वह विरल दृश्य था. सड़क पर एक युवक बांसुरी बजाता जा रहा था. सैकड़ों कान उसका पीछा कर रहे थे और मुग्ध हो रहे थे. पचासों आंखें उसे खोज रही थीं और व्याकुल लग रही थीं. जिस सड़क से वह गुजर रहा था, उसके दोनों तरफ बहुमंजिली इमारतें थीं. इन इमारतों में नवधनाढ्य वर्ग था, जिनके पास शायद अभी तक बचपन की स्मृतियां बची हुई थीं. इन स्मृतियों में चॉल या वन रूम किचन के छोटे-छोटे घर थे. अपनी जड़ों यानी गांव-कस्बों की धुंधली-सी छायाएं भी थीं. बांसुरी की यह धुन उन्हें किसी न किसी बहाने अतीत से जोड़ रही थी…
(Kanaya Story by Hari Mridul)
वह रविवार का दिन था और दोपहर का समय था. कुछ लोग खाना खाकर आराम कर रहे थे. कुछ परिवार के सदस्यों के साथ गप्पें मार रहे थे. कुछ अपने दोस्तों के साथ बिल्डिंग परिसर में खड़े थे. कुछ बीवी-बच्चों में मगन थे. कुछ मोबाइल में व्यस्त थे. कुछ टीवी देख रहे थे. कुछ बाजार जाने को अभी बस घर से निकले ही हुए थे यानी सड़क पर थे. तभी बांसुरी बजाते हुए पता नहीं कहां से वह
युवक आया और उसने मानो हर किसी को अपने जादुई आगोश में ले लिया. जो जहां था, वहीं थम-सा गया था. जिस सड़क पर युवक चल रहा था, वह दोनों ओर की बहुमंजिली इमारतों की बाल्कनियों में खुलती थी. तो हुआ यह कि कुछ ही मिनटों में बीसियों लोग अपनी-अपनी बाल्कनियों में दिखाई देने लगे. धीरे-धीरे यह संख्या बढ़ती ही गई. बीस के चालीस हुए, चालीस के अस्सी और अस्सी के एक सौ साठ…. इनमें बूढ़े थे, जवान थे और अधेड़ भी थे. इनमें स्त्रियां थीं, पुरुष थे और बच्चे-बच्चियां भी थे. दरअसल हरेक के कानों में मधुर स्वर लहरियां पड़ रही थीं और हर कोई बांसुरी वादक की एक झलक देख लेना चाह रहा था.
धुन में ऐसा जादू था कि कौए, कबूतर, मैना और गौरैया तक मानो उड़ना ही भूल गए हों. आसपास एक भी पंछी उड़ता हुआ नहीं दिख रहा था. पता नहीं कहां से चली आ रही एक गाय ने अपनी आंखें बंद कर ली थीं और सड़क के किनारे चुपचाप खड़ी हो गई थी. उसकी जुगाली बंद थी और अचानक ही उसने रंभाना शुरू कर दिया था. हद तो यह थी कि दिन-दोपहर बिना बात भौंक-भौंक कर हलकान कर देनेवाले सड़क के कुत्ते तक शांत थे. बांसुरी के स्वरों के बीच कई बार वे अपना एक लंबा आलाप जरूर लगा रहे थे, मानो मधुर सुरों का समर्थन कर रहे हों. पता नहीं कितनी गलियों और कितनी सड़कों से आ-आकर वे इकट्ठा हो गए थे और दर्जनों की संख्या में एक साथ खड़े दिख रहे थे. वे सबसे ज्यादा उत्पाती थे, लेकिन सबसे ज्यादा सम्मोहित भी वे ही लग रहे थे और समझ नहीं पा रहे थे कि आखिर यह माजरा क्या है!
इस बीच सड़क पर बांसुरी बजाता धीमे-धीमे चलता हुआ वह युवक एक पेड़ के नीचे छाया में उसी खास मुद्रा में खड़ा हो गया था, जिस मुद्रा में द्वापर युग में कृष्ण कन्हैया कदंब तले खड़े होते रहे होंगे. दोपहर का समय था, तो गरमी अपना असर दिखा रही थी. सड़क के किनारे पता नहीं वह कौन सा पेड़ था. लेकिन जो भी था, पर्याप्त हरा-भरा था. चैड़ी पत्तियां थीं. ऊंची शाखाएं थीं. टहनियां फैली हुई थीं. दूर तक छाया दे रहा था. एक तो घनी छाया और ऊपर से हाथ में बांसुरी जैसा प्रिय वाद्ययंत्र, ऐसे में तन और मन में उमंग जगनी ही थी. फिर तो युवक ने मगन होकर काफी देर तक बांसुरी बजाई. बांसुरी बजाते हुए वह इतना तन्मय था कि पच्चीसों राह चलते लोग उसकी धुनों में खिंचे चले आए और पच्चीसों ने अपने मोबाइलों से उसके वीडियो बना लिए. पता नहीं इस बीच उसने कितनी तरह की मनमोहक धुनें निकालीं और कितने नए रागों का निर्माण किया. न उसे पता था और न ही किसी सुनने वाले को. बस, रस ही रस बरस रहा था. सूखे हृदय इस रस से भीग रहे थे. सुरों की ऐसी वर्षा हो रही थी कि एक-एक रोम खिल उठे. बांसुरी के सम्मोहन में बंधी कई महिलाओं ने तब आपस में टिप्पणी भी की कि देखो, यह तो कन्हैया लगता है! साक्षात कृष्ण कन्हैया. वे धुन सुनकर विभोर हो चुकी थीं. उनमें से कई की आंखों से आंसू बहने शुरू हो चुके थे. वे चाहकर भी इन आंसुओं को नहीं रोक पा रही थीं. उन्हें बांसुरी की धुनें जहां
एक नए आह्लाद से भर दे रही थीं, वहीं बेहद उदास भी कर दे रही थीं. तभी किसी की नजर पड़ी कि युवक के सिर पर मोरपंख भी लगा हुआ है. मोरपंख? अरे, गजब. यह तो वाकई कन्हैया लग रहा है. कौतुक पर कौतुक बढ़ता जा रहा था. इस युवक के चारों ओर खड़े लोग ज्यादातर युवा थे और इन युवाओं में भी हर वर्ग का शुमार था. अचानक ही श्रद्धा और भक्ति का भाव दिखना शुरू हो गया था. लोगों की नजर बांसुरी से ज्यादा मोरपंख पर थी. दरअसल वह युवक
एक अंगौछे का फेंटा लगाए हुए था, जिसमें उसने एक बड़ा सा मोरपंख खोंस रखा था. एक अलग ही आभा वाला मोरपंख. यह तमाम लोगों के लिए वाकई बड़ी हैरत की बात थी. जो भी उसे बांसुरी बजाते देख रहा था, उसका ध्यान पहले मोरपंख पर जरूर जा रहा था. यकायक इस मोरपंख ने उस युवक को रहस्यमय बना दिया था.
युवक की अभी ढंग से मूंछ भी नहीं आई थी. बाल लंबे और घुंघराले थे. कानों में उसके कुंडल तो नहीं थे, लेकिन एकदम छोटी सोने की बालियां जरूर पहने हुए था. गले में एक माला भी थी, जो पता नहीं किस चीज की बनी हुई थी. उसमें एक चमक थी और वह पहने हुए रंग-बिरंगे कुर्ते और पैजामे से मेल भी खा रही थी. सांवली सूरत का वह युवक जितना मासूम दिखाई दे रहा था, उतना ही सम्मोहक भी लग रहा था. बांसुरी बजाते समय भी लग रहा था कि वह मंद-मंद मुस्करा रहा है. उसकी अदा बड़ी बांकी थी. सबसे बड़ी बात तो यह कि वह असीम शांति से भरा हुआ था.
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सड़क के दोनों तरफ की इन बहुमंजिली इमारतों में से किसी एक फ्लैट में रहनेवाले एक अन्य युवक पर इस बांसुरीवादक का ऐसा असर हुआ कि वह भी बरबस खिंचा चला आया और तेज गति से दौड़ते हुए उस पेड़ के नीचे पहुंच गया. वह इंतजार करने लगा कि कब बांसुरी बजना बंद हो और कब वह उससे बातचीत करे-कुछ उसके जीवन की रोचक जानकारियां हासिल करे. बात यह थी कि इस युवक को कुछ महीने पहले ही एक बड़े अखबार में रिपोर्टर की नौकरी मिली थी, सो अचानक उसे यह आइडिया क्लिक कर गया कि वह उस बांसुरीवादक पर एक धांसू किस्म का फीचर लिख दे और उसे अपने अखबार में दे दे. कई दिनों से उसका इमिजिएट बॉस उससे कह रहा था कि संडे सप्लीमेंट के लिए कुछ नई चीज लाओ और धमाका करो. इस बॉस ने यहां तक कह दिया था कि अगर हफ्ते-दो हफ्ते में ऐसा नहीं कर पाया, तो कोई दूसरी नौकरी ढूंढनी शुरू कर देनी चाहिए….
अब तक बांसुरी वादक युवक के चारों ओर जैसे मजमा लग चुका था. बांसुरी बजाते समय उसके कितने ही वीडियो बनाए जा चुके थे. कुछ ने छोटे वीडियो बनाकर पोस्ट भी कर दिए थे. उन्हें लाइक्स और कमेंट मिलने शुरू हो चुके थे. एकाध ने फेसबुक लाइव तक शुरू कर दिया था…. लेकिन वह बांसुरी वाला युवक इन सब बातों से अनभिज्ञ था. वह तो अपनी मधुरतम धुनों में खोया हुआ था और पूरी तन्मयता से बांसुरी बजा रहा था. उसकी आंखें बंद थीं, ऐसी बंद थीं कि मानो वह समाधि ले चुका है और इन्हें लंबे समय तक अब खोलनेवाला नहीं. तभी दूर से दो पुलिस वाले अपनी बाइक से आते दिखाई दिए. सब-इंस्पेक्टर बाइक चला रहा था और पीछे हवलदार बैठा हुआ था. शायद उन्हें लगा था कि कोई फसाद हुआ है, लेकिन नजदीक आते ही माजरा उनकी समझ में आ गया था. सब इंस्पेक्टर ने बाइक सड़क के किनारे खड़ी की और हवलदार के हाथ से डंडा अपने हाथ में लेकर लोगों को भीड़ न लगाने और अपने-अपने रस्ते निकल जाने का फरमान अपनी गरजदार आवाज में सुना दिया. यूं तो पुलिस को देखकर खुद ही भीड़ छंटनी शुरू हो गई थी और फिर डंडा हवा में लहराते देख बचे-खुचे भी चुपचाप खिसक लिए.
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लेकिन युवक की बांसुरी का बजना थमा नहीं था. यह बात पुलिस सब-इंस्पेक्टर को नागवार गुजरी थी. उसने हाथ के डंडे से बजती बांसुरी को ठकठकाया, तब जाकर युवक की सुर लहरियां थमीं. युवक ने आंखें खोलीं, तो एकबारगी उसकी समझ में कुछ भी नहीं आया. वह बुरी तरह सकपका गया. उसने फौरन सब-इंस्पेक्टर के आगे हाथ जोड़ लिए और गिड़गिड़ा कर कहने लगा कि वह यहां से बस निकल ही रहा है. वह तो भरी दुपहरी में पेड़ की ऐसी घनी छाया पाकर खुश हो गया था, इसी खुशी के मारे उसने बांसुरी बजानी शुरू कर दी थी. उसे बिल्कुल भी अंदाजा नहीं था कि इतनी भीड़ लग जाएगी….
युवक के पास एक थैला था, जिसमें दो दर्जन से ज्यादा बासुरियां थीं. आधा दर्जन मुरलियां भी. उसने थैला सहेजा और उसे अपने कंधे पर टांग लिया. तभी उसने महसूस किया कि उसके माथे पर पसीना चुहचुहा आया है, तो सिर में बंधे अंगोछे को फौरन उतारा और माथा पोछा. उसे ध्यान नहीं रहा कि अंगोछे में मोरपंख भी खोंसा हुआ है. मोरपंख लहराते हुए नीचे गिरा, तो उसने बड़ी फुर्ती से उठाकर उसे बांसुरियों और मुरलियों के बीच अपने थैले में रख लिया. खैर, अच्छी बात यह रही कि युवक को अपना थैला समेटते देख दोनों पुलिस वाले भी निकल गए. दरअसल उन्हें अपने साहब के पास जल्दी से जल्दी पहुंचना था. युवक ने राहत की सांस ली. पुलिस की वरदी से उसे हमेशा से ही डर लगता रहा है. लेकिन यह क्या, वह निकल ही रहा था कि उस युवा रिपोर्टर ने उसे रोक लिया- बस, थोड़ी सी बात करनी है….
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लेकिन वह अब एक पल भी यहां नहीं रुकना चाहता था. रिपोर्टर ने उससे कहा कि डरो मत, उसके रहते पुलिस उसका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती है. ज्यादा से ज्यादा पन्द्रह-बीस मिनट बात करनी है. लेकिन उस बांसुरीवाले ने तेजी से अपना सामान समेटा और आगे बढ़ गया. रिपोर्टर भी युवा था और जुनूनी भी. वह भी उसके पीछे लग लिया. आगे-आगे बांसुरीवाला और पीछे-पीछे रिपोर्टर. बांसुरीवाले युवक ने मानो दौड़ ही लगा ली थी और रिपोर्टर था कि उस युवक से भी तेज गति से दौड़ रहा था. बांसुरीवाले को पुलिस की वरदी का डर भगा रहा था और युवा रिपोर्टर को नौकरी चले जाने का डर. दोनों के डर मिलकर एक अलग ही şश्य उपस्थित किए जा रहे थे. बांसुरीवाले के मन में पुलिस की छबि किसी यमदूत से कम नहीं थी. शायद उसे अपने जीवन में पुलिस से काफी कटु अनुभव मिले होंगे. वह पुलिस की छाया तक से बचना चाहता था. इधर रिपोर्टर के लिए तो जैसे जीवन-मरण का ही प्रश्न था. वह अपनी संडे की स्टोरी हर हालत में पाना चाहता था. उसे किसी भी शर्त पर अपनी नौकरी बचानी थी. हाल ही में उसके कई साथियों की छंटनी हो चुकी थी. ऑफिस में स्थितियां ऐसी बन चुकी थीं कि उसे अपनी छंटनी का नंबर भी नजदीक ही लगने लगा था. अगर वह इस बीच कोई यूनीक किस्म की स्टोरी, फीचर या खबर नहीं दे पाया, तो उसे सड़क पर आने में जरा भी देर नहीं लगेगी. यह बांसुरीवाला अवश्य ही उसकी नौकरी बचा सकता था. वह अपने क्लिक हुए आइडिया पर पूरी तरह से आश्वस्त था. लेकिन यह बांसुरीवाला ठहर ही नहीं रहा था.
कभी दौड़ने और कभी तेज चलने के बाद जब बांसुरीवाला रुका, तो रिपोर्टर ने राहत की सांस ली. दरअसल बांसुरीवाले युवक ने रिपोर्टर पर रहम खाया था, इसलिए रुका था. उसकी समझ में आ गया था कि यह भी उसकी तरह कोई मजबूर ही है. बांसुरीवाले के रुकने और उसकी मजबूरी को महसूस करते देख रिपोर्टर की आंखों में आंसू आ गए.
यह महज इत्तफाक की ही बात थी कि जहां दोनों खड़े थे, उसके आगे रास्ता बंद था. दरअसल वे दोनों ऐसी जगह पहुंच चुके थे, जहां आगे कब्रिस्तान था और उसके थोड़ा आगे श्मशान. यह लगभग निर्जन इलाका था. दोपहर का समय था, इसलिए इस समय वहां सिर्फ दो ही लोग थे- बांसुरीवाला और रिपोर्टर. अब दोनों ने मानो एक-दूसरे के आगे समर्पण कर दिया था. शायद एक-दूसरे के दुख को समझा था और अब दोनों का दुख एक अपूर्व बतकही के सुख में तब्दील होने जा रहा था. तो उस युवक ने अपने मोबाइल में टेप करनेवाला ऐप चालू कर दिया था और उसे जेब में रख बांसुरीवादक से बड़ी सहजता से बात करने लगा था. रिपोर्टर युवक ने ऐसी होशियारी इसलिए दिखाई कि बांसुरीवादक बिना किसी झिझक के पूरे मन से बातचीत करे. ऐसा ही हुआ भी. तमाम सवालों के जवाब में बांसुरीवादक युवक ने उसे अपने बारे में कुछ यूं बताया रू
‘भाईजान, मैं वृंदावन का रहनेवाला हूं. मथुरा-वृंदावन का. ब्रजभूमि का. आरिफ है मेरा नाम और मैं भगवान कृष्ण का मुरीद हूं. कह सकते हैं कि उनका भक्त हूं. मैं अपने धर्म में पूरी आस्था रखता हूं. सौ फीसद श्रद्धा. बिना नागा नमाज अदा करता हूं. कुरान-ए-पाक पढ़ता हूं और उसका मनन करता हूं. चिंतन करता हूं. पक्का मुसलमान हूं मैं. ईमान वाला मुसलमान. उसी चिंतन-मनन के आधार पर मैं आपको एक बात बता दूं कि कुरान-ए-पाक में कहीं नहीं लिखा है कि आप इस्लाम को मानते हैं, तो कृष्ण को न मानें. मैं कृष्ण कन्हैया की धरती का हूं. उसकी लीलाएं मुझे मोहती हैं. उनकी बातों का मैं दीवाना हूं. उनके उपदेश मुझे अच्छे लगते हैं. आप यकीन नहीं करेंगे, लेकिन मैंने कुरान के साथ-साथ गीता भी पढ़ी है. खूब पढ़ी है. मैं रसखान का शैदाई हूं. मुझे रसखान के दसियों पद याद हैं- ‘मानुष हों तो वही रसखान, बसौं ब्रज गोकुल गांव के ग्वालन….’ कई बार जब मैं बांसुरी बजाते हुए थक जाता हूं, तो गायन शुरू कर देता हूं. मैं रसखान को गाता हूं. इस चक्कर में मुझे कई मुस्लिम संगठनों से धमकियां मिली हैं, तो कई हिंदू संगठनों के लोगों ने मुझ पर शक किया है और अपने धर्म के अपमान का आरोप लगाया है. लेकिन मुझे न किसी हिंदू से डर है और न ही किसी मुसलमान से. किसी का डर नहीं है मुझे, क्योंकि मैं गलत नहीं हूं. सच कहूं तो मुझे किसी से डर लगता ही नहीं. मैं कानून से डरता हूं बस. मैं पुलिस वालों से डरता हूं, वरदी से डरता हूं, क्योंकि मैंने वरदी की हैवानियत देखी है. लेकिन मैं सभी से बड़ी मुहब्बत से पेश आता हूं. मेरी परवरिश ऐसे ही माहौल में हुई है, जहां सिर्फ मुहब्बत करना-प्यार करना सिखाया जाता है. यह मेरी तहज़ीब है. हिंतुस्तानी तहज़ीब भी यही है. मेरी अम्मी ने मुझे आखिरी वक्त कहा था कि हिंदुस्तानी तहज़ीब बचेगी, तभी हिंदुस्तान बचेगा. यह तहज़ीब कभी छोड़ना मत…. मैंने अपनी अम्मी की बातें गांठ बांधकर रखी हैं. मैं अपनी अम्मी के सिखाए हुए पर ही चल रहा हूं. मैं कुरान की आयतें कंठस्थ करता हूं. गीता का अभ्यास करता हूं. आगे मेरी इच्छा है कि मैं बाइबल भी पढ़ूं और गुरुग्रंथ साहब भी. बौद्ध धर्म जानूं और जैन धर्म भी. मुझे इस बात का अच्छी तरह से अंदाज़ा है कि इंसानियत की भलाई के लिए इन सभी में एक जैसा ही लिखा होगा.’
(Kanaya Story by Hari Mridul)
वह युवा रिपोर्टर गदगद था. वह खुद भी धर्म जैसे विषय पर कुछ न कुछ विचार प्रकट करता रहता था. वह इस विषय पर कुछ न कुछ पढ़ता भी था. आरिफ की बातें उसे अच्छी लग रही थीं, लेकिन वह ऐसा भी महसूस कर रहा था कि जैसे वह कम्युनल हारमनी बढ़ानेवाले किसी टीवी सीरियल के किसी किरदार से बातें कर रहा हो. उसने सोचा भी नहीं था कि ऐसे लोग आज की दुनिया में मौजूद होंगे. रिपोर्टर को धर्म के नाम पर फैल रहे विषाक्त माहौल की पूरी जानकारी थी. परंतु आज आरिफ से बातें करते हुए वह एक विलक्षण अनुभव से गुजर रहा था. आरिफ ने मानों अपने जीवन के कितने ही पन्ने उसके सामने तफ्सील से खोल दिए थे. बचपन की बातें. स्कूल की बातें. परिवार की बातें. कितनी तो बातें….
आरिफ एक रौ में बताता जा रहा था. बताते हुए उसकी आंखें छलछला जातीं. अतीत में डूबकर उसने बताया कि बचपन में जब वह स्कूल जाता था, तो फैंसी ड्रेस प्रतियोगिता में हमेशा ही उसे कृष्ण बना दिया जाता था और हर बार ही वह प्रतियोगिता जीतता था. अम्मी खुद उसे अपने हाथों से सजाती थीं. आंखों में काजल लगाती थीं. सिर पर मुकुट लगाती थीं. मुकुट में मोरपंख लगाती थीं. माथे पर तिलक लगाती थीं. गले में आभूषण पहनाती थीं. उसकी ड्रेस का इंतजाम करती थीं, जिसमें पीतांबर अनिवार्य होता था. बचपन में एक बार उसने जिद पकड़ ली थी कि वह तभी कृष्ण बनेगा, जब उसे बांसुरी मिलेगी. बांसुरी की जगह उसे मुरली थमा दी गई थी, लेकिन उसे मुरली नहीं चाहिए थी. उसे उस उम्र में ही बांसुरी और मुरली का फर्क पता चल चुका था. उसे इन्हें बजाने का तरीका भी पता था. जब वह टस से मस नहीं हुआ, तो उसकी अम्मी ने बड़ी मुश्किल से बांसुरी का इंतजाम किया था. वृंदावन की सबसे बड़ी म्यूजिक की दुकान से उसके लिए बांसुरी खरीदी गई थी. बहुत महंगी थी, लेकिन उसकी जिद पूरी की गई. परंतु उसकी जिद व्यर्थ नहीं गई थी. बांसुरी खरीदने के बाद उसने धीरे-धीरे उसे बजाना भी सीख लिया था. खुद ही कठिन अभ्यास के बाद कई मीठी धुनें निकालनी शुरू कर दी थीं. उस बार जब वह भगवान कृष्ण बना था, तो उसने कृष्ण के तमाम हाव-भावों को कुशलता से सामने रखा ही, साथ ही कमाल की बांसुरी भी बजाई थी. बांसुरी ने मानो उसके अभिनय को पूर्णता प्रदान कर दी थी. उसके अभिनय का ऐसा असर पड़ा कि भावविभोर होकर उसकी क्लास की मैम ने उसके पांव छू लिए थे. मैम के पांव छूने के बाद तो जैसे तांता लग गया था उसके पांव छूने का. वह चकित था और बुरके में खड़ी उसकी अम्मी के आंसू नहीं थम रहे थे. बांसुरीवादक ने बताया कि जब भी वह बचपन की उस घटना को याद करता है, तो उसके रोंगटे खड़े हो जाते हैं. वाकई रिपोर्टर ने देखा कि यह सब बताते समय उसके रोंगटे खड़े थे. वह भावुक हो गया था. उसकी आंखें भर आई थीं.
उस बांसुरीवादक का कृष्ण बनने का सिलसिला तब तक चला, जब तक कि उसकी मूंछ की रेख नहीं फूटी. स्कूल की पढ़ाई पूरी होने के बाद चौदह-पन्द्रह की उम्र में भी उसका कृष्ण बनना रुका नहीं. रासलीला की एक मंडली एक दिन उसकी अम्मी से मिलने आई कि उन्हें आरिफ की जरूरत है. उनका कृष्ण बीमार पड़ गया है और अब ऐसे में आरिफ से बेहतर कोई दूसरा कृष्ण नहीं. बेचारी अम्मी मना नहीं कर पाईं और वह तो जैसे कन्हैया बनने के लिए तैयार ही बैठा था. इसके बाद तो लगातार दो साल तक यह सिलसिला चला. मूंछें आ जाने और आवाज भारी हो जाने के बाद भी उसे लगता रहा कि उसके भीतर कृष्ण मौजूद हैं. वह कृष्ण में समा चुका है या फिर कृष्ण उसमें समा चुके हैं!! कई-कई बार उसके साथ ऐसा हुआ कि वह नमाज पढ़ता और कृष्ण उसके सामने आ खड़े होते. वह कुरान पढ़ता और उसके सामने गीता आ जाती. तब वह अपने आपको सिर हिलाकर झटके देता, लेकिन न उसके आगे से कृष्ण हटते और न ही गीता के श्लोक उसका पीछा छोड़ते. परंतु इस स्थिति से वह कतई परेशान नहीं होता, बल्कि रोमांचित हो जाता. उसे अच्छी तरह पता था कि यह सब कुफ्र कतई नहीं है….
आरिफ को अपने अब्बू की कोई याद नहीं थी. यह भी हो सकता है कि उसने अपने अब्बू को कभी देखा ही न हो. दरअसल उसकी अम्मी तलाकशुदा थीं. वह उसके नाना-नानी के साथ रहती थीं. अपने माता-पिता की इकलौती संतान थीं. जब वह तेरह का था, पता नहीं क्या हुआ कि उसके नाना-नानी दोनों ही एक साल के भीतर अल्लाह को प्यारे हो गए. अम्मी अकेली रह गईं. अपने अम्मी और अब्बू के न रहने से वह टूट-सी गई थीं. वह उदास रहने लगी थीं, लेकिन उन्होंने अपने बेटे की परवरिश में कोई कसर नहीं छोड़ी. उसकी खुशियों का हमेशा ही ध्यान दिया. वह भी अपनी अम्मीजान को खुश रखने की पूरी कोशिश करता. लेकिन खुदा को इतनी भी खुशियां मंजूर नहीं थीं शायद. उसके सत्रह तक पहुंचते-पहुंचते अम्मी को एक असाध्य बीमारी लग गई और वह भी इस फानी दुनिया को अलविदा कह गईं. ये जानकारियां देते हुए आरिफ सिसक-सिसक कर रोने लगा था.
इसके बाद की कहानी आरिफ ने नहीं बताई कि वह कैसे मुंबई पहुंचा? कैसे बांसुरी बजाने में निपुणता प्राप्त की? कैसे बांसुरी बनाना सीखा? कैसे सड़क-सड़क और गली-गली घूम कर बांसुरियां बेचने के काम में लग गया? मुंबई में वह कहां रहता है, किसके साथ रहता है और कितना कमा लेता है, इस बारे में भी उसने चुप्पी ही साधे रखी. आरिफ बंद गली की उस सड़क पर उस रिपोर्टर को अपने जीवन की तमाम बेशकीमती बातें बताकर चुपचाप निकल गया, किसी और सड़क-किसी और गली को मधुर धुनों से गुंजायमान करने, आते-जाते और बिल्डिंगों में रहनेवाले तमाम जनों को सम्मोहित करने. आरिफ के जाने के बाद भी वह रिपोर्टर कीलित-सा काफी देर तक उस सड़क के किनारे खड़ा रहा था. मानो बांसुरीवादक का सम्मोहन टूट ही नहीं पा रहा हो. पता नहीं कि उस युवा रिपोर्टर ने अपने अखबार में आरिफ की यह दिलचस्प दास्तान लिख कर दी या नहीं दी. अगर दी भी तो छपने के लिए स्वीकृत हुई या फिर रिजेक्ट हो गई. उसके छपने की स्वीकृति मिली, तो वह कब छपी और कितने कॉलम छपी. कौन से पन्ने पर छपी और किस अंदाज में छपी. फोटो के साथ छपी या बिना फोटो के. छप जाने पर भी उसे कितने लोगों ने पढ़ा होगा और पढ़कर भी कितने लोगों ने उसे समझा और गुना होगा. मुझे सचमुच नहीं मालूम कि आरिफ की इस अनोखी स्टोरी का क्या हुआ होगा.
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– हरि मृदुल
कवि-कथाकार और पत्रकार हरि मृदुल का जन्म उत्तराखंड के चंपावत जिले के गांव बगोटी में 4 अक्टूबर, 1969 को हुआ. प्राइमरी तक उनकी शिक्षा गांव के ही स्कूल में हुई और फिर उन्होंने बरेली से स्नातकोत्तर किया. हरि मृदुल के अब तक दो कविता संग्रह ‘सफेदी में छुपा काला’ और ‘जैसे फूल हजारी’ प्रकाशित हो चुके हैं उनका अंग्रेजी में अनूदित एक कविता संग्रह You Are Worth Millions Sir (जनाब आप करोड़ों के हैं) और एक संग्रह ‘कैकि मया बाटुली की’ कुमाउंनी में भी प्रकाशित है. हरि मृदुल महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी का संत नामदेव पुरस्कार (2008), हेमंत स्मृति कविता सम्मान (2007), ‘कथादेश’ पत्रिका का अखिल भारतीय लघुकथा पुरस्कार (2009), कादंबिनी अखिल भारतीय लघुकथा पुरस्कार (2010), वर्तमान साहित्य कमलेश्वर कहानी पुरस्कार (2012), प्रियदर्शिनी पुरस्कार (2018), हिमांशु राय फिल्म पत्रकारिता पुरस्कार (2011) व रामप्रसाद पोद्दार पत्रकारिता पुरस्कार (2019) प्राप्त हो चुके हैं. वर्तमान में हरि मृदुल नवभारत टाइम्स, मुंबई में सहायक संपादक के पद पर कार्यरत हैं.
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