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कहो देबी, कथा कहो – 6

पिछली कड़ी

वे कहानियां

ओ हो, वह आंगन में घुघुते-घुघतियों का दाने चुगना! टोकरी के भीतर उन्हें पकड़ने की कोशिश…

‘और, अनायास ही मैंने अतीत की ओर दौड़ काट दी है. टोपी सिर से निकाल कर हाथ में ले ली है और दौड़ पड़ा हूं, पीछे की ओर पगडंडियों, रास्तों, चौरास्तों, खेतों, आंगनों पर पसीना-पसीना होकर दौड़ पड़ा हूं. मैले, फटे, बटनहीन कुरते  के भीतर पसीना चुहचुहा उठा है, गरम कनपटियों पर पसीना चुहचुहा उठा है. मेरे नंगे पैरों में किलमोड़े व घिंघारू के कांटे चुभ रहे हैं, रास्तों के तीखे दरदरे डांसी पत्थर चुभ रहे हैं, मैंने दौड़ काट दी है पीछे की ओर…

जोड़ी का एक नर मेरी लगाई टोकरी के भीतर की ओर बढ़ रहा है. दो दाने चुगता है, फिर गर्दन फुलाता है…घु घु ऽऽघू…. सारे बच्चे गांव की सड़कों पर खेल रहे हैं और हम एकटक सन्नाटे में खड़े होकर टोकरी को देख रहे हैं. उसकी थरथराहट बढ़ती जाती है और हृदय अधिक धुक-धुक करने लगता है. अचानक बांस की टोकरी गिरती है और वह मुझसे चिपट जाती है. उसकी नन्हीं, दो छोटी-छोटी आंखें डबडबा कर आंसू ढुलकाने लगती हैं और वह नन्हे सोते की तरह फूट पड़ती है.

घुघुतों के जोड़े पंखों से ताली-सी फटफटा कर धारों के पार गोते लगा जाते हैं. एक अकेली घुघुती ऊंचाई की ओर उड़ती है और किसी तरफ हवा में डुबकी मार लेती है… घु घू ऽऽति…

और, मेरी छोटी-सी छाती पर सरली सिसक रही है. चीख रही है…‘छोड़ दे उसे. उड़ा दे, दा. तेरे हाथ जोड़ती हूं… नहीं तो तेरे साथ कभी नहीं खेलूंगी.’

मैं उसे खूब बिलखाने-रुलाने के बाद जाकर टोकरी उलट देता हूं और वह नर पाखी भी पंख फटफटा कर उड़ जाता है. झगुली की कुहनियों से वह आंखों को पौंछती है और हम फिर जुट कर दाड़िम के फूलों की बारात संजोने लगते हैं.’…

वह मुझसे पूछती है…‘दा, उसे घुघुती मिल गई होगी?’

(क्रौंच-वध, ‘कहानी’, 1966)

ऐसी ही कई कहानियों में मैं अपने गांव के चित्र उकेरने की कोशिश करता रहा.

हम लोगों का चाय-घरों के एकांत ओने-कोनों में कहानियां पढ़ने-पढ़ाने और सुनने-सुनाने का सिलसिला जारी रहा. सईद और वीरेन डंगवाल अब प्रायः अपनी कविताएं सुनाने लगे थे. बटरोही और मैं कहानियां लिख रहे थे. हमारी कहानियां चर्चित पत्रिकाओं में छपने लगी थीं. बटरोही हालांकि उम्र में छोटा था लेकिन उसकी रचनाएं अधिक छप चुकी थीं. इसलिए हम सभी दोस्त उसे मुखिया मानते थे. ‘नई कहानियां’ (विशेषांक-3) में ‘कुलबुलाहट’, ‘धर्मयुग’ में ‘उसका बच्चा’, ‘माध्यम’ में ‘बुरोंश का फूल’ और ‘ज्ञानोदय’ में भी उसकी कहानियां छपने से हमारे मन में उसका मान और भी मजबूत हो गया.

वीरेन डंगवाल उम्र में सबसे छोटा, बेहद अनौपचारिक और खिलंदड़ा दोस्त था. वह कतई गंभीर नहीं रहता था तो सईद हर समय गंभीर मुद्रा बनाए रखता. जैसे, सोचता रहता था. वीरेन की बच्चों जैसी हरकतों से कई बार बुरी तरह उखड़ जाता था. असल में सईद की एक अलग दुनिया थी. ज्यादातर वक्त वह अपनी उसी कल्पना की दुनिया में जीता था. मैं कई बार रात-रात तक उसके साथ चिनार के पेड़ों के नीचे किसी अकेली बैंच पर या झील के किनारे चुपचाप बैठा रहता. वह प्रायः निराश रहता और जीवन की अर्थहीनता पर गंभीरता से बातें करता था. लेकिन, हर समय रचनात्मक ऊर्जा से भरा रहता. वह मूलतः चित्रकार था और अपने चित्रों में नए-नए प्रयोग करता रहता था. हम दोनों घंटों तक चित्रों और चित्रकारों की बातें किया करते थे. विश्व प्रसिद्ध चित्रकारों की जीवनियां पढ़ते, पुस्तकों में उनके चित्रों को खोज-खोज कर देखते. मुझे वान गॉग, पॉल गोगां, अमृता शेरगिल और जहांगीर सबावाला के चित्र बहुत अच्छे लगते थे.

मालरोड के वे चिनार

सईद अपने आसपास की चीजों को बहुत बारीकी से देखता था. एक बार बताने लगा, कैलाखान रोड की सुनसान सड़क पर उसने एक आदमी को सिगरेट पीकर धुएं के छल्ले छोड़ते और फिर लपक कर उन छल्लों को वापस मुंह में लेते हुए देखा! उसकी बात पर विश्वास करना ही होता था अन्यथा वह रूठ जाता था. मैंने एक बार उससे कहा, अमरालय की बगल में जो चाय की छोटी-सी दूकान है, वहां दाढ़ी-बाल बढ़ाए एक विक्षिप्त आदमी आता है. आते ही हाथ बढ़ा कर दूकानदार से कहता है, “चार आन् दि दिया” (चार आने दे दो). दूकानदार के मना करने पर तुरंत कहता है, “आठ आन् दि दिया!”

सईद ने कहा, “यह तो कुछ भी नहीं देवेन, भुवाली में एक दर्जी है. कपड़े सिलता है और बिल्कुल सामान्य दिखाई देता है. लेकिन, ज्यों ही चमक जागती है तो झपटने लगता है. उसे पकड़ कर बाहर निकाल दिया जाता है. वह सड़क पर आता है और शांत होकर आसमान की ओर इशारा करके कहता है- ‘उधर क्या देखता है, इधर देख!’ (यानी सड़क पर. वहां पड़ी बीड़ी या सिगरेट की ठुड्डी उठाता है और बोलता है) ‘तार उठाता है? तेरे बाप का है तार? नत्थू मास्टर की कुतिया यहां रात को हड्डियां चाबती है!’ और, जानते हो, एक दिन वह एक रेस्टारेंट में घुस गया. नया-नया खुला था. बैठा. खाने के लिए लड़के ने जो-जो पूछा ‘हां’ कह दिया. भरपेट खाया और उठ कर तीर की तरह बाहर निकलने लगा. रेस्टोरेंट के मालिक ने कहा, “पैसे?”

वह बोला, ‘पैसे? नत्थू मास्टर के रजिस्टर में लिख देना… तार उठाता है? तेरे बाप का है तार? नत्थू मास्टर की कुतिया यहां रात को हड्डियां चाबती है!’ और, यह कह कर सीधा बाहर निकल गया.

“ऐसा ही एक आदमी और है वहां. मजदूरी वगैरह कर लेता है. उसे जब सुर चढ़ता है तो एक सांस में बोलता है- ‘मुर्दों से मातबरी हो नहीं सकती. मुर्दाघाट की बगल का ठैरा खेत. आलू बराबर खेत कहां होने वाला ठैरा? इंजन बराबर रेल कहां होने वाली ठैरी? पांच हजार जो ठैरी रायफल, तीन जो ठैरीं गोली. अब ऐसे कुत्ता क्या मरने वाला ठैरा?”

“एक दिन किसी ने उसे चक्की से आटे का कट्टा ले जाकर घर पर पहुंचाने के लिए कहा. बहुत देर हो गई लेकिन वह पहुंचा ही नहीं. आखिर ढूंढ़ा और मिलते ही बुरी तरह डांट दिया. किसी ने कहा, यह तो बड़ी देर से घर-घर पूछ रहा है. शायद पता भूल गया. बहरहाल उसने घर पर आटे का कट्टा पहुंचाया और पैसे पूछते ही फट पड़ा- ‘मुर्दों से मातबरी हो नहीं सकती, मुर्दाघाट की बगल का ठैरा खेत, आलू बराबर खेत कहां होने वाला ठैरा…’ किसके पैसे, किसका क्या! अपना रोष अपनी भाषा में प्रकट किया और चलते बना.

लेकिन, हर किसी के लिए सईद का साथ निभाना संभव नहीं था, न वह हर किसी के साथ घुलता-मिलता था. लेकिन, मैं शायद उसके लिए बेहतर श्रोता था. जहां और लोग शायद उसकी उस दुनिया के दरवाजे से मौका पाते ही लौट आते थे, मुझे वह बहला कर अपनी उस दुनिया के भीतर ले जाता, घुमाता, उसके बारे में बताता. मैं उस दुनिया से उसके साथ ही वापस आ सकता था. मैं, वह जो कहता, उसे मन लगा कर सुनता. जहां कहता, साथ निभाता. कई बार अजीब स्थिति हो जाती थी- न हां कहते बनता, न ना कहते. एक दिन, देर रात अमरालय में मेरे कमरे में आकर बोला, ”क्या थोड़ी देर के लिए मेरे साथ नहीं चलोगे? आज मेरे जीवन की अंतिम रात है.“ मैं डरा. मना करने की स्थिति भी नहीं थी. उसके साथ चल पड़ा. वह ठंडी सड़क से सीधे पाषाण देवी के पास तक चला. रात के सन्नाटे में काफी देर तक रेलिंग के तारों पर हाथों से झूलता-सा रहा. मैं भयभीत खड़ा रहा. फिर वह ठठा कर हंसा और बोला, “देखो, देखो वह रोशनियों का शहर मुझे मना कर रहा है कि आज नहीं, कल आना!”

शुक्र है कि वह कल कभी नहीं आया. और, मैं? मुझे यह भी ध्यान नहीं रहा कि उस रात अगर कुछ ऐसा-वैसा हो जाता तो मेरा क्या होता?

हिंदी में विज्ञान की जानकारी की कमी बहुत सालती रहती थी. कितनी रोचक थीं विज्ञान की बातें! लेकिन, हम उन्हें केवल अंग्रेजी में पढ़ पाते थे, कि पेड़-पौधे केवल घास-पात या झाड़-पात नहीं हैं. वे भी हमारी तरह जीवित हैं, वे भी खाना खाते हैं, बढ़ते हैं, प्यार करते हैं. उनमें से हरेक पौधे का अपना नाम है. इसी तरह कीट-पतंगों और जीव-जंतुओं का रोचक संसार है. तत्वों और रसायनों के रोचक रहस्य हैं. हर तत्व का भी अपना नाम और अलग पहचान है. विज्ञान के रहस्यों का पता लगाने वाले वैज्ञानिकों की रोचक-रोमांचक जीवन गाथाएं हैं. कितना रुचिकर है विज्ञान! लेकिन, यह ज्ञान बोलचाल की भाषा में उपलब्ध नहीं है. मैं यह महसूस करता था और डायरी में बार-बार लिखता- मैं साहित्य की सेवा करने के साथ हिंदी में विज्ञान भी लिखूंगा. अक्सर दोस्तों को विज्ञान की रोचक बातें बताते हुए इस बारे में चर्चा भी किया करता था. वे लिखने के लिए कहते. मैंने लिखा. पहला वैज्ञानिक लेख ‘जानि शरद ऋतु खंजन आए’ पक्षियों की प्रवास यात्रा पर लिखा और 24 फरवरी 1965 को ‘विज्ञान जगत’, इलाहाबाद के संपादक प्रोफेसर आर.डी. विद्यार्थी को भेज दिया. पत्र में लिखा कि मैं हिंदी में नियमित रूप से वैज्ञानिक लेख लिखना चाहता हूं लेकिन छापेगा कौन? 2 मार्च को ही लेख के प्रकाशन की स्वीकृति मिल गई. उन्होंने लेख स्वीकृत करते हुए लिखा कि मेरे वैज्ञानिक लेखों को वे प्रकाशित करेंगे. और, यह लिख कर उन्होंने मुझमें विज्ञान लेखन की लौ जगा दी कि ‘लिखते रहना, कौन जाने कल तुम स्वयं एक विज्ञान लेखक के रूप में अपनी पहचान बनाओ.’ मैंने अपनी डायरी में लिखा, ‘प्रो. आर. डी. विद्यार्थी आत्मीय बन गए हैं. एक ही पत्र से उन्होंने जो प्रतिक्रिया दिखाई है, वह किसी आत्मीय की ही हो सकती है. उन्होंने मुझको इतना बल दिया है कि मैं निरंतर विज्ञान पर लेख लिखता रह सकता हूं.’ (5 मार्च 1965)

ओखलकांडा से मैं जिस घने देवस्थल के जंगल को पार करके बस पकड़ने के लिए मनाघेर तक आता था, उसमें ऊंचे-ऊंचे रैंसल (एबीज पिंड्रो) के पेड़ देखे थे. वहां मुझे थुनेर (टैक्सस) का पौधा भी दिखा. चीड़ तो खैर थे ही. नैनीताल में देवदार और सुरई के पेड़ देखे. इन सभी पेड़ों में फूल नहीं खिलते. इनमें कड़े शंकु लगते हैं. ये शंकुधारी पेड़ हैं. मैंने इन शंकुधारी पेडों पर लेख लिखा और 3 मार्च को ‘विज्ञान’ पत्रिका के संपादक डॉ. शिवगोपाल मिश्र को भेज दिया. वह लेख ‘विज्ञान’ के अप्रैल 1965 अंक में प्रकाशित हो गया. वह मेरा पहला प्रकाशित वैज्ञानिक लेख था.

फिर जीव-जंतुओं की शीत-निद्रा पर एक लेख लिखा- ‘शीत निष्क्रियता’. उसे ‘विज्ञान-जगत’ को भेज दिया. ‘जानि शरद ऋतु खंजन आए’ और ‘शीत निष्क्रियता’ दोनों लेख ‘विज्ञान जगत’ के मई-जून 1965 संयुक्तांक में प्रकाशित हुए.

इसी बीच उपन्यासकार यमुना दत्त वैष्णव ‘अशोक’ से भेंट हुई. उन्होंने कहा, कहानियां लिखते हो और विज्ञान के विद्यार्थी हो. इसलिए विज्ञान-गल्प यानी साइंस फिक्शन भी लिखा करो. उन्होंने बताया, उनकी कहानी ‘वैज्ञानिक की पत्नी’ को इलाहाबाद विश्वविद्यालय की कहानी प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार मिला था. मैंने उत्सुकता से पूछा, “विज्ञान गल्प?”

उन्होंने कहा, “हां, ऐसी कहानी जो विज्ञान पर आधारित हो. मतलब जिसकी बुनावट कहानी की हो और उसका प्राण विज्ञान हो. विज्ञान के बिना विज्ञान-गल्प या विज्ञान-कथा नहीं लिखी जा सकती.” फिर अपनी कहानियों के उदाहरण दिए. मैंने एक विज्ञान-कथा लिखी ‘शैवाल’ जो स्थानीय साप्ताहिक ‘पर्वतीय’ में छपी. उसमें एक वैज्ञानिक दावत देता है. उसमें सभी व्यंजन झील में उगी काई-शैवालों से बने होते हैं. एक और विज्ञान-कथा लिखी ‘प्रेतलीला’ जो पेड़ के नीचे रात को सोने पर कार्बन डाइऑक्साइड गैस के असर पर आधारित थी. वह ‘त्रिपथगा’ में छपी.

मुझे लगा, वैज्ञानिक लेख और विज्ञान-गल्प लेखन मेरा अपना विशेष क्षेत्र बन सकता है क्योंकि वह लगभग अछूता क्षेत्र था. एम.एस-सी. अंतिम वर्ष की परीक्षा देने के बाद कुछ माह साप्ताहिक ‘पर्वतीय’ में सहायक संपादक के रूप में काम करते हुए विशेष रूप से विज्ञान पर लिखता रहा.

भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली से नियुक्ति पत्र मिलने पर मित्रों और हितैषियों ने कहा कि यह अच्छा हो गया है, नौकरी की दृष्टि से भी और लेखन की दृष्टि से भी. कभी इलाहाबाद को साहित्यिक गतिविधियों का केन्द्र माना जाता था लेकिन अब दिल्ली साहित्य का गढ़ बन चुका था. तमाम नए, पुराने लेखक दिल्ली में रह कर लिख रहे थे. इसलिए वहां साहित्यिकारों के संपर्क में रहने का भी मौका मिलना था. कुछ साहित्यिक आंदोलनों की सुगबुगाहट भी चल रही थी. कलकत्ता में ‘भूखी पीढ़ी’ की आवाज गूंज रही थी. वहां प्रसिद्ध बीट कवि गिंसबर्ग आ चुका था. दिल्ली में ‘अकविता’ और ‘अकहानी’ की हवा बह रही थी.

दिल्ली मेरे लिए नई संभावनाओं का शहर था और मैंने दिल्ली जाने की तैयारी शुरु कर दी. सोचा, वहां जाने और पहली तनखा मिलने तक रहने-खाने का खर्चा चलाने के लिए घर जाकर ददा से पैसे ले आऊं, तब जाऊंगा. मेरे होटल मालिक प्रेमसिंह बिष्ट ने सुना तो बोले, ”पहले जाकर नौकरी ज्वॉयन करो. जिस दिन ज्वाइन करोगे, उसी दिन से सीनियोरिटी बनेगी. देर में ज्वायन करोगे तो दूसरों से उतना जूनियर हो जावोगे.”

“लेकिन, पैसे?”

“पैसे मैं दूंगा. तनखा में से लौटा देना. अभी तो जरूरी यह है कि पहले नौकरी ज्वायन करो.”

“लेकिन बिष्ट जी, मैंने तो पिछले महीने के खाने के पैसे भी आपको देने हैं?” मैंने कहा. मैं उनके होटल में खाना खाता था और महीने के हिसाब से भुगतान करता था.

“कोई बात नहीं, वे भी आ जाएंगे,” कह कर उन्होंने दिल्ली जाने के लिए रुपए पकड़ा दिए.

साथी कैलाश पंत भी साथ चलने को तैयार था. हमने तय किया कि वहां ठौर-ठिकाना भी साथ ही खोज लेंगे.

तब मैं बड़ा बाजार में प्रेम सिंह बिष्ट जी के साथ रह रहा था. अपना टीन का बक्सा खाली करके उसमें कपड़े और किताबें रखीं. लेखकों, मित्रों और घर से आई हुई चिट्ठियां सेब की खाली पेटी में अखबार बिछा कर संभाल दीं. दूसरी पेटी में धर्मयुग, सारिका, नई कहानियां और अन्य पत्रिकाओं के अंक संभाल दिए, इस आशा में कि जल्दी ही आकर ये चीजें ले जाऊंगा. शाम को काफी देर तक बिष्ट जी के साथ मालरोड और फ्लैट्स के आसपास घूमता रहा. नैनीताल छोड़ने की बात सोच-सोच कर बहुत निशाश लग रहा था.

लौट कर चुपचाप सो गया. लेकिन, द नींद किसे आनी थी. पढ़ाई के वे चार साल और नैनीताल! सारी रात नैनीताल ही याद आता रहा…

“सुन रहे हैं?”

“ओं”

( जारी )

 

वरिष्ठ लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी के संस्मरण और यात्रा वृत्तान्त आप काफल ट्री पर लगातार पढ़ते रहे हैं. पहाड़ पर बिताए अपने बचपन को उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘मेरी यादों का पहाड़’ में बेहतरीन शैली में पिरोया है. ‘मेरी यादों का पहाड़’ से आगे की कथा उन्होंने विशेष रूप से काफल ट्री के पाठकों के लिए लिखना शुरू किया है.

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  • बहुत ही प्यार संस्मरण लिख रहें हैं मेवाड़ी जी । एक दम भीगा हुआ रसभरा गद्य

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