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वे दिन, वे लोग और उन दिनों का वह पंतनगर!

कहो देबी, कथा कहो – 21

(पिछली कड़ी: कहो देबी, कथा कहो – 21 – निर्माण के दिन)

वे दिन, वे लोग और उन दिनों का वह पंतनगर!

किसी शांत कस्बे की तरह था वह, जहां अड़ोस-पड़ोस ही नहीं, पूरे कैम्पस के लोग आत्मीय रिश्तों की डोर से जुड़े हुए थे. शुरू में क्वार्टर कम होने के कारण दो-दो लोगों को एक क्वार्टर के हिसाब से ऐलाट किया गया. बाद में सभी को अलग-अलग नए बने क्वार्टर मिल गए जिनमें किचन गार्डन के लिए काफी ज़मीन भी थी. सभी लोग उसमें साग-सब्जियां और फल उगाते थे. हमने भी अपने क्वार्टर में खूब सब्जियां उगाईं. केले और पपीते की बौनी किस्में उगाईं, ‘यूरेका’ कागजी नींबू, लाल गूदे वाला अमरूद लगाया. खूब फलते थे वे. किनारे का क्वार्टर था, इसलिए किचन गार्डन की काफी जमीन थी. उसमें रबी के मौसम में गेहूं, जायद में मूंग, उड़द, लोबिया और अरहर की फसलें उगाते थे. खरीफ के मौसम में खूब कीचड़ बना कर धान की रोपाई करते थे. खेत दो मजदूर चोकट और इजराइल खोद कर तैयार कर देते और रोपाई में हम भी उनका साथ देते थे. हमारे अपने किचन गार्डन से हमें करीब ढाई-तीन क्विंटल गेहूं, धान और 60-70 किलोग्राम तक दालें मिल जाती थीं.

घर की एप्रोच रोड के दोनों ओर बेला, गार्डीनिया यानी गंधराज के खुशबूदार पौधे उगाए थे. बीच-बीच में मौसम के अनुसार लिली, कलेंडुला, फ्लॉक्स, गेंदा और गुलदाउदी. घर के मुख्य द्वार के निकट मालती की ऊंची बेल, जिस पर शाम को छह-सात बजे खूबसूरत सफेद फूलों के गुच्छे खिल कर खुशबू बिखेरने लगते. सुबह धूप पड़ते ही वे लाल हो जाते. बेडरूम की खिड़की के बाहर रातरानी की गछीली झाड़ी रात भर खुशबू बिखेरती. बया पक्षियों को वह झाड़ी खूब रास आती थी और मानसून आने से पहले मई-जून में ही वे घास की पत्तियों से बुनकर अपने लैंपशेड जैसे लंबे घोंसले बनाने लगतीं. घर-आंगन में गौरेयां और बुलबुलें चहकतीं.

वहीं हमारे घर-आंगन में 1970 में पहली बार नन्हीं बिटिया की किलकारियां गूजीं. तब नई नौकरी थी और काम की व्यस्तता के कारण छुट्टियां अधिक नहीं ले सकता था. पत्नी को नैनीताल ले जाकर रामजे अस्पताल में लेडी डॉक्टर मालती सिंह से चैक करवाया और उनकी सलाह पर भर्ती कर दिया. डेलीवरी बस आज हुई कि कल हुई के अंदेशे में पूरा एक माह लग गया. दस दिन की छुट्टियां मिल गईं और उसके बाद सप्ताहांत पर मैं बीच-बीच में पंतनगर और नैनीताल के बीच दौड़ता रहा. लंबी प्रतीक्षा के बाद बिटिया का जन्म हुआ. मैं और बटरोही अस्पताल के लंबे बरामदे में यहां से वहां चक्कर काटते हुए इस बात पर चर्चा करते रहे कि अगर बिटिया हुई तो उसका नाम प्रतीक्षा ठीक रहेगा. वह तो ददा ने राय दी कि नाम का व्यक्तित्व पर असर पड़ता है. वह बोलने में आसान हो और उसमें मिठास हो. पत्नी शिशु जन्म के बाद भी ग्यारह दिन अस्पताल में रही. बुआ बटरोही के हाथ उन ग्यारह दिनों तक मेरी पत्नी के लिए दूध भेजती रहीं. इस बीच डॉ. मालती ने मुझे राय दी कि मां का यूट्रस कमजोर है. सीढ़ी चढ़ने-उतरने से बचें. ऊंची-नीची जगह पर न चलें. इसलिए मैंने यह तय किया कि हम सीधे पंतनगर ही जाएंगे. आपा-धापी में बिटिया का नामकरण कराया और पंतनगर लौट आए.

शिशु जन्म से जुड़ी जिम्मेदारियां पत्नी और मैंने ही संभालीं क्योंकि मां या दादी जैसी किसी सयानी महिला का साथ तो था नहीं. हम नौसिखियों ने ही सब कुछ देखना और संभालना था. संभाला. शिशु जन्म के बाद भी घर के सारे काम पत्नी ही करती रही. आने वाले वर्षों में पंतनगर अस्पताल में ही दो और बेटियों ने जन्म लिया. उनकी देखभाल के लिए भी दादी-नानी और मां तीनों की भूमिका लक्ष्मी ने स्वयं ही निभाई.

विश्वविद्यालय में पहले एक ही मुख्य मार्केट थी. जरूरी चीजें खरीदने के लिए रिक्शे से वहीं जाया करते थे. ईंधन के लिए कैरोसिन भी वहीं कतार लगा कर मिलता था. कोयला भी वहीं मिलता था. बाद में हमारी ‘ट’ कालोनी की बगल में भी छोटी-सी नई मार्केट खुल गई. दूध विश्वविद्यालय की ही डेरी से आता था. रोज सुबह दूध के रिक्शे से उम्रदराज गोरख की ऊंची आवाज सुनाई देती थी- बाऽनी, अत्ती, कनऽऽक! हम कूपन देकर दूध ले लेते थे जो रुपए-सवा रुपए लीटर मिलता था. गाय का शुद्ध घी आठ से बारह रुपए किलो मिलता था.

कभी-कभी रविवार को भारी कद-काठी के रद्दी वाले की आवाज सुनाई देती:

रद्दी पुरानी सा! दे रद्दी!
डालडा घी के डिब्बे बेच!
रद्दी पुरानी सा! दे रद्दी!

पुराने अखबार, डिब्बे वगैरह उसे बेच देते. कभी-कभी छोटे कद के एक बार्बर साहब आते जो बाल बनाते समय बंबई के हीरो-हीरोइनों के मजेदार किस्से सुनाते. अपना तज़ुर्बा सुनाते हुए बताते कि दिलीप कुमार का व्यवहार बहुत अच्छा था, देवानंद बड़े खुशमिज़ाज थे. बार्बर साहब का पहनावा देख कर कोई भी समझ सकता था कि जनाब झूठ बोल रहे हैं और हीरो-हीरोइनों की सेवा में वे कभी नहीं रहे होंगे. बहरहाल, बाल बनवाने होते थे तो उनके किस्से भी सुनने ही होते.

हमारी बात और थी. हमने कहीं पढ़ लिया था कि अज्ञेय अपने सभी काम खुद कर लेते हैं – चारपाई बुनने से लेकर बाल काटने और जूता सिलने तक सभी काम. हमें उनसे बड़ी प्रेरणा मिली और हमने स्वयं घर में ही बाल काटने का निश्चय किया. श्रीमती जी ने कैंची-कंघा संभाला और बच्चों के साथ ही मेरे भी बाल बनाने लगीं. कभी-कभी उलाहना भी देती रहतीं कि बस एक कटनी नहीं लाए, नहीं तो फटे जूते भी मैं ही सिल देती! वह दिन और आज का दिन, वे ही मेरे बाल बनाती हैं. बाकी बाहरी हॉकरों को कैम्पस में आने की अनुमति नहीं थी.

पड़ोस सदा गुलजार रहता था. कभी कोई पड़ोसिन आकर पत्नी से अपने किस्से छेड़ देती. बातचीत की शुरूआत कुछ इस तरह होती, “अब बैठे हैं मुंह फुला कर. मैंने कहा, बैठे रहो. हम जा रही हैं सामने मिसेज मेवाड़ी के पास.”

“क्यों, क्या बात हो गई?”

“पत्ताऽ नहीं. दूध दे दिया है लेकिन मुंह तक नहीं लगा रहे हैं, बताइए, ये क्या बात हुई.”

“क्यों तबियत ठीक है?”

“रात तक तो ठीक ही थी. बस सवेरे से मुंह फुलाए हैं.”

“क्यों, ऑफिस नहीं गए?”

सुन कर वे चौंकी. फिर ठठा कर हंसी, “तुम किसे समझ रही हो लछिम? मैं टीकू जी की बात कर रही हूं.” (मैं घर में पत्नी लक्ष्मी को अपनी दुदबोली कुमाउनी में लछिम कहता हूं.)

सुन कर लक्ष्मी भी हंसी. टीकू और मीकू उनकी दो बिल्लियां थीं जिनके किस्से वे अक्सर सुनाया करती थीं कि आज उन्होंने क्या खाया, क्या नहीं खाया, क्या पिया और कब सोईं, कब उठीं.

क्वार्टर मिलने के बाद पड़ोस के सहायक प्रोफेसर गांव से बच्चों को ले आए. पड़ोसिनों की धूप में बैठकी जमी तो वे बोली, “अरे, ह्यां तो पछुवा-पुरबाई हाथै में है. जब मर्जी बटन दबाओ और हर-हर, हर-हर हवा चलने लगती है.”

कभी-कभी एक दुबले-पतले, बुजुर्ग पंडित जी दक्षिणा लेने आते थे. वृत्ति का काम करते थे. कभी नया संवत्सर सुनाते, कभी गंगा दशहरा को दरवाज़े के ऊपर चिपकाने के लिए ‘दशार’ दे जाते थे. कभी मजाक करते, “इस बार तो पूरी तनखा दक्षिणा में लेनी है मैंने! वे आते, ड्राइंगरूम में बैठते और चारों ओर देखते रहते. एक बार इसी तरह बैठे-बैठे उनकी नजर सामने बुक रैक के ऊपर रखी, प्लास्टर ऑफ पेरिस की बड़ी-सी, सफेद वीनस की मूर्ति पर पड़ी. हमारे देखते-देखते वे मंत्रमुग्ध से उठे, मूर्ति के पास गए, उस पर धीरे-धीरे हाथ फिराया, चेहरे पर हाथ लगा कर उसी से बोले, “मानवै भै, बस बोल नैं भै.” (मानव ही हुई, बस बोल नहीं हुए.)

फिर हम पर नजर पड़ी तो बोले, “अच्छा, फिर चलता हूं मैं.” इसका मतलब होता था, अब चलता हूं, जो कुछ दक्षिणा देनी है, दे दो.

यह तो सादर दी गई दक्षिणा थी, लेकिन एक बार तो दक्षिणा वसूलने एक विकट व्यक्ति आ धमका. मैं ऑफिस को निकल ही रहा था कि घर पर उसका आगमन हुआ.

आते ही उसने पूछा, “जै गंगा माई! कहां हैं देवेंद्र?”

मैंने कहा, “मैं ही हूं. आप?”

“मैं पंडा हूं मथुरा का. एक प्लेट लाओ, प्रसाद ले लो. पहाड़ घूम कर आ रहा हूं. वहीं से तुम्हारा पता मिला. हरे कृष्ण! राधे श्याम!”

पत्नी प्लेट लाई तो उसने उसमें पेडे के दो टुकड़े रखे और बोला, “प्रसाद ले लो.” फिर मुझे एक रजिस्टर दिखाते हुए बोला, “ये देखो, कितने लोगों से मिल कर आ रहा हूं मैं.” रजिस्टर मेरे हाथ में देकर कहा, “इसमें अपना भी नाम, पता लिख दो यहां पर.”

मैंने रजिस्टर में अपना नाम और क्वार्टर नंबर लिख दिया. ऑफिस के लिए देर हो रही थी, इसलिए मैंने पत्नी से कहा, “मैं चल रहा हूं. पंडा को ग्यारह या इक्कीस रुपए दे देना.” यह कह कर मैं ऑफिस को चला गया.
ड्राईंग रूम में विश्वविद्यालय की ओर से एक मजदूर पुताई कर रहा था. शाम को लौटा तो पत्नी ने बताया, “बड़ा अजीब आदमी था वह पंडा. तुम्हारे जाने के बाद उसने कुमाउनी भाषा में कहा, “कुमाऊ के सभी जजमान मेरे हैं. आप भी कुमाउनी ही हैं ना?”

“हां, हैं तो.”

“बस, जजमान. हरे कृष्ण! हरे कृष्ण! मथुरा में धर्मशाला बना रहा हूं. तुम्हीं जजमानों के लिए. तुम लोग वहां आओगे तो उसी में रहोगे. वहां तुम लोगों की सेवा मैं करूंगा. रहना-खाना सब मुफ्त होगा. पूरे पहाड़ में घूम-फिर कर दान-दक्षिणा जमा की है. तुम भी निकालो कम से कम पांच हजार ग्यारह रुपए?”

“क्या? इतनी तनखा नहीं मिलती हमें.” मैंने शांति से कहा, “इक्कीस रूपए लीजिए. हम इतना ही दे सकते हैं.”

उसने रौद्र रूप धारण कर लिया और इक्कीस रुपए एक ओर को पटक कर चीखा, “क्या दे रही हो यह? तुम मखौल उड़ा रही हो हमारा. रजिस्टर में दूसरों को इक्कीस रुपए दिखाऊंगा? धर्म का काम कर रहा हूं, आप ही जैसे लोगों के लिए. पांच हजार ग्यारह सौ से एक पैसा कम नहीं लूंगा,” कह कर वह ड्राइंग रूम के तख्त पर अकड़ कर बैठ गया.

“मैं भी इससे एक पैसा ज्यादा नहीं दूंगी. जो रुपए दिए हैं, उन्हें फेंक रहे हो? आपको नहीं चाहिए तो मैं किसी गरीब आदमी को दे दूंगी ये पैसे. वह दो रोटी खा लेगा. आप बाहर से आए हैं, इसलिए इक्कीस रुपए दे रही हूं. वैसे तो कुछ भी नहीं देना चाहिए. अब जाइए यहां से!”

“नहीं जाऊंगा!” वह दहाड़ा, “पहाड़ में कैसे-कैसे गरीब लोगों ने धरम-करम के नाम पर हजार-हजार रुपए दिए हैं.”

“दिए हैं तो गलत दिए हैं. आपको शर्म आनी चाहिए, गरीब लोगों से धर्म के नाम पर पैसे वसूल लाए हो. जाइए यहां से!”

“बोल तो दिया, नहीं जाऊंगा!” वह ओर भी ऊंची आवाज में चीखा.

पत्नी ने बताया, तुर्की-बतुर्की सवाल-जवाब और उस तेज बहस को सुन कर पुताई वाला लड़का डर कर, चुपचाप भीतर आंगन में जाकर दुबक गया. पत्नी का भी गुस्सा बढ़ता जा रहा था. बहस खत्म नहीं हो रही थी.
जब बहुत देर हो गई तो पत्नी ने गुस्से में भर कर कहा, “अब निकलो यहां से या बुलाऊं पड़ोसियों को?”

पंडा अब शांत रस की मुद्रा में आ गया और बोला, “जजमान में यहां किसी को नहीं जानता. आपके यहां काफी जगह है क्या मैं यहां किसी कोने में पंद्रह दिन रह सकता हूं? आपको कोई परेशानी नहीं होगी. बिल्कुल सादा भोजन करता हूं. एक टाइम खाता हूं.”

“बिल्कुल नहीं!” पत्नी ने कहा, “चलिए, निकलिए बाहर!”

“अच्छा, अच्छा, यहां आपकी पहचान के तो पहाड़ के कई लोग होंगे. उनका नाम और पता दे दीजिए.”

“हम किसी को नहीं जानते यहां. और, जानते भी हैं तो आपके साथ इतनी बहस कौन करेगा? मैं दूसरों को परेशानी में क्यों डालूं? अब आप जाइए.”

अंत में उसने आवाज को बहुत नरम बना कर कहा, “अच्छा देखो चाय तो मैं पीता नहीं. एक गिलास दूध मिल जाएगा?”

पत्नी ने भी शांति से जवाब दिया, “नहीं अभी दूध नहीं है, आप जाइए. और हां, ये जो पैसे फैंके हैं, इन्हें अब मैं रखूंगी नहीं, क्योंकि मैंने ये दे दिए हैं. ले जाने हैं तो ले जाओ, नहीं तो किसी गरीब को दे दूंगी.”
पंडा उठा, उसने इक्कीस रूपए उठाए और सीधा बाहर निकल गया.

पंतनगर में दो छोटे-छोटे ही मार्केट थे इसलिए जरूरत की बाकी चीजें खरीदने के लिए रूद्रपुर या हल्द्वानी चले जाते थे. रजाई, गद्दे और सर्दियों के कपड़े रखने के लिए रूद्रपुर बाजार से टीन का एक बड़ा और दो छोटे बक्से खरीद लाए थे जो आज भी हमारे साथ चल रहे हैं.

हल्द्वानी तो आना-जाना होता ही रहता था. वहीं से अपने गांव या नैनीताल के लिए बस भी पकड़ते थे. हल्द्वानी-बरेली रोड पर नगला से किसी बस में कूद-फांद कर हल्द्वानी पहुंचते और मंगल पड़ाव पर उतर जाते थे. आगे गलियों में गहत, भट, गुड़ की भेलियां, थाली-गिलास-कटोरियां और बीच की बाजार में टंडन स्टोर या तीन भाइयों की दूकान से सूती या गरम कपड़ा खरीदते थे. किसी ओने-कोने में बैठे शौका मितुर से जंबू, गंद्रैण, खूब महकती हींग और डली वाला नमक लेते थे.

एक बार मैंने एक शौक्याणी दीदी से लोहे की जीभ जैसी ‘बिनै’ खरीदी थी और उसे मुंह में लेकर चुपचाप बजाया करता था. बचपन में देखा था, ईजा ‘बिनै’ बजाती थी. उसकी गोद में बैठ कर मैं क्वांई…क्वांई…क्वांई की आवाज सुनता रहता था. ईजा कहती थी, “एकलै में मन लागि रंछ इजू. बिनै बाजते रैंछ, मैं मनै-मन सोचते रुछु” (अकेले में मन लगा रहता है बेटा, बिनै बजती रहती है, मैं मन ही मन सोचती रहती हूं). ईजा बिनै की जीभ को दाएं हाथ की पहली अंगुली से टहोकती रहती और हाथ की तीन अंगुलियां उसकी ठोड़ी पर टिकी रहतीं. बिनै ‘क्वांई…क्वांई…क्वांई’ करके बनजे लगती तो वह मुंह को छोटा-बड़ा करके उसमें गूंज पैदा करती थी. मैं भी ईजा से बिनै सीखने की कोशिश करता लेकिन वह मुझसे बजती ही नहीं थी. ईजा कहती, ‘तू अस्यानै छै. बड़ा होकर बजाना’.

तो, हल्द्वानी से बिनै खरीद लाया. बजाने की कोशिश करता रहा. धुन भी निकली लेकिन उससे भी कहीं ज्यादा मन में ईजा की बिनै की धुन गूंजती रहती. वह धुन मुझे बचपन में ही दिवंगत हो गई ईजा से जोड़ देती थी.
इसी हल्द्वानी से शादी के बाद वह फिलिप्स कमांडर-दो ट्रांजिस्टर भी खरीदा था जो हमें आगे तमाम वर्षों तक प्रादेशिक व राष्ट्रीय समाचार, बिनाका गीतमाला और बी बी सी लंदन तथा वॉयस ऑफ अमेरिका की खबरें सुनाता रहा. हमने उसी पर बांग्लादेश बनने की खबर सुनी. और हां, हल्द्वानी की ही एक गली से वह बत्ती वाला नूतन स्टोव भी तो खरीदा था जिस पर हर रोज परिवार के सभी सदस्यों और मेहमानों के लिए खाना बनता था. कभी-कभी कोयले की अंगीठी उसका हाथ बंटा देती थी. वह भी हल्द्वानी की ही एक गली से हमारे साथ आई थी.

और, टूनी के वे तखत, जिनके लिए मेवाड़ी भवन, राजपुरा, हल्द्वानी के राम सिंह मेवाड़ी जी के सौजन्य से पहाड़ी टूनी के पेड़ का सूखा तना ले कर वहीं चिरवाया. तख्ते लेकर पंतनगर आया और दो बड़े आकार के तख्त बनवाए. दोनों मिला कर मजबूत मंच बन जाता. बच्चों सहित उन्हीं में सोते, उन्हीं में बच्चे खेलते.

“तो, ये कहो गजब के लोग मिले पंतनगर में?”

“ठीक कह रहे हैं आप. उन्हीं के संग-साथ से तो वहां होली के गीत और रामलीला की राग-रागनियां गूंजीं. आप भी सुनोगे?”

“ओं”

(जारी है)

 

वरिष्ठ लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी के संस्मरण और यात्रा वृत्तान्त आप काफल ट्री पर लगातार पढ़ते रहे हैं. पहाड़ पर बिताए अपने बचपन को उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘मेरी यादों का पहाड़’ में बेहतरीन शैली में पिरोया है. ‘मेरी यादों का पहाड़’ से आगे की कथा उन्होंने विशेष रूप से काफल ट्री के पाठकों के लिए लिखना शुरू किया है.

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