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किसी कोने में लटकी लालटेन कहीं कहीं उजाले के धब्बे छोड़ती है

एक लालटेन का जलना क्या खुद लालटेन के लिए एक त्रासदी है?

उसकी रौशनी की सेहत, उसकी तबीयत का मिज़ाज देखकर ऐसा ही कुछ सोच जा सकता है. उसका रोशनी पैदा करने का उपक्रम खुद उसी के लिए बेहद थकाने वाला लगता है.निकलने वाले प्रकाश में निरंतरता नहीं हैं. वो अविछिन्न होकर बाहर नहीं आता,बल्कि लालटेन के कांच की दीवारों से टूट टूट कर गिरता है और इस तरह टूटा हुआ टुकड़ा-टुकड़ा प्रकाश लालटेन के गिर्द जमा हो जाता है.उसकी रोशनी में चीज़ें पहचानी जानी मुश्किल है, वे सिर्फ अपने आकार का आभास कराती है.लालटेन की रोशनी में जो कुछ हम देखतें हैं उसे हम अनुमान के ज़रिये ही जान पाते हैं. वो भी थोड़ा बहुत.उसकी रोशनी चीज़ों के आकार के बारे में ही थोड़े भरोसे के साथ कुछ बता पातीं हैं. ये बड़ी ही हास्यास्पद बात हैं कि लालटेन का इस्तेमाल अक्सर गाँव की सीमा से दूर भटक चुके बकरी के बच्चे को ढूँढने, या पड़ौस के गाँव से आये चोर के पांवों के निशान देखने, या फिर आगत प्रेमी को उसके गुप्त ठिकाने पर धर दबोचने में किया जाता है. अँधेरे में ऐसे अभियानों को दूर से देखने पर सिर्फ लालटेन हवा में तैरती नज़र आती है. और लालटेन की मुर्दा रोशनी उन्हें किसी नतीजे पर नहीं ले जाती. लालटेन वापसी में उनके थके हुए क़दमों को पगडण्डी के सहारे घर ज़रूर ले जाती है. यद्यपि इसमें काफी भूमिका उनकी उस रास्ते पर चलने की आदत की होती है. सुबह शाम हर रोज़ हमेशा ताज़िंदगी वे उसी रास्ते पर चलते रहते हैं. रात के वक्त उनके हाथ में अलबत्ता लालटेन ज़रूर होती है. पर उसके बिना भी वे घर पहुँच सकते हैं. बस सिर्फ एक आदत के तौर पर ही उनके साथ रात को लालटेन भी चलती है. ये कमोबेश एक अनुष्ठान में वांछित किसी वस्तु की तरह होती है. कभी रात को तेज़ हवा में लालटेन बुझ भी जाए तो रास्ते में दल के लोग बिना उसकी परवाह किये चलते रहतें हैं. वे जानते हैं कि लालटेन न आग है न रोशनी. असल में आजकल लोग लालटेन को सिर्फ रिवायत के तौर पर साथ रखतें हैं कि पहले भी रात-बिरात काम पड़ने पर लालटेन को साथ रखा जाता था, तो अब क्यों इस रीत को छोड़ा जाय. दीगर बात है कि लालटेन किसी शगुन या शुभंकर के तौर पर साथ नहीं रखी जाती. ये सिर्फ किसी कदीमी परंपरा का हिस्सा है. लोग अब असल ढूँढने का काम टोर्च के ज़रिये करते हैं. किसी गुलेल की तरह टॉर्च रोशनी को दूर तक फेंकती है और लालटेन निस्पृह सी होकर लगभग ढीठ भाव में ये सब देखती है.

घर में भी किसी कोने में लटकी लालटेन अँधेरे के विस्तार में कहीं कहीं उजाले के धब्बे छोड़ती है. इसकी रोशनी चीज़ों की बड़ी बड़ी छायाएं पैदा करती है. कोई उड़ता कीड़ा अपनी छाया में विशालकाय दैत्य सा लगता है.

लालटेन की अभिशप्त रौशनी में अँधेरा अधिक स्याह होकर सामने आता है. उसकी लौ की भभक मानो अपनी ही पैदा की गयी चमक को उचक उचक कर निगलती है. वो रौशनी का मिथ्याभास है. उसकी आड़ में अँधेरे को वाचाल होने का अवसर मिलता है. वो आसानी से अपने छल पर लालटेनी रोशनी की बारीक चादर ओढा देता है. और तब अरसे से धराशायी खंडहर भुतहा लगने लगता है. लालटेन की रोशनी इतनी दूरस्थ है कि उस तक पहुँचने के लिए ठोस अन्धकार को भेदना ज़रूरी है. और इतनी निशक्त कि घर के किसी कोने में टंगी होने पर उसे एक बेचारगी भरा व्यक्तित्व प्रदान करती है. एक स्त्री लालटेन को उठा कर अपने चेहरे के करीब लाती है तो लालटेन उसके युवा चेहरे को झुर्रियों से भर देती है..

उसके कांच के गोले के ठीक बाहर अँधेरे का ठंडा बियाबान है.

इसकी रोशनी में भूतों के कई किस्सों को वाचाल होने का अवसर मिलता है. कोई लालटेन की रौशनी के भ्रमित करने वाले आलोक में,रात के तीसरे प्रहर किसी ऐसे शख्श को देखता है जो उसके परिचित मृत व्यक्ति से मिलता जुलता है. सुबह वो भूत को देखने का दावा करता है. सब उसकी इस बात की हामी भरते हैं. कोई ये नही कहता कि लालटेन की रोशनी से शिनाख्त नहीं की जा सकती. वो इसके लायक नहीं है. पर खैर इस व्यक्ति के दावे में सच जो भी है, जैसा भी है उसे लालटेन सीधा और सपाट नहीं रख पाती. उसके अपूर्ण प्रकाश में भूतों के कई कथानक चमकते हैं. उसकी रोशनी का उजाला कई किस्सों, बातों, और मिथकों को रोशन रखे हुए है, ये और बात है कि इन सब से बाहर के लोक में इसका आलोक बहुत फीका है. इसके उजाले का इतना उजाड़ होना एक बहुत बड़ी त्रासदी है.

बारिश की नम रात में लालटेन के एकाकीपन को कभी कभार कोई कीट अपनी प्रदक्षिणा से भंग करता है. उजाड़ उजाले में लालटेन का एकाकीपन डरावना लगता है. वो जहां भी रहती है अपने भूगोल से कटी रहती है. घर की दीवाल पर टंगी लालटेन एक खास तरह के बेतुकेपन की मुद्रा में दिखाई देती है. वहीं आसपास फिरती छिपकली की तरह जो रात में शिकार के अलावा कई बार बिना हिले डुले बेतुकी सी चिपकी रहती है. इस बेतुके एकांत में भी लालटेन कई बार अपने विगत के सक्रिय दिनों में झूलती है. कई बार इतनी आत्ममुग्ध कि लगता है वो बिना आग दिखाए भभक कर जल उठेगी. वैसे इसके अकेलेपन में कई शेड्स हैं. इसमें विगत के दिनों का चिंतन है. इसमें उम्मीद है. इसमें नाउम्मीदी है और इसमें इन दोनों के बीच उसका दोलन है. वो कई बार सोचती है उस जादुई प्रकाश के बारे में जो राक्षसों और राजकुमारों के बीच संघर्ष को निर्णायक स्थिति में लाता था. वो जिन्नों के दुनिया को रोशन करता था. वो सब ठीक ठाक या सब उल्टा पुल्टा कर देता था.

और कई बार उसके अकेलेपन में सिर्फ अकेलापन है. बेतुका. इस एकांत की इतनी अर्थछायाओं में वो दिन में सिर्फ दीवार से चिपकी ही रहना चाहती है. बिना कहीं जाए,बिना किसी में झूलते हुए.

रात में वो अपने ही अँधेरे से इतना लड़ती है कि वो दिन उगने का इंतज़ार करती है जिससे कि वो अपने रौशनीनुमा ‘कुछ’ को तिरोहित कर थोड़ी देर चैन की नींद सो सके.

 

संजय व्यास
उदयपुर में रहने वाले संजय व्यास आकाशवाणी में कार्यरत हैं. अपने संवेदनशील गद्य और अनूठी विषयवस्तु के लिए जाने जाते हैं.

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