जब हम छोटी कक्षाओं के छात्र हुआ करते और बड़े भाई जो घर के मुखिया भी थे, पुरोहिती का कार्य करते थे. उस दौर में दशहरा द्वार पत्र मुद्रित रूप में नहीं हुआ करते थे, अगर होते भी होंगे तो बड़े महानगरों तक, जब कि गांव कस्बे में पुरोहिती का कार्य करने वाले घर पर ही रंग-बिरंगे दशहरा द्वार पत्र तैयार करते थे और त्योहार से पूर्व अपने अपने यजमानों तक पहुंचाते.
(Making of Dussehra Dwar Patra)
गंगा दशहरा मनाने के पीछे गंगा अवतरण की पृष्ठभूमि तथा इस अवसर पर गंगा स्नान तथा दानादि के महत्व से परे हम बच्चों के लिए मात्र वह दशहरा होता था, आगे का गंगा शब्द तथा पीछे का द्वार पत्र शब्द नदारद थे और न उनसे कोई हमारा मतलब रहता. हमारे लिए दशहरा का मतलब होता था- बहुरंगी दशहरे का कागज. इस मौके की महीनों से प्रतीक्षा रहती. घर के सयाने लोग जब दूसरे कामों में व्यस्त रहते तो उनके न चाहते हुए भी हम जबरन हाथ बंटाने का प्रयास करते और जब कई बार के अभ्यास के बाद हाथ सध जाता तो यह काम हम बच्चों पर ही छोड़ दिया जाता.
जेठ की भरी दुपहिरयों में किसी छायादार खुमानी या पुलम के पेड़ की छांव में बैठकर इत्मीनान से यह काम होता, बाहर हवा तेज होने पर कागज उड़ने की परेशानी के चलते कभी घर के अन्दर ही यह सब करना पड़ता. गर्मियों में सुबह का स्कूल होता और ग्यारह बजे स्कूल से छुट्टी होते ही हम घर की ओर दौड़ पड़ते. हालांकि यह मौसम स्कूल से घर के रास्ते में पड़ने वाले सुर्खलाल रसीले काफल खाने का भी होता, लेकिन दशहरे बनाने की ललक हमें घर की ओर बरबस खींच लाती.
(Making of Dussehra Dwar Patra)
बाजार से सफेद कागज की सीट, जिन्हें तब हम ’ताव’ बोलते, दस्तों की ईकाई में खरीदी जाती, जिसके एक दस्ते में 12 सीट होती थी. प्रत्येक सीट को चार बराबर हिस्सों में चाकू अथवा ब्लेड की मदद से काटकर एक सीट से चार दशहरे के पत्र बनते, जब कि कुछ विशिष्ट लोगों, जिनके घर बड़े होते, पूरी सीट पर ही एक दशहरा बनता. बड़ी सीट को काटने के बाद छोटी कटी सीट के दोनों सिरों को आपस में मिलाकर केन्द्र तलाशा जाता है, और यहीं से दशहरा तैयार करने की प्रक्रिया शुरू होती.
स्कूल के ज्यामितीय बॉक्स में ’कम्पास’ जिसे तब हम अज्ञानतावश ’प्रकार’ ही बोलेते थे, के एक सिरे पर पैंसिल कसकर पोइन्टर के नुकीले हिस्से को पेपर के बीचों-बीच रखा जाता और पहला बड़ा गोला कागज के आकार के हिसाब से जितना बड़ा संभव हो, खींचा जाता. उसी गोले के अन्दर दूसरा गोला इतनी चैड़ा खींचा जाता, जिसमें दशहरे का मंत्र लिखा जा सके. इसके बाद शुरू होता दशहरे में कम्पास की सहायता से विभिन्न ज्यामितीय आकारों को रूप देना, जिसमें पत्तियों का आकार तथा कम्पास की सहायता से विभिन्न आकार उकेरे जाते.
दशहरे को आकर्षक बनाने के लिए ज्यामितीय आकारों की बनावट उतनी ही महत्वपूर्ण होती, जितना चटक रंगों का सामंजस्य. कुछ दशहरा पत्रों में ज्यामितीय आलेखन के स्थान पर केन्द्र में भगवान शिव, गणेश तथा हनुमान के चित्र भी बनाये जाते, जो हम बच्चों के बूते की बात नहीं थी. लेकिन थोड़ी बड़ी कक्षाओं में पहुंचने पर हम इसमें भी हाथ आजमाने लगते. ज्यामितीय आलेखन के रेखाचित्र पूर्ण होने पर बारी आती विविध रंगों से दशहरा पत्र को सजाने की.
(Making of Dussehra Dwar Patra)
दशहरा पत्रों में रंग भरना सबसे सुखद अनुभव होता. हमने प्राकृतिक रूप से तैयार रंगों का इस्तेमाल तो नहीं किया बाजार से खरीदे रंग ही अलग-अलग कटोरों में तैयार कर ब्रश की सहायता से विभिन्न रंगों से बनी आकृतियों में भरा जाता. मुख्य रूप से लाल, हरा व पीला रंग का ही इस्तेमाल किया जाता, जब कि कभी कभी नीले रंग का भी प्रयोग कर लिया जाता. रंगों के संयोजन का ज्ञान न होने से कभी लाल के पास की आकृति में हरा रंग भर दिया जाता, जो कि आँखों को चुभने लगता. फिर दूसरे पत्र में इस गलती की आवृति नहीं करते, इस प्रकार कौन रंग किसका पूरक और विरोधी है, इसका व्यवहारिक ज्ञान हमें दशहरा पत्रों को रंगने में ही मिला करता.
सभी भाई-बहन मिल-जुलकर अलग-अलग रंग का इस्तेमाल करते, लेकिन लाल रंग मुझे मिले यह हरेक की चाहत होती. दशहरा पत्र में भरा गया एक रंग सूख जाने पर ही दूसरे रंग का प्रयोग किया जाता. इसके लिए पूरे कमरे में दशहरा पत्र फैलाकर सुखाये जाते. एक रंग दूसरे रंग पर फैले नहीं, इसका पूरा ध्यान रखा जाता. पेपर की एक हिस्सा चिकना होता, जब कि दूसरी तरह का हिस्सा थोड़ा खुरदरा. खुरदरे हिस्से में रंग फैलने का डर रहता तथा चमक भी वो नहीं आ पाती, इसलिए सामने की चिकनी ओर ही दशहरा बनाया जाता.
सभी रंग भर जाने और सूख जाने पर बारी आती दशहरे के बाहरी वृत में द्वार पत्र के लिए मंत्र लिखने की, जो हमारे ज्ञान के हिसाब से तब थोड़ा क्लिष्ट होता. मंत्र इस प्रकार है- अगस्त्यश्च पुलस्त्यश्च वैशम्पायन एव च, जैमिनिश्च सुमन्तुश्च पंचैते वज्र वारकाः. मुने कल्याण मित्रस्य जैमिनेश्चानु कीर्तनात, विद्युदग्निभयं नास्ति लिखिते च गृहोदरे. यत्रानुपायी भगवान हृदयास्ते हरीरीश्वरः,भंगो भवति वज्रस्य तत्र शूलस्य का कथा.
(Making of Dussehra Dwar Patra)
मंत्र की क्लिष्टता के साथ इस बात की सावधानी रखनी भी जरूरी होती कि मंत्र इस गोले में पूरी तरह आ जाय तथा खाली स्थान भी न छूटे. लेकिन ज्यों- ज्यों हम बड़ी कक्षाओं में पहुंचे न केवल इसे लिखने में सिद्धहस्त हो गये, अपितु पूरा मंत्र बिना अशुद्धि के सही सही लिखने लगे थे और वह कण्ठस्थ हो गया.
हमारे इस शौक ने हमारी कलात्मक कौशल को तो विकसित किया ही, परिवार के काम में भी हाथ बंटाया. लेकिन आज मुद्रित दशहरा द्वार पत्रों के चलन से बाजारवाद ने हमारी इस परम्परा को सदा के लिए हमसे छीन लिया. यजमान को भी पुरोहित द्वारा घर पर बनाये गये तथा अपने हाथ से लिखे गये दशहरा पत्रों से जो तसल्ली मिलती होगी, आज मुद्रित दशहरा द्वारपत्रों में वह बात नहीं रही.
(Making of Dussehra Dwar Patra)
भुवन चन्द्र पन्त
भवाली में रहने वाले भुवन चन्द्र पन्त ने वर्ष 2014 तक नैनीताल के भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय में 34 वर्षों तक सेवा दी है. आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से उनकी कवितायें प्रसारित हो चुकी हैं.
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