आजकल सोशल मीडिया और यूट्यूब वगैरह में जो कुमाऊनी थाली दिखाई जाती है उसमें दाल, भात, डुबके, आलू के गुटके हैं. आपको बता दूं यह ही कुमाऊनी थाली नहीं है. इसमें दाल, भात, टपकिया, झोली, मूली का सलाद (कटा या थेचा) भांग, अलसी, दाड़िम, आलूबुखारे, काफल, किरमोड़ा, चलमोड़ी, कच्चे अंगूर आदि में किसी एक की खटाई, उड़द की दाल का बड़ा, दही, रायता, डुबके हैं. साथ में चावल की खीर अमूमन यही है. बाकी चैंसा, ठटवाणी, मसूरी जौला आदि भोजन बहुत हैं पर ऊपर जो चीजें मैंने लिखी हैं वो ही हैं. मुख्यत: यह थाली दिन के खाने की है. परम्परागत तौर पर पहाड़ में दिन में रोटी खायी ही नहीं जाती. वहां पर लंच का मतलब ही भात खाना है. कोई आपसे पूछेगा तो कहेगा – भात खा लिया (दिन में), रोटी खा ली (रात में). रात के खाने में रोटी सब्जी मुख्य है साथ में दही या रायता. इसके अलावा पहाड़ की एक पहचान आलू के गुटके भी हैं.
(Kumauni Khanpan)
आलू के गुटके के बगैर पहाड़ का खानपान अधूरा है. भात के साथ झोली और बड़ी की सब्जी भी बनती है. बड़ी उडद, गहत आदि को ककड़ी मिलाकर या पेठा (कुमिन ) मिलाकर बनती है. बड़ी की सब्जी का भी एक अलग ही स्वाद है. पहाड़ की बड़ी मैदानी बड़ी की तरह मसालेदार न होकर सिम्पल बनती है.
अब आते है त्यौहारों के खानपान की या विशेष मेहमानों के आगमन पर बनने वाले भोजन की. इनमें मुख्य हैं- सिंगल और पुवे. यह चावल के आटे में घी का मोयन डालकर दही में गाढा घोल बनाकर तेल या घी में तले जाते हैं. यह मीठे पकवान हैं इसी घोल से साई या सै भी बनता है. सिंगल पुवा एक ही घोल से बनता है. पुवा कुछ गोल पकौड़े सा और सिंगल जलेबी सा आकार लिए होता है. पर दोनों के स्वाद में अन्तर आ जाता है. यही इसका कमाल है.
सै या साई और सिंगल वी.वी.आई.पी मेहमानों को परोसा जाता है. सिंगल पुवे बनाने की महारत किसी भी पहाड़ी लड़की या महिला का एक अतिरिक्त गुण माना जाता है. यह बना लिये तो समझो पाक कला में प्रवीण है. दही के साथ सिंगल पुवे देना किसी को बड़ा शुभ माना जाता है. इनके महत्व का अंदाजा आप इसी से लगा सकते हैं कि इसके बगैर मिठाई भी अधूरी है. ब्याह शादी में मिठाई के साथ लड़की पक्ष से यह जरूर आता है. इसके बगैर कोई भी भिटौली पूरी नहीं होती.
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भिटौली हर शादी-शुदा लड़की के माइके से चैत के महिने में आने वाला उपहार है जिसमें कपड़े, फल-मिठाई, पकवान रुपये आते हैं. यह पिता और भाई की तरफ से लड़की को हर साल जीवनपर्यन्त दिया जाता है. एक बात और भिटौली अपनी कुआंरी बेटी को भी दिया जाता है. चैत के महिने में किसी दिन बेटी को पूरी, हलवा, सिंगल, पुवे पकाकर खिलाया जाता है और पैसे दिये जाते हैं. यह कुमांऊ की काफी समृद्ध परम्परा है. जब किसी महिला की भिटौली आती है तो वह उसे पूरे गांव में बांटती है. उसके लिए यह एक गर्वित क्षण होता है. भिटौली में आटे के शक्कररपारे और खजूरे भी आते हैं. ये भी परम्परागत पहाड़ी पकवान हैं. खजूरे, शक्करपारे पहले लोग लम्बी यात्राओं पर जाते समय भी पकाकर साथ ले जाते थे. यह दस बारह दिन तक खराब नहीं होते.
इसी तरह आटे का हलवा और कसार (गुड़पापरि भी कहते हैं कहीं-कहीं) पहाड़ों में खाया जाता है. एक और चीज है पहाड़ की गुड़झोली. आटे का रसदार हलवा कह सकते हैं आप इसको. इसमें गुड़ मिला होने के कारण सर्दियों के लिए आदर्श है. पहाड़ों में हलवा ज्यादातर आटे का ही बनता था. मोटा-आटा पिसकर घी में. सूजी का चलन तो बाद में आया. इसके अलावा एक स्नैक्स के तौर पर खीर खाज भी बनता है. चावलों को घी में भूनकर कम दूध डालकर कुछ कच्चा पक्का सा भूनकर बनता है.
पहाड़ी खीर पतली न होकर लटपटी सी बनती है. कहीं-कहीं घी भी डालते हैं. लटपटी खीर तिमलि के पत्ते में गरम गपम जब खायी जाती है तो स्वाद अलग ही होता है. कुछ पकवान पहाड़ों में ऐसे हैं जो विशेष अवसरों पर ही बनते हैं जैसे घुघुते, उड़द की बेडू रोटी (भरवां).
अब बात करते हैं रात की थाली की. रात की थाली बेहद साधारण होती है रोटी-सब्जी. साथ में दही या रायता. खाने के बाद हलवा चल जाता है. बाकी तीज त्यौहारौं में या मेहमान के आने पर पूड़ी बन जाती है. विशेष त्यौहार हो तो सिंगल पुवे-बड़े आदि. सब्जी जिसे पहाड़ी में साग कहा जाता है. तोरी, लौकी, मूली, मटर, टमाटर, चचिडा, भिंडी, बैगन, लाई, गोभी, पत्ता गोभी तो हुई ही इसके अलावा पिनालू, गडेरी (अरबी घुईयां के रिश्तेदार), तरूड़, असकस (असक्वाश भी कहते हैं), लिंगूड (लंगडा), कैरू (शायद शतावर) की कोमल कोपलें, तिमुली, च्यो (मशरूम), सिसूण (कंडाली), मुयां (झाड़ियों में इसकी बेल होती है, आलू जैसा फल जमीन के अन्दर निकलता है). इसके अलावा खाली मठ्ठे की सब्जी (छां क पाणि), धुंगार की सब्जी (धुगार क पाणि), पानी और हल्दी की तरी (हल्दाणि), भांग के बीजों को पीसकर बनायी तरी (भंगझावा), मूली के फलियों की सब्जी, जिसे मेरे पिताजी मुला क सिंगार क्वाश कहते थे, क्वैराल (क्वैराव) के फूलों की सब्जी होती हैं.
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अब बारी आती है आलू की. पहाड़ियों के हिसाब से आलू सब्जियों का चक्रवर्ती सम्राट है. आलू की तो महिमा ही अपार है. शाहजहां को औरंगजेब ने जब जेल में डाला तो पूछा गया कि कोई एक चीज बताओ जो तुम्हें रोज खाने को मिला करेगी. मतलब अलग-अलग डिस नहीं मिलेगी. तब शाहजहां ने अपने खानसामे से पूछा. खानसामे ने बताया कि आप चना कह दो, मैं आपको हर रोज चने की अलग-अलग डिस बनाकर खिला दूंगा. मेरा मानना है कि अगर शाहजहां पहाड़ी होता या खानसामा पहाड़ी होता तो वह लोग निश्चित ही आलू चुनते क्योंकि पहाड़ी आलू की रोज अलग-अलग सब्जी बना सकते हैं. कोई ऐसी सब्जी नहीं जिसमें आलू मिलाकर पहाड़ी न पका सके. हम लोगों का वश चले तो हम खीर में भी आलू मिला दें. वैसे आपकी जानकारी के लिए बता दूं कि रबड़ी में कुछ लोग आलू मिलाते हैं.
पहाड़ का मुख्य व्यंजन है आलू. साधारण साग सब्जी से लेकर व्रत के फलाहार में, मेहमानों के आने पर गुटके बनाकर, आलू चूल्हे की गर्म राख में भूनकर, पानी में उबालकर, बड़े चाव से खाया जाता है. आलू के गुटके हरी चटनी पुदीने की या भांग की चटनी के साथ या रायते के साथ या काले चने के साथ खाना पहाड़ियों का प्रिय शगल है. आलू को पहाड़ी हर सब्जी में मिलाने का काम कर लेते हैं. आलू को काटकर, थेचकर (क्रश करके) साबुत, छीलकर, बिना छिले, उबालकर किसी भी प्रकार से बना लेते हैं.
अगर घर में किसी दिन कोई सब्जी तय न हो पा रही हो तो अन्तिम निर्णय आलू की सब्जी होती है. मेहमान कैसा भी हो विभिन्न पकवानों के बीच एक सब्जी आलू जरूर होगी. पहाड़ में एक कहावत है – आलू और जोशी सब जगह पाये जाते हैं.
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वर्तमान में हरिद्वार में रहने वाले विनोद पन्त ,मूल रूप से खंतोली गांव के रहने वाले हैं. विनोद पन्त उन चुनिन्दा लेखकों में हैं जो आज भी कुमाऊनी भाषा में निरंतर लिख रहे हैं. उनकी कवितायें और व्यंग्य पाठकों द्वारा खूब पसंद किये जाते हैं. हमें आशा है की उनकी रचनाएं हम नियमित छाप सकेंगे.
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