रात देर तक जगी रहने के कारण सुबह अपने समय यानी पाँच बजे नहीं जग सकी. अलसाई सी पड़ी रही नींद और आंख खुलने के बीच में लगा सपना देख रही हूं. सपना, नीचे महाकाली मंदिर में जो चांदी का महाकाली यंत्र है और उसके ऊपर लटकता चांदी का घुंघरू वाला झूमर और उसके ऊपर लहंगा चुनर वाला माता का श्रृंगार वह हौले-हौले झूल रहा है. चांदी का महाकाली यंत्र पर रखा चांदी का कलश दिप-दिप चमक रहा है. ऊपर चांदी का झूमर भी दिप-दिप चमक रहा है, झूल रहा है. उस महाकाली यंत्र और उसे पर रखे खूब चमकते कलश के ऊपर. आहा…
(Kalimath Smita Vajpayee Travelogue)
मैं नींद में ही मुस्काती हूं. नींद थोड़ी खुलती है फिर करवट लेती हूं और यह सपना है समझ कर फिर सोने की कोशिश करती हूं कि फिर बंद आंखों से वही दृश्य दुबारा. करवट लेती हूं और फिर वही, मैं मुस्कुराती हूं. अब नींद पूरी तरह से खुल चुकी है. कितना अच्छा सपना था, कितना अच्छा लग रहा था. मुस्काते हुए आंख खोलती हूं बाहर सुबह हो चुकी है. उजाला हो चुका है. पर मैं अलसाई हुई हूं और मैं फिर आंख बंद कर के पड़ी रहती हूं कि फिर बंद आंखों के आगे एकदम स्पष्ट वही चमकता श्री महाकाली यंत्र! चमकता झूलता झूमर और लहंगा-चूनर माता का श्रृंगार. अरे यह कैसा सपना है…
आंख खोल के फिर आंख बंद की और इस बार भी उतनी ही स्पष्टता से वही सब कुछ! अब मैं उठकर बैठ जाती हूं और फिर आंखें बंद करती हूं और फिर से वही दिपदिपाता महाकाली यंत्र. हौले-हौले झूलता झूमर और माता का लहंगा चुनर. मारे आश्चर्य के कहती हूं कमाल है! कहते हुए खड़ी हो जाती हूं और फिर आंखें बंद करती हूं. और फिर वही, यह क्या है! क्या है यह! अपने आप से ही कह रही हूं. प्रसन्नता और आह्लाद से हाथ जोड़ती हूं. आंखें खोलती हूँ. भास्कर मैंम का कहा याद आ चुका है मुझको अब – यहां जो भी चाहे जिस भी भाव से आता है उसे माता महाकाली के दर्शन जरूर होते हैं.
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रोमांच और पुलक से भरी मैं फिर से आंखें बंद करती हूं मगर अब कुछ नहीं है बंद आंखों के आगे. लेकिन मैं बेहद खुश बैठी रही थोड़ी देर तक. लगा, जैसे यह दर्शन था! इसके रोमांच में थी. घड़ी देखा तो सुबह के छे बजे थे.
यानी सुबह छः बजे आंख खुली. दरवाजा खोला तो ठंडी हवा ने झप्पियाँ दीं. सामने गेहूं के खेत पहाड़ दिख रहे थे और नदी भी नाचती हुई गुड मॉर्निंग सुप्रभात जैसी लगी. मैं मुस्कुराई. उधर गयी, बरामदे के जिस कोने से नदी एक बड़े लाल पत्थर के पास सबसे ज्यादा फेनिल और किलोल करती दिखती है. कुछ देर तक नदी हवा और बरामदे के बिल्कुल पास के पेड़ से चिड़ियों का गीत सुनती रही. मुस्कुराती रही. दिल हुआ कोई गीत गाऊं. पर कौन सा कुछ याद नहीं आया.
बहुउद्देशीय बाथरूम में ब्रश करने गई कि बीच में ही पानी खत्म. बहुउद्देशीय यानी नहाना , बर्तन धोना और ब्रश करना सब कुछ यहीं इसी एक बाथरूम में. साथ लाए पानी की बोतल से फिर मुंह धोया. दो बाल्टी पानी से भरी हुई रखी थी. उन्हीं में से एक बाल्टी को ला के रसोई में रखा और गर्म होने के लिए रॉड लगाया. मंदिर से और पुल पर से लगातार घंटियों की आवाज आ रही थी. अब मुझे हड़बड़ाहट भी होगी. अपने कमरे से नहाने के कपड़े लेकर बाथरूम की नाजुक सी (किसी यात्री की बांधी) रस्सी पर कपड़े लटका के वापस आई तो देखा पूरी रसोई में पानी फैला था. जल्दबाजी में रॉड बाल्टी के बाहर था. हम सुविधाओं से कैसे काहिल हो जाते हैं ना!ध्यान ही नहीं रहता फिर से अब दूसरी बाल्टी.
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तीन बाल्टियों के बाद उस पतले से बाथरूम में बहुत जगह नहीं बची थी. पानी किसी भी समय जा सकता है पानी भर के रखना.राणा जी ने बताया था. अब रोज मुझे ढ़ाई बाल्टी से काम चलाना होगा. सुबह का यह अध्याय उफ हाय करते 8:30 बजे तक चला. कमरे से लेकर कभी बाथरूम कभी किचन तक बहुत सारी परिक्रमा करके आखिर 8:30 वह खड़ी और खतरनाक सी घुमावदार सीढ़ियां उतर ही गई स्मिता-किला फतह करने के अंदाज में!
गली पार करके फिर सीढ़ियां हीं सीढियां, हर मंदिर के लिए कुछ सीढियाँ. काली मंदिर में जा कर बैठी. फिर महालक्ष्मी मंदिर. गौरी शंकर मंदिर. महासरस्वती मंदिर. बीच में एक जगह नंदी के साथ शिवलिंग और कुछ भी घिसी काले पत्थरों की मूर्तियां. पुजारी से पता चला यह प्रेतशिला है. गया के बाद यहां भी है प्रेतशिला? इसके बारे में विस्तार से पुजारी बता नहीं सके.
महालक्ष्मी मंदिर अंदर से मिट्टी से लिपे पुते चौखट वाला है. एक लोहे की ग्रिल लगी है.मंदिर के बाहर और भीतर बहुत से लोहे के चांदी के मुखोटे से हैं. जिसे यहाँ के पुजारी ने माता महालक्ष्मी का स्वरूप कहा. यह हॉलनुमा कमरा था जिसके एक कोने पर मच्छरदानी लगी खाट थी. एक कोने में बड़ा सा हवन कुंड था जिसमें दो तीन मोटे लठ्ठ पड़े सुलग रहे थे निर्धूम्र !
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ग्रिल के आगे चौखट के एक बगल में तेल से काला पड़ा बड़ा सा दिवठ (दिया रखने का आधार) था जिस पर एक बड़ा सा पीतल का दीया जल रहा था जिसमें आते-जाते कोई कोई श्रद्धालु सरसों के तेल की शीशी उड़ेल जा रहा था. बाकी मंदिर छोटे-छोटे थे.
अब भैरव मंदिर जाना था. उसकी सीढ़ियां देखकर ही हाय निकल गई मुँह से. पर आए हैं तो जाएंगे ही. कुल पैंतालिस सीढ़ियाँ थी. जिसे तीन जगह रुक-रुक के चढ़ना पड़ा. भैरव मंदिर में दो ऊंची काली मूर्ति है भैरव की. बीच में मिट्टी से लिपे पुते एक चौतरे को ग्रिल से बंद किया गया है. इसके भीतर भी बहुत से लोहे के मुखौटे, त्रिशूल हैं. ढेर सारे काले कपड़े एक और गुच्छे से बना कर रखे हैं. मंदिर में तेल की गंध है. एक कोने में एक युवक मोटी दरी पर बैठा फोन से गढ़वाली वीडियो देख रहा है मेरे या किसी भी श्रद्धालुओं के आने से निर्लिप्त!
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साँस सामान्य कर के बात की तो पता चला यह पुजारी हैं. पर भैरव स्थान की प्राचीनता , मान्यता मंदिर बनने से पहले क्या था, कैसा था मंदिर कब बना कुछ भी संतोषजनक नहीं बता पाए. अलबत्ता मेरे रुकने ठहरने भोजन पानी कहां से आई जैसी बातें का कौतूहल रहा उन्हें. कुछ और ‘होमस्टे’ जैसे पते बताये उन्होंने अगली बार के लिए.
हम वहां से बाहर निकले तो बीच में एक बड़ा झबरीला काला कुत्ता जिसके बालों में जंगली कांटे, बेरियाँ और धूल मिट्टी फंसे हुए थे. साथ साथ चलने लगा. उसकी कद काठी किसी अच्छे नस्ल का बता रही थी उसको पर उसका इस तरह आवारा घूमना. क्रॉस होगा किसी जर्मन शेफर्ड का सोचते हुए मैं अपनी गली में मुड़ गयी. वह गली के अंदर तक मेरे साथ आया.
अब अपने कमरे तक जाने के लिए मैं खड़ी हूँ उन्हीं खड़ी घुमावदार गुफानुमा सीढ़ियों के आगे. जिसकी 6 सीढ़ियां चढ़ते हुए ऐसा लगता है जैसे आप निर्मल वर्मा की कहानी ‘कौवे और काला पानी’ के उन भाई साहब की गुफा में प्रवेश कर रहे हैं. वैसे ही सामने से कई परत में पत्थर दिखते हैं कुछ अंधेरे में आँख गड़ाने पर. और उसी तरह पीछे से लगातार पानी की तेज आवाज सुनाई देती रहती है. छः सीढ़ियों के बाद हफ्फ हफ्फ करते रुकी और फिर छे सीढ़ीयाँ और अब बरामदे के उजास मे.
सुबह के दस बज रहे थे जब मैंने अपने रूम का ताला खोला. पेट भी अब भूख से गुड़-गुड़ कर रहा था. रसोई में गई तो याद आया पानी नहीं आ रहा. साथ लाए पानी की बोतल से पानी लेकर अब बस मैगी ही बनाई जा सकती थी. मैगी खा कर थोड़ा विश्राम किया लेट कर छत देखते हुए.
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याद आया कि भास्कर मैंम ने पूरा एक झोला दिया है पूजा का. खोल के देखा और अपने सिरहाने रखी काठ की टेबल पर भास्कर मैम के ही कहे अनुसार माता की चौकी लगा ली. इस चौकी को लगाते वक्त मन जो अब तक उत्फुल्ल था कुछ-कुछ उदास लगा अकारण ही. दिन के दो बज रहे थे जब लगा कि मैं बहुत देर से कुर्सी पर बैठी हूं चुपचाप..
कोई दरवाजे पर दस्तक दे रहा था तब जाकर मेरी तंद्रा टूटी. दरवाजा खोला तो पाया तेज हवा के साथ राणा जी थे –
कोई दिक्कत?
नहीं बिल्कुल भी नहीं
कुछ लाना है मैं आज गुप्तकाशी जा रहा हूं
हरी मिर्च लेते आइएगा
हरी मिर्च? हरी मिर्च चाहिए आपको? बिहारी तीखा खाते हैं, वह हंसने लगे जोर-जोर से.
जी हरी मिर्च लेते आइएगा. एक स्टूल चाहिए बर्तन धो कर रखने के लिए कुछ टोकरी स्टैंड जैसा कुछ और बाल्टी.
बाल्टी?
जी एक बाल्टी गल गई रॉड से.
राणा जी मुँह देखते रहे. और फिर कुछ सामान की लिस्ट लेकर चले गए. तेज हवा के बावजूद स्वेटर पहने बरामदे में टहलती रही. कुछ देर खड़ी बड़े लाल पत्थर को देखती रही जहां नदी का जल खूब चक्कर खा कर फेनिल, स्फटिक हो रहा था. कमरे, रसोई का सामान ठीक करते बार-बार मन का अनमनापन महसूस हो रहा था. और किस कारण? यह समझ नहीं आ रहा था. दिन ढल गया है ऐसे ही. बरामदे में हड़बड़ा कर लाइट जलाई जब मंदिर से आरती की आवाज आई. सीढ़ी की बत्ती जलाते नीचे उतर गई आरती में जाने के लिए.
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वह जाग रही है. हवा में नदी की आवाज है. कभी-कभी कोई कुत्ता भौंक रहा है. वह दिये की बत्ती को छोटी चिमटी से खींचती है उपर की ओर, जो सिर की तरफ टेबल पर रखा है,देवी दुर्गा की तस्वीर के आगे. अखंड दीप तो नही है फिर भी उसे दीये को रात भर जलाना अच्छा लगता है.
नदी का हहराता स्वर अचानक हाहाकार में बदल गया है. वह चौंक कर उठती है. कमरे से बाहर बरामदे के किनारे जा खड़ी होती है. उधर, जिधर से रक्त शिला दिखती है. कहीं कुछ भी नहीं. बस हवा और नदी की ध्वनि! फिर कमरे में. वह लेटती है. नींद आ रही है अब पलकें भारी हो रही हैं कि फिर वही हाहाकार सा स्वर…
वह फिर उठती है, बाहर जाती है. कहीं कुछ नहीं, नदी, हवा का स्वर पूर्ववत! कमरे में आ कर समय देखती है रात के साढ़े नौ बजे हैं. लेटती है. पर नींद नहीं , बेचैनी भी नहीं और वह हाहाकार सा स्वर भी नहीं है अब. पर नींद भी नहीं. उठती है. गाउन बदल के सलवार कमीज स्वेटर शॉल स्कार्फ पहनती है. जूते पहनकर फोन की बैटरी देखती है नब्बे परसेंट!
बाहर निकल कर दरवाजा केवल कुंडे से बंद करती है और पत्थर की गुफानुमा चक्कर दार खड़ी सीढ़ियों की लाइट जलाती नीचे उतर जाती है. गली के कोने पर एक बल्ब जल रहा है. रोशनी पर्याप्त है गली पार करने और सीढ़ियां चढ़ने उतरने के लिए.
‘अकेली मत जइयो राधेss जमुना के ती ss र’
पंक्ति कौंधती है. और वह मन ही मन मुस्कुराती है. अकेली कहां है वह! आगे भैरू चल रहा है. (काला कुत्ता जिसे अचानक ही प्रेम हो गया है उससे, मिल जाता है) मंदिर की सीढ़ियां उतरने से पहले ही अब वह भी साथ चल रहा है. मंदिर के आगे हाथ जोड़ती आगे बढ़ती है. नदी का स्वर अब और भी प्रबलता से खींच रहा है. ‘डुबो देंगे नईया तुम्हें ढूंढ लेंगे तुम्हें ढूंढ लेंगेss’
वह मुस्कुराती है, समय देखती है रात के दस बजे हैं. ल्लो ! अब इस समय इस गाने को क्यों याद आना भला! सीढ़ीयाँ उतर रही है वो, चूड़ी बिंदी वाली दुकान के आगे से. भैरु मटकता-फुदकता अब आगे-आगे उतर रहा है.
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‘डुबो देंगे नईया तुम्हें ढूंढ लेंगे तुम्हें ढूंढ लेंगेss चले आओ जीss चले आओ जी चले आओ मौजों का ले कर सहारा हो रहेगा मिलन ये हमारा तुम्हारा ‘
सीढ़ियों के आखिर पर पहुंच गई है और अब खुद भी मन में चलते इस गीत को गुनगुनाते हुये जोर से हंस पड़ी है वो ‘ हो रहेगा मिलन ये हमारा तुम्हाराss’ किससे मिलना होना है उसका इस समय भला.अचानक इस गाने की याद से भी हँसती है. भैरु उसके आगे पीछे चल रहा है. वह भी नदी के किनारे चल रही है.
पहाड़ों पर घरों की बत्तियां सुंदर अलौकिक सा दृश्य रच रहे हैं. नदी और बर्फीली ठंडी हवा जादुई संगीत दे रहे हैं. फेफड़ों में जो जा रहा है वह कोई दिव्य प्राणवायु है. उसकी समझ से परे. उसे बहुत हल्का लग रहा है. एकदम से जैसे वह मुक्त है. उन्मुक्त है. अहा! उसने दोनों बाहें ऊपर उठाई और जोर की सांस ली.
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उसका मन नाचने का कर रहा है बिना किसी संगीत के, संगीत उसके अंतस से उठ रहा हो जैसे. इसी एक क्षण वह देह में है. इसी एक क्षण वह विदेह हुई जा रही है. नदी और हवा जैसे संगत से बह रहे हैं. वह खड़ी है. वह चल रही है किनारे पर और साथ ही नाच रही है जैसे वह देख पा रही है एक साथ खुद को, भैरु को नदी के किनारे चलते हुए. नदी के प्रवाह के साथ बहते हुए, नृत्य करते हुये, महसूस कर रही है हवा को और देख रही है खुद को मगन उड़ते हुए जैसे महसूस हो रही है खुशी, उत्फुल्लता.
वह वहाँ खड़ी रही जाने कब तक, जाने किस जीवन में, जाने काल के किस समय खंड में. लौटी तो कुछ याद नहीं. क्यों गई थी, कब गई थी, समय नहीं देखा उसने अपने मोबाइल में. जानती है – समय का कोई अस्तित्व नहीं है. जो है; उसे काल कहते हैं और यह अविभाज्य है! वह जैसे रुई सी उड़ती हुई, नदी सी उछलती हुई ,थिरकती हुई, हवा सी बहती हुई लौटी.
जारी…
बिहार के प.चम्पारन में जन्मी स्मिता वाजपेयी उत्तराखंड को अपना मायका बतलाती हैं. देहरादून से शिक्षा ग्रहण करने वाली स्मिता वाजपेयी का ‘तुम भी तो पुरुष ही हो ईश्वर!’ नाम से काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुका है. यह लेख स्मिता वाजपेयी के आध्यात्मिक यात्रा वृतांत ‘कालीमठ’ का हिस्सा है. स्मिता वाजपेयी से उनकी ईमेल आईडी (smitanke1@gmail.com) पर सम्पर्क किया जा सकता है.
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