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ईजा और आमा के पुरुषार्थ से ही पहाड़ के परिवारों का रथ चलता है

आमा का पुरुषार्थ – 3

निरक्षर आमा का साक्षर संसार

यूं तो आमा निरक्षर थी. दाहिने अंगूठे से उनका सारा कम चलता था लेकिन उनके जीवन का व्यावहारिक वेदान्त अतुल्य था. शायद परंपरागत हो. सारे पूजा-पाठ के मंत्र और प्रक्रियाएं उन्हें कंठस्थ थी. गिनती बीसी (20) के हिसाब से, अंगुलियों में गिनती तथा पत्थर पर रेखाओं के हिसाब से चलती थी.  पौवा, अद्धा, डेड़ो, ढाम कुमाऊनी अंकगणित की विचित्र पाठशाला है जिसमें आदमी कभी गलती कर ही नहीं सकता है. ये आमा के मौखिक सूत्र थे. जब तक हम कागज पर जोड़ते तब तक आमा रेखाओं से या पौवा, अद्धा, डेड़ो, ढाम से गिन लेती थी. जैसे चार ढाम दश मतलब ( 4x 2.5 =10) तीन डेडो साड़े चार (3x 1.5 =4.5) बारह ढाम तीस (12x 2.5=30 ). ये है देशी गणित. पढ़े-लिखे के लिए कागज पर और अनपढ़ के लिए अंगुलियों पर. हर क्रम को आमा 20 तक कंठस्थ रखती थी. गिनती, पौवा, अद्धा, डेड़ो, ढाम जहाँ भी उनके साथ जाओ रास्ते मेँ ये सब सुनाना जरूरी होता था. मुखाग्री याद होना योग्यता की प्रथम परीक्षा होती थी. प्राइमरी कक्षा- 3-4 तक अगर गिनती – क, ख, बारहखड़ी, पौवा, अद्धा, डेड़ो, ढाम कोई बच्चा न सुना पाये तो दादी की नजर मेँ फिसड्डी. इसलिए ग्रामीण बच्चों की प्रतियोगिता मेँ हम सब पौवा, अद्धा, डेड़ो, ढाम कंठस्थ कर लिए. दादी का बच्चों को इनाम 1 गिलास दूध यह भी उसको जिसने सब सही बताया. (Memoir By dr Girija Kishore Pathak)  

पहाड़ी ईज़ा यहाँ की गृहस्थी की आधारशिला होती है. भोर की सूरज की किरणों से गोधूली तक उसके पास काम ही काम रहता है. गाय-भैस, खेत-खलिहान, घास-पात, रिश्ते-नाते सब ईज़ा के हिस्से जाता है. परिश्रम उसके जीवन का पर्याय है. रोजी-रोटी की तलाश में बाहर निकालना यहाँ के 80 से 90 % पुरुषों की मजबूरी हो जाती हैं. पलायन की इस मजबूरी पर आमा कहती थी कि “पहाड़ झन जन्मो च्यल, देश झन जन्मो व्यल(थ्वर)यानि पहाड़ में बेटे न जनम लें और भाभर मे व्यल यानि भैसा न पैदा हो क्योंकि पहाड़ के बेटे की पहाड़ छोड़ना मजबूरी है और देश (मैदानों) में भैंसे को गाड़ी के नीचे जोता जाता है जो उसके जीवन के लिए दर्दपरक है. इन परिस्थितियों में यहाँ कि औरतों को 100% पुरुष के दायित्वों का निर्वहन करना ही पड़ता है.

एक बात सौ आना सच है कि ईज़ा और आमा के पुरुषार्थ से ही पहाड़ के परिवारों की गृहस्थी का रथ चलता है. सामान्यतया ईज़ा को बाहरी जम्मेदारी और घर तथा बच्चों की परवरिश का दायत्व आमा के कंधों पर रहता है. हर पहाड़ी आमा अपने इस दायत्व बोध का निर्वहन अनन्य भाव से करती है.मैं आमा को हमारी प्रायमरी शिक्षा का मैनटर मानता हूँ. वो पढ़ी लिखी होती तो शायद अद्भुत शिक्षिका होती. उन्हें मलाल था कि उनके बज्यू ने उन्हें स्कूल ही नहीं भेजा.

आमा संभवतः सन 1895-96 में जन्मी होगी. कत्त्यूरी और चंद राजाओं ने तो शायद ही स्थानीय नागरिकों की मूल शिक्षा पर ध्यान दिया. 1790 में गोरखे आए तो वे युद्ध, विस्तार और लूट-खसोट में की उलझे रहे. 1815 में ईस्ट इंडिया कंपनी कुमाँयू में काबिज तो हुई उसको भी एंग्लो-नेपाल वार-1181416 में उलझे रहना पड़ा. अंगेज़ जब सभले तो उन्होंने वरनाकुलर शिक्षा लागू तो की लेकिन प्रायमरी शिक्षा गाँव-देहात तक पहुँच नहीं पायी.

1901 की जनगणना के अनुसार अलमोड़े जिले की साक्षारता 5.7%थी सरकारी स्कूल जो 1880-81 में 119 थे और 6817 बच्चे स्कूल जाते थे 1903-04 तक 183 स्कूलों में 8109 बच्चे स्कूल जाते थे. उस कालखंड में 0.35% महिलाएं ही स्कूल जा पातीं थीं. परिणामस्वरूप ग्रामीण कुमायूं ने एक नई पद्धति को अपनाया जो सर्व ग्राह्य और व्यावहारिक थी. वह थे गणित में गिनती रेखाओं से, अंगुलियों से और पौवा, अद्धा, देड़ो, ढाम की मदद से.  

आमा बताती थी कि आजादी के बाद भी कई वर्षों तक बागेश्वर, गरुड तक ही मोटरेबल सड़क थी इसके उपर तो घोड़ों से ही समान आता था. नमक की  कुमायूँ में बड़ी किल्लत थी जो भोटिए तिब्बत से बकरियों के ढोकर के साथ लाते थे और गेहूं और धान के बदले नमक अनाज के बदल्र जवाहर के शौक़ों से दे ते थे. मेडीसनल हर्ब्स भी भोटिए ही देते थे जो गांव के लोगों की दवा के काम आती थी. स्थानीय और जंगली दवाइयों यानि जड़ी-बूटियों की आमा  मास्टर थी. शायद उनकी यह जरूरत भी थी. डाक्टर और वैद्य तो उस कालखंड में खोज कर भी नहीं मिलते होंगे.ग्रामीण वैद्य ही लोगों के स्वस्थ की लाइफ लाइन रहे होंगे.     

कमेट (white lime soil) नकतूरे की कलम की व्यवस्था : टूनी, सनाड, बांज, फल्याट के लकड़ी की पाटी (एक तरह की स्लेट) उस पर लार लिखने के लिए निगालू अथवा नकतूरे की कलम. कमेट का घोल बना कर पाटी पर लिखना अ, आ, क, ख, बारहखड़ी, गिनती, पहाड़ा, गणित के छोटे-मोटे गुणा भाग, जोड़ घटाने ये सब पाटी में चलता था. आमा का काम पाटी को काले मोसे से पुतवा कर पति चमकने के लिए घोटा (व्हाइट स्टोन) लगाकर उसको चमका कर लिखने योग्य बनवाना था. जितनी पाटी चमकेगी उतने आंखर भी चमकेंगे. इसलिए पाटी को चमका के रखवाना आमा का पहला काम था. वह 20 तक पहाड़ा लिखने को बोले तो लिखो पाटी दिखा दो पड़ी लिखी नहीं थी तो मान लेती थी सही ही लिखा होगा. आमा का भरोसा. हमने भी कभी भरोसा तोड़ा नहीं. 

रेखाओं से गिनती और बीसी (20) से हिसाब: आमा पत्थर पर कोयले से रेखायें  खीच कर और पव्वा, अद्धा, डेड़ो, ढाम की मदद से पाई-पाई का हिसाब कर लेती थी.

खेती-बाड़ी अनाज का हिसाब : नाली, माण का हिसाब : दादी को मुट्ठी, नाली, माड़ा, पैसेरी, एक सूप, एक डाल, एक ड्वाक, एक कुथव के हिसाब लें दें का काम स्पष्ट रहता था. खेतों में बीज भी इसी भाव से बोये जाते थे धानका बिन (सीडिंग ) भी इसी हिसाब से होती थी. धान  और गेहु का कलेक्शन/प्रिजर्वेशन सेंटर होता था भकार. भकार का भरा रहना आज से 40-50 बरस पहले के पहाड़ी घर की समृद्धता की निशानी होती थी.   

आमा ब्रिटिश राज को गोर्खा राज से बेहतर मानती थी. जब हम छोटे थे तो इस बात को नहीं समझते थे. बाद मेँ राजनीति इतिहास के अध्यन से पता लगा कि गोरखे नेपाल से प्रवेश किए थे, उनका दंश सरयू पार के कुम्मइयों ने ज्यादा झेला होगा. अंग्रेज़ तराई से प्रवेश किया तो अल्मोड़ा और तराई के कुम्मइयों ने उनका दंश ज्यादा झला होगा. गोरखे लूटते तो थे लेकिन महिलाओं का सम्मान नहीं करते थे. अन्याय कि बात पर बार-बार उदाहरण देती थी कि “गोरखियाक राज जै के ऐरो’’ मतलब कोई गोर्खा राज थोड़ी आया है. आमा आजाद भारत में पटवारी, पधान और पंच के कामकाज में रिश्वतख़ोरी की बात कहती थी. उसका मत था कि अंग्रेज़ राज में इन संस्थाओं में भ्रष्टाचार नहीं था. लेकिन आजाद भारत में अमीन जमीन नापने का, पटवारी खाता बनाने का पैसा मांगते थे पधान मध्यस्थ का काम करने लग गया था.  

गाँव के बच्चों को पढ़ने के लिए प्रेरित करती थी. सभी महिलाओं पुरुषों को बच्चों को स्कूल भेजने के लिए प्रेरित करती थी. 1947 के बाद के भारत में कुमाऊ के सुदूर आँचल से स्वस्थ, सड़क आम आदमी से कोषों दूर रही. इसका उन्हें मलाल था.मैं सन 1980 में काशी हिन्दू विश्व विद्यालय में अध्ययनरत था. मई माह में गाँव गया था.  मुझे विदा करते आमा गले लगा कर रोते हुए बोली थी “ईज़ा (लाड़ से) धार में दिन भय आब कां बचुल, कि पत्त आब भेट हो न हो.” मेरे बनारस पहुचने के कुछ ही दिन बाद बाबू जी के एक तार से आमा के निधन का दुखद समाचार मिला. बाद में बाबू जी के पत्र से स्पष्ट हुआ कि पहली जून 1980 को आमा को अचानक उल्टी होने लगी . डाक्टर के मिलने की तो मिलों दूर यानि वागेश्वर या पिथौरागढ़ से नीचे कई संभावना ही नहीं. गाँव से उन्हें अस्पताल ले जाने में एक दिन पूरा लगता. ले जाने का साधन एक मात्र केमो की गाड़ी होती थी. गाँव वाले डोली मे ले जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाये.  अंततः इस खराब  तबीयत के बहाने काल ने आमा को हमसे छीन लिया. सरयू से उनकी राख भारत के कई नदियों से होते हुये अनन्त सागर में मिल गयी होगी. जीवन की अनंतता का अनंत में समागम. जीवन की महायात्रा के इस पड़ाव पर मैंने अपने बचपन के मित्र,एक गुरु, एक अभिभावक और एक संस्कार शिक्षक को खो दिया. आंसुओं की अपनी भाषा होती हें.  उनको कौन रोक सकता है. हाँ, धीरे धीरे आंसुओं को भी समय सूखा ही देता है. आमा निरक्षर थी लेकिन व्यावहारिक जीवन में  उनकी साक्षारता से हम रोज सीखते थे. उनके आशीर्वाद से हम जीवन की हर जंग को जीतते गए और आगे बड़ते गये लेकिन हमारी सफलताओं की वो साक्षी नहीं बन पायी.

आमा की पीड़ा सारे पहाड़ की आमाओं कि पीड़ा है. तब पलायन कम था नौकरी पेशे वाले लोग गाँव को ही लौट आते थे.पर इन 73 वर्षों में समावेसी विकास के अभाव में अधिक स्कूल खुलने और व्यापक शिक्षा के बाबजूद पूरी वाखई वीरान और उदास हें. अंग्रेज़ ने कमांड कंट्रोल के हिसाब से अल्मोड़ा, श्रीनगर जैसे छोटे तत्कालीन गांवों को मुख्यालय बनाया.  हमने उत्तराखंड बनाया तो नौकरशाही के ऐशो- आराम के हिसाब से देहरादून को राजधानी बना डाला और गैरसैन का झूनझूना उत्तराखंडियों को पकड़ा दिया. sustainable growth कागजों की पूँजी बन कर रह गया. मुनस्यारी  दारमा घाटी, माना, फुरकिया, नामिक के बच्चे 8-10 की रोजी के लिए आज भी मुंबई, पुणे, बगलौर जा रहे हैं. पहाड़ के खाली होने का संकट जारी है. जब तक इस  संकट का समाधान नहीं होगा आमाओं के संकट का हल भी नहीं निकाल पायेगा. सत्ताओं को पहाड़ की नीति पर विचार करना चाहिये वरना कत्त्यूरी और चंद राजाओं, गोरखों, बाद में अंग्रेजों ने भी 1947 साल यूं ही गुजारे थे. ये 73 साल भी बीत गए. क्रूर समय साक्षी है हम सबकी करनी का इतिहास लिखेगा. इस प्रसंग में राष्ट्र कवि रामधारी सिंह  दिनकर की समर शेष है की ये पंक्तियाँ उद्धृत करना मुझे समीचीन लगता है –
समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याघ्र,
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध.

पिछली क़िस्त का लिंक : कुमाऊनी सभ्यता, संस्कृति और संस्कारों की त्रिवेणी

मूल रूप से ग्राम भदीना-डौणू; बेरीनाग, पिथौरागढ के रहने वाले डॉ. गिरिजा किशोर पाठक भोपाल में आईपीएस अधिकारी हैं.

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Sudhir Kumar

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  • पाठक जी आपकी यह पहल और एकत्र जानकारी सराहनीय है हमें अपने अतीत के बारे में पता होना ज़रूरी है गणित पढ़ने की जिस पद्वति की आप बात कर रहे हैं डेडयो ढाम अधा पौना गणित के वह शुद्र है जो आज के कैलकुलेटर का काम करता था हमारे बड़े भाई जो हम से 20 साल बड़े थे उनको यह सब पहाड़ा पुस्तक में पढ़ाया गया था जो भी हो आपका यह कदम सराहनीय है

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