कला साहित्य

जन्माष्टमी पर विशेष: नज़ीर अकबराबादी की नज़्म “यारो सुनो ये ब्रज के लुटैया का बालपन”

आज से कोई तीन सौ बरस पहले आगरे में एक बड़े शायर हुए नज़ीर अकबराबादी.

नज़ीर अकबराबादी साहब (१७४०-१८३०) उर्दू में नज़्म लिखने वाले पहले कवि माने जाते हैं. समाज की हर छोटी-बड़ी ख़ूबी नज़ीर साहब के यहां कविता में तब्दील हो गई. पूरी एक पीढ़ी के तथाकथित साहित्यालोचकों ने नज़ीर साहब को आम जनता की शायरी करने के कारण उपेक्षित किया – ककड़ी, जलेबी और तिल के लड्डू जैसी तुच्छ वस्तुओं पर लिखी गई कविताओं को ये सज्जन कविता मानने से इन्कार करते रहे. वे उनमें सब्लाइम एलीमेन्ट जैसी कोई चीज़ तलाशते रहे जबकि यह मौला शख़्स सब्लिमिटी की सारी हदें कब की पार चुका था. बाद में नज़ीर साहब के जीनियस को पहचाना गया और आज वे उर्दू साहित्य के शिखर पर विराजमान चन्द नामों के साथ बाइज़्ज़त गिने जाते हैं.

जीवन भर नज़ीर आगरे के ताजगंज मोहल्ले में रहे ‘लल्लू जगधर का मेला’ की टेक में वे कहते भी हैं: “टुक देख रोशनी को अब ताजगंज अन्दर”. तमाम मेलों, त्यौहारों, सब्ज़ियों, जीवन-दर्शन, प्रार्थनाओं, पशु-पक्षियों, देवी-देवताओं पर लिखी नज़ीर अकबराबादी की लम्बी नज़्में एक महात्मा कवि से हमारा परिचय कराती हैं.

नज़ीर अकबराबादी

उनके यहां गणेश जी की स्तुति होती है तो बाबा नानक और हज़रत सलीम चिश्ती की भी. होली, दीवाली, ईद और राखी पर भी उनकी कलम चली है. “सब ठाठ पड़ा रह जाएगा जब लाद चलेगा बंजारा” जैसी महान सूफ़ियाना पंक्तियों से उनका सूफ़ी साहित्य बेहद समृद्ध है.

श्रीकृष्ण की बाललीलाओं से प्रेरित उनकी एक नज़्म बहुत विख्यात हुई. बोली की मिठास और भक्ति का अनूठा संगम इन नज़्म की खूबी है. जिस सादगी वे कृष्ण कन्हैया के बचपन और उस विराट बचपन के परिवेश का वर्णन करते करते हैं वह बेमिसाल है. उससे भी अधिक बेमिसाल है उनके शब्दों का चयन. इस नज़्म को पीनाज़ मसानी ने भी गाया ही और अहमद हुसैन-मोहम्मद हुसैन ने भी. जब तक नज़ीर की कविता जीवित है भारत की गंगा-जमुनी तहजीब भी जीवित रहेगी. पढ़िए –

यारो सुनो ये ब्रज के लुटैया का बालपन
और मधुपुरी नगर के बसैया का बालपन ।।

मोहन-स्‍वरूप नृत्‍य, कन्‍हैया का बालपन
बन बन के ग्‍वाल घूमे, चरैया का बालपन
ऐसा था, बांसुरी के बजैया का बालपन
क्‍या क्‍या कहूं मैं कृष्‍ण कन्‍हैया का बालपन
और मधुपुरी नगर के बसैया का बालपन ।।

ज़ाहिर में सुत वो नंद जसोदा के आप थे
वरना वो आप ही माई थे और आप ही बाप थे
परदे में बालपन के ये उनके मिलाप थे
ज्‍योतिस्‍वरूप कहिए जिन्‍हें, सो वो आप थे
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन
और मधुपुरी नगर के बसैया का बालपन
क्‍या क्‍या कहूं ।।

उनको तो बालपन से ना था काम कुछ ज़रा
संसार की जो रीत थी उसको रखा बचा
मालिक थे वो तो आप ही, उन्‍हें बालपन से क्‍या
वां बालपन जवानी बुढ़ापा सब एक सा
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन
और मधुपुरी नगर के बसैया का बालपन
क्‍या क्‍या कहूं ।।

बाले थे ब्रजराज जो दुनिया में आ गये
लीला के लाख रंग तमाशे दिखा गये
इस बालपन के रूप में कितना भा गये
एक ये भी लहर थी जो जहां को जता गये
यारो सुनो ये ब्रज के लुटैया का बालपन
और मधुपुरी नगर के बसैया का बालपन
क्‍या क्‍या कहूं ।।

परदा ना बालपन का अगर वो करते जरा
क्‍या ताब थी जो कोई नज़र भर के देखता
झाड़ और पहाड़ ने भी सभी अपना सर झुका
पर कौन जानता था जो कुछ उनका भेद था
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन
और मधुपुरी नगर के बसैया का बालपन
क्‍या क्‍या कहूं ।।

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