Featured

तराई-भाबर के खत्तों में रहने वाले घमतप्पू पशुपालक

कुमाऊं की ठंडी पहाड़ियों में रहने वाले लोग लम्बे समय से जाड़ों के मौसम में तराई क्षेत्र में आ जाया करते हैं. ये लोग भयंकर जाड़े से बचने के लिए अपने पालतू जानवरों के साथ तराई के अपेक्षाकृत गर्म मौसम वाले इलाकों में उतर आया करते थे. (Khatta Tarai Bhabar Kumaon)

इस तरह तराई के जंगलों में इनके आने से बस गयी अस्थाई बस्तियों को खत्ता या गोठ कहा जाने लगा. जाड़ों की हाड़ कंपा देने वाली ठण्ड में मैदानों में उतर आने वाले इन लोगों को घमतप्पू (धूप सेंकने वाला) भी कहा जाता है.

इन खत्तों में घास की बहुतायत और मवेशी चराने में सुविधा हुआ करती थी, इससे जानवर पालने में आसानी हुआ करती. खत्तों में बसने वाले लोग दुधारू पशुओं से प्राप्त दूध से घी या खोया बनाकर निकट की बस्तियों व बाजारों में आसानी से बेच भी सकते थे.

ब्रिटिश शासनकाल में खत्ते वाले जंगलों व खेतों में मजदूरी भी करने लगे.

शुरुआत में घमतप्पू गर्मियां शुरू होते ही वापस पहाड़ों में लौट जाया करते थे. कालांतर में उनमें से कुछ ने साल भर यहीं रहना शुरू कर दिया. फलतः कुछ गोठ या खत्ते स्थायी प्रकृति के हो गए और कुछ अस्थायी बने रहे. वन विभाग के दस्तावेजों में भी इन खत्तों को अस्थायी और स्थायी के तौर पर दर्ज किया गया है.

घमतप्पुओं के इस पहाड़ और तराई के बीच सालाना आवागमन की शुरुआत के बारे में प्रमाणिक तौर पर कुछ कह पाना मुश्किल है. कुछ गोठ प्रवासियों की मान्यता है कि वे कुमाऊं में चंद शासनकाल से पूर्व ही जाड़ों में तराई-भाबर आते रहे हैं. इस धारणा का कोई दस्तावेजी आधार नहीं है. लेकिन वन विभाग के 1890 के एक प्रलेख में घमतप्पुओं के गोठ या खत्तों में रहने की शर्तों का उल्लेख जरूर मिलता है. सन 1909 में अंग्रेजों ने तराई-भाबर के जंगलों में मवेशियों को चराने तथा घास व जलावन ले जाने के नियमों में भी इनका जिक्र मिलता है.

तराई-भाबर में हर साल पहुँचने वाले ये प्रवासी मुख्यतः पिथौरागढ़, अल्मोड़ा जिलों के बारामंडल, पाली-पछाऊँ, काली कुमाऊं और फल्दाकोट इलाकों के निवासी हुआ करते थे.

अंग्रेजों ने घमतप्पुओं के जंगलों में प्रवास को प्रोत्साहित ही किया था, इसके कई कारण थे. वे तराई भाबर को आबाद करना चाहते थे. घमतप्पुओं कि बदौलत आबादी के दूध और दुग्ध उत्पाद की जरूरतें पूरी हो जाया करती थीं. उस समय की 2 जानी-मानी दूध का व्यवसाय करने वाली फर्म, एडवार्ड केवेंटर और हेल्थ कैमिकल्स भी खत्तों से दूध खरीदने लगी थीं. उस समय तराई-भाबर के घने जंगलों को डाकुओं व अपराधियों की शरणस्थली हुआ करते थे. इनसे निपटने में भी खत्तों की आबादी सहायक थी.    

इस समय तराई-भाबर में 84 खत्ते हैं जो लगभग 2000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले हुए हैं. वन विभाग के 1973 के सर्वे के मुताबिक इनमें 33 स्थायी और 51 अस्थायी हैं. स्थायी खत्तों में 551 परिवार रहते हैं और उनके मवेशियों की तादाद 6361 थी.  

हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें: Kafal Tree Online

उत्तराखण्ड का समग्र राजनैतिक इतिहास (पाषण युग से 1949 तक) – डॉ. अजय सिंह रावत, के आधार पर

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Sudhir Kumar

Recent Posts

अंग्रेजों के जमाने में नैनीताल की गर्मियाँ और हल्द्वानी की सर्दियाँ

(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में आज से कोई 120…

2 days ago

पिथौरागढ़ के कर्नल रजनीश जोशी ने हिमालयन पर्वतारोहण संस्थान, दार्जिलिंग के प्राचार्य का कार्यभार संभाला

उत्तराखंड के सीमान्त जिले पिथौरागढ़ के छोटे से गाँव बुंगाछीना के कर्नल रजनीश जोशी ने…

2 days ago

1886 की गर्मियों में बरेली से नैनीताल की यात्रा: खेतों से स्वर्ग तक

(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में…

3 days ago

बहुत कठिन है डगर पनघट की

पिछली कड़ी : साधो ! देखो ये जग बौराना इस बीच मेरे भी ट्रांसफर होते…

4 days ago

गढ़वाल-कुमाऊं के रिश्तों में मिठास घोलती उत्तराखंडी फिल्म ‘गढ़-कुमौं’

आपने उत्तराखण्ड में बनी कितनी फिल्में देखी हैं या आप कुमाऊँ-गढ़वाल की कितनी फिल्मों के…

4 days ago

गढ़वाल और प्रथम विश्वयुद्ध: संवेदना से भरपूर शौर्यगाथा

“भोर के उजाले में मैंने देखा कि हमारी खाइयां कितनी जर्जर स्थिति में हैं. पिछली…

1 week ago