कला साहित्य

कोट फट गया : नैनीताल का क़िस्सा


– अनिरुद्ध कुमार

आठ बज रहे थे और नैनीताल की सर्दियों की रात शहर पर उतर चुकी थी. आप जानते ही हैं कि पहाड़ों की सर्दियों में हाल कैसा होता है. हर इंसान या तो रजाई में घुस चुका था या रजाई में घुसने के लिए जल्दी कर रहा था. घरों की खिड़कियों से रौशनी तो आ रही थी, पर कोई आवाज नहीं. स्ट्रीट लाइट के बल्ब घने होते कोहरे से लड़ने के लिए जी जान कोशिश कर रहे थे. पर क्या करते बेचारे, दूर-दूर डटे अपने साथियों को बस हिम्मत ही दे पा रहे थे. (Memoir By Anirudh Kumar)

पेड़ों के नीचे कोहरा बूँद-बूँद टपक रहा था. लोहे की हर चीज ठंडी हो चली थी. कभी-कभी कोई लेटलतीफ कुत्ता रात का ठिकाना ढूंढने के लिए बदहवास इधर-उधर तांक झांक कर रहा था वरना बाकी दुनिया तो कब की दुबक चुकी थी.

नगेन्द्र, मेरा दोस्त! बहुत देर से मुझे चलने के लिए कह रहा था, पर चूँकि आज का दिन बेकार ही गया था तो मुझे लगा झील को ही निहार लूँ. नैनीताल झील. जिस पर कल अंग्रेज फ़िदा थे. आज जिसे देखने के लिए लाखों लोग भीड़ लगाए रहते हैं. मुझे इस वक़्त उसे बिल्कुल अकेले देखने का लुत्फ़ लेना था जब अथाह स्याह झील में सारे शहर की रोशनियाँ चुपचाप उतर आई थीं. नगेन्द्र को इस समय ऐसी ठंड में झील में कोई खास दिलचस्पी नहीं थी.

झील के किनारे लगी लोहे की बेंच जब बहुत ठंडी हो गयी तो नगेन्द्र को उठ कर खड़ा होना पड़ा.

मैंने कहा — “बैठो यार!”

पर नगेन्द्र ने झुंझलाहट में कोई जवाब नहीं दिया. तब एक नजर झील पर और डालकर, मैंने कहा — “चलो फिर.”

हमारा कमरा स्नो व्यू पहाड़ी की चोटी के नीचे मालडेन कॉटेज नामक जगह पर काफी चढ़ाई के बाद था. और वहीं हमारी मंजिल थी —  हमारी अपनी-अपनी रजाइयां.

दिन भले ही बेकार गया था पर पैरों को तो काफी चलना पड़ा था — कभी ऊपर, कभी नीचे. काश हमारी रजाइयां यहीं मिल जातीं तो कितना अच्छा होता, पर बिस्तर में आराम करने के लिए पैरों को अभी आधे घंटे की चढ़ाई और करनी थी.

हम चल दिए. झील नजरों से दूर होती गयी. दूर-दूर लगे स्ट्रीट लाइट के बल्ब हमारे पथ प्रदर्शक थे — माइलस्टोन की तरह.

शायद नगेन्द्र कुछ खिन्न था तो हमारे बीच चुप्पी ही थी. मैंने भी लड़ाई छिड़ने के डर से कुछ नहीं कहा. हम दोनों यूँ ही जेबों में हाथ डाले, एक-एक कदम बढ़ाते धीरे-धीरे चल रहे थे. तेज चलने की स्थिति तो दोनों की ही नहीं थी. घरों की खिड़कियों के बीच से होते हुए हम काफी आगे निकल चुके थे और अब बड़े-बड़े पेड़ों के नीचे से गुजर रहे थे. जिनके नीचे घुप्प अँधेरा था.

पर दिक्कत की कोई बात नहीं थी — पूरा रास्ता हमें अच्छी तरह याद था और अगला स्ट्रीट लाइट का बल्ब रौशनी भले ही न दे पा रहा हो, हमें सही दिशा जरूर बता रहा था.

मैंने चुप्पी तोड़ने की कोशिश की ताकि पता चल सके कि नगेन्द्र आखिर कितना नाराज है. कोई जवाब न पाकर मैंने सोचा आज का दिन अब खुशनुमा नहीं बनाया जा सकता था. मैंने सोचा यही सही.

फिर मैंने भी अपने जूतों पर नजर गड़ाए चलना ही बेहतर समझा. पर अचानक नगेंद्र ने मेरी कोहनी पकड़ कर मुझे रोक लिया. मैंने अँधेरे में ही प्रश्नवाचक दॄष्टि से उस को देखा तो उसने आगे सड़क के दायीं तरफ ओर को इशारा किया.

नैनीताल में देर रात में तेंदुओं का मिल जाना कतई असंभव नहीं था. फिर आज तो मौसम भी था और दस्तूर भी. जहाँ हम खड़े थे, करीब पंद्रह फ़ीट की दूरी पर सड़क के किनारे एक काली आकृति सड़क के किनारे जमीन पर दुबकी हुई थी. मैंने जिम कॉर्बेट की कई किताबें पढ़ी थीं तो मैं जानता था कि तेंदुआ अपने पैरों को अपने नीचे समेटकर छलांग लगाने की तैयारी कर रहा है. मैंने नगेन्द्र को चुपचाप खड़े रहने का इशारा किया. जैसा कि सब जानते ही हैं कि अब भागने का तो कोई फ़ायदा नहीं था.

हम चुपचाप सांस रोककर एकटक उस आकृति पर नजर गड़ाए तेंदुए के ही पहल करने का इंतजार करने लगे. भीषण ठण्ड में भी मेरे माथे पर पसीना आ गया था. एक दो मिनट तक हमारे दिलों की धड़कन ही हमारे लिए ब्रह्माण्ड की एकमात्र ध्वनि बन गयी थी. कुछ देर तक भी जब तेंदुए ने कोई प्रतिकिया नहीं की तो धीरे-धीरे हमारा साहस वापस आने लगा.

जिम कॉर्बेट की पुस्तकों का पाठक होने के नाते इस परिघटना की जांच पड़ताल की जिम्मेदारी मुझ पर आती थी. और कोई चारा भी कहाँ  था — हमें घर जाना ही था अपनी रजाइयों के पास.

मैंने हाथ से नगेन्द्र को रुकने का इशारा किया और कुछ कदम आगे बढ़ाये. फिर रुककर देखा. तेंदुए ने अब भी कोई हरकत नहीं की. दबी चाल कुछ कदम और. जब हमारे बीच की दूरी करीब दस फ़ीट बची तो मामला एकदम साफ़ हो गया. मैंने पलटकर नगेन्द्र को देखा. वह बेचारा अब तक वहीं पर खड़ा था जहाँ से हमने उस आकृति को पहली बार देखा था.

सड़क के दाएं किनारे जंग खाये और उम्र से झुक गए लोहे के एंगलों पर कांटेदार तार की ढीली-ढाली बाड़ लगी हुई थी. हमारे सामने उन तारों में उलझकर लेटा हुआ एक इंसानी शरीर था. बिलकुल शांत — कोई भी हरकत नहीं थी उसमें.

मैंने नगेन्द्र को इशारा किया तो कुछ सशंकित सा वह मेरे पास आ गया. अब नई समस्या यह थी कि हम क्या करें? तेंदुआ तो मेरा डिपार्टमेंट था पर अब इंसान का क्या करना है? इस बार नगेन्द्र ने पहल ली और आगे बढ़कर आकृति का कन्धा जरा सा हिलाया. स्पर्श होते ही आकृति ने एक कराह ली. मतलब हम तेंदुए से भी बच गए थे और ये कोई लाश भी नहीं थी.

हुआ यह था कि अपने दोस्तों के साथ पीने और विदा लेने के बाद यह वयस्क व्यक्ति अपने घर की ओर चल दिया था. सड़क पर बारी-बारी से दाएं और बाएं जाते हुए एक बार अपनी दिशा का अंदाजा लगाने में उससे थोड़ी चूक हो गयी. हालांकि कांटेदार तारों ने उसे छह फ़ीट नीचे खेतों में गिरने से तो बचा लिया पर वह बेचारा उनमें उलझकर रह गया. पता नहीं घटना कितने देर पहले की थी, पर जब हम पहुंचे थे तो तब तक वह शायद हर कोशिश आजमा कर हार मान चुका था और उस ठण्ड में शांत लेट गया था. शायद अब उसे किसी चमत्कार की ही उम्मीद थी.

मैंने हाथ जेब में वापस डाल लिए थे. नगेन्द्र ने मुझे देख कर थोड़ी नाराजगी से कहा — “हाथ लगा यार, इस को बाहर निकालना है.” थोड़ी मशक्कत के बाद हम उसे बाहर निकालने में कामयाब हो गए और फिर अपने पैरों पर खड़ा करने में भी. करीब पैतालिस की उम्र का पुरुष — जिसने काला कोट-पैंट और सफेद कमीज पहनी हुई थी — कम से कम उस कम रौशनी में हमें यही दिखा.

एक बार खड़ा होते ही उसने पहले खुद को जांचा. ज्यादा बुरी स्थिति नहीं थी — माथे पर दायीं ओर एक पतली सी खरोंच की रेखा थी, कपड़ों पर भरपूर मिट्टी लगी हुई थी और कंधे पर कांटेदार तार से कोट एक जगह फट गया था.

खुद का सरसरी मुआयना करने के बाद उसने हमारी तरफ रुख किया. अभी भी नशा उतरा नहीं था.
“थैंक यू भाई लोगों’ और पहले नगेन्द्र और फिर मुझसे हाथ मिलाया.

उसने चलते-चलते बताया कि अगले ही मोड़ से उसके घर का रास्ता हम से अलग हो जाता है. सो मोड़ पर पहुंचकर नगेन्द्र ने उसे घर तक छोड़ने की पेशकश की — मुझे यह बात नहीं पसंद आई. पर उसने जोर-शोर से कहा कि घर बिलकुल पास है और वह आराम से चला जायेगा. मोड़ पर एक बार फिर नगेन्द्र का हाथ मिलाते हुए उसने थैंक-यू कहा और बताया कि आगे पानी के नल के पास उसका हरे रंग का मकान है. उसने निवेदन किया कि नगेन्द्र कभी उसके घर जरूर आये और चूँकि अभी कम रौशनी की वजह से वह हमारा चेहरा ठीक से नहीं देख पा रहा है तो उसके घर पहुंचकर उसे एक कोडवर्ड बताए, ताकि वह नगेन्द्र को पहचान सके, जो कि होगा — ‘कोट फट गया.’ हमने भी इस बात पर हँसते हुए विदा ली और अपने-अपने रास्ते पकड़े. इस सब में कुछ देरी जरूर हुई थी पर हम तेंदुए और लाश से बच गए थे और सब कुछ सुखद रूप से निपट गया था.

अगले दिन वापस बाजार जाते हुए हम उसी जगह पर पहुंचे जहां पिछली रात हमने उस व्यक्ति से विदा ली थी. नगेन्द्र अचानक रुक गया और बोला — “चल यार! उस से मिल कर आते हैं.” मेरी इसमें कोई दिलचस्पी नहीं थी. कुछ देर हाथ पकड़ कर हुई खींचतान के बाद मैंने कहा कि वह जाना चाहता है तो जाये, मैं यहीं बैठकर तब तक एक सिगरेट पी रहा हूँ.

सिगरेट खत्म हुई. करीब पंद्रह मिनट बाद नगेन्द्र वापस आया और हम चलने लगे.

थोड़ी देर की चुप्पी के बाद जब नगेन्द्र कुछ नहीं बोला तो मैंने ही पूछा — “मिला?”

जवाब आया — “अबे यार!”

“मतलब?” — मैंने पूछा.

जवाब आया — “घर तो उसका पास में ही है, मैंने दरवाजे की घंटी बजाई तो वह खुद ही आया. माथे की खरोंच से मैंने पहचान भी लिया. फिर मैंने बताया कि कल हम मिले थे तो बोलने लगा कि मैं आपको जानता ही नहीं. तब तक उसके दो आठ-दस साल के बेटे भी आ गए और उसकी बीवी भी झाँकने लगी. फिर मैंने बताया कि किन परिस्थितियों में हम मिले थे तो बोला कि आप क्या बात कर रहे हो, मुझे नहीं पता.”

“आखिरकार मैंने अपना मुलाक़ात वाला ‘पहचान कोडवर्ड’ बताया — ‘कोट फट गया.'”

“इस पर तो वह बिलकुल ही भड़क गया और बोलने लग गया कि आप कोई पागल तो नहीं हो. जाओ यहाँ से. बिलकुल मारने को होने लग गया तो मैं डर कर वापस आ गया.”

कुछ देर हम चुप ही रहे और चलने लगे. फिर मुझे हंसी आ गई. नगेन्द्र अभी भी अपसेट था. मुझे हँसते देख कर चिढ़ते हुए बोला  —  एक सिगरेट दे, यार.

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Sudhir Kumar

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