मेरा पहाड़
दिन भर मक्का के खेतों में या प्रयोगशाला में और कभी-कभार साहित्य की दुनिया में, यही दिनचर्या बन गई थी. पहाड़ शिद्दत से याद आता था. घर की नराई लगती थी. मन गुनगुनाता ही रहता था- पंछी हुनौं उड़ी औनों, मैं तेरी तरफ…”. लेकिन, मैं पंछी नहीं था, मेरे पंख नहीं थे. असली पंख नहीं थे तो क्या हुआ? कल्पना के पंख तो थे.
तो, मैंने धीरे-धीरे कल्पना के पंखों से उड़ना सीखा, जैसे कई बार सपने में किसी ऊंची जगह या पहाड़ से उड़ता था सपने में भी ऊंचाई से नीचे देख कर च्यांरी लगती, घबराहट होती और तलुवों में कुतकुताली जैसी होती थी.
मैं जब अकेला होता, आंखें मूंद कर इस तरह कल्पना के पंखों पर उड़ने का अभ्यास करता. सोने से पहले भी मैंने धीरे-धीरे इस तरह उड़ने की आदत बना ली. मैं उड़ता और पहाड़ में जाकर नीचे अपने गांव की ओर झांकता, घर और खेतों को देखता, अपने गांव के सिरमौर धूरे के जंगल को निहारता. लौटते हुए आसपास के गांवों, पहाड़ों की चोटियों को पार कर भीमताल और नैनीताल की डबाडब भरी झीलों को देख कर वापस लौटता.
बचपन में ईजा कहती थी- सबै ज्योंन परानींक परान हुनीं, पोथी (सभी जीवित प्राणियों में प्राण होते हैं बेटा). परान उड़ गए तो जिंदगी खतम. ईजा की बात याद आती. लगता, मेरे परान भी सपने में उड़कर पहाड़ में चले जाते होंगे. शायद इसीलिए सदा पहाड़ के ही सपने आते हैं. हरे-भरे ऊंचे पहाड़, घने जंगल, कलकल बहते गाड़-गधेरे, पहाड़ की सड़क पर घोड़ों के साथ चलते घोड़े वाले, पहाड़ की कांख से उड़ते रंग-बिरंगे पंछी और ऐसे ही तमाम दृश्य. मैंने धीरे-धीरे अपने मन पंछी को साध लिया और जब भी परेशान होता या खुश होता, उसे पहाड़ की ओर उड़ने के लिए भेज देता.
जब मन चाहा तब बात करने के लिए मोबाइल फोन तो थे नहीं, इसलिए उन दिनों चिट्ठियों का इंतजार करते थे. मैं भी इंतजार कर रहा था, विशेष रूप से ददा की चिट्ठी का. मैं सीनियोरिटी की बात सुन कर नैनीताल से सीधे दिल्ली चला आया था. खुश होकर ददा को इस बात की जानकारी देते हुए चिट्ठी भेज ही आया था कि मेरी नौकरी लग गई है और सीनियोरिटी को ध्यान में रख कर सीधे दिल्ली जा रहा हूं. जल्दी ही घर आवूंगा.
ददा को बुरा लगना ही था, लगा. पढ़-लिख कर मेरी नौकरी लग जाने से उनका एक स्वप्न पूरा हो गया था. सबसे अधिक खुशी उन्हें ही होनी थी. लेकिन, नौकरी ज्वाइन करने से पहले उनके पास न जाना, उन्हें अच्छा नहीं लगा. मुझे पहले घर जाकर ददा और भाभी मां का आशीर्वाद लेना चाहिए था, यह मैं भी जानता और चाहता था, लेकिन नौकरी में सीनिओरिटी की बात से मैं पहले दिल्ली जाने को तैयार हो गया. लगा, इससे उन्हें भी खुशी होगी कि तुरंत नौकरी ज्वाइन कर ली है. मैंने दिल्ली पहुंच कर फिर उन्हें दो पत्र भेजे. ददा का पत्र मिला. उन्होंने मेरी नौकरी लगने पर खुशी तो जाहिर की ही, यह भी लिखा कि अच्छा होता, तुम पहले घर आते और खर्चे के लिए घर से पैसे लेकर जाते. मैं अपने पत्रों में पूरी परिस्थिति के बारे में लिख ही चुका था. ददा की भावनाओं से मेरा भी दिल भर आया. गलती तो थी मेरी, चुपचाप आंसू बहा लिए.
वेतन बहुत कम था. शुरू के दो-एक माह के वेतन में चारपाई, मच्छरदानी, कभी-कभी छुट्टी के दिन खाना बनाने के लिए एक छोटा प्रेशर कुकर, दो चीनी मिट्टी की प्लेटें, एक गिलास, दो चम्मच, चाय बनाने के लिए एक बत्तीवाला स्टोव, एल्युमिनियम का पैन और छन्नी खरीद लाया. फल यह हुआ कि दो माह तक न घर को पैसे भेज पाया और न नैनीताल के होटल मालिक बिष्ट जी का उधार चुका पाया.
अब तक मैंने और साथी कैलाश ने सामने की डबल स्टोरी कालोनी के बी-ब्लॉक में किराए का एक कमरा खोज लिया. वह मनचंदा जी का फ्लैट था जो सरल और भले आदमी थे. हर माह खाने का खर्चा पूसा गेट पर देवी होटल को और किराया मनचंदा जी को दे देता था. नैनीताल के होटल का उधार चुकाने के बाद हर माह सौ-सवा सौ रूपए ददा को और पच्चीस रूपए गांव में बाज्यू को भेजता था. ददा स्वाभिमानी आदमी थे. मैं जानता था, वे मेरे भेजे पैसों का स्वयं घर खर्च चलाने के लिए उपयोग नहीं करेंगे. उन्होंने बचपन से मुझे सिखाया था कि जितनी चादर हो, उतने ही पैर फैलाने चाहिए. यह सीख मेरे बहुत काम आई.
डेटा लेने के सीजन में मक्का की फसल को हमारी हर रोज जरूरत होती थी, इसलिए छुट्टी का सवाल ही नहीं उठता था. तब हम धूप और उमस में तपकर दिन-दिन भर काम करते रहते थे. तभी की बात है, एक तपती दुपहरी को मुझे खोजते हुए एक सज्जन मक्का के हमारे फार्म में पहुंचे. मैं और मेरा साथी बिष्ट उसे देख कर चौंके तो हमारा हुलिया देख कर वे सज्जन भी चौंके-कीचड़ में सने हंटर-शू, पसीने से लथपथ एप्रन, सिर पर स्ट्रा की फैल्ट हैट और धूप में तपे गहरे आबनूसी चेहरे पर काले रंग का चश्मा.
उन्होंने मेरा नाम लिया. फिर अपना परिचय देकर बोले, “गोवा से बंबई होकर दिल्ली आया हूं आपसे मिलने.”
मैंने चौंक कर कहा, “अरे, इतनी दूर से? कैसे आना हुआ?”
वे बोले, “आपसे बहुत जरूरी पर्सनल बात करनी है,” कह कर किनारे ले गए और बोले, “असल में आपसे रिश्ते की बात करनी है.”
“कैसा रिश्ता?” मैंने पूछा.
“शादी के बारे में.” यह सुन कर मुझे बहुत आश्चर्य हुआ. आखिर मेरी शादी की फिक्र इन्हें क्यों? फिर उनसे कहा शाम को छह बजे कनाट प्लेस में रीगल सिनेमा के पास टी-हाउस में मिलते हैं. वहां चाय पीते हुए बात करेंगे. वे हां कह कर चले गए.
शाम को मैं टी-हाउस में उनसे मिला. उन्होंने बंबई के एक लेखक का नाम लेकर कहा, “मुझे उन्होंने भेजा है. यहां दिल्ली में एक लड़की है. स्कूल में टीचर है, साईंस पढ़ाती है. आप हां कहें तो मैं उससे बात करूं और आप दोनों की भेंट करा दूं.” उनकी पूरी बात सुनने के बाद मैंने उनसे कहा, “देखिए, आप तो जानते ही हैं, शादी दो तरह से होती है- प्रेम विवाह या फिर घर वालों की मर्जी से. इस लड़की से मैं प्रेम नहीं करता, इसलिए प्रेम विवाह नहीं हो सकता. और, मेरे घर वालों ने यह रिश्ता तय किया नहीं है, इसलिए उस तरह से भी शादी नहीं हो सकती. आप उतनी दूर से आए, बहुत धन्यवाद. मुझे क्षमा कीजिएगा.”
उन्हीं दिनों की बात है. हम लोग रोज प्रयोगशाला की गैलरी में चाय पीते थे. चाय पर कई तरह की चर्चा चलती थी. चाय पीते समय लड़कियां अक्सर नई फिल्मों की भी बात करती थीं. एक-दूसरे से या किसी साथी से पूछती थीं कि किस सिनेमा हॉल में कौन-सी फिल्म लगी है. मैं संकोच से किनारे खड़ा यह बातचीत सुनता रहता था. अचानक ध्यान आया कि यह जानकारी तो मैं भी इन्हें दे सकता हूं. सुबह अखबार देखते समय मैं याद करने लगा कि कनाट प्लेस के दो-तीन सिनेमा हॉलों में कौन-सी फिल्म लगी है. इस तरह दो-एक दिन मैंने उन्हें फिल्मों के बारे में बता दिया. तीसरे दिन चाय के बाद जब सब चले गए तो मेरे तेज साथी ने मुझको ताना देते हुए कहा, “बड़े बेवकूफ़ आदमी हो, लड़कियों को सिनेमा हॉल और फिल्म बता रहे हो? अरे, उनसे कहो कि कौन-सी फिल्म देखेंगी? टिकट बुक करा लेते हैं.” यह सुन कर मैं घबरा गया और अगले दिन से वह जानकारी देना छोड़ दिया.
एक दिन फार्म सैक्शन के डी.एस. बिष्ट करीब आए और कहा, “मेज़ सैक्शन में नए आए हो?”
“जी.”
“आर यू फ्रॉम हिल्स?”
मैंने कहा, “जी हां.”
“मैं दो-चार दिन से तुम्हें देख रहा हूं. अच्छा, शाम को ईस्ट पटेल नगर के पार्क में आ सकते हो? कुछ बात करनी है.”
मैंने कहा, “जरूर बिष्ट जी. छह बजे वहां पहुंच जाऊंगा.” अक्सर वे तीन दोस्त साथ रहते थे- बिष्ट जी, कपूर और सांघी. कद-काठी से तीनों बॉडी बिल्डर लगते थे, शायद थे भी.
शाम को मैं पार्क में पहुंचा तो वे तीनों वहां सैर कर रहे थे. बिष्ट आकर मेरे साथ बैंच पर बैठ गए. उनसे पहले कभी बात नहीं हुई थी.
बैठते ही बोले, “नए आए हो, मैं देख कर ही समझ गया था. पहाड़ से जो नया-नया आता है, शहर के बारे में बहुत-कुछ नहीं जानता. इसलिए कई बार ठगा जाता है. चाय पर लड़कियां भी कह रही थीं- बहुत सीधा लड़का है. मैंने सोचा, चलो तुमसे बात करूंगा.”
“जी बहुत धन्यवाद.”
“बात यह है कि यहां जो कुछ जैसा दिखता है, वैसा है नहीं. लोग चालाकी दिखा सकते हैं. लड़कियां भी फ्रैंडली हो सकती हैं. इसलिए तुम्हें सतर्क रहना होगा. मैंने सुना है, तुम कहानियां लिखते हो? ये लिखने वाले लोग बहुत भावुक होते हैं, भावनाओं में बह जाते हैं. इसलिए धोखा खा सकते हैं. समझ रहे हो मेरी बात?”
“जी हां,” मैंने कहा.
“यहां प्यार का नाटक करने वाले भी मिलते हैं. इसलिए फ्रैंडशिप सोच-समझ कर करनी चाहिए. विशेष रूप से लड़कियों के साथ.”
“जी ठीक है.”
“लेखक हो और भावुक भी हो इसलिए कह रहा हूं. कभी कोई ऐसा आदमी देखा है, जो भावनाओं से कोई निर्णय न लेता हो? मतलब दिल से नहीं, दिमाग से निर्णय लेता हो?”
“नहीं”
“मैं हूं वैसा आदमी. कभी अगर बिना भावनाओं वाले किसी पात्र पर कहानी लिखो तो तुम मुझे पात्र बना सकते हो.”
वे अल्मोड़ा के पास के किसी गांव के थे और मैं नैनीताल से. उतने दूर के वे, फिर भी उन्होंने इतने अपनेपन से मुझे समझाया, यह मुझे अच्छा लगा. इतने बड़े शहर में भला कौन किसे समझाता है. बहरहाल, मैंने उनकी राय गांठ बांध ली. (कितना अद्भुत संयोग है, इस घटना के 46 वर्ष बाद उन्हीं बिष्ट जी की बहिन की बेटी से मेरे बेटे की शादी हुई!)
कभी मैं यह भी सोचा करता था कि साधू हो जावूंगा. शादी क्यों करनी है? लेकिन, पहाड़ में ददा ऐसा नहीं सोच रहे थे. नौकरी लग जाने के बाद वे मेरी शादी के बारे में सोचने लगे. यहां-वहां से रिश्ता लेकर उनके पास कुछ लोग भी पहुंचने लगे. तब तक ददा और भाभी मां की तीन बेटियां भी हो चुकी थीं. पूसा इंस्टिट्यूट में मेरी नौकरी का तीसरा वर्ष चल रहा था, जब ददा का पत्र मिला. लिखा था, “अब तुम नौकरी करने लगे हो. व्यवस्थित होने के लिए अब तुम्हारा विवाह हो जाना चाहिए. मैं समझता हूं, शिक्षक के.एस.नयाल साहब की भतीजी तुम्हारे विवाह के लिए ठीक रहेगी. उसने इतिहास में एम.ए. कर लिया है. इस रिश्ते के बारे में तुम मुझे अपने विचार बताना.”
मुझे पता था, मुझे पढ़ाने-लिखाने के बाद उनके लिए यह भी एक बड़ी जिम्मेदारी थी. ददा के पत्र के उत्तर में मैंने जो लिखा, वह मुझे आज भी अच्छी तरह याद है. मैंने ददा को लिखा, “आपका निर्णय मेरे लिए सब कुछ है. मैं इस निर्णय से सहमत हूं. आपने सदा यही कहा है कि एक जैसी परिस्थितियों में पले-बढ़े लोग एक-दूसरे के दुख-दर्द को अधिक अच्छी तरह समझ सकते हैं. हम दोनों भी एक समान आर्थिक परिस्थितियों में पले-बढ़े हैं. इसलिए हम भी एक-दूसरे के सुख-दुख को आपस में अच्छी तरह समझ सकेंगे. मेरा बस एक ही अनुरोध है कि मैं रिश्ता तय होने से पहले एक बार लड़की से मिलना चाहूंगा ताकि उससे पूछ सकूं कि उसे भी यह रिश्ता स्वीकार है, उस पर कोई दबाव नहीं है.”
तब शादी से पहले मिलने की परंपरा तो नहीं थी, लेकिन मेरी बात मानी गई और जुलाई में मैं लड़की से मिला. पूछा कि क्या वह इस रिश्ते से सहमत है? कोई दबाव तो नहीं है? लक्ष्मी ने अपनी सहमति जताई और बताया कि नहीं, कोई दवाब नहीं है. मुझे बस इतना ही जानना था. इस तरह रिश्ता तय हो गया और दिसंबर 1968 में हमारी सगाई हो गई. विवाह की तिथि भी 5 मई 1969 तय कर दी गई. मैं दिल्ली लौट आया.
दिल्ली लौट कर कुछ अपने जमा किए और कुछ एक साथी से उधार लिए पैसों से गर्मियों के लायक एक हल्का सूट सिलवाया, ब्योली (वधू) के लिए दो साड़ियां खरीदीं और पटेल चैक पर एच एम टी के काउंटर के सामने लंबी कतार में खड़े होकर एक छोटी-सी लेडीज घड़ी खरीदी. उधर ददा गांव में मेरी शादी की तैयारियों में जुट गए.
“कहां साधू बनने का मन था और कहां शादी करने के लिए तैयार हो गए!”
“हां, यह जिम्मेदारी भी निभानी ही हुई.”
“शादी में तो खूब झर-फर हुई होगी?”
“बताता हूं, सुनो.”
“ओं”
( जारी है )
पिछली कड़ी कहो देबी, कथा कहो – 15
वरिष्ठ लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी के संस्मरण और यात्रा वृत्तान्त आप काफल ट्री पर लगातार पढ़ते रहे हैं. पहाड़ पर बिताए अपने बचपन को उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘मेरी यादों का पहाड़’ में बेहतरीन शैली में पिरोया है. ‘मेरी यादों का पहाड़’ से आगे की कथा उन्होंने विशेष रूप से काफल ट्री के पाठकों के लिए लिखना शुरू किया है.
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