समाज

पहाड़ की कृषि आर्थिकी को संवार सकता है मडुआ

उत्तराखण्ड में पृथक राज्य की मांग के लिए जब व्यापक जन-आंदोलन चल रहा था तब उस समय यह नारा सर्वाधिक चर्चित रहा था – ’मडुआ बाड़ी खायंगे उत्तराखण्ड राज्य बनायेंगे’. स्थानीय लोगों के अथक संघर्ष व शहादत से अलग पर्वतीय राज्य तो हासिल हुआ परन्तु विडम्बना यह रही कि राज्य बनने के बाद यहां के गांवों में न तो पहले की तरह मडुआ-बाड़ी खाने वाले युवाओं की तादात बची रही और नहीं मडुआ की बालियों से लहलहाते सीढ़ीदार खेतों के आम दृश्य.
(Madua Finger Millet of Uttarakhand)

राज्य बन जाने के बाद खेती-बाड़ी और पशुपालन से जुड़े ग्रामीण युवाओं के रोजगार की तलाश में मैदानी इलाकों के शहरों व महानगरों की ओर रुख करने से यहां मडुआ जैसी कई परम्परागत फसलें हाशिये की ओर चली गयीं. मडुआ की घटती खेती को कृषि विभाग के आंकडे़ भी तस्दीक करते हैं.

उत्तराखण्ड में वर्ष 2004-2005 के दौरान 131003 हेक्टेयर में मडुआ की खेती होती थी जो 2016-2017 में आते-आते 107175 हेक्टेयर में सिमट गयी. इस अन्तराल में इसके उत्पादन में भी तकरीबन 6.0 प्रतिशत की कमी देखने को मिली. एक समय ऐसा भी था जब पहाड़ की परम्परागत मिश्रित खेती में मडुआ की महत्वपूर्ण भूमिका रहती थी.

मिश्रित खेती की यह प्रणाली बारहनाजा नाम से भी जानी जाती थी. इसमें प्रमुख तौर पर मडुआ, चैलाई, झंगोरा, मक्का, ओगल, राजमा, गहत, भट्ट, तोर रैंस ,तिल, जखिया, भांग, भंगीरा जैसी फसलों को शामिल किया जाता था. बारहनाजा खेती को जहां फसल सुरक्षा और उसमें मौजूद पोषक तत्वों के लिहाज से महत्वपूर्ण माना जाता था वहीं इसके विविध फसल अवशेष पशु चारे के लिए बेहद उपयोगी रहते थे. जमीन की उर्वराशक्ति को समृद्ध रखने में भी बारहनाजा खेती का बडा़ योगदान रहता था.

उत्तराखण्ड में मडुआ की खेती का इतिहास गेंहू की खेती से भी पुराना माना जाता है. मडुआ का वानस्पतिक नाम एल्युसिन कोरेकाना है जिसे भारत में रागी नाम से जाना जाता है. पहाड़ में मडुआ की तीस से अधिक स्थानीय प्रजातियां मिलती हैं. मडुआ खरीफ की मुख्य फसल है और असिंचित भूमि में आसानी से न्यूनतम लागत में पैदा हो जाती है. इसके पौधों में सूखा सहन करने की अद्भुत क्षमता मौजूद रहती है. यही नहीं इसकी गहरी जड़ें मिट्टी को कसकर जकड़े रहती हैं जिससे भू-क्षरण की प्रक्रिया काफी हद तक नियंत्रण में रहती है.
(Madua Finger Millet of Uttarakhand)

पर्वतीय जलवायु, मिट्टी के गुण व जैविक खादों की वजह से पहाड़ का मडुवा स्वाद व पौष्टिकता दोनों में लाजबाब माना जाता है. वैज्ञानिक विश्लेषणों से सिद्ध हुआ है कि मडुआ में कैल्शियम, फास्फोरस, आयरन, विटामिन ए, कैरोटिन की मात्रा प्रचुरता से रहती है. इसके अतिरिक्त इसमें दूसरे महत्वपूर्ण पोषक तत्व भी पाये जाते हैं. इसी विशेषता के कारण परम्परागत पहाड़ी खान-पान में मडुआ के आटे से बने भोज्य-पदार्थों का बखूबी से उपयोग होता रहा है.

मडुआ के आटे का मुख्य उपयोग रोटी बनाने में होता है जिसे साबुत तौर पर अथवा गेहूं के आटे के साथ मिलाकर बनाया जाता है. घी, गुड़, छांछ अथवा हरी सब्जियों के साथ खाने से इसकी रोटियों का स्वाद और बढ़ जाता है. मडुआ के आटे से सीड़े, डिंडके, पल्यो और लेटुवा जैसे कई पारम्परिक व्यंजन भी बनते हैं. प्रसूता महिलाओं और छोटे बच्चों में दूध की कमी दूर करने के लिए इसके आटे की बाड़ी (तरल हलवा) का उपयोग खास तौर पर किया जाता है. उत्तराखण्ड के कुछ सीमान्त इलाकों में सामाजिक-सांस्कृतिक परम्परा के निर्वहन के तौर पर मडुआ के दानों से स्वादिष्ट ‘सूर’ यानि शुद्ध शराब भी बनायी जाती है. ग्रामीण लोग पालतू मवेशियों, विशेषकर कमजोर अथवा बीमार भैंसों को इसके आटे का घोल पकाकर खिलाते हैं.
(Madua Finger Millet of Uttarakhand)

मडुआ में मौजूद पोषक तत्वों की अधिकता को देखते हुए विगत कुछ सालों से देश-विदेश से पहाड़ी जैविक मडुआ की मांग निरन्तर बढ़ रही है. भारत में खाद्य सामग्री का उत्पाद करने वाली कई नामी कम्पनियां रागी ओट्स, नूडल्स, पास्ता ,बिस्किट्स फ्लैक्स, चाकोज सहित रागी डोसा ,रवा-इडली मिक्स सहित बच्चों के लिए कई तरह के स्नैक्स बाजार में बेच रही हैं. भारत से विश्व के अनेक देशों जैसे जापान, आस्ट्रेलिया, यूएसए, नार्वे, कनाडा, यूके व ओमान, कुवैत को भी मडुआ निर्यात किया जाता है.

भारतीय बाजार में जहां मडुआ की कीमत औसतन 40 से 50 प्रति किलोग्राम है वहीं यूएसए में इसकी कीमत प्रति किलोग्राम 650 से 700 तक आंकी गयी है. भारत में कर्नाटक व महाराष्ट्र के बाद उत्तराखण्ड में सबसे अधिक मडुआ पैदा होता है. राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय पर इसकी जबरदस्त मांग को देखते हुए उत्तराखण्ड सरकार राज्य में मडुआ की खेती को बढ़ावा देने का प्रयास कर रही है. इस सन्दर्भ में क्लस्टर आधारित कृषि उत्पादन योजना लागू होने से स्थानीय काश्तकारों की आमदानी बढ़ने की उम्मीदें दिखायी देने लगी हैं.
(Madua Finger Millet of Uttarakhand)

मडुआ को रोजगार से जोड़ने की दिशा में उत्तराखण्ड के कई स्थानों पर इससे बनने वाले विविध खाद्य उत्पादों को स्थानीय बाजार में लाने की शानदार कोशिशें व्यक्तिगत स्तर पर भी हो रही हैं. इसके तहत यहां के महिला समूह, संस्थाओं व बेरोजगार युवकों द्वारा मडुआ की बरफी, सोनपापड़ी, मोमो, स्प्रिंगरोल, केक, ब्रेड, बिस्किट्स, नमकीन तथा अन्य उत्पादों को बनाने के अभिनव प्रयोग भी किये जा रहे हैं जिनमें काफी हद तक सफलता भी मिल रही है. पौष्टिकता व स्वास्थ्य की दृष्टि से मुफीद मडुआ से निर्मित इन स्वादिष्ट खाद्य उत्पादों को प्रदेश व प्रदेश से बाहर के लोग खूब पसंद कर रहे हैं.

यदि राज्य और केन्द्र सरकार पहाड़ के भौगोलिक परिवेश में मडुआ जैसी परम्परागत खेती को आजीविका से जोड़ने की गम्भीर पहल करे तो निश्चित ही मडुआ उत्तराखण्ड प्रदेश की कृषि आर्थिकी का एक बड़ा स्रोत बन सकता है. आज पहाड़ के लोग खेती-किसानी से विमुख होकर रोजी-रोटी के लिए जिस तरह मैदानी इलाकों को पलायन कर रहे है ऐसे में स्थानीय काश्तकारों व पढे़-लिखे बेरोजगार युवाओं को मडुआ की खेती और इससे सम्बद्ध अन्य व्यवसायों से जोड़ा जाना बेहतर व करागर उपाय साबित होगा. इससे पहाड़ के गांव जहां  फिर से आबाद हो सकेगें वहीं इससे भविष्य में पहाड़ की आर्थिकी भी संवर सकेगी.
(Madua Finger Millet of Uttarakhand)

चंद्रशेखर तिवारी. 

पहाड़ की लोककला संस्कृति और समाज के अध्येता और लेखक चंद्रशेखर तिवारी दून पुस्तकालय एवं शोध केन्द्र, 21,परेड ग्राउण्ड ,देहरादून में रिसर्च एसोसियेट के पद पर कार्यरत हैं.

इसे भी पढ़ें: लोक गायिकाओं का समृद्ध इतिहास रहा है पहाड़ में

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