उन सम्मोहक और छलछलाते हुए कामरस से ओत-प्रोत दिव्य नारी स्वरूपों को आप कहेंगे जो किसी सुरम्य शिखर और पुष्पित उपत्यका, शांत सरोवर या गिरिवन में प्रकट होकर किसी सुन्दर युवक का अपहरण कर गायब हो जाय? जो अदृश्य होने पर भी अपना अस्तित्व महसूस करा दे और प्रसन्न होने पर जो किसी भी साधक की झोली सिद्धियों से भर दें? उन्हें कहते है केदारखंड की रहस्यमयी ‘अंछरिया’.
(Kedarkhand Bhagwati Prsaad Joshi Himvantvasi)
प्राचीन विद्वानों द्वारा भारत के उत्तर में फैले महाहिमालय को पांचों में विभाजित किया गया है. नेपालखंड, मानसखंड (कूर्माचल), केदारखंड (गढवाल मंडल) जलंधरखंड (हिमाचल) तथा कश्मीरखंड. इसके मध्य में स्थित केदारखंड की महिमा स्कंधपुराण केदारखंड ग्रंथ में विस्तारपूर्वक वर्णित है. भारत की महान धार्मिक और सांस्कृतिक धारा गंगा इसी भूखंड में अवतरित हुई है. यहीं बद्री-केदार गंगोत्री-यमुनोत्री धाम अवस्थित है. अलकापुरी यहीं है और यहीं है विश्वविख्यात भ्युडार घाटी का पुष्प कानन देवताओं का नंदन वन भारत के गणराज्य का सबसे सुंदर एवं सर्वोच्च नन्दादेवी शिखर भी यहीं है. केदारखंड ग्रंथ के अनुसार गंगाद्वार (हरिद्वार) से लेकर महाहिमालय पर्वत तथा तमसा (टोंस) से नंदा देवी शिखर पुंज तक फैला हुआ भूखंड केदारखंड (गढवालमंडल) कहलाता है. पुराणों ने इसे वारम्बार देवभूमि या हिमवंत नाम से पुकारा है. यक्ष, किंनर, विद्याधर, किरात आदि प्राचीन जातियों की निवास स्थलिंया तथा अप्सराओं की विचरण बीथियां भी इसी भूभाग में रही हैं.
पुराणों और अन्य संस्कृत वाग्मय में उर्वशी, मेनका आदि अप्सराओं के कथानक आते हैं. केदारखंड के दक्षिणांचल में मालिनी तट पर कभी मेन शकुन्तला को जन्म दिया था. राजा पुरूरवा तथा उर्वशी का मिलन एवं विछोह भी कभी यहीं मंदाकिनी नदी के तटवर्ती सिकता पर्वत पर हुआ था. किन्तु जिस प्रकार विश्वभर के बाल-साहित्य में वर्णित परियों तथा फारसी अदब में वर्णित कोहेकाफ़ की हूरों का कोई वजूद नहीं है, उसी प्रकार स्वर्गलोक की अप्सराओं का भी कोई अस्तित्व नहीं है. परन्तु केदारखंड में ‘अंछरियों का निवास है. यहां के अनेकों स्थलों, पहाड़ों, मैदानों आदि के नाम अंछरियों पर है. जैसे- अंछरीखाल, अंछरीसैंण, अंछरीडांडा, अंछरीताल व अंरीधारा आदि.
केदारखंड के निवासी केवल आंछरियों का अस्तित्व ही नहीं स्वीकारते वरन् उनमें से अनेकों ने उनको और उनके वैभवशाली जीवन को देखा भी है. स्थानीय मान्यताओं के अनुसार महाहिमालय के पाद प्रदेश में आज भी अनेकों सिद्ध-पुरुष निवास करते हैं जिन पर अंछरियां प्रसन्न हैं और वे उन्हें हर प्रकार की सुविधा प्रदान करती हैं. प्रायः इस क्षेत्र की ग्रामीण माताएं अपने किशोरों या सुंदर युवा बच्चों को अकेले अंछरियों द्वारा प्रकुपित निर्जन वनों, पठारों एवं पर्वतों की इलानों पर पशुचारण आदि कार्य के लिए नहीं भेजती हैं. मौल्यार वसंत में जब बन लाल बुरांश के फूलों की आभा से रक्तिम हो उठते हैं, पहाड़ की इलानों और खेतों की मेड़ों को जब फ्युंलाड़ी के फूलों का वासन्ती आवरण ढक लेता है और मंद मादक वासंती पवन बहने लगती है या जब ग्रीष्म में सूर्य की सीधी किरणों से शाश्वत हिमरेखा के पादप्रदेश की बुग्यालों (मखमली पास) के पठार में हिम की परतें चटकाकर जब नन्हें-नन्हें रंग-बिरंगे फूलों के दल सिर उठाने लगते हैं और अपरान्ह में चक्रवात चकभेरियों की भांति मंडराने लगते हैं तो प्रकृति का नैसर्गिक सौंदर्य अपने चरम बिन्दु पर पहुंच जाता है. फलतः इस सौन्दर्यातिरेक के कारण सारा वातावरण स्वयं ही भयावह हो जाता है. मान्यता है ऐसे में अदृश्य अंछरियों का उत्पात बढ़ जाता है. अकेले दुकेले युवा, विशेषरूप से युवावस्था की दहलीज की ओर बढते हुए किशोरों को अंरियों की ‘बयाल’ (हवा) लग जाती है और अधिक सान्निध्य होने पर ‘हरपाई’ लगती है और अंछरियों के प्रकट होने पर तो सीधे अपहरण ही हो जाता है. बाल या ‘हरपाई लगने पर मूर्खता, उन्माद एवं कामज्वर के लक्षण प्रकट होने लगते है जिनको पूर करने के लिए तांत्रिक या ‘जागरी’ बुलाने पड़ते हैं.
(Kedarkhand Bhagwati Prsaad Joshi Himvantvasi)
लेखक को विकास विभाग के अधिकारी के पद पर केदारखण्ड सहित सारे उत्तराखण्ड के अन्तरतम भागों में भ्रमण करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है और उसकी निश्चित धारणा है कि अंछरियां और कुछ नहीं भारत की प्राचीन जाति यक्षों से सम्बन्धित है. ”यक्षिणी (यक्षी) का ही पर्वतीय-अपभ्रंश है, जिसकी व्युत्पति तद्भव रूप से इसी शब्द से हुई है. अपभ्रंश में ‘य’ का ‘अ’ और ‘क्ष’ का होने के अनेकों उदाहरण हैं. निःसंदेह यह प्राचीन जाति अपनी सिद्धियों के बल पर आज भी मानव चक्षुओंओं से ओझल रहकर सुरम्य स्थलों पर निवास कर रही है. मात्र अदृश्य कहकर ही किसी शक्ति की मान्यता को अंधविश्वास कह देना अवैज्ञानिक है. शक्ति, विद्युतधारा, चुम्बकीयसंचाव तथा पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति सभी अदृश्य हैं तो क्या इन सबका अस्तित्व नकारा जा सकता है? ब्राह्मण, बौद्ध व जैन साहित्यों, महाकवि कालिदास के अमर काव्यों महाभारत भारत के प्राचीन इतिहास, अनुवांशिकशास्त्र य राजशेखर के आख्यानों में भारत की प्राचीन जाति यक्ष, किन्नर, गर्धन, विद्याधर एवं किरात आदि का वर्णन मिलता है. शुंग-काल (ईसवी पूर्व दूसरी शताब्दी) के पश्चात् इन सभी जातियों के महाहिमालय के केदारखण्ड की हिमानी ढलानों एवं गंगा के प्रभवअचल (स्रोत) की उपत्यकाओं में सिमट आना प्रतीत होता है.
किन्नर और किरात कूट पर्वत बुग्यालों के पठारों तथा तिब्बत की सतुलुज उपात्यका (दापा घाटी) की मिली-जुली बस्तियों में निवास करने लगे किन्नरजाति अपने मधुर कंठ और गायन के लिए प्रसिद्ध थी पर्वतों पर देव रियाल और उपात्यकाओं में वे नरकुल की वेणुं बनाते थे और दांतों से दबाकर उंगली से बजाये जाने वाले तारवाध्य मोछंग पर वे त्रिपुर विजय के गीत गाते हुए गिरि-पनों में विचरण करते रहते थे. किन्नर अपेक्षाकृत उदार जाति थी और हेमकूट पर्वत पर साधना करने वालों से अनायास सिद्धि प्राप्त करवा देती थी. इसके विपरीत के अनुसार किरात मांसाहारी आखेटप्रिय एक पशुचारक जाति थी. आज भी यह जाति दुर्गम भोटांतिक क्षेत्र में पशुचारण तथा व्यापार द्वारा जीवन यापन करती है.
गंधर्व सामवेद के ज्ञाता, संगीतशास्त्र के महापंडित थे. अपनी विद्वता एवं कला सिद्धि के कारण इन्हें देवयोनि प्राप्त होना बताया गया है. विद्याधर एक सुदर्शन जाति थी अथर्ववेद यंत्र-मंत्र-तंत्र की तीनों विधाओं में पारंगत थी और यक्षों की भांति ही सदेह आकाश गमन में सक्षम थी. इसका मुख्य निवास केदारनाथ और काली मठ क्षेत्र था, यह जाति अब लुप्तप्राय है.
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यक्ष उक्त सभी जातियों में सर्वाधिक सम्पन्न, सुंदर बलवान जाति है. रद्धि-सिद्धियों से भरपूर यह समृद्ध जाति कामाचार और भोग-विलास में लिप्त होने के कारण देवयोनि से च्युत हो गई और मात्र अपनी सिद्धयों के बलपर अदृश्य जीवन जी रही है. अंग्रेजी में यक्षों के लिए जीनी (Genie) शब्द आया है जिसके अनुसार यह एक पिचाश जाति है, किन्तु यह निराधार है. यक्ष की बात सोचते ही बरबस महाभारत के उस यक्ष का स्मरण हो आता है जिसने बलवान पांडवों को अपनी कन्दरा में बंदी बनाकर युधिष्ठर से कुछ प्रश्न पूछे थे जिनका समुचित उत्तर न मिलने पर उसने उनका वध कर देने की धमकी दी थी.
“यक्ष प्रश्न” का यह प्रकरण जहां आज हिन्दी का एक सशक्त मुहावरा बन गया है वहीं यह यक्षों की बलबुद्धि का द्योतक भी है. महाकवि कालीदास ने तो अलकापुरी मे निर्वासित एक विरह-विकल एवं रसिक पक्षको माध्यम बनाकर अपने सुललित अमरकाव्य मेघदूत की ही रचना कर डाली है. यक्ष-जाति एवं उनकी नगरी अलकापुरी के सम्बंध में डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल ने मेघदूत-एक अध्ययन पुस्तिका में लिखा है कि यक्ष भारत की एक प्राचीन जाति है. अलकापुरी कैलास के उत्संग में बसी हुई है. वहां राजराजा कुवेर राज्य करते हैं. कुबेर के अनुचर यक्ष हैं जिनमें कामरस ओत-प्रोत भरा रहता है. यक्षों के घरों में अनन्त धनराशियां है जिनके कारण आर्थिक चिन्ता से मुक्त होकर बिहार एवं निवेश को ही जीवन का समते हैं किन्तु अलकापुरी एवं कैलास पर्वत की स्थिति के बारे में अनेकों भ्रांतियां हैं. महाकवि कालीदास ने अलकापुरी को गंधमादन पर्वत की ढाल पर गंगा की प्रमुख एवं सर्वाधिक जलराशि-सम्पन्न धारा-अलकनंदा इसी पर्वत के पार्श्व के अलकापुरी बांक (हिमनद) से उद्गमित होती है. अतः वर्तमान बदरीनाथपुरी अथवा माणा (मणिभद्र) ही अलकापुरी है-ऐसा आभास होता है. मणिभद्र ग्राम में आज भी भोटांतिक किरातों की वसागत है. बद्रीनाथ जी की पूजा के साथ-साथ कुबेर की भी बद्रीधाम में पूजा की जाती है और पांडुकेश्वर के आस-पास के निवासियों के आज भी ‘मणिवान पर्वत’ और गंगा के अलकापुरी के निकट बहने का वर्णन आता है.
आकाश मार्ग से केदारखंड का भ्रमण करते हुए कृष्ण एवं अर्जुन ने पुण्यवान् हिमालय के शिखर तथा ज्योति से जगमगाते तथा सिद्ध एवं चारणों से से सेवित मणिवान पर्वत के दर्शन किए. उन्होंने कुबेर के उद्यान में हिम-पद्म विभूषित सरोवर एवं अगाध जलराशि सम्पन गंगाजी का अवलोकन किया और इनका दर्शन करते हुए वे मन्दराचल की ओर बढे जो अप्सराओं एवं किन्नरों से समाकीर्ण होकर सुशोभित हो रहा था.” ‘मेघदूत’ और ‘विक्रमोर्वीयम्’ में वारम्वार वर्णित एवं महाकवि की प्रिय नदी मन्दाकिनी का उद्गम भी गन्धमादन पर्वत के ही पार्श्व में है. किन्तु महाभारत भीष्मपर्व में हेमकूट पर्वत को ही कैलास पर्वत कहा गया है- “हेमकूटस्तु सुमहान कैलासो नाम पर्वतः” इस प्रकार कैलास पर्वत के उत्संग में बसी हुई अलकापुरी की स्थिति कुछ अपष्ट हो जाती है किन्तु उसके गंगा तट के निकट बने होने में कोई संदेह नहीं है. क्योंकि पुराणों के अनुसार गंगा की सप्तधाराओं में अलकनंदा का प्रथम स्थान है और अलकापुरी का इसी के तट पर बसा होना तर्कसंगत लगता है.
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महाकवि कालिदास के मेघदूत काव्य में यक्ष द्वारा वर्णित पक्षिणी का हूलिया हूबहू केदारखंड में प्रचलित अंछरियों के नख-शिख-वर्णन से मिलता जुलता है –
तन्वी श्यामा शिखिरदशाना पक्व विम्बोधारोष्ठी
(उत्तर मेष / 19)
मध्ये क्षामा चकित हरिणी प्रेक्षणा निम्न नाभिः
श्रोणीभारा दल सगमना स्तोकनम्नास्तानाम्याँ
या तत्र स्याद्युवति विपये सृष्टिराधेव धातुः
अर्थात् “देह की छरहरी उन्नत यौवन वाली, तीखे दांतों वाली, पके विम्ब कुंदरू के लाल फलों से अधरों वाली, कमर की पतली हिरनी की-सी चंचल चितवन वाली, गहरी नाभि वाली, श्रोणी भार के कारण चलने में आलस्य करती हुई एवं स्तन भार से कुछ झुकी हुई-ऐसी है मेरी पत्नी वहाँ अलकापुरी की युवतियों में ब्राह्मा की प्रथम कृति के समान”
पटना संग्रहालय में दीदारगंज से प्राप्त ई. पूर्व दूसरी शती की यक्षिणी (यक्षी) की रसवंती प्रतिमा जो सम्प्रति विदेशों में हो से भारत महोत्सव के प्रवेशद्वार पर सर्वाधिक विदेशी दर्शकों को आकर्षित कर रही है यह सिद्ध करने के लिए काफी है कि जिस अंछरी (यक्षी) की पाषाण प्रतिमा ही इतनी आर्कषक हो यह निसंदेह यदि किसी सुरम्य पर्वत शिखर पर एकाकी मिल जाय तो कितनी लोमहर्षक होगी?
यक्ष एवं यक्षिणियों के अदृश्य निवास वेसे सारे केदारखंड में हैं किन्तु इन्हें मुख्य रूप से अपने अल्कापुरी का प्रदेश एवं गंगा तथा उसकी सहायक सरिताओं की घाटियां ही प्रिय हैं. श्रंगार प्रिय एवं काम-रस से ओतप्रोत यक्ष-यक्षिणियों को फूलों की घाटियां, मध्यहिमालय की मखमली घास के मैदान (बुग्याल) और नदियों की सुरम्य तलहटियां विशेष प्रिय है. विश्वविख्यात भ्यूंडार (फूलों की पाटी) के अतिरिक्त टिहरी में भागीरथी से संगम बनाने वाली भिलंगना नदी के उद्गम खतलिंग (हिमनद) पंनाली एवं कोटाडी स्थान को परियों की (अंछरियों की) घाटी कहा जाता है. जिसकी फूलों की पाटी किसी भी प्रकार भ्यूंडार से कम मनोहर नहीं है.
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इसी प्रकार हेलंग की कल्पनाथ फूलों की उपत्यका भी प्रसिद्ध है. नंदादेवी शिखर पुंज के पाद प्रदेश में स्थित रूपकुण्ड नंदाकिनी नदी की घाटी एवं बेदनी बुग्याल सहित समस्त क्षेत्र को ‘अंछरियों का मुलुक (अंछरी प्रदेश) कहा जाता है. अलकनंदा नदी की प्रारम्भिक उपत्यका ‘ओली धारा एवं गन्धमादन पर्वत की ढलाने ‘अंछरियों कू मैत अर्थात मायका कहलाता है. किन्तु सर्वाधिक चंचल एवं रसवंती अंछरियां टिहरी के पास भागीरथी में मिलने वाली भिलंगना नदी के बाएं तटपर बड़े ‘खैंट’ पर्वत शिखर की मानी जाती हैं. उनके निवास के चिन्ह अभी भी मिलते हैं वे केवल ‘बयाल’ या ‘हरपाई लगाकर ही संतोष नहीं करती, अपहरण करके ही दम लेती है. इसी प्रकार केदारनाथ की मंदाकिनी उपत्यका यक्षिणियों एवं विद्याधरियों की परमप्रिय उपत्यका है. दक्षिण गढ़वाल में शकुतंला की जन्मस्थली के निकट बहने वाली मालिनी नदी के तटपर खड़े माधवीलता-गुल्मों के झुरमुट और पास ही बसे ‘परिन्दागांव’ के समीप रमणीक पहाड़ी की अंछरियां अपने परोपकारी स्वभाव के लिए प्रसिद्ध हैं.
यक्षिणियों द्वारा मानवीय अपहरण की अनेकों घटनाएं गढ़वाली लोकगीतों में सुरक्षित हो चुकी हैं. जिसमें कुछ तो अत्यंत मार्मिक हैं. इनमें बहुत पुरानी और नवीन दोनों प्रकार की घटनाएं हैं. डमरू की डिमाक के साथ आज भी लोक गीतकार किसी नागसूर्य नामक राजकुमार के गीत सुनाते हैं. ईसा की छठी शताब्दी में केदारखंड में नागवंश का राज्य था यह एक बार अलकनंदा में स्नान करती अलकापुरी की ‘अंछरी राजकुमारी पर मोहित हो गया था. यह उसे पाने के लिए ‘भोटान्त’ जाने के लिए तत्पर हो जाता है. उसे न जाने के लिए बहुत समझाया जाता है कि
भोटांत नि जाणू नाग सूरिजा, अंछरीयूं कु मुलुका नाग सूरिजा,
तेरि श्यामकर्णी घोड़ी दणमण रोंदी, तेरि जिया बोई रोई रोई बोदी-
भोटांत नि जाणूं नाग सूरिजा, अंछरियों कू मुलुक नाग, सूरिजा…
मायावी अंछरी नाग सुरीजा त्वे मारी ढोलकी नाग सूरीजा.
अर्थात हे नागसूर्य ! भोटांत मत जा, यह अंछरियों का देश है. देख, तेरी श्यामकर्णी घोड़ी तक रो रही है, तेरी जन्म देने वाली माता भी रो-रो कर कह रही हैं- बेटा यहां की अंछरियां मायावी हैं – वे तुझे मार डालेंगी. किन्तु लोकगीतों में संचित सबसे नई एवं अत्यंत मार्मिक घटना जीतू बगड्वाल नामक एक किशोर की है. यह भिलंगना नदी की दाहिनी ओर पड़ने वाली धार-मंडल पट्टी का निवासी था. एक धनवान किसान परिवार की विधवा माँ का इकलौता पुत्र पा जीतू. कुन्दन सा बदन, तीखे नाक-नक्श वाला यह गबरू किशोर जवानी की देहली पर था, मस्सें भीगने लगी थीं. कलाईयों में चांदी के धगुले, कानों में सोने की मुरखियां और हाथों में उसके हमेशा ‘मोछंग-मुरली ‘रहती थी. बजाने में इतना पटु कि आदमी तो आदमी भिलंगना का जल तक चकभेरियां दे-देकर नाचने लगता. चिड़ियां अपना चहकना भूल जातीं.
जीतू की एक बहन थी जिसका विवाह खैंट पर्वत की दूसरी ओर कहीं था. एक बार संदेश आया कि उसकी बहन का पहला पुत्र हुआ है. उसकी माँ ने नाना प्रकार के पकवान बनाये, सौभाग्य सूचक बंगार सामग्री मंगवाई, वस्त्राभूषण तैयार करवाये और पीठ पर लायी जाने वाले रिंगाल के ‘सोल्टे’ पर सामग्री बांधकर जीतू को बहिन की ससुराल के लिए रवाना किया. जीतू दोपहर तक का खैंट पर्वत की रमणीक पठारी भूमि पर पहुंच गया. थकावट दूर करने के लिए यह एक टीले पर बैठकर मोछंग-मुरली बजाने लगा. उसकी मधुर धुन सारे वन-प्रांतर को विमोहित करने लगी. यह और-और बजाता गया कि तभी उसके कानों में अनेकों अदृश्य पगध्वनियों की आवाज आने लगी. फिर एक विचित्र कौंध ने उसकी पलकें बंद कर दीं. जब खोली, तो उसने देखा अनेकों दिव्य नारी स्वरूप उसके समक्ष खड़े थे. उनके सम्मोहक काम-रस से छलछलाते तन-बदन से मादक सुगन्ध के झोंके से आने लगे. ये स्वरूप नख-शिख तक जड़ाऊ आभूषणों से लदे थे और उनके वस्त्र एक इन्द्रधनुषी छटा को विकीर्ण कर रहे थे. भय से वह बेसुध हो जाता कि तभी उनमें से एक सबसे सुंदर स्वरूप ने एक स्वर्गीय मुस्कान के साथ कहा- ” जीतू बजाते रहो न अपनी मुरली? चुप क्यों हो गये?”
(Kedarkhand Bhagwati Prsaad Joshi Himvantvasi)
“कौन हो तुम लोग?” जीतू ने साहस जुटा कर पूछा. यही दिव्य स्वरूप मुस्कराई “तुम हमें नहीं जानते पर हम तुम्हें खूब जानती हैं. हम सैंट पर्वत की अंछरियां हैं. यहां हम महलों में निवास करती हैं. सारा वैभव है हमारे पास जिसे तुम देख नहीं पाते. हम तुम्हें ले जाकर सिद्धि के दिव्यचक्षु देंगी, तब तुम सब कुछ देख सकोगे किन्तु कोई मनुष्य तुम्हें देख नहीं पायेगा!”
जीतू के शरीर में रोंगटे खड़े हो गये. उसने गिड़गिड़ाते हुए कहा “अभी नहीं, अभी तो लेकर अपनी बहन के गांव जाना है. यदि मैं न गया तो उसे बहुत दुख होगा. लेकिन जब सावन में जब मेरे धान के खेतों में रोपाई हो जायेगी तो मैं जरूर आऊंगा तुम्हारा वैभव देखने.
“हम किसी पर दया नहीं करती, पर तुम्हारे कथन में सच्चाई है इसलिए अभी छोड़ती हैं- लेकिन सावन में हम अवश्य ले आऐंगी” यह कहते-कहते अंछरियां अन्तर्धान हो गई और जीतू चुंधियाई हुई आखें मलता-मलता खड़ा हो गया. उसे लग रहा था जैसे उसने कोई चमत्कारी दिवास्वप्न देखा हो जो खैंट पर्वत की अंछरियों की सुनी-सुनाई चर्चाओं के कारण उसे विभ्रमित कर गया था. फिर यह समय के साथ सब कुछ भूल गया.
सावन में उसके खेतों के पास का सोता फूट पड़ा था. चार जोड़ी हल-बैलों ने उसके खेतों की रोपाई के लिए तैयार कर दिया. ग्राम की समस्त स्त्रियां सहेल (सामुहिक कार्य) में पंक्तिबद्ध होकर धान की रोपाई करने लगी और उनके मनोरंजन के लिए जीतू बात अपनी ‘मोछंग-मुरली’ बजाने लगा कि तभी चमत्कार हुआ. खेतों के पास खिले बुरांश के पेड़-मौसम लाल लाल फूलों से लद गये, जिनके बीच से लाल अंछरियां प्रकट हुई, हरे वृक्षों से हरी, नील गगन से नीली, वासंती पुष्पों से वासंती और भिलंगना की श्वेत धारा से श्वेत अंछरी प्रकट होकर जीतू की ओर बढ़ने लगीं. पेड़ों पर चहकती चिड़ियां, खेतों में खड़े हलजुते बैल और रोपाई करती हुई नारियां चित्रलिखित सी रह गई. सारी उपत्यका एक स्वर्गीय सुगंध से महक उठी. फिर एक इन्द्रधनुषीय चक्रावत जीतू की ओर बढ़ने लगा और उसी के साथ जीतू और नानावर्णी अंछरियां उसे लेकर आंखों से ओझल हो गई.
इस प्रकार जीतू बगड्वाल की ‘मोछंग-मुरली’ के रंध्र तो मानवी कानों के लिए सदैव के लिए बंद हो गये किन्तु लोक गायकों की मुरली के रंध्र सदा के लिए खुल गये जो आज भी सारे केदारखंड में गूंज रहे हैं. आज भी खेंट पर्वत के आसपास अंतरियों के निवास के चिन्ह मिलते हैं. फलों के छिलके, धान की पुआल धान कूटने की ओखलियां और पगध्वनियों की आवाज अनेक व्यक्तियों ने देखी-सुनी हैं.
(Kedarkhand Bhagwati Prsaad Joshi Himvantvasi)
कहते हैं मालिनी नदी के उद्गम के पास बसे परिंदा गांव की एक गुफा में अंछरियों का स्थायी निवास है. श्री दौलत राम काला नामक व्यक्ति ने एकबार स्वयं की क्रीड़ारत अंछरियों एवं उनके अदृश्य भाव-भंगिमाओं को प्रकट रूप में देखा है. एक वृद्ध जन ने बताया कि बहुत समय तक उनके ग्रामों के प्रीतिभोज एवं विवाह-संस्कारों के समय उनके वर्तन तथा अन्य सामग्री अंजरियों से उधार मांग लाते थे. एकबार जूठे वर्तन एवं कम सामग्री लौटाने पर अंजरियों द्वारा देना बंद कर दिया गया. जनपद उत्तरकाशी के डुंडा नामक ग्राम के पास किचलू नामक एक युवक का अंछरियों द्वारा अपहरण कर लिया गया था किन्तु कुछ समय बाद वह अदृश्य सिद्ध की भांति विवरण करने लगा. उसकी माता जब तक जिया रही यह अदृश्य रूप से उसकी सेवा करता रहा. पशुचारण, गौ दोहन से लेकर खेती-किसानी का सारा कार्य किसी अदृश्य चमत्कार द्वारा सम्भव होता रहा और आज यह सारे क्षेत्र का देवता बन गया है. मूल्यवान भेंट चढ़ावे वह पसंद नहीं करता. तम्बाकू-बीड़ी, सौंफ- इलायची और नहीं तो एक फूल से प्रसन्न हो जाता है. बड़ी से बड़ी और छोटी से छोटी मनौतियां लेकर लोग उसके पास जाते हैं. किचलूसिद्ध की उस जनपद में बड़ी ख्याति है.
कुछ वर्ष पूर्व पौड़ी गढ़वाल के एक गांव सरड़ा, भेल का एक ७-८ वर्षका बालक शिवालिक के बने जंगल में भटक गया था किन्तु चार दिन बाद जब पर लौटा तो उसके जंगली जानवरों से अछरियों द्वारा रक्षा किये जाने एवं भोजन- निवास की व्यवस्था किये जाने की कहानी सुनाई.
केदारखंड में अनेकों यक्ष-यक्षिणी (चर्चित) सिद्ध साधक हो चुके हैं. पं. तारादत्त नौटियाल ग्राम नौटियाल गांव जिनका अब स्वर्गवास हो चुका है, यक्षिणी सिद्ध परम तांत्रिक हुए हैं. हवा में से वांछित सामग्री तपक लेना, लापता वस्तु पशु या का सही-सही पता बता देना उनके वांये हाथ का खेल था. लोगों ने अक्सर उन्हें किसी अदृश्य व्यक्ति से बातें करते सुना है. इसी प्रकार स्व० पंडित तोताराम जोशी, ग्राम क्विंराली (गडवाल) सिद्धि सम्पन्न थे जिन्हें यक्षिणी सिद्ध थी. लेखक ने नन्दादेवी शिखर पुंज के पादप्रदेश में कतिपय सिद्धजन को निवास करते देखा है जिनके साथ यक्षगण उनके अवश्य अनुचरों की भांति सदैव विचरण करते रहते थे. अन्ततः केदारखंड के ‘अंछरी-लोक’ का रहस्योद्घाटन तो किया ही जा सकता है किन्तु उन शिखरयशना, पक्व विम्यो धरोष्ठी यक्षिणियों के लोमहर्षक सम्मोहन और भयावह संकल्पों वाले ‘यक्ष प्रश्नों’ का सामना भला सिद्ध-साधकों एवं युधिष्ठर के समान मेधावी पुरूष के अतिरिक्त और कौन कर पायेगा? वैसे परियों के आस्तित्व पर साहित्य विश्वभर में लिखा है.
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प्रस्तुति – यदु जोशी
भगवती प्रसाद जोशी ‘हिमवन्तवासी’ का यह लेख सन 1987 में लिखा गया था. यह लेख उनके पुत्र जागेश्वर जोशी द्वारा उपलब्ध कराया गया है.
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