[दिल्ली में रहनेवाले संजय जोशी की जड़ें पहाड़ों में बहुत गहरे धंसी हुई हैं. वे नामचीन्ह लेखक शेखर जोशी के योग्य पुत्र हैं और पिछले तकरीबन दो दशकों से बेहतर सिनेमा के प्रचार-प्रसार के लिए प्रयत्नरत हैं. उनकी संस्था ‘प्रतिरोध का सिनेमा’ पारम्परिक सिनेमाई कुलीनता के विरोध में उठने वाली एक अनूठी आवाज़ है जिसने फिल्म समारोहों को महानगरों की चकाचौंध से दूर छोटे-छोटे कस्बों तक पहुंचा दिया है. इसके अलावा संजय साहित्यिक प्रकाशन नवारुण के भी कर्ताधर्ता हैं जिसने हाल ही में वीरेन डंगवाल की समग्र कविताओं के संकलन के अलावा ढेरों शानदार किताबें छापी हैं. संजय जोशी ने सिनेमा पर किया अपना तकरीबन सारा लेखन काफल ट्री को सौंप दिया है ताकि उसे आप तक पहुंचाया जा सके. उनके आलेख आप लगातार पढ़ते रहेंगे.]
1895 में जब पहली बार फ़्रांस के पेरिस शहर में लुमिये भाइयों ने चलती हुई तस्वीरों को दिखाकर सिनेमा के भ्रम को संभव कर दिखाया तब सिनेमा उससे पहले से चले आ रहे कला रूप ‘नाटक’ से बहुत प्रभावित था. कुछ नाटक से प्रभावित होने के कारण और कुछ तकनीक के नयेपन के कारण जिस वजह से बहुत से लैंस ईजाद न हो पाए थे.
कैमरा आमतौर पर एक जगह खडा रहते हुए जितना कैद कर पाता उतने ही संभव द्रश्यों की प्रस्तुति करता था. इसलिए शुरुआती फिल्में नाट्य रूपांतरण भर थीं. जैसे –जैसे तकनीक का विकास होता गया सिनेमा की भाषा समृद्ध होकर नाटक से अलहदा होकर स्वतंत्र भाषा के रूप में विकसित हुई और निरंतर अपने चाहनेवालों की संख्या में इजाफ़ा करती रही.
सिनेमा की भव्यता को प्रामाणिक बनाने में अलग –अलग तरह के शाटों की अहम् भूमिका रही है. जैसे कि लॉन्ग शॉट की ही बात करें. यह कैमरे के ख़ास लेंस से दर्ज किया हुआ ऐसा दृश्य है जिसमे द्रश्य बहुत विस्तार और व्यापकता में दिखाई देता है . सिनेमा भाषा का यह एक ख़ास गुण उसे नाटक की सीमितता से अलग करता हुआ दर्शकों में रोमांच का संचार करता है. ट्रेवल फिल्मों में या किसी ख़ास लोकेशन की खूबी को दर्शाने के कोई नौसिखिया फिल्मकार भी कम से कम एक बार तो इस शॉट का संयोजन अपनी कहानी में करता है. दस्तावेजी फिल्मकारों के लिए अपने तर्क को पुख्ता बनाने के लिए यह एक अति आवश्यक भाषा अवयव की तरह काम करता है.
लोकप्रिय हिंदी फिल्म शोले को याद करें, जब पहली बार जय और वीरू गब्बर के अड्डे पर पहुंचते हैं तब उस बियाबान का आतंक क्या मिड शॉट या क्लोज़ शॉट से निर्मित हो पाता. निश्चय ही इसके लिए लॉन्ग शॉट ही जरुरी था जिससे उस घाटी के आंतक से भी गब्बर का भय गहरा व्याप्त होता .
इसी के वास्ते अपनी फ़िल्म ‘पथेर पांचाली’ के निर्माण के दौरान ‘खेत में रेल गुजरने’ के द्रश्य को फिल्माते हुए सत्यजित राय को पूरे एक साल का इंतज़ार करना पड़ा क्योंकि जिस खेत में वे इस द्रश्य का फिल्मांकन कर रहे थे वहां के सफ़ेद कास के पेड़ों से बनता भू द्रश्य जानवरों द्वारा कास के पेड़ खा लिए जाने के कारण निस्पंद हो गया था और सत्यजित राय ने लॉन्ग शॉट में ही रेल के काले धुऐं और कास के पेड़ के सफेद बैकग्राउंड के संयोजन को अपने मन में पिरोया था.
संजय जोशी पिछले तकरीबन दो दशकों से बेहतर सिनेमा के प्रचार-प्रसार के लिए प्रयत्नरत हैं. उनकी संस्था ‘प्रतिरोध का सिनेमा’ पारम्परिक सिनेमाई कुलीनता के विरोध में उठने वाली एक अनूठी आवाज़ है जिसने फिल्म समारोहों को महानगरों की चकाचौंध से दूर छोटे-छोटे कस्बों तक पहुंचा दिया है. इसके अलावा संजय साहित्यिक प्रकाशन नवारुण के भी कर्ताधर्ता हैं.
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