फ़रवरी के आख़िरी दिन थे. मौसम को उदास और झाड़ रूख को झंखाड कर देने वाली हवा चलने लगी थी जिसे हमारे यहाँ लोकभाषा में फगुनहटा कहते हैं. बोकारो के सर्किट हाउस से हम थके उदास और टूटे अपनी अपनी सीटों में चुप्प धँसे राँची की ओर चले जा रहे थे. थोड़ी देर पहले ही एक बड़ा डॉक्टर फ़ोन पर मुझसे कह रहा था. Memoir by Braj Bhushan Pandey
“सर इट्स क्रिटिकल. आइ हैड ऑलरेडी इन्फ़ॉर्म्ड द फ़ैमिली. इट मायट बी कॉम्प्लिकेटेड.”
उसकी विनम्र आवाज़ मेरी चेतना को निषप्राण करती रही. धीरे धीरे. निर्मम रात के ढलते पहरों में जमी स्मृतियां एक सुनसान चीख़ की ऊष्मा से पिघलती रहीं.
“सर वी ट्राइड अवर बेस्ट … आइ कुडंट ईवेन…” चुप्प चुप्प.
मैं उसे कैसे समझाता अचानक घर, ज़िम्मेदारियाँ, ख़र्चे और विस्थापन के कथानको ने कैसे अपने अपने यथार्थ बदल लिए थे. मैं तब भी चीख़ना चाहता था अब भी चाहा लेकिन ख़ामोश रहा. प्रतिक्रिया में निरीह आँसू तक नहीं थे.
रास्ता झारखंड के जंगलो के बीच सरकता जा रहा था कभी कभी तीखे मोड़ काटता हुआ. झाड़ीदार वन प्रदेश के विस्तार में टस्स लाल फूले पलाश के पेड़ों की ओर कोई चिड़िया उड़ती चली जाती. बंद विंडो ग्लास की तरफ़ धूल के भभूके आते. Memoir by Braj Bhushan Pandey
“साली ये लू तो अब फ़रवरी में ही चलने लगी. जेठ वैशाख तक ना जाने क्या हाल होगा. “
माहौल में सघन हो आयी नीरवता को भंग करने की गरज से एक मित्र ने कहा. फिर पूरे रास्ते कुछ ना कुछ बातें होती रहीं. सड़कों की बीमार हालत पर, ठेकों में बिलो टेंडरिंग की समस्या पर, धुर्वा से भी पंद्रह किलोमीटर आगे तक प्लॉट की आसमान छूती क़ीमतों पर. एक मित्र आगामी लोकसभा चुनावों के मद्देनज़र हो रही लॉबीइंग और संभव्वित उम्मीदवारों के जीतने हारने की सम्भावना के बारे में बता रहे थे.
ये सब बिलकुल बेमतलब और सिरे से असंबद्ध विषय थे लेकिन सांद्रता पिघलने का नाम नहीं ले रही थी. मन में किसी एक चमत्कार की क्षीण उम्मीद अब भी थी. सवा लाख महा मृत्युंजय का जाप, रजरप्पा भवानी, अखण्डित जीवन रेखा का भविष्य कथन … कुछ भी. लेकिन अंदर ही अंदर हम सब जानते थे मानवीय असमर्थता आँसुओ में अपनी शाश्वत कथा को चुपचाप दर्ज करती जा रही है.
हमारी उदासी ने जब शहर की दहलीज़ को छुआ हल्की बारिशों से धुली शाम थी और लोग सड़कों पर, दुकानों और मॉल में ठूँसे पड़े थे. रौशनी की अंतहीन क़तारें थीं. ट्रैफ़िक का सिपाही औटोरिक्शा की टीन की पिछाड़ी पर डंडे बरसा रहा था. रात का पीलापन घिरने को हो आया था. दो अकेले और मज़बूत दिखने की कोशिश करते चेहरे दिल्ली की सर्द सड़कों पर उभरते रहे. अर्धमुर्छ्ना में बिम्बो के अस्फुट सामने आते फिर लोप हो जाते फिर दूसरा बिम्ब आता.
बुंदेलखंड के एक छोटे शहर की अनजान बैठक. एक वृद्ध पुरुष राष्ट्रीय स्वयमसेवक संघ के अपने अनुभवो का विवरण सुना रहे हैं.
“देखिए संघ ने कई संगठन स्थापित किए हैं … किसानो के लिए अलग,आदिवासियों के लिए अलग. मैं इतिहास परिषद में हूँ. “
“जी जी बिलकुल. किन्तु मैं आपसे क्षमा चाहूँगा मुझे बहुत जल्दी कही पहुँचना है. “
“भोजन उधार रहा किन्तु आपका. “
“जी अगली बार ज़रूर. “
मै उन्हें मन के हाहाकार क्या कहता. एक निर्मम सुबह जब ज़िंदगी आपसे आठ सौ किलोमीटर दूर चली गयी हो और आप उसे घंटे, मिनट और पलों के हिसाब से पकड़ने की कोशिश कर रहे हो. जब कल्पना की उड़ान नही सौ किलोमीटर से अधिक की रफ़्तार से भाग सकने वाली गाड़ी जुगाड़ना सबसे बड़ी ज़रूर्रत लगने लगा हो. इसलिए उनकी बातें सुनना ज़रूरी था क्यूँकि अचानक विरोधी हो उठे उस शहर में जिसने एक अदद वाहन का प्रबंध किया था वो उसके चाचा थे और और उस मित्र से मित्रता बस पिछली शाम भर पुरानी थी. Memoir by Braj Bhushan Pandey
बदहवास रास्ता, जी तोड़ कोशिशें, आँसू, खारापन, उजली बेरंग धूप, तमाम शंकाओ में घिरा मन, लगातार काँपती मोबाइल की घंटी, दोस्तों की नाकाम समझाईश.
“देखो यार. तुम मेरे दोस्त हो भाई हो. मैं तुम्हारे इमोशंस समझ सकता हूँ लेकिन अभी तुम समझदारी से काम लो.” एक सीनियर पुलिस अधिकारी बोल रहा था.
“शट अप, जस्ट शट अप” मैं फिर चीख़ना चाहता था लेकिन फिर चुप रहा. जिस समझदारी की वो बात कर रहा था उसमें ना जाने कितने साथ भोगे वर्षों, कितने साझा दुखों, अंगीठी से उठते धुएं वाली शाम के सटीक समय निर्धारण के अनगिनत झगड़ों की हत्या हो जानी थी जिसे तन मन के काले सफ़ेद सच से बचा ले जाना तय हुआ था अंतिम छोर तक.
“चुप रहो. मैं इस सेंस को निचली सीढ़ियों पर गोली मार दूँगा.” मेरे अंदर कोई चिल्लाया या रोया पता नहीं.
सपने रील दर रील चलते रहे. निरी अशक्तता तारी थी जिसकी कसक को अब छुआ जा सकता था. मन अपनी टूटन में तटस्थ और प्रतिक्रियाहीन था.
और फिर हर बेचैन यातनामय रात की तरह यह रात भी एक मरती सी पीली सुबह में ढल गयी. सन्नाटे के धुँध में लिपटी एक कासिर सहर में जब दर्द प्राण और सर की फटती नसों से उतर कर रीढ़ में पसर जाता है. एक ख़तरनाक मौन के साथ.
सुबह ज़रा देर से जगा तो सुना “वो नहीं रहीं.”
सुन कर आश्चर्य नहीं हुआ. आसन्न और निश्चित मृत्यु अपनी तरह की पीड़ा और अपने तरह का सुकून साथ लाती है.
वो मेरे दोस्त की माँ थीं. हम सबमे सबसे जीवंत, खिलंदड़ा, जीवन को अंतिम बूँद तक चख लेने वाला. ऐसा नही था कि मैं उसकी माँ के बहुत क़रीब था. मैं उनसे कुल दो या तीन दफे ही मिला था. लेकिन उनसे आख़िरी मुलाक़ात एक हँसती हुई दबंग मुलाक़ात थी जिसमें जीवन के संघर्षो की आँख में आँख में डाल कर अपना घूँट भर लेने वाली शख़्सियत का ठसक भरा अनुभव बोल रहा था. उसके कुछ ही दिनो बाद वो चेतनारहित हो हस्पताली बिस्तरों में क़ैद हो चुकी थी. इस बीमारी की शुरुआत बेहद मामूली ढंग से हुई थी और डॉक्टर ने एक छोटा सा ऑपरेशन बताया था. मुझे अच्छी तरह याद है जब उन्होंने ऑपरेशन से पहले अपने पैसों के ट्रान्सफर के बाबत कुछ बात की तो हमने उसे हँसी में उड़ा दिया था. और आज सचमुच वो नही थीं. महीने भर की अस्पताली भागमभाग थम चुकी थी. Memoir by Braj Bhushan Pandey
ये सब इतनी जल्दी हुआ कि उनसे बहुत जुड़ा नही होने के बावजूद अवचेतन की फाँके तेज़ प्रकाश के निष्ठुर धार में साफ़ हो गयी जिन में आदिम भय और अकेलेपन के कितने सूखे घावों की पपड़ियाँ जमी थीं. जीवन और मृत्यु का फ़ासला कल और आज से भी छोटा हो गया था. समंदर की लौटती लहरों में ठहरा जीवन घुटने भर भीग रहा था और मीलों दूर अनंत में ओझल होते जहाज़ की जलती बत्ती सा गुज़रता बीतता विदा ले चुका जीवन अभी देखा महसूस किया जा सकता था. धुँधला सा सही हाथ हिलाता सही. Memoir by Braj Bhushan Pandey
कुछेक मृत्युओं को अगर छोड़ दिया जाए तो हर जाने वाला कितना परिचित होता है! एक दुर्घटना भर, एक चिहुंक भरे आश्चर्य या हृदय में अटक गए एक हुक भर लेकिन कभी ऐसा भी होता है जब किसी एक के विदा की कोई एक सूचना भी जनवरी की कोहरा खायी कितनी ही निष्ठुर दोपहरो को जीवित कर जाती है.
एक लम्बा हॉर्न बजा. स्टेशन पर खड़े लोगों के पाँव डब्बे की ओर तेज़ हो गए. राँची के प्लैट्फ़ॉर्म से ट्रेन सरक रही थी. उसे तड़के सुबह कानपुर पहुचना था. छोटनागपुर के पठारों पर एक अफ़सुरदा शाम अभी उतर रही थी. खिड़की के बाहर वसंत की ख़ुशनुमा धूप में तपा एक मौसम था. एक भरा पूरा दृश्य – पटरियों से लगे घर, घरों पर फहराते अलग अलग रंगो और अलग अलग चिन्हों के झंडे, क्रॉसिंग पर इंतज़ार करते साइकिल वाले, रेहड़ियाँ, कारें और उनके रेले में फँसा इकलौता ट्रक. नेपथ्य में विस्तीर्ण उनींदी श्यामल पहाड़ियों पर बीमार सफ़ेद घोड़े सा झुकता चाँद.
ट्रेन के डब्बे के भीतर स्वादहीन स्टिक, पत्थर सा जमा मक्खन और फीका सूप वितरित किया जा चुका था जिसे मिर्च पाउडर की अतिरिक्त पूड़ियों से चटपटा बनाए जाने की जुगत चल रही थी. अचानक पैकेट फटने की चर्र चर्र ध्वनिया तेज़ होती गयी. एक सहयात्री ने उठ कर बिजली जला दी फिर दूसरे तीसरे कई लोगों ने. बाहर पसरी निर्दोष साँझ की हत्या हो गयी. घड़ी भर को महीन उजाले वाले शाम की पाग तीखी पतली हवा में झलझला रही थी. थोड़ी ही देर में इसकी ख़ुशबू ने अनचीन्हे प्रांतरो में खो जाना था. मैं तेज़ी से उठा और नथुनों में थोड़ी देर और इसे भरने की गरज से ट्रेन के दरवाज़े पर जा खड़ा हुआ. हवा के तेज़ झोंके से चेहरा ख़ुश्क हो रहा था किन्तु स्मृतियों की आड़ी तिरछी रेखाए बाहर पसरे धुँधले होते परिदृश्य पर अधिक चमक के साथ उभर रही थी.
एक खपरैल का दालान. अलग अलग काम करके साँझ सकारे लौटते लोग, जलते लालटेन के शीशे पर देर तक उँगलिया टिकाने की प्रतिस्पर्धा करते गोल बैठे बच्चे.
फिर दूसरा दृश्य. दम तोड़ती धूप और ख़तरनाक शीतलहर वाले दिन. अलाव के गिर्द चुप बैठे एक ही परिवार के आठ दस लोग और विदा लेती छः साल की बच्ची.
“ओ मैया. सबको बोलना सोनीया गोड़ लाग रही थी.”
नसों में घुलता रेबीज का ज़हर चेतना को इतना धारदार बना देता है यह इतने बरस बाद भी एक मूक प्रश्न बन कर खड़ा है.
“लाली रंग ओढ़ के चुनरिया…” दीदी लाल रंग का चुनर ओढ़े ससुराल जा रही थी. बिरहा का स्वर तीक्षण होता जा रहा था. खेत जोतते ट्रैक्टर में लगा टेप रिकॉर्डर घूम फिर कर एक ही गीत बजाए जा रहा था.
और और दृश्य एक के बाद एक. पेन्शन निकालने गयी एक झूलती देह का तांगे में निश्चेष्ट लौटना – बिना हिल-डुल के. फिर दालान की ऊँची चौकी वह भरी हुई उपस्थिति कभी प्राप्त नही कर सकी. एक सूनापन जो तक़रीबन सत्रह बरस पहले डँसे था बढ़ता ही गया है. Memoir by Braj Bhushan Pandey
आगे स्मृतियों ने और भयावह होते जाना था लेकिन पीछे आए रेलवे पुलिस के सिपाही ने दरवाज़े को बंद करने की हिदायत दी. वापस सीट पर लौटना ही था. अंदर चाय का दौर चल रहा था. पर्याप्त ऊष्मा बटोरी जा चुकी थी जिसे जल्दी ही राजनीतिक मूहाबिसे में,देश की गिरती अर्थव्यवस्था की चिंता भरी चिल्ल पों में तब्दील हो जाना था. मैंने घबरा कर आँखे बंद कर ली ताकि रौशनी की चुभती किरचो से अंदर बहते समय के कोमल बहाव को महफ़ूज़ रखा जा सके. अंदर एक कृशकाय पीली पड़ चुकी लड़की थी जिसके निरपराध ग़ुस्से को ज़माने की व्यावहारिकता से बचाये जाने का वादा था. अफ़सोस वो वादा टूट चुका था. वह एक ठंडे और परिचित स्थान में थी-अकेली. उसका क्रोध और कुछ भी कर गुज़रने का विश्वास ज़मीन में धूल खा रहा था. उसकी ढीठ आश्वस्त आँखो में सूना भय था और हृदय में छोटा सुराख़.
रात भर की कच्ची पक्की नींद और करवटों की थकान बदन में लपेटे मैं जब कानपुर में उतरा तो चारों तरफ़ सोऊता पड़ा था. एक दो ऑटो वाले एक़्सेलेटर दाबे सवारियों के आगे पीछे चक्कर काट रहे थे. एक कोने में कुछ रिक्शावाले जागे जागे ऊँघ रहे थे. उनमे से एक से झकरकटी पहुचा देने की बात हुई जहाँ से आगे की बस ढूँढ कर लखनऊ पहुँचना था. अच्छी चाय पिलाने के वादे के साथ रिक्शावान मेन सड़क को छोड़ तंग गलियों से रिक्शा निकालने लगा. कुछ घंटो बाद इन्ही गलियों में ज़िंदगी की रेलम पेल जाग जाती. दूध की साइकिल की ट्रिन-ट्रिन होगी, मंदिर के बाहर की दुकानो पर ताज़ी मालाए गूँथी जाएँगी, सूती कपड़े में लपेट कर रखे पान के पत्तों पर पानी छिड़का जाएगा. मसालों के गंध से अटी दुकानो के बंद शटर के आगे एक अधेड़ हो चुका बीवी बच्चेदार आदमी झाड़ू लगाना शुरू कर देगा. लेकिन अब तक सब शांत था – स्पंदनहीन. गरमी की वजह से बाहर चेन से बंधे ठेले पर सो रहे भिखमंगे का ढोलक सा उठता गिरता पेट था, पूँछ फटकारते और रह रह आकर भौंकते कुत्ते थे, किर्र किर्र कर जलते एक दो लैम्प पोस्ट थे और अख़बार का गट्ठर बाँधते दूर दूर के देहात से आए नए छोकरे. ज़िंदगी दम भर कर दौड़ पड़ने से पहले जैसे अपने बिखरे विद्रूपों में घड़ी भर को मद्धम साँस ले लेना चाहती हो. Memoir by Braj Bhushan Pandey
ये हमारी ट्रेनिंग के अंतिम दिन थे.
हम भारत दर्शन से लौट कर अलग अलग जगहों दिल्ली, कानपुर, लखनऊ, कलकते में अपने प्रशिक्षण का अंतिम हिस्सा पूरा कर रहे थे और अपनी अपनी पोस्टिंग का इंतज़ार कर रहे थे. ठीक उसी समय जब हमारी उम्मीदों ने नया उन्वान पाना था हम राख, धुआँ, ख़ाली दीवारों और सुनसान दोपहरी के सवालों से जूझ रहे थे. और जबकि हम सबके हृदय भग्न थे वो हमें पोस्टिंग के विकल्पों के बाबत बता रहा था पहला ये भरो दूसरा ये भरो. क्या वो सचमुच इतना मज़बूत था या उसके भीतर भी कोई सन्नाटा जागता था कभी ना भरने वाला सन्नाटा … मैं लगातार सोचता रहा.
लखनऊ पहुँच कर जिन चुनौतियों से दो चार होना था वो बिलकुल अलहदा क़िस्म के और हमारे लिए बिलकुल नए थे. सूतक क्रिया के सही समय तय करने की समस्या से ले कर संस्कार की सोलहवीं सनातनी परम्परा की एक एक सूक्ष्म डिटेल तैयार करने तक. लेकिन उससे बड़ा प्रश्न निर्जन और भयावह रातों का था. हमारे दूसरे साथी ने बताया कि शमशान से दाह क्रिया कर लौटे तीन कम अनुभव नौजवानों के साथ उस रात रुकने वाला तक कोई नही था. भाँय-भाँय करता घर और हादसानाक ख़ामोशी. शहरी जीवन के तमाम सतही अपनत्व शाम होते होते अपने घर विदा हो चुके थे. सारे घर को बंद कर तीनो को एक कमरे में सुला हमारा दोस्त रात एक बजे निकल गया क्यूँकि जो था वो झेले जाने लायक़ नहीं था. मैंने निश्चय कर लिया कम से कम अगले एक माह इन सुनसान घड़ियों का सहभागी होना है भले अपनी चेतना के यातनामय अंधेरे मृत बच्चों की तरह नीम खोहों से निकल कर बार-बार सामने आते रहें अपना लहुलुहान मुँह पोछते हुए.
लखनऊ से कानपुर कोई बहुत दूर नहीं है लेकिन इस मार्ग पर जाम कभी भी लग सकता है और महज़ डेढ़ घंटे की दूरी तय करने में पूरा दिन निकल सकता है. उस दिन भी ऐसा ही हुआ. काफ़ी देर तक जाम के खुलने की ख़ुशफ़हमी में रहने के बाद मैं बस को छोड़ कर दूसरी लेन से आ रही छोटी वाहनो की तरफ़ लपका. एक टाटा मैजिक आ रही थी जिसमें सवारियाँ पहले से ठुंसी पड़ी थीं लेकिन बहुत मिन्नत के बाद और दुगुने पैसे की बात सुन कर ड्राइवर ने किसी प्रकार जगह बना ही ली. ड्राइवर लोकल था और भीतर के रास्तों का उसे पता था. वो हाइवे छोड कर लिंक रोड में मुड़ गया और कई किलोमीटर गाँव की गलियो में घूमने के बाद हम ख़ाली मुख्य सड़क पर आ गये. अब रास्ता साफ़ था और तीन चार लोग रास्ते में उतर भी लिए थे जिससे टाँगे सीधी करने भर जगह बन गयी. लेकिन इस पूरी क़वायद में दोपहर हो गयी और जब तक मैं उसके घर पहुचा अस्थियाँ ले कर प्रयाग जाने की तैयारी हो चुकी थी. बस मेरा ही आना बाक़ी था. मुझे ऐसे मौक़ों पर ढेर सारे लोगों और ख़ास कर बड़े बूढ़ों को देखने की आदत और अपेक्षा थी. लेकिन गाड़ी में बैग फेंक कर और जल्दी जल्दी एक ग्लास पानी गटक कर जब मैं बाहर आया तो चलने को हम तीन अट्ठाईस तीस बरस के अनुभव सम्पन्न लोग ही थे. एक दूर के भैया गाड़ी चलाने के लिये. रायबरेली, मधुपुरी, संही, पर्हरी …. एक पतला सा राजमार्ग हमारे साथ साथ गुज़रता रहा. लाल रंग की मक्खियों की भनभन से भरी मिठाइयों की दुकानें,पान-बीड़ी और नक़ली बिसलेरी की बोतलों वाले खोखे, किसी कम्पनी के टायर के पीले विज्ञापन से रंगे दीवारों वाले घर और बेढब छज्जों वाली बेतरतीब छतें पीछे छूट गईं. दिन काफ़ी बीत चुका था और हममें से किसी ने कुछ खाया नही था. भूख लग आयी थी. कुछ खाने की गरज से एक जगह गाड़ी रोकी गई. एक छोटा क़स्बा. चाट-समोसा-चाय और पकौड़ियों वाले सस्ते ढाबे. तय हुआ कि थोड़ा बहुत खा कर पर्याप्त चाय उड़ेल ली जाए ताकि थकान थोड़ी कम हो. अचानक नज़र सामने गयी सड़क की परली तरफ़ देखा रेलवे का लाल सिग्नल था और गिरे हुए रेलवे फाटक पर लिखा था-ऊँचाहार स्टेशन. Memoir by Braj Bhushan Pandey
ये शब्द दिल्ली कलकत्ते रूट पर लगातार रेल यात्रा करने के कारण कई बार सुना था. आधी रात में रेल्वे का भोंपू अनाउन्स करता – यात्रीगण कृपया ध्यान दें. गाड़ी संख्या 14218 डाउन ऊँचाहार एक्सप्रेस कानपुर सेंट्रल के रास्ते…. ऐसी न जाने कितनी जगहें रेलगाड़ियाँ पटरियों की खट-खट और अधनींदे के भोंपू बन कर हमारी स्मृतियों में जज़्ब हैं – अंबाला कैंट, भुसावल, बरकाकाना, गोमो, कठगोदाम. किन्तु कितनी बार ऐसा होता है जब ये रात के डेढ़ बजाती रेलवे की घड़ी से बाहर निकल कर खड़े हो जाए. आज ऊँचाहार मेरे सामने था और मेरे दिमाग़ में घन्न-घन्न कुछ बजता रहा.
कुछ चार बरस पुराने फ़ासले पर खड़ी एक अर्धरात्रि. गाँव के पुराने घर को छोटे बड़े बाइस तालों में बंद कर और आँगन को बेशर्म पीपल के गांछ के भविष्य के हवाले छोड़ मैं दिल्ली चला आया था. परिवार की धुरी ढह चुकी थी, आँसू सुख चुके थे और अब किसको कहाँ रखने का सवाल खड़ा था. विद्यार्थी जीवन अब भी था सो दिल्ली जाना अनिवार्य था. माँ बहनों को बंगलोर बड़ी बहन के पास रवाना करने के बाद भी मैं उस घर में तीन दिन रहा ताकि सदा के लिए बस आए सन्नाटे की फाँक को महसूस कर सकू और आत्मा की किसी काली दरार में समेट सकूँ. लेकिन विदा तो लेना ही था. कोरको में सूखे आँसुओ की थाती तो सदा की धरोहर थी जिसे कभी घोंटते कभी ऊबकते रहना था. ऐसे बिखरे हालातों में जब दिल्ली लौटा तो साथ रहने वाले चार मित्रों ने मथुरा चलने का प्लान किया जहाँ से होते हुए दो दिन बाद इटावा निकल जाना था एक मित्र की बहन की शादी में.
ठीक यही दिन थे. ऐसी ही हल्की शीतस्नाता राते. तब पहली बार उससे बात लम्बे समय के लिए बंद हुई थी जिसकी जड़ में भावनाओं का ज्वार था किसी क़िस्म की कटुता नही. पूरी गोवर्धन परिक्रमा के दौरान वो मेरे साथ चलते मित्र से मेरे बाबत पूछती रही. मेरी उदासियों के बाबत मेरे मानसिक हालात के बाबत. हाहाकार बीत चुका था और उजाड़ निर्जन की झबरी झाड़ियों में हवा सिसकती साँसे ले रही थी जिसकी आहट कोई क्या सुन पाता? मित्र क्या समझते!
ख़ैर जब मथुरा आने का प्लान बना था तो हममें से कोई नही जानता था कि इटावा कितनी दूर है और वहाँ कैसे पहुँचा जाएगा. ख़ास तौर मुझे लगता था की इटावा 4-5 घंटे की दूरी पर है जहाँ कोई ना कोई बस तो ज़रूर जाती होगी. लेकिन जब होटल से चेक आउट करके हम बस स्टैंड पहचे तो पता चला एक ही बस है जो सुबह 4 बजे निकलेगी और शाम तक इटावा पहुँचेगी. अलबत्ता दूसरा विकल्प ये था कि लोकल पैसेंजर ट्रेन से हाथरस पहुँच कर कोलकाता रूट की ट्रेन ली जाए. मेरा मन बैठ गया. मन की इस बिखरी हालात में मैं अजाने प्रदेशों में भाग जाना चाहता था जहाँ पहले कभी नही गया होऊँ, जहाँ खेतों में अलग क़िस्म की फ़सले उगती हो और साइनबोर्ड पर नज़रों की आदत से जुदा नाम लिखे हो फ़र्रुख़ाबाद, शिकोहाबाद, बहुचरा कुछ भी. लेकिन ये तो वही रूट था जहाँ जाने वाली रेलगाड़ियों के गंतव्यमार्ग पर चुप्पियों का एक वितान आता था जहाँ कई होली दिवाली कट्टमस कर के हज़ार बार जाया गया था और जहाँ हृदय के हज़ार चाक रास्तों से अब भी जाया जा सकता था. मैंने पूरी छुट्टीयों में ख़ाली फोकटगिरी की थी लेकिन भाइयों और चाचाओ के बार बार के बुलावे के बावजूद दिल्ली से एक किलोमीटर भी उधर नही गया था.
लेकिन इटावा जाना तो था ही. धक्के खाते हम रात 9-10 बजे तक हाथरस स्टेशन पहुचे . पता चला इटावा की तरफ़ जाने वाली गाड़ियाँ नीचे वाले दूसरे स्टेशन से मिलेंगी. पटरियाँ पार कर हम कच्चे रास्तों पर नीचे उतरते गये और जो देखा उसकी कल्पना सन 2015 में नहीं की जा सकती थी. घोर अंधेरे में दुबके प्लेटफार्म. एक दो मरियल बल्ब रौशन थे जिससे अन्धकार और गाढ़ा हो उठा था. पूछताछ की खिड़की पर गुटखे की ताज़ी पीक थी जो मुनादी कर रही थी कि यहाँ से कोई सहायता नही मिल सकती क्यूँकि वर्षों से इसे खोला ही नही गया. थके और भूखे हम स्टेशन से बाहर निकले. बाहर का पसमंजर और डरावना था. अस्तबल सी इमारत और खुले चौसर में ताँगे के घोड़े की लीद फैली हुई थी. बाहर की पतली सड़क पर गिनी चुनी खुली गुमटियो में केरोसिन के टिमटिमाते दिए बक़ाया शहर पूरे अंधेरे में बुड़की मारे हुए-एकदम सन्न. उन दुकानों में भी बेस्वाद फीकी चाय के अलावा सस्ता बिस्कुट तक नही था जिससे भूख मिटती और जागने का उपक्रम किया जाता. अब ले-दे कर हमारे पास थोड़ी कच्ची सीली नींद रह गयी थी जिसे बचाने की गरज से हम वापस प्लेटफार्म लौट गये ताकिकहीं पीठ टिका कर बैठा जा सके. पिंडलियो में दर्द था. मच्छरों की भंभनाहट में ख़ाली उघड़ी बाँह पर लाल चकते उभरते रहे और रेलवे का भोंपू थोड़ी-थोड़ी देर में कहीं दूर से बजता प्रतीत होता रहा. 14218 डाउन ऊँचाहार एक्सप्रेस अपने निर्धारित समय से एक घंटा … आधा घंटा और … रात के एक दो ढाई … धत्त महाराज!
ताज़ा- ताज़ा ज़िम्मेदार हुए निष्ठुर अनुभवों में और भी काफ़ी भटका हुआ चलचित्र बाक़ी था – आँख चुराते पलायन का, दिखावटी पोले आत्मविश्वास का, और तीन दिन बाद अजाने भूगोल से पूरी तरह अपिरिचित भटकते भटकते लाख बहोसी के पास जा पहुचने का जिसकी कल्पना में कई शामें मुब्तिला थीं. थोड़ी ही दूर एक छोटी सी जगह थी जहाँ के लोग, आम के बाग़ गन्ने आलू के खेतों पर बात करते कितने बरस हमने बिताए थे और जहाँ के प्रॉपर्टी झगड़ो तक की ख़बर मेरे पास थी. मैं अचानक वहाँ था लेकिन जाने की कोई सूरत सम्भव नही थी.
मैं घबरा उठा और गाड़ी में जा कर बैठ गया. अभी संगम पर अनुष्ठान संपन्न करने वाले पंडे की व्यवस्था भी करनी थी. एक पुराने परिचित को सूचना दे कर ये सब काम उनके सुपुर्द किए गये थे और उन्होंने आश्वस्त किया था वो हमसे पहले ही जौनपुर से प्रयाग आ जाएँगे.
इलाहाबाद पहुँचते पहुँचते बस सूर्यास्त थोड़ा शेष रह गया था. शहर अब भी खमोश हरारत में डूब सा था जैसा मैंने वर्षों पहले इसे देखा था. जैसे बनारस को कवि ने आधा आधा पाया – आधा मंत्र में आधा फूल में आधा शव में प्रयाग तंद्रिल भोरों का शहर है-सदा अलसाया हुआ और जड़ता की सीमा तक ठहरा हुआ. विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले हमारे एक मित्र कहा करते – भैया जहाँ “राम काज किने बीनू मोहि कहाँ बिश्राम” वाले कर्मयोगी हनुमानै जी लेटि गयेन वहाँ तुम जल्दी करिके का उखाड़ लेबो.
ड्राइवर ग़लती से गाड़ी शहर में ले आया था. ये वही जगहें थी जहाँ हर सुबह बंद मक्खन और गरम चाय की कितनी यादें थी. मैंने शीशे को ज़रा नीचे झाँक कर देखने का प्रयास किया क्या अब भी उस सब्ज़ी वाली की रेहड़ी लगी है जो लड़कों को आंटी कहने पर डाँट दिया करती थी. क्या अब भी मुटल्ली भाभियों के क़िस्से पिंक मार्केट के बग़ल वाली गलियों में टहल रहे होंगे? तेरह बरस की लम्बाई में तो उम्र की रेखाएं मिट जाया करती हैं. राम जी का वनवास भी चौदह बरस का था. इतने समय में तो यात्रा के पड़ावों के चिन्ह तक मिट जाते हैं सब्ज़ी वाली आंटी और तीन के टपरो वाले चायखाने क्या ही बचे होंगे. Memoir by Braj Bhushan Pandey
करनलगंज का चक्कर काटते और आनंद भवन भरद्वाज आश्रम के बग़ल से गुज़रते जब हम संगम पहचे पंडा हमारी राह देख रहा था और हमारे परिचित सज्जन भी वादे के अनुसार पहुँच चुके थे. घाट का संकल्प इत्यादि सम्पन्न कर हम जल्दी जल्दी संगम की तरफ़ चल पड़े. यमुना के पानी का हरापन नाव वाले के चप्पू से बित्ता-बित्ता भर फटता जाता. साईबेरियाइ उजले पक्षियों का झुंड भी दिन भर की झपटमारी से थोड़ा क्लांत हो गया था. थोड़ी देर में संगम आ गया. पीछे थिर यमुना थी और बाँस के लट्ठो से टिका कर बांधे गए पटरो के आगे गंगा की गतिमान धारा – हल्की धवलता समेटे. मानो हज़ारों मील बिछुड़ कर भी श्वेताभ तुहिन क़णो की सगी याद बची रह गयी हो. चिरंतन प्रवाह के नादशब्दों में कहीं सरस्वती भी अवश्य ही होगी. पंडा आधे अशुद्ध मंत्रो में निर्देश दे रहा था – जनेऊ को उलटे काँधे पर रखिए और अस्थियाँ गंगा महारानी में विसर्जित कर दीजिए. और सब समर्पित हो गया – बेशुमार बतकहियों वाले दिन, चिंता, योजनाएं और वर्षों का संचित साहचर्य. अंक में समेट भर लेने की दूरी तक पानी मटमैला रहा और फिर बह चला. अंजलि-अंजलि जल से धक्के खाता. पछाँही लालिमा वाली नदियों में विदा का मार्मिक रूपक क्षण भर को झलका और फिर लोप हो गया. दूर पुल के पिछली तरफ़ कही सूरज डूब रहा था और झूँसी के घाटों से शाम की जर्दी उठ रही थी. दिन भर की मन की आपाधापी अब थम गयी थी. गाड़ियों की हेडलाइट में सियार की आँखो सी जलती बुझती सड़क थी, ट्रकों से हथियाए ख़तरनाक किनारों पर घंटी टनटनाते बेख़ौफ़ प्रतीक्षारत घरो को लौटते साइकल वाले थे और दूर दूर तक पसरा कालिख पुता पार्श्व था.
लखनऊ नज़दीक आता जा रहा था.
-ब्रजभूषण पाण्डेय
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बनारस से लगे बिहार के कैमूर जिले के एक छोटे से गाँव बसही में जन्मे ब्रजभूषण पाण्डेय ने दिल्ली विश्वविद्यालय से उच्चशिक्षा हासिल करने के उपरान्त वर्ष 2016 में भारतीय सिविल सेवा जॉइन की. सम्प्रति नागपुर में रहते हैं और आयकर विभाग में सेवारत हैं. हिन्दी भाषा के शास्त्रीय और देसज, दोनों मुहावरों को बरतने में समान दक्षता रखने वाले ब्रजभूषण की किस्सागोई और लोकगीतों में गहरी दिलचस्पी है.
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