लाटू देवता को उत्तराखण्ड की अनन्य इष्ट देवी नंदा का धर्म भाई माना जाता है. इसलिए माँ नंदा को पूजे जाने वाले अनुष्ठानों में लाटू देवता की पूजा का भी विधान होता है. लाटू देवता के दो अनन्य सहयोगी भी माने जाते हैं, छोसिंह और बमो सिंह.
जनश्रुति है कि लाटू, नंदा का भाई और मार्गदर्शक था और राक्षसों के साथ होने वाले युद्धों में लाटू ही उनका नेतृत्व करने वाला गण था. एक बार नन्दा को वाण पहुँचते हुए रात हो गयी और उन्होंने वहीं पर रुकने का फैसला किया. नंदा ने लाटू को एक बुढ़िया के घर पर रुकने को कहा. रात को लाटू द्वारा पानी मांगने पर बुढ़िया ने अपनी ख़राब सेहत का हवाला देकर उसे स्वयं ही पानी ले लेने को कहा. उसने यह भी बताया कि भीतर रखे घड़ों में से एक में पानी है और एक में शराब. लाटू ने गलती से शराब पी ली. नशे में गिरने की वजह से उनकी जीभ कट गयी और वे गूंगे हो गए. नंदा ने उनकी यह हालत देखकर कहा कि अब से तुम इसी जगह पर आराम करोगे और तुम्हारी जगह तुम्हारा चिन्ह मेरी गवानी करेगा. जब भी मैं इस जगह से गुजरूंगी तुमसे मिले बगैर आगे के लिए नहीं जाया करुँगी.
एक अन्य लोककथा के अनुसार लाटू मूल रूप से कन्नौज का रहने वाला था. एक दफा वह हिमालय की यात्रा पर निकला. इसी यात्रा के क्रम में जब वह गढ़वाल के चमोली में स्थित वाण गाँव पहुंचा तो वहां के निवासी बिष्ट जाति के लोगों ने उसके व्यवहार से खुश होकर उससे यहीं रुक जाने का आग्रह किया. उसे भी यह जगह रहने के लिए बहुत पसंद आयी और उसने गाँव के लोगों के इस निमंत्रण को स्वीकार कर लिया. उसे गाँव के ऊपरी हिस्से में रहने के लिए समतल मैदान दे दिया गया, जिसे दोदा का मैदान कहा जाता था. वह यहीं पर घर बनाकर रहने लगा.
इसी जगह पर शौका समुदाय की एक वृद्धा भी रहा करती थी. एक दिन प्यास लगने पर लाटू वृद्धा के पास गया और उससे पानी देने की गुहार लगायी. वृद्धा ने लाटू से कहा कि वह झोपड़ी के अन्दर रखे घड़े से निकालकर खुद ही पानी पी ले. जब लाटू झोपड़ी के अन्दर गया तो उसे वहां दो घड़े रखे दिखाई दिए. उसने इनमें से एक घड़े का तरल पी लिए. इन घड़ों में से एक में पानी और एक में शराब रखी थी. गलती से लाटू ने शराब वाले घड़े को पानी समझकर पी लिया.
अत्यधिक शराब पीने से उसकी मौत हो गई. वाण गाँव के बिष्ट लोगों ने उसका अंतिम संस्कार कर दिया. खामिलधार में उसकी याद में एक पाषाण लिंग की स्थापना भी कर दी गयी.
किवदंती है कि ग्रामीणों की एक गाय रोज उस जगह पर जाकर गौमूत्र से उस पाषाण लिंग को स्नान करवाती और अपना सारा दूध वहीं पर दूह देती थी. हर शाम गाय के मालिक को दिन भर भरा रहने वाला उसका थन खाली मिलता था. उसे किसी के रोज गाय को दूह लेने का शक हुआ. इसी शक के चलते उसने गाय का पीछा किया और उसने देखा की गाय अपना सारा दूध उस लिंग पर दूह देती है. गुस्से में आकर उसने लिंग पर वार किया और उसे दो भागों में खंडित कर दिया. इसके बाद उस पूरे इलाके में महामारी फ़ैल गयी. कहा जाता है कि इसके बाद अल्मोड़ा निवासी किसी व्यक्ति के सपने में वाण गाँव में गिरा पड़ा वह लिंग दिखाई दिया और सपने में ही उसे देवों ने उस स्थान पर मंदिर बनाने का भी आदेश दिया. वह जल्दी से वाण गाँव पहुंचा और दोदा नाम कि जगह पर उस खंडित लिंग की स्थापना कर एक मंदिर का निर्माण किया. इससे उसके और गाँव वालों के सभी कष्ट दूर हो गए.
वाण गाँव में लाटू के इस मंदिर के कपाट हमेशा बंद रहा करते हैं. यह नंदा जात के मौके पर कुछ ही वक़्त के लिए खोले जाते हैं. माँ नंदा की डोली जब भी यहाँ से गुजरती है उनकी डोली-छंतोली यहाँ पर लाटू से भेंट करती है. उसके बाद यहाँ से लाटू का प्रतीक लेकर ही यात्रा आगे के लिए निकलती है. प्रति वर्ष लगने वाली नंदा जात और बारह साल में होने वाली नंदा राजजात में लाटू देवता का महत्त्व बहुत ज्यादा है. वाण से आगे पार्वती का ससुराल माना गया है और यहाँ से आगे नंदा के भाई के रूप में लाटू के प्रतीक ही उन्हें शिव के पास हिमालय छोड़कर आते हैं.
लाटू देवता मंदिर के कपाट पूरे वर्ष में केवल एक दिन बैशाख पूर्णिमा के दिन खुलते हैं. स्थानीय लोगों का मानना है कि यहां लाटू देवता एक बड़े नाग के रूप में विराजमान हैं. इसी कारण मंदिर के गर्भगृह में जाकर केवल पुजारी ही पूजा करता है. जब पुजारी मंदिर में पूजा के लिये प्रवेश करता है तो वह आँखों में पट्टी बांधकर गर्भगृह में जाता है.
कुछ लोगों का मानना है कि विशाल नाग देखकर कहीं पुजारी डर न जाये इस वजह से पुजारी की आंखों में पट्टी बाँधी जाती है तो कुछ लोगों का मानना है गर्भगृह में विराजमान नागमणि के दर्शन ने पुजारी की आँखों की ज्योति जा सकती है अतः आँखों में पट्टी बाँधी जाती है.
अन्य लोग मंदिर गर्भगृह से 75 फीट की दूरी से ही लाटू देवता की पूजा करते हैं. वैशाख पूर्णिमा के दिन जब लाटू देवता मंदिर के कपाट खुलते हैं उस दिन मंदिर में “विष्णु सहस्रनाम” व “भगवती चंडिका” का पाठ आयोजित किया जाता है.
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छो सिंह और बमो सिंह नहीं बल्कि स्थानीय देवता द्योसिंह और भोसिंह थे।