अलविदा नैनीताल
हां, नैनीताल ही याद आता रहा और मैं जैसे कहीं दूर खड़ा होकर मन ही मन उसे देखता रहा…
पानी से डबाडब भरा विशाल ताल और हरे-भरे जंगलों से घिरा मेरा शहर नैनीताल. बांज, रयांज, देवदार और सुरई के पेड़. चीना पीक, स्नो व्यू, लड़ियाकांटा, टिफिन टाप से रुई के फाहों से बादल उठते तो लगता जैसे नैनीताल का प्राकृतिक दृश्य-चित्र जीवंत हो उठा है. सुबह-शाम चिड़ियों का कलरव सुनाई देता. तीन तरफ पहाडों पर पेडों के बीच कहीं- कहीं लाल और हरे टीन की छतों वाले खूबसूरत मकान. शाम घिरते ही आसमान में लाखों सितारे टिमटिमाने लगते और शहर बिजली के बल्बों से जगमगा उठता. पता ही नहीं लगता था कि कहां से शुरू होकर कहां खत्म होता है आसमान. सितारे और शहर की रोशनियां एक साथ ताल में झिलमिलाने लगते. ताल के जल में जैसे रोशनी का एक और शहर बस जाता.
तल्लीताल और मल्लीताल के बाजारों में सिलसिलेवार लंबी कतारों में सजी दूकानें. दूकानों के ऊपर घर जिनके बरामदों में चिकें लटकी रहती थीं. खिड़कियों, बरामदों और चिकों के पर्दे के पीछे से आंखें बाजार की भीड़ को ताकती रहती थीं. टीन की नई-पुरानी छतों पर कपड़े और बड़ियां सूखती रहतीं. कहीं किसी छत पर कोयले के काले गोले सूखते रहते तो छत के किसी कोने पर कोई सुलगती अंगीठी धुएं की सफेद लकीर छोड़ रही होती. सर्दियों की गुनगुनी धूप में उन छतों पर महिलाओं की टोली बैठ कर ‘ह्वै दिदी, ह्वै बैंणी’ के सुर में बातें करते-करते स्वेटर के पाट बुन रही होतीं तो कहीं धूप की ओर पीठ लगाए लड़के-लड़कियां किताबों के पाठ रट रहे होते.
सुबह होती और हमारा शहर नैनीताल धीरे-धीरे जागने लगता. पुराने अखबारों और लकड़ी की पतली फट्टियों से सुलगाई हुई अंगीठियों का धुवां छतों से खरामा-खरामा टहलता हुआ नीचे बाजार और सड़कों की सैर पर निकल आता. किसी मुंडेर पर कोई कव्वा बोल उठता, घर-आंगन में घिनौड़ियां चहकने लगतीं तो कहीं कोई मुर्गा बांग देकर जगाता कि उठो सुबह हो गई है! उजियाला बढ़ता और प्रकृति किसी कुशल छायाकार की तरह ताल के ठहरे हुए पानी में पेड़ों, पहाड़ों और मकानों की छवि उतार लेती. शेर का डांडा के पीछे से सूरज अचानक निकल कर चीना पीक पर धूप की चादर खोलता और उसे नीचे अयारपाटा व डाट तक फैला देता.
सुबह की सैर के शौकीन लोग तेज कदमों से ताल की परिक्रमा करने के लिए निकल पड़ते तो सैलानी मल्लीताल घोड़ा पड़ाव से सपरिवार घोड़ों की पीठ पर सवार होकर दुलकी चाल से ताल का चक्कर लगाते. नैनादेवी मंदिर की घंटियों की टन-टन, टिन…टिन की आवाज दूर तक हवा में गूंजती.
ठीक नौ बजे शहर में साइरन चीख कर आफिस जाने वाले कर्मचारियों और विद्याथियों को समय याद दिलाता था. पहाड़ की ऊंचाइयों पर पैदल चढ़-उतर कर वे अपने आफिस व स्कूल-कालेजों की ओर निकल पड़ते. तल्लीताल में, पाषाण देवी से थोड़ा पहले और मल्लीताल में नैनादेवी के मंदिर के सामने के स्विमिंग प्लैंक से डाइव करके लोग सुबह ताल में तैरते थे. तल्लीताल में हम भी तैरा करते थे.
कर्मचारियों और विद्यार्थियों के आफिस व स्कूल कालेज चले जाने के बाद शहर की सड़कों पर बहुत कम लोग दिखाई देते. बस, सैलानी लोअर माल पर घुड़सवारी कर रहे होते या डाट के पास अथवा मल्लीताल बोट हाउस के पास से नाव लेकर घंटे-दो घंटे के लिए ताल की सैर पर निकल जाते. तल्लीताल व मल्लीताल दोनों जगहों से हाथ से खींचे जाने हथरिक्शे चलते. लोग कहते थे, कभी अंग्रेज उनमें बैठ कर मालरोड पर हवाखोरी किया करते थे. अब या तो उनमें सामान ढोया जाता था या कंबल और टाट का बिना बाजू का कोट पहने गरीब हथरिक्शे वाले सैलानियों की भारी-भरकम जिंदा काया को खींचते. उनके पास ही डांडियों की कतार रहती थी. डांडी वाले पास में ही बैठे रहते. ‘डांडी’ की आवाज सुनते ही चीलों की तरह बैठी वे गरीब आत्माएं सवारी पर झपटतीं और सवारी को कंधों पर टांग कर आगे बढ़ जातीं.
सुबह-सुबह डाट की ओर से बसों के स्टार्ट होने का जूं ऽऽऽ जूं ऽऽऽ शोर सुनाई देता और दिन चढ़ने के साथ-साथ ज्यों-ज्यों बसें आतीं, उन पर नेपाली मेट टूट पड़ते. बस आते ही मेट नगरपालिका का ऐल्युमिनियम का लाइसेंस दरवाजे और खिड़कियों से भीतर डाल देते -‘जोग्या-झामपनी नं.86’. लाइसेंस देकर वे चिल्लाते-‘हुजूर सामान मैंकें दिन्या छ.’ सामान लेने के लिए वे आपस में खूब छीना-झपटी करते.
लेकिन, शाम ढलने के बाद वे कमाई के युद्ध विराम की घोषणा करके एक हो जाते. उनका झुंड डाट पर जमा होकर आग तापता और अपने मुलुक के गीत गाता. फ़िज़ा में उनके गीतों के बोल गूंजते रहते…कुंजा मिशीरि को न्यवल्यौ…. वे पोस्ट आफिस के बरामदे में एक कतार में एक-दूसरे से सट कर सो जाते. लोग हंसते हुए कहते थे कि रात में उनका हेड मेट कहता है- फरको! और, वे सभी एक साथ दूसरी ओर करवट बदल कर सो जाते. मैला, चीकट चूड़ीदार पाजामा, कुर्ता, टोपी और फटा पुराना कोट. पचीसों पैबंद. रूखी रोटी व चना-गुड़ खाकर पाई-पाई बचाई पूंजी कमरबंद की भीतरी तहों में दबी रहती. मुझे याद आया, संकरी सीढ़ी से बक्सा और बिस्तरबंद चढ़ाते मेट को मैंने एक बार कहा था-‘संभल कर मेट, सामान टूटे नहीं.’ उसने दार्शनिक की तरह उत्तर दिया, ‘सामान को क्या हुजूर, आदमी टुटि जान्या छ!’ बीड़ी के गाढ़े धुएं का कस खींच कर पैसा कमाने के लिए घर-परिवार छोड़ कर अपने मुलुक से दूर आए हुए वे मेट अपना दर्द अपने गीतों में उड़ेल देतेः
कुर्ता मैइली, धोती मैइली, ध्वे दिन्या कोई छय ना,
परदेशई मां मरि जौंलो, रवै दिन्या कोई छय ना.
(कुर्ता मैला है, धोती मैली है. धो देने वाला कोई नहीं है. परदेश में ही मर जावूंगा. रो देने वाला कोई नहीं है.)
शाम को मेरे शहर की मालरोड गुलजार हो जाती. लोग तल्लीताल-मल्लीताल की सैर पर निकल पड़ते. जगह-जगह आते-जाते परिचित दूर से ही हाथ सिर की सीध में उठा कर ‘नमस्कार’ की मुद्रा में जोड़ कर इशारे से दोनों हथेलियां हिला कर बिना बोले पूछ लेते ‘और दाज्यू, सब ठीक-ठाक?’ और, आगे बढ़ जाते. तल्लीताल, मल्लीताल, बाजार, नैनादेवी मंदिर और फ्लैट का चक्कर लगा कर वापसी में मालरोड से ही लौटते या एकांत पसंद लोग ताल के दूसरी ओर ठंडी सड़क से पाषाण देवी के पास माथा टेक कर लौट आते. पहले ऐवरेस्ट और इंडिया होटल की बगल में खाली पहाड़ी ढलान हुआ करती थी जिसके सामने लोहे के तारों की रेलिंग के पास लोहे की एक अकेली बैंच पड़ी रहती थी, बस.
बीच माल पर नगरपालिका पुस्तकालय, प्रतियोगी परीक्षाओं में भाग लेने वाले विद्यार्थियों और बड़े बुजुर्गों की प्रिय जगह. वहां बिल्कुल सन्नाटे में अखबार और किताबें पढ़ते लोग पुस्तकालय से थोड़ा आगे माल के ऊपर सैक्लेज बेकरी और ‘पर्वतीय’ अखबार का दफ्तर जहां लिखने-पढ़ने के शौकीनों का जमावड़ा लगता रहता. आगे सेंट्रल होटल के सामने ‘चौधरी काफी हाउस’ जहां हम शानदार, मलाईदार काफी पीते-पीते कहानियां पढ़ा करते थे. उससे आगे ‘लक्ष्मी’ सिनेमा हाल, जिसमें मैंने ‘गाइड’ फिल्म देखी थी.
और, आगे नुक्कड़ पर वह ‘नारायन बुक कार्नर’ जिसमें लोग खड़े-खड़े किताबें पढ़ते रहते. नारायन तिवारी जी किताबों और नई पत्रिकाओं के बारे में बड़ी गंभीरता से बताते रहते. आगे अपनी फोटोग्राफी के लिए प्रसिद्ध ‘कला मंदिर’. बगल में एंबेसी रेस्टोरेंट. उसके भीतर लंबे लैंपशेडों से मेजों पर हल्की रोशनी के गोले बनते और खामोशी में गीत गूंजते…‘ये नयन डरे-डरे,ये जाम भरे-भरे…’ या ‘कोई सागर दिल को बहलाता नहीं ऽऽ’. रिक्शा स्टैंड के निकट का वह फ्लेटीज रेस्टोरेंट जिसमें हमारी जेब हमें जाने नहीं देती थी. हां, बगल के स्टेंडर्ड रेस्टारेंट में हम अक्सर चर्चा करते हुए चाय पीते थे. उससे थोड़ा ऊपर किताबों की एक और दूकान ‘माडर्न बुकडिपो’.
मल्लीताल बाजार में प्रवेश करते समय दाहिनी ओर घड़ी की दूकान में शायद बाघ की खोपड़ी में दांतों के बीच दबी घड़ी दिखाई देती. बांई ओर रामलाल एंड संस के शोकेसों में सजे चुनिंदा कपड़े हम बड़ी हसरत से देखा करते. बड़ा बाजार की सजी-धजी दूकानों पर नजर डालते हुए हम मामू के रेस्टोरेंट में पहुंचते. वहां भी मैंने मासिक भुगतान के आधार पर काफी समय तक खाना खाया था. बाद में बीच की गली के बिष्ट रेस्टोरेंट में खाने लगा. चीन के साथ लड़ाई छिड़ गई तो बिष्ट जी ने रेस्टारेंट के बाहर सबसे पहले तख्ती लटका दी थी-‘सोमवार को विजय व्रत’. सामने अपनी मिठाई की दूकान पर लाल सिंह सीना फुला कर कहते रहते, ”मैं धन्य हूं, मेरा भतीजा देश के काम आया. ऐसे भाग्य सब के कहां होते हैं साब. ये देखिए प्रधानमंत्री के हाथ का लिखा पत्र.“ शाम को चार बजे बगल की पतली गली में ‘जलेबा’ बनने लगता जो दो-एक घंटे बाद बंद हो जाता. लोग कहते थे, इस दूकान में अंग्रेजों के जमाने से ये मोटी जलेबियां बन रही हैं. दुकान मालिक दो-तीन घंटे तक जलेबा बना कर बेच लेता और कहता, ”बाकी क्या करना ठैरा? दाल-रोटी चल जाती है, बहुत है! कोई बिजनेस जो क्या करना है?“
और हां, हमारे इस शहर में फिल्म वाले भी शूटिंग के लिए आए दिन आते रहते. ‘गुमराह’ की शूटिंग के दिनों में हम लोग अपने डी एस बी कालेज में कक्षाओं में पढ़ रहे होते थे और नैनीताल की फिजां में यह गीत गूंज रहा होता था…‘इन हवाओं में, इन फिजाओं में, तुझको मेरा प्यार पुकारे, हो ऽऽ…. सुनील दत्त शाम को मालरोड में शहर के विद्यार्थियों और अन्य लोगों के साथ घूम रहे होते. लेकिन, जानी वाकर आते तो कैपिटल सिनेमा के ऊपर रेस्त्रां के किनारे बैठते. नीचे लोगों की भीड़ जमा हो जाती थी. मुझे याद आया, ‘भीगी रात’ की शूटिंग के लिए अशोक कुमार, मीना कुमारी और प्रदीप कुमार आए थे. नैनीताल क्लब में रूके हुए थे. वहीं शूटिंग चल रही थी. ‘वक्त’ की शूटिंग बोट हाउस क्लब के सामने ताल में हुई थी. शशि कपूर, शर्मिला टैगोर आदि कलाकार आए हुए थे. पालदार नाव में शायद ‘दिन हैं बहार के, तेरे मेरे प्यार के’ गाने की शूटिंग चल रही थी कि नाव तिरछी हुई और शर्मिला टैगोर पानी में टपक पड़ी. कहते थे, तभी हमारे कालेज के एक छात्र ने हीरो के अंदाज में छलांग लगा कर जांबाजी दिखाई और शर्मिला टैगोर को ऊपर खींच लिया. फिल्म की यूनिट ने उसे शाबाशी दी और आभार जताया था.
और, बाबा रे, गर्मियों के सीजन में शहरों से आने वाली वह भारी भीड़! हम लोग उन दिनों मालरोड छोड़ कर ऊपर स्नो व्यू, चीनापीक, गोल्फ फील्ड या टिफिन टाप की ओर निकल जाते. स्नो व्यू में सीमेंट की वह एक मात्र बैंच, दूर पहाड़ों को देखने के लिए एक दूरबीन, घने हरेभरे पेड़ और एकांत. वहां बैठ कर कितना सुकून मिलता है! एक साल वहां 5 मई को बर्फ गिर गई थी. हम स्नो व्यू जाकर उस बैंच में जमी ताजा बर्फ की मोटी परत पर बैठे थे.
वर्षा ऋतु में हमारे शहर नैनीताल का पूरा दृश्य बदल जाता. मालरोड में छाते ही छाते दिखाई देने लगते. कुछ लोग गमबूट और बरसाती में आते-जाते दिखते. ऊपर पहाडों से कोहरा भाग-भाग कर आता और शहर की हर चीज को छूकर समेट लेता. मालरोड, ठंडी सड़क या पगडंडियों पर इतना घना कोहरा छा जाता कि हाथ को हाथ नहीं सूझता. घने कोहरे की भीनी फुहार चेहरे को भिगा देती. कोहरा घरों, बाजारों, होटलों और यहां तक कि खिड़कियों से हमारी कक्षाओं तक में चला आता. फिर अचानक सिमट कर छंटने लगता और तेजी से ऊपर पहाड़ों की ओर लौट जाता. सहसा बारिश होने लगती और लोग फिर छाता तान लेते. बारिश की बूदें टीन की छतों पर टकराने के कारण एक अलग किस्म का वर्षा-संगीत पैदा होता. हमें वह लोरी-सा सुनाई देता. और हां, वर्षा ऋतु में तीनों ओर खड़े पहाड़ों से निकली संकरी सीढ़ीदार निकास नालियों से कूदता-फांदता वर्षा जल कल-कल छल-छल करता नीचे ताल में पहुंच जाता. ताल डबाडब भर जाता और ज्यादा भरने पर तल्लीताल रिक्शा स्टैंड के आसपास मालरोड तक चला आता. तब डाट पर ताल के गेट खोल कर पानी बहने दिया जाता. वह सुसाट-भुभाट करता तेजी से अशोक होटल की बगल से नीचे को भागने लगता.
पतझड़ का सीजन धीर-गंभीर सैलानियों का सीजन होता जिसमें कोई भीड़भाड़ और तड़क-भड़क नहीं रहती. अधिकांश सैलानी बंगाली होते जो धोती-कुर्ता पहने, शाल ओढ़े, कुछ सोचते-विचारते सड़कों पर चल रहे होते. मेरे लिए मरीनो होटल से इंडिया होटल तक मालरोड में खड़े चिनार के पेड़ों की रंग बदलती पत्तियां शरद ऋतु का समाचार लाती थीं. मैं कई बार रात में मालरोड पर निकल आता जहां चिनार की पत्तियां मेरे साथ-साथ दौड़ लगाती थीं. ताल से उठने वाली लहरों के थपेड़े किनारों पर छपाक्…..छपाक् टकराते. अद्भुत दृश्य होता था वह.
हर साल सर्दियों में स्कूल-कालेज बंद हो जाने पर प्रवासी पक्षियों की तरह हमारे इस शहर के सैकड़ों विद्यार्थी अपने-अपने घरों को लौट जाते. होटलों में सन्नाटा छा जाता. सर्दी के मौसम में सैलानी बहुत कम आते थे. शाम ढलने के बाद सड़कें सूनी-सूनी लगने लगतीं. कुछ साहसी लोग कोट, पेंट, स्वेटर, टोपी दस्ताने कस कर मुंह से भाप का धुवां छोड़ते मालरोड पर अपना घूमने का नियम निभाते. ज्यादातर लोग सग्गड़ या अंगीठी में कोयले के गोले तपा कर आग तापते. उन सर्द रातों में कहीं दूर से सिर्फ सियारों की हुवां-हुवां या कुत्तों के कुकुआने की आवाज सुनाई देती. बर्फ गिरने पर प्रकृति के उस अद्भुत दृश्य को देखने के लिए गर्म कपड़ों में लदे-फंदे चंद सैलानी जरूर पहुंच जाते.
फिर वसंत आता और पंछियों की तरह विद्यार्थी भी लौट आते. धीरे-धीरे मौसम गरमाने लगता. हमारे शहर में सीजन की फसल फिर लहलहाने लगती. इस फस्ले-बहार से हमारा शहर फिर गुलजार हो जाता. लेकिन, हम जैसे जो पंछी पढ़ाई पूरी कर लेते, वे आबो-दाने की तलाश में पहाड़ों से दूर ‘देस’ यानी नीचे मैदानों की ओर चले जाते. मैं भी यही कर रहा था.
ओं. फिर? फिर क्या हुआ?
अगली सुबह बक्सा और बिस्तरा लेकर बस में बैठा. पलट कर भर आंख अपने प्यारे शहर नैनीताल को देखा और मन ही मन कहा- अलविदा नैनीताल!
(जारी )
वरिष्ठ लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी के संस्मरण और यात्रा वृत्तान्त आप काफल ट्री पर लगातार पढ़ते रहे हैं. पहाड़ पर बिताए अपने बचपन को उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘मेरी यादों का पहाड़’ में बेहतरीन शैली में पिरोया है. ‘मेरी यादों का पहाड़’ से आगे की कथा उन्होंने विशेष रूप से काफल ट्री के पाठकों के लिए लिखना शुरू किया है.
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