साहित्य की दुनिया
पूसा इंस्टिट्यूट के भीतर अनुसंधान की दुनिया थी. उसके बाहर एक और दुनिया थी जिसमें मुझे जल्द से जल्द जाना था. वह थी, साहित्य और साहित्यकारों की दुनिया. उस दुनिया के कई स्वप्न लेकर मैं दिल्ली आया था. इसलिए सबसे पहले इंस्टिट्यूट के गेट के पार ईस्ट पटेल नगर में भीष्म साहनी जी के पास गया. उनके आत्मीयता व्यवहार के कारण मैं अक्सर उनसे मिलने उनके घर 8/30, ईस्ट पटेल नगर जाने लगा. घर पर भीष्म जी, शीला जी और बेटा वरूण मिलते.
उनसे मिलने कुछ दिन नहीं जाता तो वे नाराज होते थे. कई बार देखा शीला जी सितार पर अंगुलियां चलाते हुए, आंखें बंद करके संगीत की धुन में खोई हुई हैं. दो-एक बार ऐसा भी हुआ कि वहां गया तो उन्होंने दरवाजा खोल कर भीतर आने को कहा. बैठने का इशारा करके धीरे से बोलीं, “हम लोग धीरे-धीरे बात करेंगे. भीखम (भीष्म जी को वे घर में वे इसी नाम से संबोधित करती थीं) कहानी पूरी करने वाले हैं. हमारी बातचीत से कहीं उनका ध्यान न बंटे.” हम चुपचाप चाय पीते रहे. थोड़ी देर बाद मुस्कराते हुए भीष्म जी आए और कहा, “मुझे बताया नहीं देवेन के बारे में?” शीला जी बोलीं, “जानबूझ कर नहीं बताया. हम दोनों आपकी कहानी पूरी होने का इंतजार कर रहे थे.” फिर बातचीत में भीष्म जी भी शामिल हो गए.
कई बार शीला जी बंबई (अब मुंबई) गई होती थीं, अपने जेठ बलराज साहनी के परिवार से मिलने. तब भीष्म जी अकेले होते. वही चाय बनाते. एक बार देर शाम ऐसे ही मौके पर मैं वहां पहुंचा तो वे खुश होकर बोले, “अच्छा हुआ देवेन, तुम आ गए. अब खाना साथ खाएंगे.” मैं अचकचाया तो पूछा, “अभी खाना खाया तो नहीं?” मैंने कहा, “नहीं, लेकिन मैं अभी होटल में खावूंगा.” वे बोले, “बस ठीक है. ऐसा करते हैं, मैं रोटी लगवा के आता हूं. आओ, तुम तब तक चूल्हे पर दाल-सब्जी देखो.” मैं उनके साथ किचन में गया. आटा वे गूंध चुके थे. मुझे वहां छोड़ कर वे रोटी लगवाने जाने लगे तो मैंने पूछा, “कहां बनवाएंगे रोटी?” बोले, “पास में ही सांझा चूल्हा है. वहीं पर लगवा लाता हूं.”
नेकर और टीशर्ट पहने दुबले-पतले भीष्म जी आटा लेकर तेजी से बाहर निकल गए. मैं भारी उलझन में था. दाल-सब्जी गैस के चूल्हे पर पक रही थी. मैं तो पूसा गेट पर देबी होटल में खाना खाता था. गैस के चूल्हे के बारे में कुछ नहीं जानता था. दाल-सब्जी उबलती जा रही थीं. मेरे हाथ-पैर फूल गए. अब क्या करूं? दाल-सब्जी जल गई तो क्या होगा? चूल्हे को छूने से भी डर रहा था. परेशानी में कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था कि तभी भीष्म जी आ गए. बोले, “सब्जी शायद तले लग रही है. चलाई नहीं?” मैंने कहा, “चलाई थी.” उन्होंने कोई बटन घुमा कर गैस बंद कर दी और बोले, “चलो, अब गरमा-गर्म खाना खाते हैं.” प्लेटें लेकर हम डाइनिंग टेबल पर आ गए और बातें करते हुए खाना खाने लगे. बातचीत में वे अक्सर नए लेखकों की कहानियों के बारे में पूछते थे कि इधर कौन-सी कहानियां पढ़ीं, किस पत्रिका में पढ़ीं, कहानी का थीम क्या था, वगैरह. कहते थे, तुमसे बातें करके मुझे नए लेखकों और उनकी कहानियों की जानकारी मिलती है. पढ़ता मैं भी हूं लेकिन इतना सब कुछ कहां पढ़ा जा सकता है.
खाना खाकर भीष्म जी अक्सर पूसा गेट के भीतर हिल साइड रोड पर घूमा करते थे. मुझे भी साथ ले जाते. भीष्म जी ने मुझे अपना दोस्त बना लिया था. कहते थे, “इस रोड पर पेड़ों की छांव में घूमना मुझे बहुत अच्छा लगता है.”
उन्हीं दिनों, भीष्म जी के साथ दो-चार बार टी-हाउस गया. वहां वे साथी लेखकों के साथ बातचीत में व्यस्त हो जाते और मैं उनका चुप्पा, संकोची दोस्त, किसी टेबल पर चुपचाप आंख-कान और दिमाग के दरवाजे खोल कर बैठा रहता. देखता कि आसपास क्या हो रहा है. विष्णु प्रभाकर, मोहन राकेश, कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव, मनोहर श्याम जोशी, गंगा प्रसाद विमल, हिमांशु जोशी, महेन्द्र भल्ला, रमेश उपाध्याय, प्रदीप पंत, धर्मेन्द्र गुप्त, प्रयाग शुक्ल, रमेश गौड़ और भी कई लेखक दिखाई देते. मोहन राकेश पाइप पीते थे. बीच-बीच में उनका अट्टहास सुनाई देता. एक बार सामने की टेबल पर बैठे कमलेश्वर को जेब से शायद 555 का बीस सिगरेटों का पैकेट निकाल कर, पैकेट पर थपकी देकर सुलगाते हुए देखा. प्रदीप पंत सिगरेट को सुलगाने से पहले कुछ देर तक सामने के दांतों के बीच दबा लेते थे.
चित्रकार म़कबूल फ़िदा हुसेन, रामकुमार और कथाकार कृष्णा सोबती से मुझे पहली बार भीष्म जी ने ही मिलाया था. मुझ जैसे नवोदित लेखक के लिए यह बहुत बड़ी बात थी.
उन दिनों भीष्म जी ‘नई कहानियां’ का संपादन कर रहे थे. मैंने भी देवेन मेवाड़ी नाम से ‘नई कहानियां’ में छपने के लिए डाक से अपनी एक नई कहानी ‘सांड’ भेजी. इस बारे में मैंने उन्हें कुछ नहीं बताया था. मैं पहचान का सहारा नहीं लेना चाहता था. कुछ दिनों बाद डाक से ही स्वीकृति का कार्ड मिल गया जिसमें किसी महिला के हस्ताक्षर थे. उसी बीच एक शाम टी-हाउस में एक टेबल पर चुपचाप बैठा था. तभी सामने कथाकार हिमांशु जोशी दिखाई दिए. उन्होंने इशारे से बुलाया और पूछा, क्या लिख रहे हो इन दिनों. मैंने उन्हें ‘नई कहानियां’ के स्वीकृति पत्र और ‘कहानी’ तथा ‘माध्यम’ में छपी अपनी कहानियों के बारे में बताया. उन्होंने स्नेह के साथ कहा- तुम्हें अपना कोई अच्छा-सा नाम रखना चाहिए जैसे ‘अमोघ वर्ष’. बात मन में घर कर गई. अपने कमरे में लौट कर मैंने संपादक ‘नई कहानियां’ को पत्र लिखा कि मैंने अपना नाम बदल कर ‘अमोघ वर्ष’ रख लिया है. मेरी स्वीकृत कहानी ‘सांड’ में मेरा यही नया नाम दिया जाए. सुबह पत्र भेज दिया.
अंक (मार्च 1967) छप कर बाजार में आ गया. मेरे अनुरोध पर छपते-छपते मेरा नाम बदल दिया गया था. पता लगा, भीष्म जी बंबई गए हुए थे. लौट कर उन्होंने कहानी में नाम देखा तो घर पर मुझसे पूछा, “यह अमोघ वर्ष कौन है?” मैंने सकपकाते हुए जवाब दिया, “मैं ही हूं. मैंने ही नाम बदलने के लिए पत्र भेजा था.”
उन्होंने नाराजगी के साथ कहा, “तुमने गलत किया. तुम्हारे अपने नाम में क्या कमी है? इतना अच्छा नाम है- देवेन मेवाड़ी. इस बात को सदा याद रखना कि अपने काम से नाम बनता है. तुम्हें जीवन में देवेन मेवाड़ी बनना है, अमोघ वर्ष नहीं. तुम्हारे लेखन से लोग कल तुम्हारा नाम जानेंगे.” मैं सिर झुकाए बैठा रहा और उसी दिन उस नाम से तौबा कर ली.
वर्ष 1969 में मैंने उन्हें बताया कि मेरा विवाह होने वाला है. भीष्म जी और शीला जी दोनों बहुत खुश हुए. उन्होंने लड़की के बारे में पूछा और कहा, “विवाह के बाद जब दिल्ली आवोगे तो दोनों मिलने आना.” नौकरी और नई गृहस्थी के कामों में उलझने के कारण कुछ दिनों तक हम मिलने नहीं जा सके. मैं तब इंद्रपुरी में रहता था. एक दिन उनका पोस्टकार्ड मिला, “देवेन, विवाह के बाद तुम मिलने नहीं आए. लगता है, किसी दिन हमें ही घूमते-घामते तुम लोगों से मिलने आना पड़ेगा.” हमें अपनी गलती का अहसास हुआ और एक दिन लक्ष्मी और मैं दोनों उनसे मिलने गए. हमें देख कर वे दोनों बहुत खुश हुए. वहां चाय-नाश्ता करके हम लौट आए.
छुट्टी के दिन या कभी-कभी समय मिल जाने पर लेखकों की बिरादरी में शामिल होने के लिए शाम को कनाट प्लेस में इंडियन काफी हाउस और टी-हाउस जाता रहता था. टी-हाउस में भीड़ कम होती थी और दरवाजे के समीप ही काउंटर पर पत्र-पत्रिकाएं भी रखी रहती थीं. उधर काफी हाउस में काफी शोर-गुल रहता था. लेखकों के बीच जमकर चर्चाए-बहसें होती थीं. काफी पर काफी पी जातीं. वहां रमेश उपाध्याय थे, शेरजंग गर्ग थे, रमेश रंजक, योगेश गुप्त बैठे होते, बलदेव बंशी, ब्रजेश्वर मदान और भी कई साहित्यकार, चित्रकार होते. योगेश गुप्त ने एक दिन मुझे अपनी पुस्तक ‘ए सिटी विदाउट शी’ भेंट की. हम देर शाम बल्कि कभी-कभी तो रात तक बैठे रहते. चर्चाएं जारी रहतीं. पत्रिकाओं के नए अंकों, उनमें छपी कहानियों और नई छपी किताबों पर चर्चा होती. उन शुरूआती दिनों में महेन्द्र भल्ला का उपन्यास ‘एक पति के नोट्स’ खूब चर्चा में था. और, कृष्णा सोबती की ‘नई कहानियां’ में छपी ‘यारों का यार’ कहानी ने श्लील-अश्लील की भारी बहस छेड़ दी थी.
उन्हीं दिनों कलकत्ता से रमेश बक्शी और सुदर्शन चोपड़ा का दिल्ली आगमन हुआ. दाढ़ी ब़ढ़ाए, कंधे में झोला लटकाए रमेश बक्शी यहां-वहां दिख जाते. कनाट प्लेस के सेंट्रल पार्क में जब रायल रेस्टोरेंट खुला तो उसके पास लॉन में बैठ कर कभी-कभी रमेश रंजक साथियों को अपनी मधुर आवाज में अपने नए गीत सुनाते थे. उसी दौरान मनहर चौहान की कहानी ‘घरघुसरा’ को ‘सारिका’ की प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार मिल चुका था और ट्रेडिल छपाई मशीन चलाते हुए उसके पात्र के ये शब्द मेरे कानों में गूंजते रहते थे- खट-खटाक-खट! लल्लन की मुंडी कटे! खट-खटाक-खट!
कभी-कभी आंखों ही आंखों में इशारा होता और तीन-चार दोस्त टी-हाउस और रीगल के पीछे के ढाबे में पहुंच जाते. इशारे का मतलब होता कि किसी के पास उस शाम की दावत का कुछ इंतजाम है. वहां गिलास लेकर जाम ढाल लिए जाते और आमलेट के साथ फटाफट दावत उड़ा ली जाती. दो-एक दावतों में मुझे भी शामिल होने का मौका मिला. फिर एक दिन बातों ही बातों में रमेश गौड़ ने मुझसे कहा- दोस्त, आपकी पहचान में भी कोई फौज़ी हो तो देखना. इंतजाम हो जाए तो पार्टी हो जाएगी.
और, इंतजाम हो गया. मेरे पड़ोसी हवलदार साहेब से रम की एक बोतल मिल गई. मैं झोले में छिपा कर उसे टी-हाउस ले गया. साथियों ने इशारे से पूछा तो मैंने बताया कि इंतजाम हो गया है. एक-एक कर हम बाहर निकले और रिवोली के सामने छोटे-से रेस्टोरेंट के पास पहुंचे. हमें पीछे से भीतर बुलाया गया. वहां कुर्सियां लगी थीं. छोटी मेज भी थी. वहां रमेश गौड़, रमेश बक्शी, सुदर्शन चोपड़ा, मैं और बंबई से आए अरविंद कुमार थे. जाम बनाए गए. बातें शुरू हुईं. अभी एक ही पैग लिया था कि सुदर्शन चोपड़ा भावुक हो उठे. बोले, “तुम इतनी कम उम्र में कितने जिम्मेदार लड़के हो. पूसा इंस्टिट्यूट में नौकरी कर रहे हो…” रमेश बक्शी ने उन्हें प्यार से समझाया लेकिन अपनी बातें करते-करते वे सुबकने लगे. जल्दी-जल्दी जाम खत्म कर हम लोग बाहर निकल आए.
उन्हीं दिनों कुछ नई पत्रिकाएं भी निकलीं. सुशील कुमार ने ‘विग्रह’ प्रकाशित की. मैंने अपने प्रिय कथाकार फ्रैंज काफ्का की ‘कस्बे का डाक्टर’ उसमें कई-कई बार पढ़ी. ‘ज्ञानोदय’ से संपादन का लंबा अनुभव लेकर लौटे रमेश बक्शी ने धमाके के साथ ‘आवेश’ पत्रिका प्रकाशित की. उसे कई रंगों के कागजों पर छापा गया था. शिल्पी-चक्र, शंकर मार्केट में उसके प्रवेशांक का विमोचन ‘रसाभिषेक’ के साथ हुआ. मनहर चौहान ने ‘इकाई’ पत्रिका प्रकाशित की जिसमें ताजा छपी रमेश उपाध्याय की कहानी ‘ब्रह्मराक्षस’ की खूब चर्चा हुई.
चर्चाओं में प्रायः देर हो जाती थी. आने-जाने का साधन केवल डी टी यू की बसें ही थीं. रात को अंतिम बस छूट जाने के बाद घर तक पैदल जाना पड़ता था. दो-एक साथी अक्सर दोस्तों से ‘यार चवन्नी है क्या? देना जरा” कह कर और चार आने लेकर आखिरी बस पकड़ लेते थे. लेकिन, हम कुछ साथी थे, जो काफी हाउस से निकल कर पचकुइयां रोड, गुरूद्वारा रोड होते हुए करोलबाग पहुंचते. देवनगर में शेरजंग का घर आ जाता. वहीं कहीं रमेश रंजक का डेरा था. रमेश उपाध्याय और भीमसेन त्यागी और मैं आगे पटेल नगर की ओर बढ़ते. उनके साथ कभी-कभी इब्बार रब्बी भी होते. वैस्ट पटेल में उन्हें शुभरात्रि कह कर मैं पूसा गेट की ओर लौटता. पेड़ों के नीचे-नीचे से हिल साइड रोड को पार करता हुआ पूसा पॉलीटैक्निक की बगल से, पीछे पूसा इंस्टिट्यूट की चिड़िया कॉलोनी में अपने डेरे पर पहुंच जाता.
सन् साठ के दशक का वह दौर साहित्यिक सरगर्मियों का दौर था. बंगाल में भूखी पीढ़ी के स्वर गूंज रहे थे. भूखी पीढ़ी के वे विद्रोही कवि थे- मलय राय चौधरी, समीर राय चौधरी, शक्ति चट्टोपाध्याय और देवीराय. भूखी पीढ़ी के उन कवियों की कविताएं बंगला भाषा में छप रही थीं. हम हिंदी के पाठकों को ‘धर्मयुग’ से इन कवियों का परिचय मिल रहा था. भूखी पीढ़ी के वे कवि परंपरा से हट कर हर कहीं अपनी कविताएं सुना रहे थे, श्मशान और वेश्यालयों में भी. वे श्लील-अश्लील कुछ नहीं मानते थे और आए दिन गिरफ्तार भी होते रहते थे. उसी दौर में चर्चित बीट कवि एलन गिंसबर्ग भी अपने अंतरंग साथी पीटर के साथ कलकत्ता और बनारस की यात्रा कर चुका था. तब उनकी ‘हाउल’ कविता की भी खूब चर्चा होती थी…..
“हां, कहो देबी कहो”
“तब तो दिल्ली में नई कहानी, अकविता और अकहानी की भी खूब चर्चा होती थी. दो-एक बार तो शैलेश मटियानी जी भी मेरे पास आकर रूके थे. सुनाऊं, उस दौर की वे बातें?”
“ओं”
(जारी है)
वरिष्ठ लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी के संस्मरण और यात्रा वृत्तान्त आप काफल ट्री पर लगातार पढ़ते रहे हैं. पहाड़ पर बिताए अपने बचपन को उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘मेरी यादों का पहाड़’ में बेहतरीन शैली में पिरोया है. ‘मेरी यादों का पहाड़’ से आगे की कथा उन्होंने विशेष रूप से काफल ट्री के पाठकों के लिए लिखना शुरू किया है.
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