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लॉक डाउन होने से ‘कवायरस’ तेजी पकड़ गया है : व्यंग्य

कोरोना वायरस के कारण पूरा देश लॉक डाउन कर दिया गया है. सभी अपने घरों में कैद हैं. लॉक डाउन, कोरोना वायरस को तेजी से फैलने से रोकने में बहुत कारगर है. परन्तु इससे दूसरी बीमारी फैलने का खतरा मंडराने लगा है. (Satire by Priy Abhishek)

लॉक डाउन होने से ‘कवायरस’ तेजी पकड़ गया है. स्टेज वन की कविताएं आने लगी हैं. यदि यूँ ही लॉक डाउन जारी रहा तो स्टेज थ्री तक पहुँचते देर न लगेगी. ध्यान रहे कोरोना के मरीज स्वस्थ्य हो जाते हैं. कोरोना में मृत्यु दर केवल चार-पाँच प्रतिशत अधिकतम है. परन्तु कवायरस से ग्रसित व्यक्ति के स्वस्थ्य होने का आजतक कोई मामला सामने नहीं आया है (हालाँकि इसमें मृत्यु अलग तरीके से होती है). यह अत्यंत खतरनाक वायरस है. यद्यपि भारतवर्ष में यह अनादि काल से उपस्थित रहा और पुरुषों को अपना ग्रास बनाता रहा, परन्तु इंटरनेट के युग ने इसके डीएनए को पूर्णतः बदल दिया. अब कवायरस का शिकार महिलाएं अधिक हो रही हैं (हालाँकि इसमें मृत्यु अलग तरीके से होती है).

कवायरस, कोरोना से इस मामले में भी खतरनाक है कि जहाँ कोरोना केवल सम्पर्क में आने से फैलता है, वहीं कवायरस सोशल मीडिया से भी फैल जाता है. केवल किसी की फ्रेंड लिस्ट में होने मात्र से ये बीमारी आपको हो सकती है. ये बीमारी स्त्री और पुरुषों में अलग-अलग तरीके से प्रभाव छोड़ती है (हालाँकि इसमें मृत्यु अलग तरीके से होती है). (Satire by Priy Abhishek)

स्त्रियों में ये स्त्रियों से ही फैलती है, पुरुषों से नहीं. इतिहास गवाह है कि आज-तक कोई स्त्री पुरुषों के चक्कर में कवि नहीं बनी. स्त्रियां प्रेम के बनिस्बत प्रतिस्पर्धा में अधिक कवि बनती पाई जाती हैं. फेसबुक स्क्रॉल करती कोई स्त्री देखती है कि एम-ब्लॉक वाली भाभीजी ने कविता लिखी है- ‘सुनो! जेहन में घूमती हैं तुम्हारी बातें, जैसे मिक्सर में जिंजर-गार्लिक. आँखों से निकल पड़ते हैं आँसू, जैसे भगौने से निकलता है उफनता दूध, सुनो!’

फिर एक दिन एम-ब्लॉक वाली भाभीजी लिखती हैं – ‘सुनो! बेसाख़्ता बेख़याली में निकाल देती हूँ हाथ बाहर, कि तुम पकड़ाओगे टॉवल, सुनो!’

कविताएँ रोमांटिक से रोमांटिकतर होती जाती हैं. श्रृंगार बहता हुआ एम-ब्लॉक से ओ-ब्लॉक आ जाता है. फोन से तो वो पहले ही लीक हो रहा था. पर ध्यान रहे, ओ-ब्लॉक वाली हमारी वुड बी कवयित्री, भाभीजी की कविताओं से प्रभावित नहीं है. कवायरस अलग तरह से काम करता है (हालाँकि इसमें मृत्यु अलग तरीके से होती है).

वो कविता से नहीं, कमेंट्स से ग्रसित होती है. जब वो एम-ब्लॉक वाली भाभीजी की कविता पर आए कमेंट पढ़ती है, तब कवायरस असर दिखाना शुरू करता है. अद्भुत, अप्रतिम, निःशब्द, नमन करता हूँ, कॉपी कल्लूँ क्या, शेयर कर रहा हूँ जैसे पुरुषों के कमेंट ताप बढ़ाने लगते हैं. आप जितनी दिखने में सुंदर है उतना ही सुंदर लिखती भी हैं- ज्वर के लिए उत्प्रेरक का कार्य करता है. फिर आता है सबसे खतरनाक कमेंट – दीदी प्रणाम, आपकी कविताएं मैं अपने ब्लॉग- ‘दीदी की कविताएं’ पर लगाना चाहता हूँ. (Satire by Priy Abhishek)

दीदी! यह शब्द सद्य कवियत्री को अंदर तक बींध देता है. अनजान पुरुषों ने उसे अनेक नामों से पुकारा. पर किसी ने कभी दीदी नहीं कहा. “हाँ, दीदी ही तो बनना चाहती हूँ मैं. एक बार फिर से कहो- दीsदीs….. दीsदीs. कितना प्रेम, कितना अनुराग है इस शब्द में -दीदी.” दीदी शब्द उसके अंतर्मन में गूँजता रहता है. वह बीमारी के मार्ग पर आगे बढ़ती है (हालाँकि इसमें मृत्यु अलग तरीके से होती है).

वो देखती है कि बी-ब्लॉक वाली भाभी ने एम-ब्लॉक वाली भाभी की वॉल पर लिखा है- क्या ख़ूब लिखती हो! वहाँ से वह बी-ब्लॉक वाली भाभी की वॉल पर पहुँच जाती है. वहाँ एम-ब्लॉक वाली भाभी ने लिखा है- क्या खूब लिखती हो!

“अच्छा, दोनों को एक-दूसरे से कहना पड़ता है- क्या खूब लिखती हो.” उसे कविता लेखन का प्रमुख सूत्र मिलता है. अब ज्वर दिमाग़ पर चढ़ जाता है. कविता की किटी में अब एम और बी-ब्लॉक के साथ ओ-ब्लॉक भी शामिल होना चाहता है.

वह पहले एम और बी दोनों भाभियों की वाल पर लिखती है- “क्या खूब लिखती हो!” फिर अपनी कविता लिखती है- “ऐ सुनो!” उसने पहले केवल ‘सुनो’ लिखा, फ़िर एम और बी ब्लॉक को हराने के लिए उसे सुधार कर ‘ऐ सुनो’ कर दिया. “ऐ सुनो! यादों के दूध से उतारती हूँ तेरी बातों की मलाई. यूँ अंकित हैं हृदय में तेरा चेहरा, जैसे पोंछे में छप जाते हैं पाँव.” वायरस अब अपने शबाब पर है. शनै-शनै कमेंट आने लगते हैं. वायरस दूसरी स्टेज की ओर बढ़ जाता है. कविताओं की लंबाई बढ़ती जाती है, और कमेंट्स की संख्या भी. तीसरे चरण आने लगता है. स्त्रियों के विपरीत पुरुषों में स्थिति भिन्न है.

पुरूष पहले से ही कवायरस के सिम्पटम लिए घूम रहे थे. जवानी में वे कभी-कभी कविता लिख देते थे. वे भविष्य में श्रृंगार का बड़ा कवि बनना चाहते थे. पर उनका विवाह हो गया. इतिहास गवाह है कि आज तक अपनी निजी पत्नी को देखकर कवियों ने श्रृंगार की कोई कविता नहीं लिखी. कभी एक-आध लघु कविता आस-पड़ोस में नज़र आ गई तो कागज़ पर उतार दी. कविता लेखन की हरारत बनी रही. पर जब से कोरोना वायरस के चक्कर में लॉक डाउन हुआ, कवायरस ने भी अपना रौद्र रूप दिखाना शुरू कर दिया. पुरुष कवि लॉक डाउन में अपने बीबी-बच्चों के साथ है. वह श्रृंगार पर कविता लिखने में कठिनाई अनुभव करता है. पर ईश्वर प्रदत्त ठलुआपन का उपयोग कविता लिखने से बेहतर और क्या होगा भला! वह कोरोना वायरस से शुरुआत करता है- “जग जाओ तुम, अब मत सोना, देश मे अपने आया कोरोना.” कवायरस असर दिखाने लगता है. ये स्टेज वन की कविता थी. अब वो कोरोना वायरस पर नज़्म लिखने की तैयारी में है. यूँ ही लॉक डाउन चलता रहा तो कोरोना से पहले, कवायरस का तीसरे स्टेज में पहुँचना तय है. फिर मौत का ताण्डव होगा. हालाँकि इसमें मृत्यु अलग तरीके से होती है. (Satire by Priy Abhishek)

अन्य बीमारियों के विपरीत इसमें बीमार कोई और होता है, और मरता कोई और है. मरने की शुरुआत आलोचकों से होती है, फिर पाठकों का नम्बर आता है. केवल ‘आठक’ और ‘पाशिक़’ इससे बचे रहते हैं.

आठक मूलतः आशिक़ होते है. आशिक़ी इनका साध्य है, और पाठक होना साधन. इन्हीं की एक दूसरी श्रेणी  पाशिक़ है. आप सुविधानुसार दोनों शब्दों में से किसी का चुनाव कर सकते हैं. जब आशिक़ी गौण और पाठकी प्रबल हो तो पाशिक़, और जब पाठकी गौण और आशिक़ी प्रबल हो तो आठक. आठक के लिए तो किसी भी कविता के प्रशंसनीय होने हेतु उसके रचनाकार का स्त्री होना ही पर्याप्त है. पाशिक़ पहले मन ही मन आलोचना करता है, और यदि स्त्री सुंदर हो तो उस आलोचना को दबा जाता है. कवायरस से मृत्यु केवल वास्तविक आलोचकों और पाठकों की होती है, इन लोगों की नहीं.

प्रथम चरण में चार-चार लाइनों की कविताएं आती हैं. जिन को पढ़कर आलोचक को बेचैनी होती है. फिर उन पर कोई आठक कमेंट लिखता है- कालजयी रचना, मुक्तिबोध याद आ गए. उसके रिप्लाई में कोई पाशिक़ लिख देता है- सहमत हूँ. सिर्फ़ चार पंक्तियों से कवयित्री को मिले प्रतिसाद को देखते ही आलोचक की तबियत अचानक बिगड़ जाती है. साँस लेने में तकलीफ , सीने में दर्द शुरू हो जाता है. द्वितीय चरण में लम्बी-लम्बी कविताएं आने लगती हैं. जिन को कई वरिष्ठ आलोचक बर्दाश्त नहीं कर पाते और उनके प्राण-पखेरू उड़ जाते हैं. सामान्य पाठक पहला चरण तो झेल लेता है, लेकिन दूसरे चरण से उसे भी तकलीफ़ होने लगती है. यदि लॉक डाउन लम्बा चला तो लोग घरों में ही कविताएं पढ़-पढ़ कर मरने लगेंगे.

अतः निवेदन है कि लॉक डाउन को सफ़ल बनाएं. दिशा-निर्देशों का पालन करें. अन्यथा कोरोना से तो आप बच जाएंगे, पर कविता का कवायरस आपके प्राण हर लेगा. (Satire by Priy Abhishek)

प्रिय अभिषेक
मूलतः ग्वालियर से वास्ता रखने वाले प्रिय अभिषेक सोशल मीडिया पर अपने चुटीले लेखों और सुन्दर भाषा के लिए जाने जाते हैं. वर्तमान में भोपाल में कार्यरत हैं.

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