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कहो देबी, कथा कहो – 19

अनुशासन के वे दिन

इंटरव्यू बहुत अच्छा रहा. शैक्षिक योग्यताएं और अनुभव भी काफी अच्छा था, इसलिए कमेटी ने उसे चुन लिया. कुलपति ने इंटरव्यू के बाद उसे मिलने को बुलाया और बैठा कर समझाया कि यहां उसका मन नहीं लगेगा. बेमन से नौकरी करनी पड़ेगी. इसलिए उसे वापस लौट जाना चाहिए. कहा जाता था, उसकी शैक्षिक योग्यताओं के आधार पर वी.सी. ने स्वयं शहर की किसी दूसरी अच्छी संस्था में उसकी नौकरी लगवा दी.

तब यह भी कहा जाता था कि कई बार कुलपति फसल अनुसंधान केंद्र की ओर भी निकल जाते हैं और वहां फसल की हालत देखते हैं. एक बार ऐसे ही मक्का के खेतों में सूखी जमीन देखकर 10 बजे बाद मक्का के इंचार्ज को फोन करके फसल के हालचाल पूछे और इंचार्ज के ‘सब ठीक हैं सर’ कहने पर उन्हें हिदायत दी कि खेत में जाएं और फसल की सिंचाई करें.

और हां, सुनो, एक बार तो चेखव की गिरगिट कहानी का जैसा किस्सा हो गया. हुआ यह कि गेस्ट हाउस के बाहर घूमते-घामते एक छोटा, सफेद रंग का कुत्ता आ गया. मैनेजर ने देखा तो फौरन चिल्लाया- हट! हट! अरे यह आवारा कुकुर कहां से आ गया? भगाओ इसे! हट! हट!

तभी गार्ड भाग कर आया और धीरे से बोला- सर ये वी.सी. साब का कुत्ता है. वे सामने सड़क पर जा रहे हैं.

मैंनेजर चौंका, “हैं, वी.सी. साब का?” कुत्ते के पास जाकर उसने प्यार से ‘पुच्च, पुच्च’ किया और आवाज में पूरी मिठास घोल कर जरा जोर से बोला, “कितना प्यारा कुत्ता है! आ! आ!” इतनी जोर से कि वी.सी. साहब के कान में उस की आवाज पहुंच जाए.

बहरहाल, किस्से तो सुनते ही रहते थे इस बात पर गर्व होता था कि हम देश के प्रथम और शीर्ष कृषि विश्वविद्यालय में हैं. ट्रेन या बस के सफर में, या बाहर कहीं आफिसों में ‘मैं कृषि विश्वविद्यालय, पंतनगर से’ सुनते ही सामने वाले के चेहरे पर सम्मान का भाव आ जाता था. कुलपति हर व्याख्यान में याद दिलाते कि हम विश्व के एक श्रेष्ठ कृषि विश्वविद्यालय में हैं. हमने यह श्रेष्ठता बनाए रखनी है. हमें सदा सबसे आगे ही रहना है. वे अक्सर नोबेल पुरस्कार विजेता कृषि वैज्ञानिक डॉ. नार्मन अर्नेस्ट बोरलाग के पत्र की ये पंक्तियां भी याद दिलाते थेः ‘भारत में तराई ही वह क्षेत्र है जहां आपके विश्वविद्यालय के विशेषज्ञों के प्रभाव एवं निर्देशन से हरित क्रांति का जन्म हुआ था, जहां से देश के अन्य भागों में उसका प्रसार हुआ.’

पंतनगर कृषि विश्वविद्यालय अमेरिका के लैंड ग्रांट पैटर्न पर स्थापित देश का पहला कृषि विश्वविद्यालय था जिसका उद्घाटन 17 नवंबर 1960 को देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने किया था. पहले इसका नाम उत्तर प्रदेश कृषि विश्वविद्यालय था. उत्तर प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री पं. गोविंद बल्लभ पंत ने तराई क्षेत्र में इसके लिए भूमि देने की पहल की थी. उनके सम्मान में आगे चल कर इसका नाम गोविंद बल्लभ पंत कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय रख दिया गया. याद आता है, उन दिनों का वह विश्वविद्यालय, जो आर्थिक रूप से पूरी तरह आत्मनिर्भर था और अपने विशाल फार्म से, अपने बलबूते पर एक-डेढ़ करोड़ रूपए कमा रहा था. सरकार और उसके सहयोग से उच्च कोटि के बीज पैदा करने के लिए 20 करोड़ रूपए लागत की तराई बीज विकास परियोजना शुरू की गई थी. पंतनगर के ये वे दिन थे, जब महाराष्ट्र के सूखाग्रस्त इलाकों में उन्नत बीज वितरित करने के लिए 70 डिब्बों की एक स्पेशल ट्रेन रवाना हुई थी जिसमें 20,000 क्विंटल उन्नत तराई बीज भेजे गए. वे सचमुच पंतनगर कृषि विश्वविद्यालय के स्वर्णिम दिन थे.

इतना कुछ, और फिर भी सितंबर 1972 को एक दिन घंटाघर के सामने बैठी विद्यार्थियों की एक टोली को गांधी जी का प्रिय भजन ‘वैष्णव जन तो तेने कहिए’ गाते हुए देखा गया. पता लगा, वे आंदोलन पर हैं और अपनी मांगें प्रशासन को दे रहे हैं. यह पंतनगर के शांत जल में पहली उथल-पुथल थी. प्रशासन और छात्रों के बीच बातें हुईं लेकिन समस्या हल नहीं हुई. हालात बिगड़े और विश्वविद्यालय को अनिश्चित काल तक बंद कर दिया गया.

यह एक आघात की तरह था क्योंकि पंतनगर विश्वविद्यालय में ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था. हम खबर लेकर समाचार एजेंसियों और अखबारों की ओर दौड़े. मुझे विश्वविद्यालय से शाम को पांच-साढ़े पांच बजे लैंडरोवर गाड़ी से दिल्ली जाने के आदेश मिले. तब रुद्रपुर-बिलासपुर से रात को गाड़ियों का कन्वॉय बना दिया जाता था. आगे-पीछे पुलिस रहती थी. गाड़ियां एक कतार में चलती थीं. मैं प्रेस विज्ञप्ति लेकर रात दस-साढ़े दस बजे पीटीआई के दफ्तर में पहुंचा. एक डेस्क पर जाकर कहा, “प्रेस विज्ञप्ति देनी है.”

“इतनी रात? कहां से आ रहे हैं?” पत्रकार ने पूछा.

“पंतनगर विश्वविद्यालय से,” मैंने कहा.

“क्यों क्या हुआ? उन्होंने पूछा.”

“हड़ताल”

“वे तो होती रहती हैं.”

“बट नॉट इन पंतनगर यूनिवर्सिटी,” दूसरे पत्रकार ने कहा, “इफ इट इज इन पंतनगर यूनिवर्सिटी, दैन इट् न्यूज.” (लेकिन, पंतनगर में नहीं, अगर पंतनगर में हुई है तो फिर यह समाचार है.)

उन्होंने प्रेस विज्ञाप्ति रख ली. उसके बाद मैं कुछ अखबारों के दफ्तरों में गया और फिर रातों-रात पंतनगर को वापस लौटा. मुझे क्या पता था कि हड़ताल के वे दिन मेरे लिए भी परीक्षा की घड़ी साबित होंगे.

एक दिन कुलपति के सचिव का फोन आया, “आपको वीसी साहब बुला रहे हैं.”

मैं घबराया और सोचा-क्यों बुलाया होगा? गया उनके पास. उन्होंने बैठने को कहा. मैं बैठा. फिर वे बोले, “हमने विश्वविद्यालय का एक न्यूज लैटर शुरू किया था ‘पंतनगर पत्रिका’, लेकिन वह सही ढंग से नहीं छप रही है. मैं चाहता हूं, आप उसकी ज़िम्मेदारी संभालें. उसमें विश्वविद्यालय से संबंधित समाचार होंगे- अनुसंधान, शैक्षिक गतिविधियां, विश्वविद्यालय की उपब्धियां वगैरह. परिषदों और क्लबों की खबरें भी होंगी.

मैं सुनता रहा. वे बोलते रहे, “इसे विद्यार्थियों, शिक्षकों और कर्मचारियों के बीच एक मजबूत पुल की तरह काम करना है. मैं चाहता हूं, हर अंक में अफवाहों का भी उत्तर दिया जाए. इन दिनों विश्वविद्यालय में कई अफवाहें फैल रही हैं. आपको संबंधित विभाग से सच्चाई का पता लगा कर उत्तर देना होगा. फोन है आपके पास?”

“नहीं सर”

“फोन लग जाएगा. एक लैटर बाक्स लगा कर आप पाठकों से उनके सवाल आमंत्रित करें. उनके प्रमाणित उत्तर दें. लेकिन, एक बात याद रहे, कभी भी, किसी भी सवाल का स्रोत मुझे न बताएं. यह न बताएं कि वह सवाल किसने पूछा है. यह रेगुलर कॉलम होगा. इसका कोई सटीक नाम बताएं.”

मैंने कहा, “कथ्य और तथ्य ठीक रहेगा.”

“हां, यह नाम ठीक है. इस पर काम शुरू कर दें.”

“ठीक है सर,” कह कर मैं लौट आया. पंतनगर पत्रिका की जिम्मेदारी मुझे मिल गई.

लौट कर अपनी केबिन में काफी देर सुन्न बैठा रहा. सोचता रहा, जिम्मेदारी मिली है तो जैसे भी होगा निभाऊंगा. दो-एक दिन बाद उन्होंने फिर बुलाया. पूछा, “फोन लग गया?”

मैंने कहा, “अभी नहीं सर.”

उन्होंने संबंधित विभाग को फोन किया. मेरा नाम लेकर कहा, इनके केबिन में मैंने कहा था फोन लगना है. अभी तक क्यों नहीं लगा?

मैं अपनी केबिन में लौटा. ताला खोला. भीतर गया तो देखा, मेज पर फोन रखा हुआ है. सीढ़ी लगा कर केबिन के भीतर फोन लगा दिया गया था. नंबर था- 240. उस दिन से यह फोन नंबर ‘पंतनगर पत्रिका’ और मेरी पहचान बन गया. मैं हर अंक में यह सूचना प्रकाशित करता था- ‘अफवाहें संदेह को जन्म देती हैं. संदेह से दूरियां बढ़ती हैं और भ्रांति फैलती हैं. अतः तथ्यों से परिचित होने के लिए ‘कथ्य और तथ्य’ स्तंभ के लिए अपने प्रश्न संपादक को भेजिए अथवा टेलीफोन नं. 240 पर बताइए. प्रश्नों के साथ अपना नाम बताना आवश्यक नहीं है.”

प्रश्न पूछे जाने लगे. लैटर बॉक्स में भी लिखित प्रश्न डाले जाते. नाम बताना आवश्यक न होने के कारण खुल कर प्रश्न पूछे जाते. उनमें कई प्रश्न व्यवस्था में गड़बड़ी के बारे में होते तो कई छात्रावासों में भोजन आदि के बारे में. कुछ प्रश्नों में सीधे कुलपति पर आरोप लगे होते. मैं संबंधित विभागों से तथ्यों का पता करके उत्तर तैयार करता और उन्हें कुलपति को दिखाता. जो प्रश्न उनसे संबंधित होते, उनके उत्तर वे खुद लिखाते. लिखित प्रमाणों के फोटो लेकर जिंक प्लेट के ब्लाक बना कर छापे जाते. बहुत कठिन काम था जिसका कोई निर्धारित समय नहीं था. मैं प्रायः रात दो-दो बजे यूनिवर्सिटी प्रेस में जाकर, प्रूफ जांच कर प्रिंट आर्डर देता था. रात भर में पत्रिका छाप कर एकदम सुबह जीप से सभी छात्रावासों में बांट दी जाती थी.

पहले अंक का रात में प्रिंटआर्डर देकर, रात 2 बजे अपनी साइकिल से घर लौट रहा था कि अंधेरी रात के उस सन्नाटे में कुछ दूर सड़क पर कोई साया दिखाई दिया. थोड़ा करीब पहुंचा तो लगा सफेद वस्त्रों में सामने कोई खड़ा है. मेरे रोंगटे खड़े हो गए. रात के 2 बजे इस सुनसान सड़क में आखिर कौन खड़ा है? मन में विचार आया, अगर मैं सीधा चलता रहा और उस साए को भी पार कर गया तो? तो, वह क्या होगा? यह सोचते ही बर्रर्र करके पूरे शरीर में झुनझुनी फैल गई. मैंने निश्चय किया कि उसकी तरफ देखे बिना थोड़ा किनारे से साइकिल से निकल जाऊंगा. यही किया मैंने. उसकी बगल से निकल रहा था तो मुझे ‘सूं-सूं’ की जैसी आवाज सुनाई दी. लगा जैसे कोई भीतर को सांस ले रहा हो. मैंने पलट कर पीछे नहीं देखा और तेजी से साइकिल चलाता रहा. बीच में यह भी खयाल आता रहा कि अगर उस साए के पास साइकिल की चेन निकल जाती तो? अगर वह अगले चौराहे पर फिर दिख जाए तो? तो, रह-रह कर रोंगटे खड़े होते ही रहे.

बहरहाल, रात के सन्नाटे में घर पहुंचा और थोड़ा खाना खा कर सो गया. सुबह उठा और रात में पत्रिका का काम पूरा होने की खुशी के साथ दफ्तर पहुंचा. कुछ देर बैठा ही था कि प्लांट पैथोलॉजी डिपार्टमेंट से एक आदमी ने आकर बताया कि हैड साब बुला रहे हैं. हैड साब? वे क्यों बुला रहे हैं? खैर उनके पास गया. वे बोले, “वीसी साहब का फोन आया था. आपने तुरंत उनसे बात करनी है.” मन में खुश हुआ कि मैंने रात भर में पत्रिका छपवा कर सुबह-सुबह बंटवा दी, शायद उसकी शाबासी दे रहे होंगे.

फोन मिलाया. उधर से गंभीर आवाज आई, “डी.पी. सिंह.”

“नमस्कार सर. आपने बात करने को कहा था.”

“पत्रिका देखी?”

“नहीं सर, अभी नहीं मिली.”

“उसे देखें. उसमें कुछ महत्वपूर्ण सामग्री छूट गई है, विद्यार्थियों के प्रश्नों के उत्तर में. ऐसा क्यों हुआ?”

मेरे सारे उत्साह पर पानी फिर गया. मैंने कहा, “सर, ब्लाक लगने से…”.

“डोंट ट्राइ टु एक्सप्लेन,” वे बोले, “आई एम गिविंग यू फोर वर्डस्. चूज वन. (समझाने की कोशिश न करें. मैं चार शब्द दे रहा हूं. इनमें से एक चुनें.)”

“वज इट डिलीटेड इंटैंशनली, डेलिबरेट्ली, ड्यू टु स्लैकनैस ऑर इन हरी?” (यह इरादतन, सोच-समझकर, लापरवाही या जल्दबाजी में छूट गया.)

“इन हरी. (जल्दबाजी में) लेकिन, मैं पूरी बात आपको बताना चाहता हूं.”

“ठीक है, लिख कर ले आएं.”

शक तो था, पत्रिका का वह अंक लेकर मैंने मैटर मिलाया तो समझ गया कि गड़बड़ी कहां हुई. रात को फाइनल प्रूफ देखते समय मुझे कुछ मैटर छूटा हुआ दिखा था. वज़ह थी मैटर में ब्लॉक लगने के कारण पेज में वे लाइनें छूट गई थीं. तब मैंने लाल डॉट पैन से वहां पर तीर लगा कर लिख दिया था- ‘यहां मैटर छूट गया है, लगाएं.’ कुछ मैटर लग गया था और बाकी लगाया नहीं गया था. यह रात 2 बजे की बात थी. जल्दबाजी में कंपोजिटर से वह मैटर छूट गया होगा. मैने पूरी बात समझाते हुए कुलपति को नोट लिखा और उन्हें दे दिया. उन्होंने उसे पढ़ कर उस पर हस्ताक्षर किए और नोट मुझे लौटा दिया. तूफान शांत हो गया.

लेकिन नहीं, छह माह बाद तूफान फिर उठ खड़ा हुआ. एक दिन कुलपति का फोन आया. छह माह पहले पंतनगर पत्रिका में मैटर छूटने के मामले में आपने मुझे एक नोट लिख कर दिया था. मैंने उस पर हस्ताक्षर भी किए थे. उसे लेकर अभी मेरे पास आ जाएं. मैं हतप्रभ कि अब क्या हो गया?

उनके कार्यालय पहुंचा तो देखा वहां यूनिवर्सिटी प्रेस के प्रेस मैनेजर और कंपोजिटर भी पहुंचे हैं. फिर पता लगा, उन लोगों से कुलपति बात कर चुके हैं. मुझे भीतर बुलाया गया. मैंने छह माह पहले का वह नोट उन्हें दिया. उन्होंने उसे पढ़ा और लौटा दिया. फिर बाहर से प्रेस मैनेजर को बुलाया. और, अपनी दराज से एक प्रूफ निकाल कर मेरे सामने रखा. कहा, “क्या इस हैंडराइटिंग को पहचानते हो?”

मैंने कहा, “जी हां, यह मेरी हैंडराइटिंग है. लाल स्याही से मैंने लिखा है, यहां मैटर छूट गया है, उसे लगाएं.” यही मैंने अपने उस पुराने नोट में भी लिखा था.

“आपको विश्वास है कि यह आपकी ही हैंडराइटिंग है?”

“जी हां, यह मेरी हैंडराइटिंग है.”

अब वे प्रेस मैनेजर की ओर मुखातिब हुए, “इस प्रूफ पर अगर इन्होंने लिख दिया था कि यहां मैटर छूट गया है तो आपने लगवाया क्यों नहीं?”

“नहीं सर, इन्होंने नहीं लिखा. यह इनकी हैंडराइटिंग नहीं है,” प्रेस मैनेजर ने कहा.

“तो किसने लिखा? और, आपकी फाइल में यह उसके बाद का भी एक प्रूफ है जिसमें थोड़ा मैटर लगा दिया गया है, बाकी छोड़ दिया? वह क्यों छोड़ा? इसका मतलब आपको बताया गया था कि यहां मैटर छूट गया है.”

उसके बाद हमें जाने को बोल दिया गया. तब पता लगा कि जहां मैंने मैटर छूटने का कारण ‘जल्दबाजी’ बताया था, वहीं प्रेस मैनेजर ने सीधे मुझ पर आरोप लगाया था कि मैंने प्रूफ में मार्क नहीं किया था. बस, शायद इस बात से कुलपति को संदेह हुआ होगा क्योंकि मैटर छूटने से मेरा कोई लाभ नहीं होता. दूसरे, प्रेस मैनेजर ने मान लिया कि छह माह बाद वह प्रूफ मैंने लाकर कुलपति को दिया होगा जबकि मुझे पता तक नहीं था कि प्रूफ का वह पेज कुलपति तक कैसे पहुंचा. यानी, यह स्पष्ट था कि जांच शुरू होने पर प्रेस ने प्रूफ का वह पेज निकाल कर कहीं डाल दिया होगा और छह माह बाद इस किस्से से परिचित किसी ने उसे ले जाकर कुलपति तक पहुंचा दिया होगा. खैर कुलपति की जिरह से दूध का दूध, पानी का पानी हो गया.

यह छोटी-सी घटना इसलिए ताकि उन दिनों के माहौल और जांच-पड़ताल का एक जायजा मिल सके. तब लोग कहते थे कि गलती चाहे किसी की भी हो, उस पर कार्यवाही होगी. फिर चाहे वह कोई प्रोफेसर, डायरेक्टर हो या मजदूर. विश्वविद्यालय में ‘रूल आफ लॉ’ चलता था…..

“यह कहो कि दिन-रात काम के दिन थे वे.”

“ठीक कह रहे हो ईजू, नया काम था, मन करता था क्या जो कर दूं.”

“तो क्या किया?”

“किसानों के साथ किसान भारती का रिश्ता जोड़ा. बताऊं?”

“ओं”

( जारी है )

पिछली कड़ी कहो देबी, कथा कहो – 18

 

वरिष्ठ लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी के संस्मरण और यात्रा वृत्तान्त आप काफल ट्री पर लगातार पढ़ते रहे हैं. पहाड़ पर बिताए अपने बचपन को उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘मेरी यादों का पहाड़’ में बेहतरीन शैली में पिरोया है. ‘मेरी यादों का पहाड़’ से आगे की कथा उन्होंने विशेष रूप से काफल ट्री के पाठकों के लिए लिखना शुरू किया है.

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Girish Lohani

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