बाबा के आदेश से जब गाडी मथुरा में रुकी तो वे सभी रेलगाड़ी से उतर गए स्टेशन पर कुछ भक्तों ने बाबा के पैर छूए. कुछ समय बाद बाबा ने अपनी आँखें बंद कर दीं और उनके शरीर से पसीना छूटने लगा. उन्होंने पानी माँगा, और पानी पीने के बाद, उन्होंने उन्हें वृंदावन ले चलने के लिए कहा. जब तक एक टैक्सी की व्यवस्था की गई, तब तक बाबा बेहोश हो गए थे.
उन्हें आश्रम ले जाने के बजाय, वे उन्हें वृंदावन में रामकृष्ण मिशन अस्पताल ले गए जहां उन्हें ऑक्सीजन दिया गया. जब उनके रक्तचाप (BP) की जांच की तैयारी की जा रही थी , बाबा ने नाक से ऑक्सीजन ट्यूब को खींच लिया और रक्तचाप के यंत्र को एक तरफ धकेल दिया और धीमी आवाज़ में कहा, “यह सब बेकार है.” इसके तत्काल बाद, उन्होंने भगवान का नाम तीन बार दोहराया, “जगदीश, जगदीश, जगदीश”, और फिर उनका शरीर शिथिल पड़ गया. यह 1:15 बजे मध्यरात्रि में 11 सितम्बर, अनंत चतुर्दशी का पवित्र दिन था, जब बाबा ने हृदयाघात के कारण खुद को अनन्त में विलीन कर दिया.
जब पूरा भारत गहरी नींद सो रहा था, तब बाबा ने अपने भौतिक लीला को अपने भक्तों से दूर समाप्त कर दिया. बाबा के शरीर को आश्रम ले जाया गया, जहां चौकीदार त्रिलोक सिंह रात में उनके साथ बैठा रहे. त्रिलोक सिंह ने बाबा के हाथों को अपने हाथों में पकड़ा. अपनी आँखें बंद करके बैठे हुए, उन्होंने बाबा की नब्ज़ चलने का अनुभव किया. हालांकि, जब उन्होंने अपनी आँखें खोली और फिर से जाँच की तो ये शांत थी. इस तरह बाबा का अलौकिक-दिव्य खेल शुरू हुआ.
बनवारी लाल पाठक, वृंदावन के क पुजारी और बाबा के एक भक्त अस्पताल पहुंचे थे क्योंकि महाराज को आश्रम ले जाया जाना था. उन्होंने आगरा, दिल्ली, कानपुर, लखनऊ, नैनीताल और अन्य शहरों में फोन या टेलीग्राम के जरिए लोगों को सूचित करना शुरू कर दिया. अखिल भारतीय आकाशवाणी (ALL INDIA RADIO) ने भी अपने सुबह और शाम के समाचार बुलेटिनों में पूरे देश में ये समाचार प्रसारित किया. अगले सुबह हर जगह से भक्तगण वृन्दावन के लिए रवाना हो गए बिना खाना या पानी लिए. पास के शहरों और आस-पास के इलाकों से भक्तगण सुबह सुबह जल्दी आ गए, और दूर से आने वालों का सिलसिला पूरे दिन जारी रहा.
श्रीमाँ और जीवंतिमाँ रमेश के साथ कैंची आश्रम से टैक्सी चल दिए. भारत में आये हुए पश्चिमी भक्त भी आए, लेकिन वो जो अपने ही देशों में थे असहाय थे. तथापि, तीस अमरिकी भक्तों का एक समूह विमान द्वारा आने में सफल रहा. कई प्रसिद्ध व्यक्ति और उच्च अधिकारी भी महाराज को श्रद्धांजलि अर्पित करने आए थे. उनकी कृपा से खबर हर किसी तक पहुंची थी. मुझे इलाहाबाद में ये दुखद समाचार मिला था, जिसे मैंने तब शहर में अन्य भक्तों को बताया. शीघ्र ही हम वृंदावन के लिए रवाना हुए. जहां भी समाचार प्राप्त हुआ और जिसे भी प्राप्त हुआ, सब हक्के बक्के रह गए थे और समझ नहीं पा रहे थे कि बाबा के साथ क्या हुआ था.
वृंदावन आश्रम में भक्तगण बाबा के अंतिम संस्कार के विधि और तरीके का फैसला नहीं कर पा रहे थे. कुछ लोग जल में विसर्जन के पक्ष में थे, लेकिन कुछ दुसरे जमीन में दफन करके स्मारक बनाना चाहते थे (क्योंकि हिंदू प्रथा के अनुसार संत या संन्यासी का अंतिम संस्कार नहीं किया जाता है. उनको या तो बहते जल में विसर्जन करते हैं या जमीन में दफना देते हैं). तभी वृंदावन के एक प्रसिद्ध संत, बाबा लीलानंद ठाकुर, जिन्हें पागल बाबा के नाम से भी जाना जाता था वहां पहुंचे. पागल बाबा ने अंत में निर्णय लिया कि महाराजजी का दाहसंस्कार होना चाहिए और यह आश्रम के अंदर उस स्थान पर होना चाहिए जहाँ प्रायः यज्ञ किया जाता है. उस वर्ष अप्रैल में नवरात्रि के लिए यज्ञ स्थल का निर्माण किया गया था. पूजा के बाद बची हुई यज्ञ सामग्री को जल में विसर्जित किया गया था, और उस जगह के चारों तरफ एक छोटी पत्थर की दीवार खड़ी कि गई थी. इसे ऐसे ही बनाए रखा गया था, जैसे कि इस उद्देश्य (महाराजजी का दाहसंस्कार) से ही तैयार किया गया हो.
दोपहर 2 बजे तक श्रीमाँ भी नहीं पहुचीं थी. लोग भूखे और प्यासे थे. उनमें से ज्यादातर दाह संस्कार में विलंब नहीं करना चाहते थे, जबकि अन्य लोगों का मानना था कि उन्हें श्रीमाँ का इंतजार करना चाहिए. जब बहुमत की राय पूरी तरह प्रभावित हुई तो बाबा का शरीर बाहर आश्रम के आंगन में लाया गया. तभी अचानक कहीं से एक भयानक तूफान उठा. इतनी तेज बारिश हुई कि लोगों को दस कदम दूरी से अधिक कुछ दिखाई नहीं दे रहा था. बादलों से वातावरण में अन्धकार छा गया था, यहाँ तक कि गुजरती हुई गाड़ियों कि हेडलाइट्स भी मंद पड़ गई थी. परिणाम स्वरुप अर्थी को बरामदे में रखना पड़ा, और अंतिम संस्कार में देरी हुई. थोड़ी देर में श्रीमाँ पहुँच गई. जैसे ही श्रीमाँ ने गाडी से बाहर कदम रखे तूफ़ान शांत हो गया. उनके आने पर माहौल और ग़मगीन हो गया.
चंदन की लकड़ी की व्यवस्था की गई, और लोगों ने अपने प्यारे बाबा (गुरु) के अंतिम दर्शन किये. बाबा ऐसे लगते थे जैसे वो गहरी नींद में थे. उनका चेहरा पहले कि तरह ही चमक रहा था. शाम को करीब 6 बजे, बाबा के शरीर को फूलों से सजी हुई अर्थी पर रखा गया. उसके बाद उन्हें एक शव-वाहन में रखा गया और वृंदावन के चारों ओर एक जुलूस के रूप में ले जाया गया, भक्ति संगीत के साथ, जैसा कि संतों के लिए पारंपरिक तौर से किया जाता है. भक्तों की एक बड़ी भीड़ बाबा के पीछे थी, और लोगों ने मंदिरों और घरों से उन पर फूल बरसाए. लोगों ने हर कदम पर गाड़ी को रोक कर आरती की. बाबा की अंतिम यात्रा में एक लंबा समय लगा. रात में करीब 9 बजे शव-वाहन वापस आश्रम में पहुंची आती है, और अलग होने के दुःख और जुदाई के बोझ वाले वातावरण में पूरी आस्था के साथ बाबा के भौतिक शरीर को अग्नि दी गयी. उस दुखद समय के सभी के अपने अलग-अलग अनुभव थे.जैसे कि , जगमोहन शर्मा ने देखा कि अग्नि में राम और लक्ष्मण के बीच में बाबा खड़े थे और हनुमान जी उनकी परिक्रमा (घड़ी की दिशा में घूमते हुए चलकर किसी पवित्र वास्तु के चक्कर लगाना) कर रहे थे.
जब चिता कि अग्नि शांत हुई, भक्तों ने कई कलशों में अस्थियां एकत्रित की. कुछ कलशों को वाराणसी, हरिद्वार, प्रयाग, और पवित्र तीर्थों पर ले जाया गया, जहां उन्हें के गंगा के पवित्र जल में विसर्जित कर दिया गया. कुछ दूसरे कलशों को बाबा के आश्रमों में भेजा गया, जहां उनके ऊपर बाद में बाबा कि मूर्ति को स्थापित किया गया. केहर सिंह जी को बाबा के अवशेषों को इकठ्ठा करते हुए देख कर, देवकामता दीक्षित जी को बाबा का कहा याद आया. उन्होंने अन्य भक्तों से कहा कि उन्होंने बाबा को यह कहते सुना था कि, “केहर सिंह ही मेरे फूल चुनेगा.” उस समय बाबा के शब्द बेतुके लगते थे, लेकिन उस दिन वो शब्द सच साबित हुए. महासमाधि के तेरहवें दिन, वृंदावन आश्रम में एक भव्य भण्डारा आयोजित किया गया. पहाड़ों के (उत्तराखंड) रीती रिवाजों के अनुसार कैंची आश्रम में एक दिन पहले ही भंडारा किया गया.
भक्तगण जो पहले बाबा को श्रद्धांजलि अर्पित नहीं कर पाए थे, उनकी महासमाधि के पश्चात बारहवें और तेरहवें दिन उनका प्रसाद लेकर कृतार्थ हुए.
रवि प्रकाश पाण्डे द्वारा संपादित पुस्तक ‘द डिवाइन रिएलिटी’ के द्वितीय संस्करण का एक अंश, अनुवाद त्रिभुवन प्रकाश.
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बहुत अच्छा भावपूर्ण विवरण