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फिर चांद के लिए इतनी चाहत क्यों?

50 वर्ष पहले 20 जुलाई 1969 को चांद की सतह पर मानव के वे पहले कदम पड़े थे. 8 बज कर 26 मिनट (कोआर्डिनेटेड यूनिवर्सल टाइम) पर अपना बांया कदम चांद पर रखते हुए प्रथम चंद्रयात्री नील आर्मस्ट्रांग ने कहा था, “यद्यपि मानव का यह छोटा-सा कदम है, लेकिन मानवता के लिए यह बहुत ऊंची छलांग है.” सदियों से शीतल चांदनी बिखेरते, मानव मन को मोहते और उसकी कल्पनाओं में नए रंग भरते चांद से मनुष्य की वह पहली सीधी मुलाकात थी. (History of Man on Moon)

 16 जुलाई 1969 को केप केनेडी से अमेरिकी अंतरिक्ष यान अपोलो-11 चांद की ओर रवाना हुआ. उसमें तीन अंतरिक्ष यात्री थेः नील आर्मस्ट्रांग, माइकल कालिंस और एडविन एल्ड्रिन. चंद्रमा के निकट पहुंच कर परिक्रमा यान से चंद्रयान ‘ईगल’ अलग हो गया और वह नील आर्मस्ट्रांग तथा एडविन एल्ड्रिन को लेकर रात 1 बज कर 47 मिनट पर चंद्रमा के शांति सागर मैदान में उतरा. परिक्रमा यान ‘कोलंबिया’ चांद की सतह से 96 किलोमीटर ऊपर परिक्रमा करता रहा. माइकल कालिंस उस यान की बागडोर संभालते रहे. (History of Man on Moon)

Apollo-11 प्रथम चंद्रयात्री नील आर्मस्ट्रांग ने सतह पर अपना पहला कदम रखने के बाद कवियों की कल्पनाओं के उस चांद की सतह को निहारा और कहा, “यहां आसपास बड़े-बड़े पत्थर दिखाई देते हैं. चंद्रमा की सतह बहुत सख्त है और यहां की मिट्टी रेगिस्तान जैसी है.” एडविन एल्ड्रिन ने भाव विभोर होकर कहा, “दृश्य बहुत सुंदर है. जहां हम उतरे हैं उससे कुछ दूरी पर हमें बैंगनी रंग की चट्टान दिखाई दी. सूर्य के प्रकाश में चांद की मिट्टी और चट्टानें चमक रही हैं. यह एक शानदार मगर बिल्कुल खामोश जगह है.”

दोनों अंतरिक्ष यात्रियों ने वैज्ञानिक प्रयोगों के लिए सतह पर उपकरण रखे. चांद की सतह से मिट्टी और चट्टानों के नमूने लिए. जिस सीढ़ी से  चांद पर उतरे, उसके पाए पर स्मृति चिह्न के रूप में एक धातु-फलक लगाया जिस पर तीनों अंतरिक्ष यात्रियों और अमेरिका के राष्ट्रपति के हस्ताक्षर थे. साथ ही एक संदेश के शब्द भी उस पर खुदे हुए थे जिन्हें नील आर्मस्ट्रांग ने जोर से पढ़ा, “यहां पृथ्वी ग्रह से आकर मानव ने चांद पर पहली बार अपने कदम रखे. जुलाई 1969. हम यहां समस्त मानव जाति के लिए शांति की कामना लेकर आए.“

इस तरह मानव ने चांद पर विजय पाई. 4 अक्टूबर 1957 में जब तत्कालीन सोवियत संघ ने अंतरिक्ष में पहला स्पूतनिक छोड़ा था, तब भला कौन जानता था कि अगले चंद वर्षों में ही मानव के चरण चांद तक पहुंच जाएंगे!

चांद से पृथ्वी की ओर लौटते समय अपोलो-11 यान से नील आर्मस्ट्रांग ने कहा, “शुभ संध्या. मैं अपोलो-11 का कंमाडर बोल रहा हूं. करीब सौ वर्ष पहले जूल्स वर्न ने चांद की यात्रा पर एक पुस्तक लिखी थी. उसकी पुस्तक का अंतरिक्ष यान ‘कोलंबियाड’ फ्लोरिडा से अंतरिक्ष में छोड़ा गया और चांद की यात्रा पूरी करके प्रशांत महासागर में उतरा. आज के हमारे इस ‘कोलंबिया’ यान का भी कल प्रशांत महासागर में ही पृथ्वी से मिलन होगा.”

जूल्स वर्न ने अपने उपन्यास ‘फ्राम अर्थ टु द मून’ में सन् 1865 में चांद की सैर की कल्पना की थी. प्रसिद्ध विज्ञान कथा लेखक एच. जी. वेल्स ने भी अपना उपन्यास ‘फर्स्ट मिन इन द मून’ चांद की यात्रा पर लिखा था. चांद पर प्रथम भारतीय विज्ञान कथा ‘चंद्रलोक की यात्रा’ केशव प्रसाद सिंह ने 1900 में लिखी जो सरस्वती में छपी.  

दूरबीन से पहली बार चांद को गैलीलियो ने 1610 में देखा था. तब उसने कहा था चांद की सतह उबड़-खाबड़ है. उसमें गड्ढे और उभार हैं ठीक वैसे ही जैसे पृथ्वी पर पहाड़ और घाटियां हैं. खगोल वैज्ञानिक केप्लर का कहना था कि चांद पर जीवन है लेकिन वहां जीवन के रूप पृथ्वी से बिल्कुल भिन्न हैं. सन् 1833 में अंग्रेज खगोल वैज्ञानिक जान हरशेल ने चांद की सतह का सनसनीखेज वर्णन प्रकाशित किया. उसने कहा कि चांद में हरी-भरी घाटियां हैं, नीली चट्टानें हैं और हैं सफेद रेतीले किनारों से घिरी नीली झीलें और कलकल बहती नदियां!

लेकिन वे कपोल-कल्पनाएं साबित हुई. आज अंतरिक्ष यात्रियों और अंतरिक्ष यानों के स्वचालित वैज्ञानिक उपकरणों ने चांद के तमाम रहस्यों का अनावरण कर दिया है. अपोलो अंतरिक्ष यानों की श्रृंखला में ही 1969 से 1972 के बीच 12 अंतरिक्ष यात्री चांद पर उतरे. वे कुल मिला कर 166 घंटे चांद की सतह पर रहे और कुल 385 किलोग्राम चांद की मिट्टी और चट्टानों के टुकड़े पृथ्वी पर लाए.

उधर, तत्कालीन सोवियत संघ ने ‘लूना’ चंद्रयानों से चांद का अध्ययन किया. सन् 1959 में ‘लूना-1’ चंद्रयान छोड़ा गया. फिर दूसरा और फिर तीसरा. तीसरे चंद्रयान ‘लूना-3’ ने चंद्रमा की परिक्रमा करते हुए उसके दूसरी ओर के अंधेरे भाग के फोटो खींचे. 3 फरवरी 1966 को ‘लूना-9’ अंतरिक्ष यान छोड़ा गया. वह चांद की सतह पर धीरे से उतरा. उसमें एक स्वचालित चंद्रमा स्टेशन था. उसके दूरदर्शी कैमरे ने चांद की सतह के फोटो खींचे. तब पहली बार दुनिया भर में लोगों ने चांद के चेहरे को इतने करीब से देखा. 12 सितंबर 1970 को तत्कालीन सोवियत संघ ने ‘लूना-16’ अंतरिक्ष यान भेजा, जिसके स्वचालित उपकरणों ने चांद पर पहुंच कर मिट्टी खोदी, उसे बक्सों में भरा और फिर यान पृथ्वी पर लौट आया. ‘लूना-17’ ने चंद्रमा की सतह पर ‘लूनाखोद-1’ नामक चांदगाड़ी उतारी. वह इधर-उधर और आगे-पीछे मुड़ सकती थी तथा सौर ऊर्जा से चलती थी. उसमें अनेक उपकरण रखे गए थे, जिनसे चांद का अध्ययन किया गया. ‘लूना-21’ चंद्रयान ने ‘लूनाखोद-2’ नामक चांद गाड़ी चांद पर पहुंचाई जिसने चांद के सूखे सागरों और पर्वतों का अध्ययन किया.

अब पड़ोसी चांद, हमारे लिए अनजाना नहीं रह गया है. चांद पृथ्वी से औसतन 3,84,400 किलोमीटर दूर है लेकिन पृथ्वी के चारों ओर उसका परिक्रमा पथ बिल्कुल गोलाकार नहीं है इसलिए वह कभी 4,06,000 किलोमीटर दूर होता है तो कभी केवल 3,56,000 किलोमीटर. वह हमारी पृथ्वी का प्राकृतिक उपग्रह है. कई वैज्ञानिकों का अनुमान है कि सौर सामग्री से हमारी पृथ्वी और चांद का जन्म एक साथ ही हुआ लेकिन कुछ अन्य वैज्ञानिकों का विचार है कि वह पृथ्वी से टूट कर बना.

वैज्ञानिक कहते हैं, महाविस्फोट के बाद जब सौरमंडल के तमाम पिंड धीरे-धीरे ठंडे हुए तो ग्रहों के साथ ही हमारा चांद भी ठंडा होने लगा. छोटा होने के कारण वह जल्दी ठंडा हो गया और उसकी सतह कठोर चट्टानों से भर गई. युग-युगों तक उल्काओं के टकराने से सतह पर छोटे-छोटे से लेकर बहुत विशाल विवर तक बन गए जिनका व्यास 1000 कि.मी. तक है. पहले तक लोग चांद के विशाल चौरस मैदानों को सागर समझते थे इसलिए उनके काल्पनिक नाम सागरों पर रख दिए गए जैसे प्रशांत सागर, तूफान सागर आदि. चांद पर ऊंचे-ऊंचे पहाड़ भी हैं. कुछ पहाड़ तो 6000 मीटर तक ऊंचे हैं. चांद के दक्षिणी ध्रुव के निकट लीबनिज पहाड़ों की ऊंचाई ऐवरेस्ट से भी अधिक यानी 10,660 मीटर तक आंकी गई है.

और हां, चांद की अपनी रोशनी नहीं है. वह सूरज की रोशनी से चमकता है. चांद से पृथ्वी की ओर परावर्तित होने वाली सूरज की रोशनी ही शीतल ‘चांदनी’ है. चंद्रमा पृथ्वी के चारों ओर 27 दिन 7 घंटे 43 मिनट और 11.47 सेकेंड (लगभग 27.3 दिन) में एक चक्कर लगाता है. साथ ही वह अपनी धुरी पर 27.32 दिन में एक बार घूमता है. पृथ्वी के चारों ओर और अपनी धुरी पर घूमने का लगभग एक ही समय होने के कारण हमें उसका केवल आधा भाग ही दिखाई देता है. दूसरा भाग सदा अंधेरे में रहता है और हमें दिखाई नहीं देता. परिक्रमा पथ पर चक्कर लगाते हुए चांद जिस कोण से हमें दिखाई देता है उसी के कारण उसकी कलाएं होती हैं. वह कभी दूज का चांद हो जाता है तो कभी पूर्णिमा होती है और कभी अमावस्या.

चंद्रमा पर किसी भी वस्तु का वजन पृथ्वी से छः गुना कम हो जाता है क्योंकि चंद्रमा का गुरूत्वाकर्षण पृथ्वी की तुलना में कम है. वहां दिन में भीषण गर्मी पड़ती है और तापमान 130 डिग्री सेल्सियस तक हो जाता है. रात में चट्टानें ठंडी हो जाती हैं तो तापमान शून्य से 180 डिग्री सेल्सियस तक नीचे गिर जाता है. चांद का वायुमंडल नहीं है. उसका गुरूत्वाकर्षण इतना कम है कि गैसें उसकी पकड़ में नहीं रह सकतीं. इसलिए वहां सूर्योदय और सूर्यास्त का वह नजारा नहीं दिखाई देता जो हमें अपनी पृथ्वी पर दिखाई देता है. यहां आसमान पर लाली छा जाती है और सूरज का बड़ा-सा लाल गोला क्षितिज पर उभरता है. चांद पर तो बस भक से सूरज निकल आता है, मानो स्विच आन कर दिया गया हो.  वायुमंडल न होने से वहां ऋतुएं भी नहीं होतीं. वहां न बादल उमड़ते हैं, न बिजली कड़कती है, न रिमझिम वर्षा होती है. हां, चंद्रमा के गुरूत्वाकर्षण से पृथ्वी पर समुद्रों में ज्वार जरूर आते हैं.

वहां एकदम सन्नाटा है. कोई आवाज नहीं. आवाज के आने-जाने के लिए भी तो आखिर हवा होनी चाहिए न! उस सन्नाटे और बिना मौसम के रूखे चांद से तो हमारी यह हरी-भरी पृथ्वी बेहद सुंदर है. है ना?

लेकिन, फिर चांद के लिए इतनी चाहत क्यों? आखिर रूखे-सूखे चांद में रक्खा क्या है? कुछ लोगों के विचार में रूखी-सूखी ही सही मगर जमीन तो है जहां इंसान अपनी बस्तियां बना कर बस सकता है. बस, इससे बात समझ में आ जाती है. मतलब कल चांद की जमीन की भी मांग बढ़ेगी. प्रख्यात वैज्ञानिक और पूर्व राष्ट्रपति डा. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम का अनुमान था कि अगले 30 वर्षों के भीतर मानव चांद पर बसने लगेगा. जमीन के अलावा चांद पर खनिजों का खजाना भी है. कल उसके लिए भी कई देश दावेदारी पेश करेंगे. अमेरिका तो अपनी विकसित प्रौद्योगिकी के बल पर चांद को दूसरे ग्रहों तक यान भेजने का अड्डा बनाने के मंसूबे देख रहा है. उसने आगामी चंद्र अभियान के लिए अरबों डालर के व्यय की योजना बनाई है. चांद के अड्डे से उसके लिए मंगल तक पहुंचना और आसान हो जाएगा.

हमारे देश के अलावा जल्दी ही कुछ अन्य देश भी चांद तक पहुंचने की दौड़ में शामिल हो जाएंगे. कौन जाने, कल हमारी आने वाली पीढ़ियां चांद पर बनी बस्तियों के भीतर हरी-भरी वादियों और साफ-सुथरी हवा में  रहने लगें.

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वरिष्ठ लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी के संस्मरण और यात्रा वृत्तान्त आप काफल ट्री पर लगातार पढ़ते रहे हैं. पहाड़ पर बिताए अपने बचपन को उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘मेरी यादों का पहाड़’ में बेहतरीन शैली में पिरोया है. ‘मेरी यादों का पहाड़’ से आगे की कथा उन्होंने विशेष रूप से काफल ट्री के पाठकों के लिए लिखना शुरू किया है.

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  • मेरा नाम संतोष चन्द है.. मैं कल ही आपके काफ़ल ट्री व्हट्स ऐप ग्रुप से जुड़ा हूँ.. और मैने कल की पूरी रात में ही एक ही बार में आपके वेबसाईट पर दर्ज सारे लेखों को पढ लिया है...खासकर उत्तराखण्ड से सम्बन्धित अनेक जानकारियो को समेटे ये लेख, उत्तराखण्ड की संस्कृति को सहजता से प्रस्तुत करते हैं...सच पूछिए तो मैं आपकी इस साइट का एडिक्ट हो गया हूँ... वर्तमान के अन्ध प्रतिस्पर्धी युग में युवाओ को अपनी संस्कृति, भाषा, रीति-रिवाजो से जोड़े रखने में आपका ये प्रयास , ये परिश्रम अत्यंत ही स्वागत योग्य है... मेरे पास आपका शुक्रिया अदा करने के लिए शब्द नहीं हैं
    . ....मैं मूलतः खटीमा, जिला- ऊधम सिंह नगर का निवासी हूँ... मैं वर्तमान में देहरादून में रहकर उत्तराखण्ड सिविल सेवा की तैयारी कर रहा हूं... और आपके वेबसाइट के ये लेख मुझे अपनी ओर अत्यंत ही आकर्षित करते हैं ...मेरी दृष्टि में ये लेख उत्तराखण्ड सिविल सेवा परीक्षा की मुख्य परीक्षा में अत्यंत सहायक सिद्ध हो सकते हैं. ...
    पुनः आपका बहुत - बहुत धन्यवाद.. ?

  • उत्तर में मैंने भी टिप्पणी लिखी थी, दिख नहीं रही है काफलट्री ।
    देवेन्द्र मेवाड़ी

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