कोट भ्रामरी अथवा कोट की माई उत्तराखण्ड के कुमाऊं मंडल के बागेश्वर जनपद में प्रसिद्ध बैजनाथ मंदिर समूह से लगभग 3 किलोमीटर की दूरी पर एक ऊंची पहाड़ी पर अवस्थित है.
कोट की माई अथवा भ्रामरी देवी के नाम से जाना जाने वाला यह देवालय इस लिहाज़ से महत्वपूर्ण है कि यहां पर कत्यूरियों की कुलदेवी भ्रामरी और चन्दों की कुलदेवी नंदा की सामूहिक अर्चना की जाती है.
भ्रामरी देवी का विवरण दुर्गा सप्तशती के ग्यारहवें अध्याय में प्राप्त होता है. नंदा के सम्बन्ध में यह जनश्रुति प्रचलित है कि जब चंद शासक नंदा की शिला को गढ़वाल से अल्मोड़ा के लियी ला रहे थे तो रात्री विश्राम हेतु इसके निकटस्थ झालीमाली गाँव में रुके थे. अगले दिन प्रातःकाल इसे ले जाने के लिए जब सेवकों ने इसे उठाना चाहा तो शिला को उठाना तो क्या वह उनसे एक इंच भी न हिल सकी. वे सब हताश होकर बैठ गए. तब ब्राह्मणों ने राजा को सलाह दी कि देवी का मन यहाँ रम गया है, वह यहीं रहना चाहती है अतः आप इसकी यहीं पर स्थापना कर दें. तदनुसार झालीमाली गाँव में ही एक देवालय का निर्माण करवा कर वहीं पर उसकी प्रतिष्ठा करवा दी गयी और कई वर्षों तक्क उसकी पूजा-आराधना की जाती रही. किन्तु बाद में भ्रामरीदेवी के साथ ही नंदा की स्थापना भी की गयी और इसका पूजन नन्दाभ्रामरी के रूप में किया जाने लगा. चैत्र तथा भाद्रपद मास की नवरात्रों में यहाँ पर विशेष उत्सवों का आयोजन होता है.
इसके अतिरिक्त यहाँ पर भाद्रपद मास की सप्तमी की रात्रि को जागरण होता है जिसमे परम्परागत रूप में गौणाई के बोरा जाति के लोगों द्वारा नंदा के नैनोकों (कथागीतों) का गायन किया जाता है. इन सामूहिक कथागीतों में एक तरफ पुरुषों और एक तरफ महिलाओं की सहभागिता हुआ करती है. इसमें गौणाई के कोलतुलारी तथा दरणा तोकों के मठाणी ब्राह्मणों के परिवारों में नंदादेवी का अवतरण भी होता है. इस अवसर पर घेटी अम्स्यारी के लोगों के द्वारा केले के पौधों के तनों से नंदादेवी के डिकरे बनाए जाते हैं तथा अगले दिन यानी अष्टमी को देवी का पूजन तथा बलिदान किया जाता है. मंदिर की पूजा अर्चना का दायित्व तैलीघाट के तिवाड़ियों का हुआ करता है. चमोली, दानपुर, गिवाड़, सोमेश्वर तथा बोरारौ की जनता की बहुमान्य देवी होने के कारण इन क्षेत्रों के लोग भी शुभ मांगलिक अवसरों पर यहाँ आकर अपने श्रद्धासुमन चढ़ाने आते हैं. इसके अतिरिक्त चैत्र मास की नवरात्रियों की अष्टमी को भी यहाँ पर पूजोत्सव का आयोजन होता है जिसमें काफी संख्या में श्रद्धालुओं की भागीदारी रहती है.
नंदा के रूप में इसका सम्बन्ध नंदा की राजजात से भी सम्बद्ध है. नौटी से आयोजित की जाने वाली नन्दाजात में सम्मिलित होने के लिए अल्मोड़ा से प्रस्थान करने वाली जात का दूसरा रात्रि विश्राम यहीं होता है. यहीं से राजजात में जाने वाली देवी की स्वयंभू कटार को ले जाया जाता है जो कि ग्वालदम, देवाल होते हुए नन्दकेसरी में प्रधान जात में सम्मिलित होती है तथा राजजात की समाप्ति पर पुनः इसे यहीं लाकर स्थापित कर दिया जाता है.
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महोदय इस प्रसंग में मां नंदा के भ्ररमर रूप या अवतार वाली लोक गाथा का जिक्र नहीं है। और वह गांव गौणाई नहीं है शायद, देवनाई या धौनाई बोलते है