कहो देबी, कथा कहो – 41
पिछली कड़ी- कहो देबी, कथा कहो – 40
कई बार सोचता था कि समय आखिर कितनी परीक्षा लेगा? लखनऊ में ही तनाव से इतना तंग आ चुका था कि इस्तीफा लिख कर सदा जेब में रखता था, यह सोच कर कि अगर हद से गुजर जाएगी तो नौकरी से इस्तीफा दे दूंगा. कुछ नहीं तो गांव चला जाऊंगा जहां हमारी ज़मीन भी है और मकान भी. बड़ा बल मिलता था यह सोच कर. लेकिन, अगले ही पल मन में सवाल उठने लगते कि बच्चों की पढ़ाई का क्या होगा? कहां पढ़ाऊंगा उन्हें? खेती करना आता नहीं, आमदनी का जरिया है नहीं तो घर कैसे चलाऊंगा? फिर सोच में डूब जाता. एक बार सोचा, किसी अच्छी विज्ञापन एजेंसी में काम कर लूं या फिर अपनी विज्ञापन एजेंसी शुरू कर लूं. लेकिन, गला-काट प्रतियोगिता के माहौल में यह काम भी कितना सफल हो पाएगा, इसका अनुमान नहीं लग सकता था. इसलिए चुपचाप नौकरी करता रहा. नौकरी में भी कोई गॉड फादर नहीं बनाया इसलिए अपने काम के बूते पर ही टिके रहना था. शैलेश मटियानी जी की बात याद आती रहती कि ‘देवेन, सदा पेड़ की तरह बढ़ना जो अपनी जड़ों पर खड़ा रहता है, किसी बेल की तरह नहीं जो सहारे पर खड़ी रहती है और आंधी आने पर उसके साथ ही गिर जाती है.’
ऐसे मानसिक उहापोह और तनाव के माहौल में केवल तब राहत मिलती थी जब मैं अपने लेखन में डूब जाता. दफ्तर और बाहर की ड्यूटी से अक्सर ही रात में नौ-दस बजे लौटता. कई बार प्रदर्शनी, समाचार पत्रों में प्रेस विज्ञप्ति देने या देर शाम की मीटिंगों से लौटने में रात को ग्यारह-बारह भी बज जाते. तब मैं घर लौट कर बिला नागा डाइनिंग टेबल पर लिखने बैठ जाता. उन्हीं दिनों मैंने संघर्षरत वैज्ञानिकों की जीवनियों पर लेखमाला लिखी, बच्चों और किशोरों के लिए एक केंद्रीय चरित्र देवीदा की रचना की जो बच्चों के दोस्त हैं और बच्चों की ही भाषा में उनसे बातें करते हैं. इस चरित्र के साथ दस-बारह बच्चों की कल्पना करके ‘सूरज के आंगन में’ लेखमाला लिखी. दिन भर बैंक के काम से थका-मांदा लौटता और कलम-कागज लेकर कभी सूरज तो कभी मंगल और शनि ग्रह पर चला जाता. ढोल की तरह लुढ़कते यूरेनस ग्रह को देखता या नेप्च्यून ग्रह के ट्राइटन चांद की गुलाबी बर्फ के परीलोक में चला जाता. कभी अपनी विज्ञान कथाओं के लिए अनजाने लोक रचता. तब भला किसे पता होता कि दिन भर, धरती पर नौकरी की जद्दोजहद करने वाला यह आदमी रातों को किन अनजान लोकों में घूम रहा है!
कल्पनालोक की इन यात्राओं से मन को बहुत शांति मिलती थी और मैं सो सकता था. अब लगता है, उस दौर में लेखन की यही थेरेपी मेरा उपचार करती रही होगी और इसी ने मुझे तनावों के झंझावत से बचाया होगा. लेखमालाओं और विज्ञान कथाओं पर पाठकों के बहुत पत्र आते थे, वे भी मेरा साहस बढ़ाते.
लेकिन कभी-कभी तो पाठक खुद भी आ जाते थे. एक पाठिका मुझे वैज्ञानिकों की जीवनी पर पत्र लिखा करती थी और उनके चित्र बनाकर भी भेजती थी. गैलीलियो के बारे में पढ़ कर उसे बहुत खुशी हुई. तब उसने मुझे पत्र लिखा कि मैं खगोल वैज्ञानिक ब्रूनो पर भी जरूर लिखूं. धर्मांधों ने उसे इटली में शहर के चौराहे पर जीवित जला दिया था. वह कोपर्निकस की बात का समर्थन करता था कि पृथ्वी सूर्य के चारों ओर घूमती है. ‘सूरज के आंगन में’ पढ़ कर वह लेखमाला के केंद्रीय चरित्र देवीदा की मुरीद हो गई. देवीदा के साथ बच्चों की बातचीत उसे बहुत अच्छी लगती. उसे लगा कि देवीदा सभी समस्याओं को सुलझा सकते हैं.
वे मेरे लिए नौकरी के काम में चरम व्यस्तता के दिन थे. वर्ष 1993. शनिवार का दिन था. दफ्तर में काम कर रहा था कि घर से पत्नी का फोन आया, “सुनो, अभी घर पर दिल्ली के बाहर से एक माता-पिता आए थे. उन्होंने पूछा, कि क्या उनकी लड़की हमारे घर पर आई है. मैंने कहा कि यहां तो नहीं आई है. तब उन्होंने बताया कि उनकी लड़की तुम्हें बहुत मानती है और तुम्हारे लेख मन लगा कर पढ़ती है. कह रहे थे कि हमें शक था कि वह यहीं आई होगी. मैंने पूछा कि क्या घर से बिना बता कर आई है तो वे बोले, हां कुछ ऐसा ही है. मैंने उनसे कह दिया है कि अगर बिटिया यहां आई तो वह हमारे लिए भी हमारी बिटिया की ही तरह होगी और हम आपको फौरन सूचित करेंगे. वे तुमसे मिलना चाहते हैं. मैंने फोन नंबर दे दिया है. तुम्हें फोन करेंगे. आफिस से बाहर आकर उनसे बात कर लेना.”
यह सुन कर मैं हैरान रह गया. तभी उनका फोन आ गया. मैं बाहर आकर उनसे मिला. उनमें मेरी उस पाठिका के माता-पिता और भाई बैठे थे. मैंने उनसे कहा कि मुझे पूरी बात समझाइए. उन्होंने बात समझाई और कहा, वह आपसे मिलने जरूर आएगी. हमने अपना फोन नंबर आपके घर पर भी दे दिया है.
मैंने उनसे कहा कि अगर वह हमारे घर पर आई तो मैं फौरन आपको इस बारे में जानकारी दूंगा. पिता बोले, आप नेक आदमी लगते हैं इसलिए हमें भरोसा है कि आप हमें खबर देंगे. मां बुरी तरह रो रही थी. उसके बाद वे लौट गए. बाद में पत्नी का फोन आया कि मेरी वह पाठिका घर पर पहुंच गई. मैंने उनसे कहा कि आसपास किसी जगह से उसके माता-पिता को फौरन फोन करके बता दो. जब मैं घर पहुंचा तो वह वहां अलमारी से मेरी किताबें निकाल-निकाल कर देख रही थी. मुझे देख कर वह खुश हुई और पूछा, “आप हैं देवीदा?”
मैंने हंसकर कहा, “मैं देवेंद्र मेवाड़ी हूं. देवीदा मेरे एक पात्र हैं.”
“वह तो मुझे पता है देवीदा,” उसने कहा. मैंने उससे पूछा, “क्या माता-पिता भी आए हैं?”
“नहीं, मैं अकेले आई हूं.”
“अरे, अकेले कैसे? दिक्कत नहीं हुई दिल्ली आने में?”
“नहीं, मैं बुर्का पहन कर दिल्ली की बस में बैठ गई और यहां पहुंच गई.”
पूरी बात सुनने पर पता लगा कि वह एक दिन पहले ही नारी स्वतंत्रता पर अक्सर लिखने वाली एक लेखिका के पास आ गई थी. उनसे मिल कर उसको मेरे पास आना था लेकिन वह उसे किसी नारी निकेतन में छोड़ आईं. वहां पीने के पानी और खाने की खराब व्यवस्था देख कर उसने विरोध किया तो नारी निकेतन की इंचार्ज ने गुस्से में लेखिका को फोन करके उसे वहां से ले जाने को कहा. लेखिका ने झुझला कर पूछा, कि तुम्हें जाना कहां है? उसने उसे मेरा पता बताया. लेखिका अपनी कार में बैठा कर उसे मेरे घर के सामने गली में छोड़ गई. उसने गली में देवीदा के बारे में पूछा कि वे पत्रिकाओं में लेख लिखते हैं. किसी पड़ोसी ने उसे बताया, अखबार और पत्रिकाएं तो पोस्टमैन इस घर में देता रहता है. इस तरह पूछते-पूछते वह हमारे घर पहुंच गई.
मैंने उससे कहा, “हमारी तीन बेटियां हैं और तुम आ गई हो तो अब हमारी चार बेटियां हो गईं. तुम आराम से बैठो और मेरी बेगम साहिबा और बेटियों से बात करो. मैं अभी आता हूं.”
बाहर जाकर मैं एसटीडी बूथ से फोन मिलाता रहा लेकिन नहीं मिला. घर आकर फिर मैं और मेरी पत्नी उससे बातें करते रहे. हमने चाय पी तो वह चाय बनाने के बारे में बड़ी जिज्ञासा से पूछती रही. रोटी बनाते समय कहने लगी कि हमारे यहां तो तवा उलट कर रखते हैं. मैंने उसे बताया कि यह तो अपनी-अपनी मर्जी है कि तवा उलट कर रखें या सीधा रखें. हम सभी ने मिल-बैठ कर खाना खाया और फिर हम दोनों उससे बातें करते रहे. उसके मन में बहुत सवाल थे, जैसे गैलीलियो पर मुकदमा क्यों चलाया गया? ब्रूनो को सच कहने पर भी क्यों जला दिया गया? धर्म तो आपस में मिल-जुल कर रहने की बात करते हैं, फिर अलग-अलग धर्म के लोग एक दूसरे से लड़ते क्यों हैं? लड़कियों को लोग अधिक क्यों नहीं पढ़ाते हैं? लड़कियों और औरतों पर इतनी बंदिशें क्यों लगाई जाती हैं? वगैरह.
हमारी वह पूरी रात आंखों में कटी. वह बातचीत में मुझे लगातार देवीदा कह रही थी. वह मान रही थी कि मैं ही देवीदा हूं. अगले दिन फिर उसके घर पर फोन मिलाने की कोशिश करता रहा. जब नहीं मिला तो चाणक्यपुरी के पोस्ट आफिस से उसके पिताजी को तार किया कि बेटी आ गई है और हमारे घर पर है, फौरन आएं. शाम को फिर फोन मिलाते रहे लेकिन न कोई जवाब मिला, न कोई आया. दूसरे दिन जनपथ के पोस्ट आफिस से फिर तार किया.
तीसरे दिन रक्षाबंधन था. मेरी बेटियों ने बेटे को राखी बांधी. हमने उसको भी राखी देकर कहा कि अपने इस भाई को तुम भी राखी बांध दो. वह बहुत खुश हो गई. उसने अपने इस नए भाई को राखी बांधी और कहा, “बहुत धन्यवाद, आप लोगों ने मुझे अपने इस त्यौहार में शामिल किया. मुझे बहुत अच्छा लगा.” उसकी आंखें भर आई थीं.
उस दिन देर शाम को उसके माता-पिता, भाई और एक रिश्तेदार हमारे घर आए. उन्होंने कहा कि उन्हें तार देर में मिला इसलिए आने में देर हो गई. उन्होंने बेटी को घर चलने के लिए कहा लेकिन उसने साफ मना कर दिया. उसने कहा कि मैं यहीं कहीं नौकरी कर लूंगी. माता-पिता बहुत समझाते रहे लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ. रिश्तेदार को हमारे यहां छोड़ कर वे रात को वापस लौट गए. हम उस रात भी उसे समझाते रहे.
चौथे दिन सुबह पिता और भाई एक हाजी साहब के साथ आए. लंबी, सफेद दाढ़ी वाले बुजुर्ग हाजी साहब को देख कर हम भी चौंके. मुहल्ले वालों ने कुछ पूछा तो नहीं लेकिन हमें पता था कि आवाजाही देखकर वे भी आपस में बातें कर रहे होंगे. खैर, हमने उनको बैठाया. चाय बनाई और फिर बेटी को समझाने का दौर शुरू हुआ. हाजी साहब ने अपने बुजु़र्गाना अंदाज में बहुत प्यार से बेटी को एक-एक बात समझाई लेकिन बेटी अपने तर्कों के साथ उनकी बातों का जवाब देती रही. बाद में पिताजी ने मुझे अलग ले जाकर कहा, “वह केवल आपकी बात मानेगी, और किसी की नहीं. आप अगर उससे घर लौटने को कह देंगे तो वह मना नहीं कर पाएगी.”
मैंने कहा, “हम तो तीन दिन से उसे समझा रहे हैं, मैं फिर कोशिश करता हूं.” मैंने बेटी से कहा कि हाजी साहब और माता-पिता उसे इतना समझा चुके हैं. उसे अब उनके साथ घर लौट जाना चाहिए.
उसने हैरानी से मेरी ओर देखा और कहा, “तो आपका भी यही कहना है?”
मैंने कहा, “हां, हम भी तीन दिन से यही समझा रहे हैं.”
उसने हताश होकर कहा, “ठीक है मैं घर चलती हूं लेकिन मैं आगे पढ़ना चाहती हूं. मैं पढ़-लिख कर खुद अपने पैरों पर खड़ा होना चाहती हूं.”
पिताजी ने कहा, “ऐसा ही होगा बेटी.”
हम उन्हें बाहर तक छोड़ने आए. उन्होंने हमसे परिवार सहित कभी घर आने को कहा. इसके बाद वे सभी लोग लौट गए.
उस दौरान विज्ञापन, जनसंपर्क, मीडिया संपर्क और फील्ड पब्लिसिटी के क्षेत्र में बहुत कुछ नया करने का अवसर मिला. हमने पहली बार देश की राजधानी दिल्ली में गणतंत्र दिवस के मौके पर अपने बैंक की झांकी प्रदर्शित की. उसकी डिजायन रक्षा मंत्रालय की उच्चस्तरीय समिति से पास कराई. बैंकिंग उद्योग में यह ऐसा पहला प्रयास था. दिल्ली और दिल्ली से बाहर गांवों, शहरों में कई प्रदर्शनियां लगाईं, कठपुतली कालोनी के कलाकारों से सैकड़ों कठपुतली प्रदर्शन कराए. वर्ष 1994-95 बैंक का शताब्दी वर्ष था. इसके लिए तरह-तरह के बड़े आयोजनों की योजनाएं बनीं और उन्हें मूर्त रूप दिया गया.
चार-पांच माह ही बीते थे, गांव से खबर मिली कि ग्यारह माह की अपनी नन्हीं-सी बिटिया को पीछे छोड़ कर छोटी भाभी का निधन हो गया है. यह स्तब्ध कर देने वाला नया आघात था. साल भर पहले ही उनकी नौ-दस साल की बिटिया मोहनी चल बसी थी. अब घर में बड़े ददा और उनकी छोटी-सी बिटिया ही रह गए. वे अकेले कैसे रहेंगे वहां? मैंने तय किया कि उन्हें दिल्ली ले आवूंगा और अब आगे वे हमारे साथ ही रहेंगे.
मैंने बस पकड़ी और नैनीताल पहुंचा. वहां से भाभीमां और मैं अपने गांव कालाआगर पहुंचे. घर बाहर दो-चार लोग उदास बैठे हुए थे. दुखी होकर मैंने उनसे पूछा, “भाभी जी तो ठीक-ठाक थीं, उन्हें अचानक क्या हुआ?”
“द, चार-छह दिन पहले तक तो ठीक ही हुई, दड़ी-मोटी (स्वस्थ्य). फिर पेट खराब हुआ, दस्त किसी तरह रूके ही नहीं. वह पानी भी पीती तो उलट देती थी. खाने का तो मतलब ही नहीं हुआ. बस, कमजोर होती गई और फिर प्राण छोड़ दिए,” ददा ने कहा.
“क्यों दस्त की दवाई तो ली जा सकती थी?” मैंने कहा.
“द, द्यौ औंछ कै त सबै जाननैर भै, बिजुलि पड़ैंछ कै कौ जानैंछ?” (बारिश आती है करके तो सभी को पता हुआ, बिजली गिरती है करके किसे पता?), वहां बैठे दूसरे आदमी ने कहा.
आगे क्या पूछता? चचरे भाई के साथ बैठ कर ददा से बात की. मैंने कहा, “अब यहां आपको देखने वाला कौन हुआ? इसलिए अब आप मेरे साथ दिल्ली चलिए. यही ठीक रहेगा.” हमने उन्हें समझा लिया और वे दिल्ली चलने को तैयार हो गए. भाभी जी के पीपल पानी में हमारी तमाम गाय-भैंसों में से बची हुई एकमात्र कलोड़ी (अल्हड़) बछिया गोधनी गोदान के नाम पर पुरोहित जी को सौंप दी गई. पीपलपानी की रस्म पूरी करने के बाद अगले दिन उसके गले में रस्सी बांध कर वे उसे अपने गांव को ले जाने लगे. बछिया जाने को बिल्कुल तैयार नहीं थी, अड़ा-अड़ा (रंभा-रंभा) कर अपनी भाषा में ददा से कुछ कहती थी, कातर नजरों से उनकी ओर देखती थी. लेकिन, वे क्या कहते? गोद में नन्हीं बेटी को पकड़ एक हाथ से अपनी आंखें पोंछते थे. ददा ने गोधनी की पीठ पर, मुंह पर हाथ फेर कर कहा, “द ज मयाड़ी तू लै जा. खुशि रए वां. ( मैया जा, तू भी जा. खुश रहना वहां). पुरोहित जी से भी कहा, “पंडिज्यू, यही आखिरी निशानी बची है मेरी गाय-भैंसों की. इसे प्यार से पालना.”
गोधनी कुछ नहीं समझ पा रही थी. पुरोहित जी रस्सी पकड़ कर चलने लगे तो गोधनी रस्सी छुड़ा कर ददा की ओर जाने की जिद करने लगी. ददा ने कहा, “ज, ईजा जा, अब वुई त्यर घर छ.” (जा मैया जा, अब वही तेरा घर है.) बहुत विरोध किया गोधनी ने, खुद को छुड़ाने की बड़ी कोशिश की. कुछ नहीं समझ पा रही थी वह. जब कुछ भी वश न चला तो अड़ गई. उसे आगे खींचना कठिन हो गया. तब बाखली के ही एक भतीजे को भेजा गया कि नजरों से दूर होने तक उस पार बोनमाटा के मोड़ तक उसे पहुंचा आए. वह सब देखना मेरे लिए मर्मांतक था. मैं आंखें पौंछता सड़क पर जाकर पत्थरों की दीवाल पर चुपचाप बैठ गया और गोधनी को विरोध करते, अड़ते, खिंचते, बगल के क्वैराला गांव को पार कर मोड़ से ओझल होने तक सकसकाते, रोते हुए देखता रहा. बार-बार भर आती आंखों को रुमाल से चुपचाप पौंछता रहा.
हम चलने के लिए तैयार हुए. ददा ने एक धोती की गठरी बना कर उसमें अपनी जरूरी चीजें बांध लीं. आंगन में आए तो मैं ‘अभी आया’ कह कर फिर घर के भीतर गया, घर से मिलने. रुलाई फूट पड़ी. दीवाल से गले मिला और मिट्टी-गोबर से साल-दर-साल लिपी उस दीवार की थोड़ी परत उखाड़ कर वह मिट्टी चुपचाप रूमाल में लपेट कर अपनी जेब में रखी. चुपचाप घर को प्रणाम किया और उससे कहा- फिर भेंट होगी. उसके बाद आंखें पोंछ कर बाहर आ गया. घर की चाबी भाई जैंतुवा को सौंप दी.
बस तक पहुंचने के लिए ददा को घोड़े में बैठा कर ले जाना था. मेरे दोनों चचेरे भाई, जैंतुवा और पनुदा घोड़े के पास खड़े थे. पनुदा ने काफी कमजोर हो गए ददा को पकड़ कर घोड़े की पीठ में बैठाया. ददा दर्द से चीखे. शायद पनुदा का अंगूठा उनकी पसलियों के बीच बुरी तरह धंस गया था. ग्यारह माह की बिटिया को उन्होंने गोद में पकड़ लिया. रोते हुए हमने भाइयों और भतीजे-भतीजियों से विदा ली और चल पड़े. हमारे साथ भाई जैंतुवा का बड़ा बेटा प्रह्लाद भी चला.
बस से हल्द्वानी पहुंचे. वहां से दिल्ली के लिए बसों के बारे में पता किया. बमुश्किल एक जर्जर बस में सीट मिली. वह भी कालाढूंगी से होकर दिल्ली के बस अड्डे तक जा रही थी. जून का महीना था और प्रचंड गर्मी पड़ रही थी. ठंडी हवाओं को पीछे पहाड़ में छोड़ कर मैं उसी अथाह गर्मी में ददा और फूल-सी बेटी को लेकर दिल्ली को रवाना हुआ. कालाढूंगी से होकर बस बाजपुर पहुंची. पानी और दूध की बोतल साथ रख ली थीं. लेकिन, उस अथाह गर्मी का क्या करते? बिटिया बहुत परेशान होकर बुरी तरह रोने लगी. बोतल में दूध भी खत्म हो गया था. उस अबोध बच्ची का रोना सुन कर दिल्ली जा रहीं दो-एक पहाड़ की ही औरतें आपस में बात कर रही थीं, “शिबौ-शिब, इस बच्ची की मां कहां होगी? कितना रो रही है.”
मुझे खिड़की से बाहर मिठाई की दूकान दिखाई दी जिसमें कड़ाह में दूध भी दिखाई दे रहा था. ड्राइवर से थोड़ी देर बस रोकने को कह कर, प्रह्लाद को भेज कर दूकान से बोतल में दूध मंगाया. बोतल मुंह में लगते ही बच्ची दूध पीने लगी. दूध पीते-पीते सो भी गई.
बस न जाने कहां-कहां से होकर दिल्ली को चली जा रही थी. बस की खिड़की से लू की लपट आती थी. लगता था जैसे हम लगातार किसी भट्टी की ओर बढ़ते जा रहे हैं. राम-राम करके दिल्ली के बस अड्डे तक पहुंचे. वहां से बस पकड़ कर मोहम्मदपुर और फिर पैदल सफदरजंग इंक्लेव के भीतर कृष्णानगर में घर तक. घर जाकर मैंने बच्ची पत्नी की गोद में देकर कहा, “लो, हमारी एक और बिटिया आ गई है. हमारा छह जनों का परिवार अब आठ जनों का हो गया.” पत्नी ने उस फूल जैसी बच्ची को गोद में पकड़ लिया और दूध पिलाया. फिर मिल्क बूथ से दूध लेने के लिए प्रह्लाद को भेजा. जब बहुत देर तक वह नहीं लौटा. तो हमें फिक्र हुई. मिल्क बूथ पर उसे देखने गए तो देखा वह वहां खड़ा है. हमें देखते ही बोला, “मैं तो भबरी (भटक) गया था. दूध लेकर घर को आया लेकिन शायद किसी ओर गली में चला गया. लौट कर यहीं खड़ा हो गया कि मुझे खोजने तो आप लोग पहले यहीं आएंगे.”
ददा ने बाद में धोती के एक गट्ठर में बंधा डिब्बा निकाला और लक्ष्मी से कहा, “नानि (बहू) इसे तुम कहीं बक्से में भीतर संभाल दो. इसमें तुम्हारी जेठानी के कुछ जेवर वगैरह हैं. बाज्यू आमा के थान के डंगरिया थे और चांदी का कड़ा पहनते थे. वह कड़ा भी इसी में है.” लक्ष्मी ने डिब्बा संभाल दिया. उसे हमने कभी खोल कर नहीं देखा.
ददा लगभग दस माह साथ में रहे. उस बीच बच्ची हमसे खूब हिल-मिल गई. उसे हम अपने साथ ही सुलाते थे. क्योंकि अब उसे हमारे साथ ही रहना था, इसलिए हम उसे अपनी तरह से पालने-पोषने लगे. लेकिन, बैशाख शुरू होते ही ददा को काफी गर्मी लगने लगी और वे पहाड़ जाने की बाते करने लगे. बोले, “गर्मियों में वहां रह लूंगा. घर और जमीन-जायदाद तो वहां हुई ही अपनी. यहां ठंडा होने लगेगा तो फिर किसी से पहुंचा मांगूगा.” लक्ष्मी ने ददा का दिया हुआ डिब्बा उन्हें सौंप दिया. मैंने उनसे कहा, “आमा थान का कड़ा तो आमा थान के नए डंगरिया के पास रहना चाहिए. अगर नया डंगरिया बन गया हो तो आप इसे उसे दे देना.” उन्होंने कहा, “हां इसे मैं इस बार उसे दे आऊंगा.” जाने से पहले मैंने डाक्टर से उनका चैकअप कराया और दवाइयां लीं. उन्हें सांस लेने में दिक्कत होती थी, इसलिए डाक्टर की सलाह पर नेबुलाइजर भी ले लिया. उसके बाद वे बच्ची को लेकर मेरे साले कुंदन के साथ पहाड़ को चले गए.
ददा छह महीने बाद बेटी और नाती के साथ अक्टूबर में फिर दिल्ली आ गए. जेवरों का वह डिब्बा उन्होंने फिर लक्ष्मी को संभालने को दे दिया. नाती ने दिल्ली में कुछ समय तक काम किया था और शहर से वाकिफ था. अगले दिन मैं दफ्तर को निकला और वे तीनों चिड़ियाघर देखने चले गए. बच्ची घर में अकेली रह गई. पहले छह महीने में वह जितना हिल-मिल गई थी और हमें पहचानने लगी थी, वह अब भूल गई थी. वह थोड़ा बड़ी भी हो गई थी. बाद में पत्नी ने बताया कि ददा को वहां ना देख कर उसने कोहराम मचा दिया और बेहताशा रोने लगी. किसी तरह उसे चुप कराया और खाना खाकर वह सो गई. दोपहर बाद ददा के लौटने पर बच्ची उनसे लिपट गई. हम पकड़ने लगते तो अपरिचित मानकर चिल्लाने लगती. किसी तरह उसे हम फिर से सिखाने-समझाने लगे ताकि वह जल्दी ही हमारे साथ हिल-मिल सके. उस बार ददा जाड़ों में फिर साथ रहे और गर्मियां आने पर फिर पहाड़ जाने को तैयार हो गए. हमने कहा भी कि इस तरह बच्ची यहां की आदतें कैसे सीख पाएगी? ददा ने कहा कि थोड़ा बड़ी हो जाएगी तो फिर समझने लगेगी. अभी तो पहाड़ ही ले जाता हूं. जेवरों का वह डिब्बा लक्ष्मी ने फिर उन्हें सौंप दिया. वे कहने लगे कि उसे यहीं रहने दो. तब लक्ष्मी ने कहा, “यह तो बच्ची की अमानत है, जहां वह रहेगी, वहीं यह भी रहेगा. बड़ी होने पर यह उसी के काम आना है.” हमने इस बार भी उसे खोल कर नहीं देखा था. इसलिए पता नहीं था कि उसके भीतर क्या-क्या चीजें हैं.
ददा पहाड़ लौटे लेकिन उसके बाद दिल्ली नहीं आए. वे वहीं घर में रहने लगे. भाई जैंतुवा का परिवार उनकी मदद करने लगा. बाद में वे कुछ समय तक बेटी के पास चले गए लेकिन जल्दी ही फिर अपने घर में लौट आए.
“पहाड़ में कहते हैं- बखत तेरि बलै ल्यूं. मतलब आपको पता ही हुआ कि समय तेरी बलिहारी जाऊं. कुछ ऐसा ही समय देखा आपने.”
“ठीक कह रहे हैं आप. आज पीछे पलट कर देखता हूं तो लगता है कि कितने और कैसे-कैसे उतार-चढ़ाव होते हैं जिंदगी में. ठीक है कि नहीं? आगे की कथा सुनाऊं?”
“ओं”
वरिष्ठ लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी के संस्मरण और यात्रा वृत्तान्त आप काफल ट्री पर लगातार पढ़ते रहे हैं. पहाड़ पर बिताए अपने बचपन को उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘मेरी यादों का पहाड़’ में बेहतरीन शैली में पिरोया है. ‘मेरी यादों का पहाड़’ से आगे की कथा उन्होंने विशेष रूप से काफल ट्री के पाठकों के लिए लिखना शुरू किया है.
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