अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति के सन्त बाबा नीम करौली अथवा नीब करौरी के चमत्कारों के संबंध में प्रचुर साहित्य उपलब्ध है न कि हिन्दी में, अपितु सात समन्दर पार उनके भक्तों ने दूसरी भाषाओं में बहुत कुछ लिखा है. गूगल पर सर्च करते ही वीडियो और इमेजेज से लेकर उनके चमत्कारों के किस्से कहानियों के प्रसंग पटे पड़े हैं. लेकिन मैं आपको जिन प्रसंगों से रूबरू कराने का प्रयास कर रहा हॅू, वे सुनी-सुनाई नहीं, बल्कि खुद आंखों देखी घटनाऐं हैं. जिन पर आज तक किसी ने प्रकाश नहीं डाला होगा.दरअसल जिस कैंची धाम से बाबा नीमकरौली को अन्तर्राष्ट्रीय क्षितिज पर पहचान मिली, मेरी जन्मभूमि उस कैंची धाम की रही है. सन 1963-64 में बाबा जी के कैंची धाम से आगमन से लेकर 10 सितम्बर 1973 को उनके महाप्रयाण तक करीब से दर्शन का सौभाग्य मिला, जिसे जीवन की महत्वपूर्ण उपलब्धि ही मानूंगा. Making of Kainchi Dham Neem Karauri
हमारा घर वर्तमान कैंची धाम से रानीखेत-अल्मोड़ा मोटरमार्ग पर कोई आधे किमी की दूरी पर था, नथुनों पर आने वाली शुद्ध देशी घी की महक यह अहसास करा देने के लिए पर्याप्त थी कि बाबा नाम करौली महाराज कैंची आ चुके हैं. क्योंकि उनके आते ही शुद्ध देशी घी की पूड़ियों का भण्डारा शुरू हो जाता. नीम करौली महाराज जी अक्टूबर में कभी नवरात्रि तथा कभी दीपावली के बाद शीतकाल में अपने वृन्दावन आश्रम में चले जाते और मार्च-अप्रैल में कैंची लौट आते. प्रथम बार जब कैंची उनका आगमन हुआ तो मेरी उमर तकरीबन 8-9 साल की रही होगी, सुना कि नीम करौली नाम के कोई बाबा जी कैंची में आये हैं, तब वहां न कोई मन्दिर था और न बाबा जी के रहने के लिए आश्रम. रात्रि प्रवास में बाबा जी भूमियाधार अथवा नैनीताल हनुमानगढ़ी चले जाते. 8-9 साल की उमर का ग्रामीण लड़का, बाबाजी के प्रति भक्ति वाला भाव तो शायद नहीं था, लेकिन इस बात की खुशी रहती कि अब रोज आलू-पूड़ी का प्रसाद मिल जाया करेगा. ज्यादा से ज्यादा बालमन में बाबाओं से एक ही अपेक्षा रहती परीक्षा में पास कर दें. Making of Kainchi Dham Neem Karauri
वर्तमान में जहां कैंची धाम है, उसके ठीक सामने प्रेमी बाबा की कुटिया श्री जयदेव तिवारी के आवास पर हुआ करती. जैसा नाम वैसा स्वभाव. हर किसी को प्रेमी के संबोधन से बोलते शायद इसी कारण वे प्रेमी बाबा कहलाने लगे. प्रेमी बाबा बहुत ही मधुर बोलते और चरस के बहुत शौकीन थे. मेरे बड़े भाई मनोहर पन्त भी चरस पीने के शौकीन थे तो उनके साथ उनकी कुटिया में जाने का मौका यदा कदा अवसर मिल जाता. हम बच्चे उन्हें अपने हाथों चरस निकाल कर ले जाते और वे चरस के मूल्य के रूप में पैंसो के साथ कभी आम पापड़ तथा सूखे मेवा आदि देकर हमें खुश कर देते. इन्हीं प्रेमी बाबा के आश्रम के ठीक सामने शिप्रा नदी के उस पार झाड़ियों के बीच कभी सोमवारी महाराज की गुफा बतायी जाती थी. नीम करौली बाबा जब कैंची पधारे तो उन्होंने भक्तों से उसी गुफा पर ले जाने को कहा. नदी पार कर गुफा तक जाना आसान नहीं था. भक्तों (विशेष रूप से पूर्णानन्द तिवारी) ने जिस किसी प्रकार कंटीली झांड़ियां काटकर जाने का रास्ता बनाया और महाराज जी को वह गुफा दिखाई, जहां कभी सोमवारी महाराज की गुफा बतायी जाती थी. महाराज जी ने वहां पहुंचते ही ऐलान कर दिया कि यहां हनुमान का बहुत बड़ा मन्दिर बनेगा. महाराज की कहने भर की देर थी कि उसी समय से भक्तजन हुक्म की तामील करने में जुट गये. इसके लिए धन कहां से आयेगा कैसे इस वन भूमि को अधिगृहित किया जायेगा, यह भक्तों की जिम्मेदारी थी, महाराज जी की नहीं. जिनके घनश्याम दास बिरला जैसे उद्योगपति यदि भक्त हों और महामहिम राज्यपाल तथा मंत्रीगण और बड़े से बड़े प्रशासनिक अधिकारी जिनके चरणों में मस्तक नवाते हों, उनके लिए यह चुटकियों का काम था. तुरन्त ही मन्दिर निर्माण का काम शुरू हो गया, वर्तमान मन्दिर के ठीक सामने (जहां आज प्रसाद वितरण की छोठी सी गुमटी बनी है) एक बिना रैंलिंग वाला लकड़ी का 4-5 फीट चैड़ा पुल शिप्रा नदी पर बनाया गया, जो जयदेव तिवारी जी के खेतों से होता हुआ वर्तमान गेट पर जाकर सड़क पर मिलता था. Making of Kainchi Dham Neem Karauri
निर्माण का जिम्मा उनके शिष्य हरिदास बाबा जी की देखरेख में होता. हरिदास बाबा, जिनका पूरा नाम हरिदत्त कर्नाटक था. 26 मार्च 1923 को अल्मोड़ा में जन्मे बाबा हरिदास जी ने आरम्भिक कई वर्षों तक कैंची धाम के निर्माण कार्यों की देखरेख की. वे नित्य नैनीताल से आते और शाम को काम देखने के बाद नैनीताल अथवा भूमियाधार बस से ही लौट जाते. सदैव मौन धारण किये रहते तथा अपने सारे निर्देश व बातें स्लेट पर लिखकर ही बताते. लोग बताते थे कि प्रारम्भ में क्रोधी स्वभाव होने के कारण ही महाराज जी ने उनको मौन धारण करने का आदेश दिया था. बाद में वे अमेरिका चले गये वहां कई आध्यात्मिक संस्थानों की स्थापना के बाद 25 सितम्बर 2018 को 95 वर्ष की आयु में कैलिफोर्निया के शान्ताक्रूज में उन्होंने देह त्याग किया.
जितने समय भी महाराज जी कैंची धाम में रहते शुद्ध देशी घी की पूड़ी व आलू के गुटकों का प्रसाद दिन-रात बनते रहता. कभी सूजी व खीर भी प्रसाद रूप में वितरित होती तथा मंगलवार को भवाली से दयाल बेलवाल जी जलेबी अथवा बॅूदी लड्डू लेकर पहुंच जाते और प्रातःकाल के प्रसाद में यही वितरित होता. हमारी उमर भक्तिभाव की तो थी नहीं, सो प्रसाद पाने अक्सर पहुंच जाते. शुरू के वर्षों में जहां गुफा थी, वहीं पर भण्डारे की भट्टी लगती, ब्रह्मचारी बाबा इसमें मुख्य भूमिका निभाते. गांव के सारे लोग पूरी बेलने से लेकर लोई बनाने व प्रसाद वितरण में सहयोग करते. हम क्योंकि छोटे थे इसलिए लोई बनाना हमारे हिस्से में आता. तब बाजार की पत्तलों के बजाय, जंगल में उपलब्ध चौड़े पत्ते प्रसाद वितरण के लिए इस्तेमाल होते. कभी-कभी हम जंगलों से जंगली पिनालू के पत्ते भी इकट्ठे कर ले आते. सुबह सात बजे से देर रात्रि तक पूड़ी की चासनी चूल्हे पर चढ़ी रहती, दूसरी कढ़ाही में आलू उबलने रख दिये जाते, इतने बड़े बर्तनों में आलू उबालने के लिए ढक्कन के तौर पर बोरों का इस्तेमाल होता. जो भी श्रद्धालु आता भरपेट वहीं पर प्रसाद खिलाया जाता और साथ में घर के लिए भी प्रसाद ले जाते. लेकिन कभी सामग्री के अभाव में प्रसाद वितरण रूकता, ऐसा कभी भी नहीं हुआ. Making of Kainchi Dham Neem Karauri
सामग्री ट्रकों से आती, कौन भेज रहा है? पता नहीं. इसी तरह निर्माण सामग्री में जब ईंटें आती तो मानव श्रृंखला बनाकर बच्चे, बूढ़े जवान सब शामिल होकर चन्द मिनटों में सामग्री मन्दिर परिसर में पहुंच जाती. हल्के यामान का ढुलान मानव श्रृंखला बनाकर ही होता. इसमें भागीदारी करने का सौभाग्य कभी कभी हमें भी मिल जाता.
सन् 1964 के मार्च महीने की बात रही होगी, महाराज जी भक्तों के कन्धों पर दोनों हाथ टिकाकर मन्दिर से कोई आधा कि0मी0 दूर निकल पड़े और जोगी गधेरा के पास, रूक कर नदी के उस पार जाने की इच्छा जताई. हालांकि उनकी भारी-भरमकम देह के साथ वहां पहुंचाना आसान न था लेकिन उनकी बात को टालने का साहस भी किसी में नहीं होता. सो जैसे-तैसे कंटीली झाड़ियों को पार करते गधेरे (शिप्रा नदी) तक रास्ता बनाया गया. गधेरा पारकर झाड़ियों को चीरते हुए एक शिला पर जाकर महाराज जी बैठक गये. फिर क्या था सारे भक्त वहीं इक्ट्ठा होने लग गये, मन्दिर से प्रसाद बाल्टियों में भर-भरकर आने लगा और यहीं आने वाले भक्तों को वितरित होने लगा. मुझे अच्छी रह याद है कि इस बार स्वादिष्ट तस्मई (चावल की खीर) पत्तलों पर परोसकर दी गयी थी. महाराज जी ने कहा कि यहां पर हनुमान का मन्दिर बनेगा. वन विभाग की जमीन, जिसे उस समय हम मच्छीभाड़ के नाम से जानते थे? नाम कैसे पड़ा यह तो पता नहीं, लेकिन चारों ओर किलमोड़े, हिंसालू, तिमूर व घिंगारू की झाड़ियों से अटा पड़ा था यह क्षेत्र. झाड़ियों की टहनियों को एक हाथ से उठा-उठा कर ही आगे बढ़ पाना संभव होता. ऐसी जगह पर मन्दिर की बात सोचना एकदम अकल्पनीय सा था. हां आपको ये भी याद दिला दें, यह शिप्रा नदी के किनारे की वही लोकेशन थी, जहां कोई 6 साल पूर्व 1958 में दिलीप कुमार और वैजयन्ती माला अभिनीत फिल्म मधुमती का “आजा रे परदेशी, मैं तो कब से खड़ी इस पार’’ गाना फिल्माया गया था. किसी स्थान विशेष का भोग का समय होता है, यह उक्ति सत्य साबित हो रही थी.
खैर, कब विभाग से भूमि इस कार्य के लिए अधिगृहित की गयी और कब 70-80 नाली के भूखण्ड पर हनुमान मन्दिर बना, जैसे चुटकियों में हो गया. अब मन्दिर कमेटी की ओर से यहां भण्डारे के लिए सब्जी उत्पादन के साथ-साथ अच्छी नस्ल की गायें भी रखी गयी, जिनका दूध का इस्तेमाल मन्दिर में हो सके तथा इसी बहाने गौ सेवा भी साथ साथ हो जाय. मुझे अच्छी तरह याद है कि गायों की सेवा करने के लिए रामदास बाबा ने स्वयं को समर्पित कर दिया. ये उन राम दास की बात नहीं हो रही जो हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के प्रो0 रिचर्ड से रामदास बनकर महाराज के शिष्य बने, बल्कि उन रामदास की बात हो रही जो लोहाली के पास के किसी गांव के थे तथा उनका असल नाम मोती सिंह थां. भरे पूरे परिवार व सम्पन्न गृहस्थी को त्यागकर उन्होंने मन्दिर समिति को स्वयं को समर्पित कर दिया था. ऐसे ही एक और बाल ब्रह्मचारी कोई 14-15 वय के भी थे, जिनका नाम स्मरण नही हो पा रहा, शायद देवी था. वह भी इस कार्य में सहयोग करते. आज भी यहां होने वाली सब्जी मुख्य मन्दिर के भण्डारे में प्रयोग होती है. कैंची धाम आने वाले हर श्रद्धालु इस फार्म को देखने भी अक्सर आते हैं.
प्राईमरी पाठशाला तो कैंची गांव में ही थी, लेकिन आगे की पढ़ाई के लिए 8 किमी0 दूर भवाली जाना होता. सुबह 8 बजे से घर से निकले जब शाम 5 बजे हम भूखे प्यासे लौटते तो मन्दिर में प्रसाद पाने का लोभ संवरण नहीं कर पाते. जब सुबह का स्कूल होता तो 01 बजे तक हम मन्दिर में अपनी धमक दे देते और छककर प्रसाद पाते. महाराज जी कभी लकड़ी के पुल पर भक्तों के साथ बैठे मिलते तो कभी मन्दिर परिसर में उतीस के पेड़ के नीच शिलाखण्ड पर अथवा वर्तमान शिव मन्दिर के बाहर कंबल ओढे़. प्रणाम एक औपचारिक कर्म होता, मुख्य ध्यान तो प्रसाद की ओर रहता. दूर-दूर से आये भक्त फल- मिठाईयां लाते और महाराज जी कभी एक हाथ से सामने बैठे लोगों की ओर उछालते और कभी दोनों हाथों से उनकी ओर उलीच देते. जिसके हाथ पड़े वही खुशकिस्मत, कभी हाथ न लगने पर निराश भी लौटना पड़ता. अपने सहपाठियों में, मैं उम्र में भी कम था और कद में भी तो महाराज जी मुझे “नान् नान् पन्त’’ कहकर पुकारते. बच्चों के साथ बच्चों की सी विनोदप्रियता रहती उनकी. एक दिनकी बात है, हमारे स्कूल का बस्ता मांगकर वो देखने लगे. हमें तार के सहारे सड़क पर लोहे का पहिया चलाने का शौक था और वहीं पहिया बस्ते में रखा था. महाराज जी ने वह पहिया अपने सिर पर रखा और हॅसने लगे और कुछ देर के लिए विनोदपूर्ण माहौल बन गया. वे हमें राम भजन करने को तो नहीं कहते लेकिन एक कार्य हमें सौंपते कि कागज पर छोटे छोटे अक्षरों में राम-राम लिखों और फिर राम नाम लिखी इन कतरनों को आंटे की छोटी-छोटी गोलियों में मछलियों को खिलाओ. हम एक पेज पर 100 से अधिक राम नाम लिखकर उनकी कतरनें बनाते और वहीं भण्डारे से गुंथा आटा लेकर मन्दिर परिसर के बाहर बहती शिप्रा नदी की मछलियों को खिलाते. खिलाने का पुण्य भी और ऊपर से मनोरंजन भी.
बड़े भाई मनोहर पन्त, शुरूआती 5-7 वर्षों तक मन्दिर के पुजारी का काम भी देखते थे, इस कारण उनके कई किस्से-कहानियों से भी रू-बरू होने का मौका मिलता रहता. एक बार महाराज जी भक्तों के साथ टहलते हुए हमारे घर के पास तक आ गये. गर्मियों के दिन थे, दोपहर 1-2 बजे का समय रहा होगा. हमारा घर सड़क से कोई 10-15 मीटर नीचे था, सड़क से ही महाराज जी ने आवाज दी – “पन्त की मां!’’ ईजा ने बाहर जाकर देखा तो महाराज जी बोले – “मुझे खाना नहीं खिलाओगी?’’ सभी उनकी इस अद्भुत लीला से एक दूसरे का मुंह ताकने लगे. घर में शायद कुछ सब्जी भी उपलब्ध नहीं थी. आनन-फानन में खेत में जाकर ऊगल की सब्जी (हरी सब्जी की एक किस्म) तोड़ लायी और जल्दी जल्दी रोटी सब्जी लेकर सड़क पर ही उन्हें परोसा, तो उन्होंने रोटी के ऊपर ही सब्जी रखकर खा लिया और अपने अलौकिक स्नेह का परिचय देकर मंत्रमुग्ध कर दिया. वैसे सामान्यतः महाराज जी चने की रोटी ही खाया करते थे.
विनोद जोशी महाराज जी के उन भक्तों में थे, जो एम.एस.सी करने के बाद महाराज के शरणागत क्या हुए सदैव वहीं के होकर रह गये. तब वे चाहते तो अच्छा-खासा अपना करियर बनाते लेकिन उन्हें महाराज की भक्ति में जो आनन्द आया वह शायद अन्यत्र नहीं. आज मंदिर समिति का पूरा प्रबन्धन उन्हीं के सुयोग्य निर्देशन में संचालित होता है.
महाराज जी भक्तों के नाम भी अपनी ओर से विचित्र से रख देते. सिद्धि मां, जीवन्ती मां तथा मौनी मां के अतिरिक्त नैनीताल एक बौनी कद की मां आती, उनका नाम रख दिया था – ‘छटंगी माई’. उनके साथ हमेशा परछाई की तरह रहने वाले एक भक्त थे – हब्बा, यह नाम भी उनको संभवतः महाराज जी ने ही दिया था. महाराज जी इसी नाम से उनको पुकारते, इसलिए उनके असल नाम की जानकारी आम लोगों को नहीं थी.
सिद्धि मां, धाम की वरिष्ठतम मां थी तथा यह भी माना जाता है कि महाराज ने समाधि लेने से पूर्व उनमें ही अपनी सारी सिद्धियां समाहित कर दी थी. उनका तो यह दृढ़ मत था कि देहत्याग के बाद भी महाराज इसी आश्रम में विद्यमान रहते हैं. वर्ष 2018 में सिद्धि मां के समाधिस्थ होने पर उनकी स्मृति स्वरूप सिद्धि मां का मन्दिर इसी परिसर में स्थापित किया गया है.
10 सितम्बर 1973 को हम हमेशा की तरह स्कूल गये थे, भवाली से घर लौटने पर किसी ने बताया कि नीमकरौली महाराज ने वृन्दावन में देहत्याग कर दिया है. बहुत अचंभित करने वाली घटना थी, सोचा भी नहीं था कि महाराज जी भी कभी देहत्याग करेंगे. घर पहुंचकर यह समाचार जब परिजनों को दिया तो सभी बेहद दुखी होकर रोने लगे. लेकिन महाराज जी को शायद अपने शरीर के अन्त का आभास पहले ही हो चुका था. लोग बताते थे कि इस बार जब वे वृन्दावन को कैंची घाम से रवाना हुए तो अपना कंबल यहीं फेंकने लगे, बाद में भक्तों ने जबरन उन्हें कंबल ओढ़वाया. सदैव जीप से सफर करने वाले महाराज जी ने इस बार ट्रेन को सफर के लिए चुना, यह रहस्य बना रहा.
– भुवन चन्द्र पन्त
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भवाली में रहने वाले भुवन चन्द्र पन्त ने वर्ष 2014 तक नैनीताल के भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय में 34 वर्षों तक सेवा दी है. आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से उनकी कवितायें प्रसारित हो चुकी हैं
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यह तो अद्भुत जानकारियों से भरा लेख है एवं संग्रहणीय है। बहुत अभिनंदन इतने रोचक लेखक को प्रकाश में लाने के लिए।
मेरा एक प्रश्न है, यह बाबा का नाम नीम करौली क्यों है? मैंने मन्दिर द्वार पर नीब करौली लिखा देखा था। तो यह नीब है कि नीम?