाहर पड़ी बैंचों में ही रात गुजार देता. शराब वह पहले ही पीने लगा था. शराब का कोई समय नहीं था. जब, जहां, जितनी मिले गटक लो. माना अगर कोई उससे कहे कि फलां जगह पचास रूपये में पांच लीटर शराब मिल रही है तो वह यह नहीं पूछेगा कि वह शराब कैसी होगी, बल्कि पचास रूपया और जरकिन के जुगाड़ में लग जाएगा. खाने-पीने का कोई ठिकाना नहीं. नहाने-धोने से उसे विशेष परहेज रहने लगा था. उसके बदन से अकसर बास आती थी.
एक बार न जाने किसने, किस मजबूरी या गलत फहमी के चलते उसे बच्चे का नामकरण करने बुलवा लिया. बाद में उसने मुझे यह किस्सा सुनाया. वह नशे में था और पिताजी की पुरानी पुस्तकों में से कोई एक पुस्तक झोले में डालकर चला गया. नामकरण संस्कार शुरू होने से पहले जब उसने पुस्तक बाहर निकाली तो तब जाकर गलती का एहसास हुआ. उसने यजमान से कहा मुझे एक पुराना अखबार दे दो, जिल्द चढ़ा दूं वर्ना पुस्तक मैली हो जाएगी. नामकरण संस्कार सफलता पूर्वक संपन्न हुआ. कौन-सी किताब उठा ले गया ? तो उसने बताया कि यार दारू की झौंक में ध्यान ही नहीं रहा, मैं प्रेतमंजरी उठा ले गया. कौन साला संस्कृत जानता है. न पढ़ने वाला, न सुनने वाला. दावे से कहा जा सकता है कि दुनिया का पहला नामकरण संस्कार होगा जो प्रेतमंजरी पढ़कर संपन्न हुआ होगा. नामकरण संस्कार संपन्न हुआ, पंडितजी दक्षिणा लेकर ठेके की ओर चले. कर्मकाण्डों पर अपनी आस्था पहले ही हिलते हुए दांत-सी थी, इस वाकए के बाद वह दांत निकल भी गया.
सतीश और मेरे पिता के संबन्ध बड़े ही विचित्र किस्म के थे. वह अकसर हमारे कमरे में आ जाया करता था. बीच-बीच में मेरे पिता के साथ कोई छोटी-मोटी हेराफेरी कर दिया करता था. ऐसे में वे उसे डांट कर भगा दिया करते कि सती निकलो यहां से, तुम साले बड़े फोर ट्वेंटी किसम के आदमी हो. दुबारा हमारे यहां मत आना. खबरदार. फिर वह कई दिनों तक नहीं आता. पिता हफ्ते भर के भीतर ही मुझसे पूछ लेते- अरे सतुवा बामण कहां है रे आजकल?
हफ्ते-दस दिन बाद वे सतीश को फिर पकड़ लाते. वह उन्हें किसी दुकान या राह किनारे बैठा मिल जाता. उसे देखते ही कहते- अरे सती गुरू, तुम यहीं हो? हमने सोचा गांव चले गए. दिखे नहीं? और सुनाओ? खाना खाया? तो चलो पालक का कापा बनाया है. अपने लिए कहीं से हरी मिर्च ले आओ. इतनी मिर्च मत खाया करो सती. अल्सर हो जाएगा तो याद करोगे.
तीन थालियां लगतीं. सतीश और मैं अगल-बगल बैठते. कई बार यह होता कि प्रेशर कुकर के ढक्कन में चावल का जरा भी अंश नहीं लगा होता, पिता ढक्कन को ध्यान से देखते और यह कह कर उसे किनारे रख देते कि ये तो हो गए हमारे तिवाड़ीजी, इन्हें तो धोने-धाने की कोई जरूरत ही नहीं. यह उनका तंज होता सतीश के न नहाने-धोने पर. वे पूछते – हां सती कैसा बना, नमक मिर्च? सतीश के जबाब कुछ इस तरह के होते- हां, बढ़िया, मजेदार, मजे के लिए तो कुतिया लाहौर तक चली गई थी. पिता कुछ उंचा सुनते थे इसलिए ऐसे जबाब के बावजूद मैं सर उठाकर खाना खा पाता था. कभी विस्तार से पूछ नहीं पाया उससे कि ये कुतिया के लाहौर जाने का किस्सा क्या है?
कुछ दिनों बाद फिर वही-निकलो सती यहां से, तुम ठग हो, बेईमान हो…
एक बार वह दिवाली में किसी परिचित के घर गया. उसने पूछा- चाची कुछ फूल तोड़ लूं, चाची ने कहा- हां, सतीश तोड़ लो. सतीश ने फूल चुने और धन्यवाद कह कर चला आया. रास्ते में उसे बाजार से खरीददारी कर लौट रहे एक चाचाजी मिले. उसने फूल उन्हें बेच दिए. यह वही चाचाजी थे जिनके घर से वह फूल तोड़कर लाया था.
हाजिरजवाबी में उसका कोई जवाब नहीं था. उसकी चुस्त जुमलेबाजी गुजरे जमाने के सड़क छाप मदारियों-दवाफरोशों की-सी थी. मसलन कोई आदमी अपनी टांगों के उद्गम स्थल पर खुजला रहा हो तो वह बड़ी ही गंभीरता से कहता- अरे-अरे क्या कर रहे हो, ऐसे कानून अपने हाथ में नहीं लेते. मान लीजिए कि सतीश बीड़ी की जगह सिगरेट पी रहा है और किसी परिचित ने टोक दिया कि क्या बात सद्दा, आज तो बड़े ऐश हो रहे हैं. तो वह बिना एक पल गंवाए जवाब देगा- अपना तो ऐसा ही है यार, जेब फटे तो फटे, स्टेंडर न घटे. किसी को इस हाल में देखने पर वह कहता- क्या बात, आज औकात से बाहर हो, किसकी जेब काटी?
मेरा आंखों देखा एक वाकया है. एक दिन किसी परिचित ने सतीश से कहा – क्या बताऊं यार पंडितजी, आज का पूरा दिन इतनी भाग-दौड़ में बीता कि खड़े होने की भी ताकत नहीं बची है. सतीश ने उससे सहानुभूति जताते हुए कहा – हां यार तभी मैं भी कहूं कि आज तुम्हारी सूरत जूते खाए सी क्यों हो रखी है. वह आदमी वाकई दिमागी रूप से भी इतना थक चुका था कि उसने सतीश की बात सुनी मगर समझ नहीं पाया.
कई बार वह इतनी बारीक चीजें पकड़ लेता कि मुझे उससे रश्क-सा महसूस होता था. मसलन एक बार जिला पंचायत के मीटिंग हॉल में चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों का कोई सम्मेलन था. सतीश उन दिनों पास ही एक चाय की दुकान में काम करता था. मीटिंग के दौरान चाय पिलाने का ऑर्डर उसी दुकान को मिला था. चाय पिलाने के कुछ देर बाद जब सतीश खाली कप लेने गया तो तब का अनुभव बकौल उसी के- सब लोग हड़बड़ा कर अपने-अपने कप उठा कर ट्रे में रखने लगे. साहब लोगों की मीटिंग में कप खुद झुक कर उठाने पड़ते हैं.
सब्जी का फड़ लगाने, दुकानों में काम करने, लाटरी बेचने, कैटरिंग में हैल्परी करने जैसे न जाने क्या-क्या काम उसने किए. पर कहीं भी टिका नहीं. कारण वही शराबखोरी, चंचलता और फौरी फायदे के लिए छोटा-मोटा चूना लगा देने की आदत.
मेरे पिता कई बार उसे समझाते – सती गुरू, यार तुमने अपनी क्या हालत बना ली है. अरे यार पंडित के बच्चे हो, जरा ढंग से रहोगे तो लोग इज्जत करेंगे. तुम्हारे पिताजी का इतना मान है, नाम है. तुम्हारे तो नजदीक ही में हैं, सुबह को धारे पर जाकर ठीक से नहा-धो लिया करो, फटा-पुराना ही सही, साफ कुर्ता-पायजामा पहनो, माथे पर तिलक लगाकर पंडित जैसे बनके निकलो, दाढ़ी ससुर या तो ढंग की रखो या कटवा लो. ढंग से रहोगे तो क्या नहीं हो सकता. अपने बड़े भाई को देखो, कितनी अच्छी पंडिताई जमा ली है. तुम क्यों नहीं कर सकते. क्यों कंजड़ों जैसे बने फिरते हो. दारू आज-कल कौन नहीं पीता, शाम को लिमिट की पिओ, कौन पूछता है ? जो अपना ढर्रा छोड़ दे वह फिर सतीश नहीं हो सकता. उसे नहीं बदलना था, नहीं बदला. दूसरों के प्रति तो दूर की बात वह कभी खुद के साथ भी ईमानदार न हो सका.
दूसरी संतान के रूप में जब उसको बेटा हुआ तो लोगों ने बधाई दी- सद्दा बधाई हो बेटा हुआ है. तो उसका जवाब था- अरे काहे का बेटा, पितर हुआ है कहो, देख नहीं रहे इन दिनों पितृपक्ष चल रहा है. हाजिर जवाबी और न सिर्फ दूसरों का बल्कि खुद का भी मजाक उड़ाने की उसकी आदत अंत तक बनी रही.
यह बात पहली नजर में बड़ी अटपटी और विरोधाभासी-सी लगती है कि अभावग्रस्त आदमी में कई बार उंचे पाए का हास्यबोध उत्पन्न हो जाता है. एक विपन्न आदमी आए दिन जीवन की ऐसी-ऐसी विद्रूपताओं से दो-चार होता है जिन्हें कोई साधन संपन्न आदमी सोच भी नहीं सकता. यहीं पर वह दो रहा है जहां से एक लम्बा और पथरीला रास्ता दीनता की ओर जाता है. इस रास्ते पर जो चला वह न सिर्फ अपना जीवन और कठिन बना लेता है बल्कि वह निपट अकेला पड़ जाता है. एक दिन वह खुद को इंसान ही मानना छोड़ देता है. दूसरा रास्ता व्यंग मिश्रित हास्य की ओर मुड़ता है. चार्ली चैपलिन की फिल्में इसी की पैदाइश हैं. अपने दुखों और अभावों की अगर कोई खिल्ली उड़ाना सीख ले तो उनकी धार उतनी नहीं चुभती कि जितनी दीनता में. सतीश अनजाने ही इस राह पर चला आया था. बयालिस-तितालिस साल का उसका जीवन घोर अभावों में बीता मगर दीनता या बेचारगी कभी चेहरे पर देखी हो याद नहीं पड़ता. हमेशा आंखों में एक शरारत का भाव और कोई नई खुरापात करने की ताक में वह दिखता था.
अनियमित जीवन और खान-पान की लापरवाही ने उसे असमय ही बूढ़ा-सा बना दिया था. अच्छा-खासा शरीर ढल गया था. बाल कुछ ज्यादा ही सफेद हो गए थे और ज्यादातर दांत गिर गए थे. वह अपनी वास्तविक उम्र से काफी बड़ा लगने लगा था. कई बार वह अपनी उल्टी-सीधी हरकतों के चलते इसी कारण पिटने से बच गया कि लोगों ने सोचा छोड़ो यार, बुढ़ढा आदमी है. जबकि वह उम्र में मुझसे कुछ माह छोटा था. वाकई उसने अपनी गत बुरी बना ली थी.
आखिर के कुछ सालों को छोड़कर मेरे-उसके सम्बन्ध मधुर रहे. मैं उसकी ज्यादातर बातों की सच मानता था. उसका भरोसा करता था. उसकी सारी हरकतों को जानने के बावजूद न जाने क्यों मुझे लगता था कि कम से कम वह मुझसे झूठ नहीं बोलता, बेइमानी नहीं करता. यह कच्ची उम्र की दोस्ती का असर रहा होगा. कई मौकों पर मैंने उसका बचाव किया और जो भी बन पड़ा मदद की. पर धीरे-धीरे मानना पड़ा कि यह महज मेरी खामख्याली है. वो तो मुझे भी नहीं बख्शता. पर हमारी दोस्ती जारी रही. घर आना-जाना, साथ खाना-पीना, घूमना-फिरना, पिक्चर देखना लगा रहा. पर अब मैंने जरा सतर्कता से काम लेना शुरू कर दिया था. मैं खुद उसी जैसा फटीचर रहा इसलिए सतीश कभी मुझे कोई बड़ा जर्क तो नहीं दे सकता था, पर किसी का भरोसा खो देना किसी हादसे से कम नहीं होता. कई बार आदमी अपनी नासमझी के चलते छोटी-छोटी राहतों के स्रोत बंद कर बैठता है. और सतीश ने जीवन भर यही किया
बावजूद इस सबके, मैं जिसकी कल्पना भी नहीं करता था, एक दिन वह हो गया. सतीश कहीं से नशे की हालत में लड़खड़ाता हुआ मेरे कमरे में आया. उस समय एक मित्र मेरे पास बैठे थे जो उसके भी परिचित थे. उसने अजीब-सी बेसिरपैर की बातें करनी शुरू कर दी. जरूरत से ज्यादा पिए था और एक साबुत पव्वा उसकी कमर में अड़ा था. उसने शराब के लिए पैसों की मांग की. जिसके पेट में भरपूर शराब हो और एक सील बंद पव्वा पास में हो, वह शराब के लिए पैसा मांगे, यह बड़ी ही बेतुकी और चिढ़ पैदा करने वाली ही बात मानी जाएगी. मैं जब्त करता रहा, टालता रहा. बड़ी देर तक बक-झक के बाद उसने कहा बीड़ी पिलाओ. मैंने पांच रूपये दिए, सोचा कि ये टले तो सही किसी तरह. उसने पैसे उछाल दिए यह कहकर कि साले मुझे भिखारी समझ रखा है क्या? मैंने उसे सख्ती से बाहर जाने को कहा. उसने बाहर निकल कर सीढ़ियों में रखे पानी के जरकिन उठा कर पटक दिए. गालियां और असंभव किस्म की धमकियां देता हुआ चला गया. क्या अजब दुर्योग है कि दोस्ती की शुरूआत अंत एक जैसा था.
इसके बाद कई दिनों तक वह मेरे सामने नहीं आया. काफी समय तक कटा-कटा-सा रहा. धीरे-धीरे हमारी बातचीत शुरू हो गई मगर रिश्ता पहले-सा न हो सका. उसमें एक औपचारिकता आ गई थी. मैं उसकी खैरियत यहां-वहां से लेता रहा और बिना मांगे कोई मदद, जो मेरी हैसियत में थी, करनी बंद कर दी.
लेकिन बावजूद इस सबके मैं कैसे भूल जाउं कि हमने बचपन का काफी अर्सा साथ बिताया, साथ खेले, एक साथ स्कूल गए. न जाने क्या-क्या जुगाड़ करके ढेर सारी पिक्चरें एक साथ देखीं … अनगिनत खट्ठी-मीठी यादें उसमें बावस्ता हैं. स्कूल से वापसी में हम अकसर चलती बसों के पीछे छत में जाने के लिए जो सीढ़ी होती है उसमें लपक कर लटक जाया करते और बस स्टेशन तक पैदल चलना बच जाता. इस कोशिश में कई बार टपकते-टपकते बचे भी. जब मेरे पिता गुजरे उस समय सतीश ने ही सब किया. पब्लिक नल से पानी ढोना, खाना बनाना, आने वालों के लिए चाय और बाजार का सौदा-सुलफ सब उसी ने निभाया.
जब कभी सतीश के बारे में सोचता हूं तो कुछ इस तरह के नतीजे पर पहुंचता हूं कि आदमी चाहे लाख अवगुणों का आदी हो जाय, उसे कोई एक ऐसी चीज अंत तक बचा कर रखनी ही चाहिए कि समाज एक दम ही उसे लतियाए नहीं, अवांछित न मान ले. कोई तो एक साएदार पेड़ हो कि हर तरफ से धकियाए जाने पर उसकी छांव तले बैठ सके. सतीश से यहीं पर चूक हुई और वह हमदर्दी तक खो बैठा.
आखिरी बार मैंने उसे अस्पताल के बिस्तर पर देखा. मुझे उसके वहां होने की जानकारी नहीं थी. किसी और का हाल जानने गया था. उस आदमी को खोजते हुए सतीश के वार्ड में घुसा. उसे क्या तकलीफ थी, अब याद नहीं. उसने कुछ मांगा नहीं, मैंने दिया नहीं. कुछ देर उसके पास बैठा रहा फिर चला आया बाद में आने का वादा करके. अगली सुबह किसी का फोन आया कि सद्दा निकल लिया.
उसके जिस भेजे में गजब की हाजिरजवाबी थी, अद्भुत हास्यबोध था और थी ‘ढेर सारी मजेदार खुराफातें’, जब उसी भेजे को चिता में पिघल कर बहते देखा तो लगा जैसे कोई कीमती चीज सदा के लिए मिट्टी में मिल गई हो.
शंभू राणा विलक्षण प्रतिभा के व्यंगकार हैं. नितांत यायावर जीवन जीने वाले शंभू राणा की लेखनी परसाई की परंपरा को आगे बढाती है. शंभू राणा के आलीशान लेखों की किताब ‘माफ़ करना हे पिता’ प्रकाशित हो चुकी है. शम्भू अल्मोड़ा में रहते हैं और उनकी रचनाएं समय समय पर मुख्यतः कबाड़खाना ब्लॉग और नैनीताल समाचार में छपती रहती हैं.
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यह जो शंभू राणा नाम के जीव हैं, यह शर्तिया इस ग्रह के नहीं हैं, किसी और लोक से आए हैं। यानी, एलियन हैं। जाहिर है, अपनी क़लम भी वहीं से लाए होंगे क्योंकि यहां की क़लमें तो ऐसा अलौकिक लिखती नहीं। इनकी कलम की चुपचाप जांच की जाय ताकि इन्हें भनक भी न लगे। ये बातें इन्हें न बताई जाएं क्योंकि तब यह सतर्क हो जाएंगे।
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"न जाने क्यों वहां एक मंदिर भी बन गया-'--जैसे कोई कीमती चीज मिट्टी में मिल गई हो ।। शंभू राणा जी।।,?
कथरस
यूं ही कुछ कहते कहते ठोक देने का अद्भुत करतब दिखा देते हैं अपने शम्भू. लाजवाब बालूशाही जैसी परतें और इमरती सी वक्रता वाला करुणामय हास्य व्यंग तुम्हारी जै जै.