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दुर्दशा का शिकार महादेवी वर्मा सृजन पीठ

मेरे पास अनेक संदेश आ रहे हैं कि क्या महादेवी वर्मा सृजन पीठ बंद हो गयी है? उसे किसने बंद किया और क्यों किया? क्या यह एक सरकारी संस्था थी? क्या इसका कोई स्वायत्त ढांचा था? मेरा इस संस्था के साथ क्या संबंध है? अधिकांश लोग इसे मेरी संस्था के रूप में जानते हैं, इसलिए बार-बार मुझसे कहा जाता है कि इसे मैं क्यों नहीं ठीक करता?

इतनी अधिक बार मैं इस संदर्भ में लिख चुका हूँ कि सवालों को सुनकर मुझमें खुद ही अपराध बोध महसूस होने लगा है. हिन्दी की अनेक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में इस बारे में विस्तार से प्रकाशित हुआ है. ‘जनसत्ता’- संपादक ओम थानवी जी ने विस्तार से इसे लेकर चल रहे षड्यंत्र पर ‘रविवारी’ में कवर-स्टोरी छापी; ‘समयान्तर’ के संपादक पंकज बिष्ट जी ने पूरे शोध के साथ सारे तथ्य प्रस्तुत किए; कोलकाता से प्रकाशित मासिक पत्रिका ‘लहक’ के संपादक निर्भय देवयांश ने अनेक अंकों में न केवल सारे षड़यंत्र का खुलासा किया, उत्तराखंड शासन के पूर्व-विधान सभाध्यक्ष श्री गोविंद सिंह कुंजवाल का लंबा साक्षात्कार प्रकाशित किया. स्थानीय पत्रिकाओं में तो समाचार छपते रहे हैं, मगर निहित स्वार्थी लोग निर्भीक माफिया की तरह अपना उल्लू सीधा करते रहे. अब तो मैं इतना थक चुका हूँ कि मुझे नहीं लगता, मैं सारी घटनाओं को विस्तार से बता पाऊँगा. फिर भी कोशिश करता हूँ.

1994 में इलाहाबाद विवि के मेरे सहपाठी स्वर्गीय रामजी पाण्डेय, जो महादेवी वर्मा की ट्रस्ट ‘साहित्य सहकार न्यास’ के सचिव थे, ने मुझसे कहा कि नैनीताल से 25 किलोमीटर दूर रामगढ़ में उनकी काफी जमीन और भवन हैं, जो देखरेख के बिना लावारिश पड़ी है और कई शरारती तत्व उस पर कब्जा जमा रहे हैं. रामजी ने मुझसे कहा कि वो चाहते हैं कि उस संपत्ति का उपयोग लेखकों-कलाकारों के हित में हो. रामजी ने मुझे दायित्व सौंपा कि स्थानीय व्यक्ति होने के नाते मैं इसमें पहल करूँ. मुझे भी लगा कि अगर मैं इस संदर्भ में कुछ कर सका तो महादेवी जी के प्रति यही मेरी सच्ची श्रद्धांजलि होगी. मैंने इसमें इसलिए भी रुचि ली कि न्यास के अध्यक्ष हिन्दी के उपन्यास-सम्राट मुंशी प्रेमचंद के बड़े बेटे अमृत राय थे और सलाहकार मंडल में मेरे शोध निदेशक प्रोफेसर रामस्वरूप चतुर्वेदी थे. बिना किसी तरह के सवाल किए मैं राजी हो गया.

नैनीताल लौटने के बाद रामगढ़ गया तो स्थिति देखकर सन्न रह गया. महादेवी जी के घर पर राम सिंह नामक एक व्यक्ति ने कब्जा किया हुआ था जो कहता था कि महादेवी जी इस घर को उसे दे गयी हैं. वह अपने बचपन में उनका घरेलू नौकर रहा था; उसके अनुसार महादेवी जी ने कभी उससे कहा था कि जब तक वो जीवित हैं, इस घर का उपयोग वो करती रहेंगी, उनके बाद यह घर उसी का हो जाएगा. उसने यह भी बताया कि रामजी पाण्डेय ने उसकी चौकीदारी सौंपी है और वो गर्मियों की छुट्टियाँ बिताने हर साल एक माह सपरिवार यहाँ बिताते हैं; बाकी वक़्त वही घर और उनके बगीचों की देखरेख करता है. रामसिंह ने कहा कि वह किसी भी हालत में मकान खाली नहीं करेगा; उसकी बूढ़ी माँ तो मुझे दूर से देखकर ही चिल्लाने लगी थी कि जो भी मकान के परिसर में घुसेगा, वो इसी दराती से उसकी गरदन अलग कर देगी. एक बार तो मुझे लगा कि इस चक्कर में मुझे नहीं पड़ना चाहिए, दूसरे ही पल आँखों के आगे महादेवी जी का चेहरा मंडराने लगा और मुझे लगा, महादेवी जी की साहित्यिक परंपरा का हिस्सा होने के नाते मुझे पीछे नहीं हटना चाहिए.

मुझे अनेक तरह से डराया गया, गाँव के असामाजिक तत्व घर में पहरा देने लगे और चारों ओर खौफ का माहौल पौदा किया जाने लगा. उन्हीं दिनों कथाकार काशीनाथ सिंह नैनीताल आए और उन्होंने बताया कि उनके साले साहब मानवेंद्रबहादुर सिंह नैनीताल के जिलाधिकारी हैं, जिनकी मदद मैं ले सकता हूँ. उनसे अपनी परेशानी कही तो उन्होंने तत्काल जिलाधिकारी की अध्यक्षता में एक समिति बनाने का सुझाव दिया जिसका मैं सचिव रहूँ और उपाध्यक्ष उप-जिलाधिकारी तथा सदस्य के रूप में उमागढ़ के ग्राम प्रधान को शामिल करूँ. सारे मामले की तह में घुसने पर पता चला कि मामला इतना आसान नहीं था. रामजी पांडे मेरा इस्तेमाल घर और जमीन पर कब्जा हटाने के लिए कर रहा था, ग्राम प्रधान का मुकदमा महादेवी जी के जीतेजी उनके खिलाफ चल रहा था और उसने अनेक बार महादेवी जी को कोर्ट में बुलाया था. उसे उम्मीद थी कि उनकी मृत्यु के बाद सारी संपत्ति उसकी हो जाएगी. अब चूंकि मामला जिला प्रशासन के अधीन था, इसलिए सब लोगों के समीकरण बदले, कोई और रास्ता तलाशने लगे. रामजी पाण्डेय के सुझाव के अनुसार ही मैंने समिति का नाम ‘महादेवी साहित्य संग्रहालय’ रखा था, उसने साहित्य सहकार न्यास के सचिव के रूप में जिलाधिकारी को लिखा, वे महादेवी जी के घर को महिलाओं के सिलाई-बुनाई केंद्र के रूप में स्थापित करना चाहता है. ग्राम प्रधान ने सुझाव दिया कि उस घर को महादेवी-मंदिर के रूप में बनाया जाय जहाँ उनकी मूर्ति स्थापित कर वहाँ पूजा-अर्चना की सुविधा दी जाए. लक्ष्मीदत्त जोशी नामक ग्राम प्रधान ने तत्काल सुझाव दिया कि बटरोही जी तो मंदिर की साफ-सफाई और पूजा पाठ के लिए रोज-रोज नैनीताल से आ नहीं सकेंगे, यह काम वो खुद ही रोज-रोज ‘महादेवी मंदिर’ जाकर कर लेंगे.

मैंने दोनों ही विकल्पों को नकारते हुए उसे उत्तराखंड की कला-प्रतिभाओं के प्रेरक संस्थान के रूप में विकसित करने का विकल्प दोहराया. ग्राम प्रधान ने मेरे खिलाफ अभियान छेड़ा कि मैं महादेवी की संपत्ति पर कब्जा कर रहा हूँ, ग्राम-वासियों द्वारा अनेक प्रतिवेदन भिजवाए, मगर जिलाधिकारी ने यह कहकर उन्हें खारिज कर दिया कि जिलाधिकारी के अध्यक्ष रहते कोई कैसे किसी संपत्ति पर कब्जा कर सकता है? ग्राम प्रधान लगातार मुझ पर मुकदमा कर रहा था, आरंभ में मैं अपनी जेब से पैसे खर्च कर रहा था, मगर यह लगातार संभव नहीं था. संयोग से समिति के ही एक सदस्य एडवोकेट गोविंद सिंह बिष्ट ने हमारे मामलों की निःशुल्क पैरवी की और दिक्कतें कम हुई हालांकि तनाव तो लगातार बना रहा.

इसी बीच 26 अप्रेल 1996 को प्रसिद्ध कथाकार निर्मल वर्मा और कवि अशोक वाजपेयी ने संस्था का उदघाटन भी कर दिया. जिलाधिकारी ने संस्था के रख-रखाव के लिए पचास हजार की राशि प्रदान की, तत्कालीन मानव संसाधन मंत्री ने भी थोड़ी सी मदद की, संस्था चल पड़ी.

इस बीच एक बड़ी घटना हुई; उत्तराखंड के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री एनडी तिवारी ने संस्था को डेढ़ करोड़ रुपए का अनुदान स्वीकार किया, इस शर्त के साथ कि यह पैसा रिजर्व बैंक में फिक्स डिपॉजिट के रूप में जमा रहेगा और इसके ब्याज से संस्था चलेगी. चूंकि यह राशि किसी समिति को नहीं दी जा सकती थी, मैं उन दिनों कुमाऊँ विश्वविद्यालय में कला संकाय में डीन था, यह राशि कुमाऊँ विवि के कुलपति को सौंपी गयी, जिसका रख-रखाव विवि का वित्त अधिकारी करता था.

संस्था के सुविधापूर्ण संचालन के लिए इतना काफी था; इसलिए इस बीच कई महत्वपूर्ण कार्यक्रम आयोजित किए गए. संस्था के परामर्श-मण्डल में प्रो नामवर सिंह, निर्मल वर्मा, अशोक वाजपेयी, मनोहरश्याम जोशी, शैलेश मटियानी, अमृत राय, केदारनाथ सिंह, मृणाल पांडे, वीरेन डंगवाल आदि अनेक ख्यातिप्राप्त रचनाकारों को शामिल किया गया. एक कार्य परिषद बनाई गयी, जिसमें केदारनाथ सिंह, पंकज बिष्ट, दयानन्द अनंत, गीता गैरोला, मंगलेश डबराल, हरिसुमन बिष्ट शामिल किए गए. देश-प्रदेश की अनेक महत्वपूर्ण साहित्यिक संस्थाओं – संगमन, महिला समाख्या, साहित्य अकादेमी, उत्तराखंड संस्कृति विभाग, महात्मा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय आदि के साथ मिलकर दर्जनों यादगार कार्यक्रम आयोजित किए गए. भारत की प्रायः सभी प्रमुख भाषाओं के प्रमुख रचनाकारों ने विभिन्न कार्यक्रमों में हिस्सा लिया. प्रो एम शेषन (तमिल),प्रो पी मणिक्यम्बा और प्रो के लीलावती (तेलुगू), प्रो रंजना अरगड़े, डॉ नाना डेलीवाला (गुजराती), प्रो सुमंगला मुमिगट्टी (कन्नड), डॉ शशिबाला महापात्र और डॉ दशरथी भूइयां (ओडिया) के अलावा हिन्दी तथा उसकी उप-भाषाओं के सैकड़ों ख्यातिप्राप्त लेखकों, कलाविदों ने हिस्सा लिया. इस बीच विदेशों – खासकर यूरोप में हिन्दी पढ़ने वाले अनेक विद्यार्थी पीठ में पधारे; महात्मा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय ने अपने विदेशी छात्रों के ग्रीष्मकालीन शिविर के रूप में एसे संचालित करने का प्रस्ताव पारित किया; इस संबंध में एम ओ यू पर हस्ताक्षर होने ही वाले थे कि एक कुलपति ने मेरी जगह बिना किसी पूर्व सूचना के अल्मोड़ा परिसर मे हिन्दी के प्राध्यापक डॉ देव सिंह पोखरिया, रजिस्ट्रार, वित्त अधिकारी के साथ वर्धा जाकर एम ओ यू कर लिया और बिना मरा चार्ज दिये मुझे मुख्त कर दिया. मैंने कितनी ही बार इस मनमानी के खिलाफ आवाज उठाई, मगर कोई सुवाई नहीं हुई. सरकार का पैसा एक लाख प्रतिमाह मनमाने ढंग से खर्च किया जाता रहा.

यह तो स्थानीय राजनीति थी, हिन्दी के अनेक ख्यातिप्राप्त और चर्चित लेखकों ने भी महादेवी की संपत्ति पर कब्जा करने की कोशिश की हालांकि अधिकांश ने मुझ पर ही आरोप लगाया कि मैंने उस संपत्ति पर कब्जा किया है. दूधनाथ सिंह ने तो महादेवी पर लिखी अपनी किताब में साफ लिखा है कि मैंने महादेवी की रामगढ़ संपत्ति को हड़प रखा है.

मुझे पीठ से हटाए पाँच-छह वर्ष गुजर गए हैं, मेरे किसी पत्र का उत्तर विश्वविद्यालय ने नहीं दिया. अब तो यह पीठ महादेवी के जन्मदिन पर भी कोई आयोजन नहीं करती; फिर भी सरकार की अनुदान राशि आज भी खर्च हो ही रही है. केवल पंकज बिष्ट जी ने विवि और शासन के सामने सवाल उठाए हैं.

इतने विशाल हिन्दी समाज के बीच कोई ऐसा साहित्य प्रेमी भी नहीं है जो विवि में एक जनहित याचिका ही दायर कर दे. हिन्दी समाज अंततः एक आत्ममुग्ध समाज ही तो है. यह मेरा अंतिम हस्तक्षेप है, आंखिर मैं ही कब तक भौंकता रहूँ!

यह लेख लक्ष्मण सिंह बिष्ट ‘बटरोही’ की फेसबुक वाल से लिया गया है.

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– काफल ट्री डेस्क

फ़ोटो: मृगेश पाण्डे

 

लक्ष्मण सिह बिष्ट ‘बटरोही‘ हिन्दी के जाने-माने उपन्यासकार-कहानीकार हैं. कुमाऊँ विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रह चुके बटरोही रामगढ़ स्थित महादेवी वर्मा सृजन पीठ के संस्थापक और भूतपूर्व निदेशक हैं. उनकी मुख्य कृतियों में ‘थोकदार किसी की नहीं सुनता’ ‘सड़क का भूगोल, ‘अनाथ मुहल्ले के ठुल दा’ और ‘महर ठाकुरों का गांव’ शामिल हैं. काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.

बंपुलिस… द एंग्लो इंडियन पौटी – बटरोही की कहानी

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