रामनगर में पंपापुरी में स्थित एक सामान्य से घर की पहली मंजिल पर स्थित एक कमरे में जब आप जाते हैं तो दुबले शरीर का एक बूढ़ा आदमी किताबों से घिरा मिलता है. मोटे लैंस वाला चश्मा पहने, लगातार किसी न किसी काम में लगे रहने वाले इस बूढ़े आदमी से आप घंटों कुमाऊनी गढ़वाली के साहित्य पर बातचीत कर सकते हैं. 80 बरस के इस बूढ़े शख्स का अपने काम के प्रति लगाव और ऊर्जा देखकर ख़ुद को जवान समझने वाला कोई भी शख्स एक पल के लिये नजरें झुका सकता है. ऊर्जा से भरे इस बूढ़े शख्स का नाम है मथुरादत्त मठपाल, हमारी दुधबोली के संरक्षक मथुरादत्त मठपाल.
(Mathura Dutt Mathpal)
16 अगस्त 2015 का दिन था. कोयम्बटूर के भारतीय विद्या भवन के सभागार में साहित्य अकादमी द्वारा भाषा सम्मान दिया जाना था. पहली बार कुमाऊनी के दो वरिष्ठ साहित्यकारों चारु चन्द्र पाण्डे और मथुरादत्त मठपाल को सम्मान के लिये चुना गया. पुरुस्कार के बाद मथुरादत्त मठपाल ने ‘द्वि आँखर- कुमाउनीक् बाबत’ शीर्षक से एक वक्तव्य दिया. जब उन्होंने अपने वक्तव्य का अंत पारम्परिक कुमाउनी आशीष देते हुए ‘‘जी रया, जागि रया, स्यूँ कस तराण हौ, स्यावै कसि बुद्धि हौ,’’ के साथ किया तो पूरा हॉल तालियों की गडगडाहट से गूंज उठा.
कुमाऊनी में दिए इस वक्तव्य में उन्होंने कुमाउनी-गढ़वाली में मातृभाषा के लिए ‘दुधबोली’ शब्द का प्रयोग किया. कुमांऊनी की विशेषताओं पर प्रकाश डाला और कुमाउंनी साहित्य के दो सौ साल की लिखित परंपरा की जानकारी दी. साहित्य अकादमी द्वारा इस वक्तव्य का हिन्दी और अंग्रेजी भाषा में अनुवाद भी जारी किया गया.
मथुरादत्त मठपाल कुमाऊनी और गढ़वाली के प्रचार प्रसार के लिये सदैव तत्पर रहते हैं. 80 वर्ष की उम्र में कमजोर स्वास्थ्य के बावजूद गढ़वाली और कुमाऊनी के विकास के लिये वह आज भी 20 साल के युवा समान ऊर्जावान रहते हैं. रामनगर से निकलने वाली उनकी ‘दुधबोली’ उनकी इसी ऊर्जा का एक उदाहरण है.
आज ही के दिन 1941 में अल्मोड़े के नौला गाँव में मथुरादत्त मठपाल का जन्म हुआ था. काफल ट्री की ओर से, हमारी संस्कृति के संरक्षक मथुरादत्त मठपाल को जन्मदिन पर अनेक शुभकामनाएं.
संदर्भ – नैनीताल समाचार
(Mathura Dutt Mathpal)
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