गर्मियों में पहाड़ों के वन प्रांतर जंगली फलों और बेरियों से लद जाते हैं. हिसालू, किलमौड़ा और घिंघारू की झाड़ियाँ क्रमशः नारंगी, बैजनी और चटख लाल फलों से भर जाती हैं. यह अलग बात है कि उन्हें खाने को निकलने वाले बच्चों की टोलियों की तादाद दिनोंदिन कम होती गयी है. गाँव के गाँव पलायन की वजह से बंजर पड़ चुके सो इन दिव्य फलों पर बानर-लंगूरों का एकाधिकार जैसा हो गया है. (Kafal Himalayan Wild Fruit )
पेड़ों पर लगे हरे-लाल के असंख्य शेड्स वाले कच्चे-पक्के काफल लगे देख हर पहाड़ी के मन में पेड़ पर चढ़ने की नैसर्गिक इच्छा जागती है. काफल पहाड़ की गर्मियों का बादशाह फल है.
कुमाऊँ के पितरकवि गुमानी पन्त (1790-1846) ने काफल पर यह कविता लिखी थी –
खाणा लायक इन्द्र का हम छियाँ भूलोक आई पड़ाँ,
पृथ्वी में लग यो पहाड़ हमरी थाती रचा दैव लै ,
येसो चित्त विचारि काफल सबै राता भया क्रोध लै,
कोई और बुड़ा ख़ुड़ा शरमलै नीला धुमैला भया.(इन्द्र के भोजन सरीखे थे हम, किन्तु भूलोक पर आ बैठे
पृथ्वी में भी देवों ने हमें पहाड़ों पर पैदा कर दिया गया
– चित्त में यह विचार कर काफल क्रोध से लाल हो गए
उनमें से जो बूढ़े थे वे ही नीले-धुमैले हो गए)
पहले की तुलना में अब सड़कों का जाल बिछ चुका है और गाड़ियों में बैठे आते-जाते यात्री काफल के पेड़ों को हसरत से निगाह भर देख पाते हैं. किसी के पास समय ही नहीं है. (Kafal Himalayan Wild Fruit )
हाँ, सड़क के किनारे कुछ स्थानों पर आपको काफल से भरी टोकरी, टब या डिब्बे वगैरह लिए नन्हे किशोर पहाड़ी बालक-बालिकाएं “काफल ले लो काफल!” कहते हुए दिखाई दे जाते हैं. आपको फुर्सत होती है तो आप गाड़ी रोकते हैं और उनसे मोलभाव कर खरीदारी करते हैं. और मान लिया आप के शरीर में पहाड़ को लेकर यदा-कदा इमोशनल हो जाने वाली असाध्य बीमारी भी हुई तो बहुत संभव है आप बिना यह जाने उनके सारे काफल खरीद लेंगे कि इतने सारे काफलों का आप करेंगे क्या.
हो सकता है आप उन्हें वाइफ के डर से घर ले ही न जाएं. या उनके बारे में भूल ही जाएं और उनका खयाल आपको तब आये जब वे मुरझा कर चिमुड़ी गए हों और आपको उन्हें फेंकते वक्त अपने इमोशनल पहाड़ी होने पर गुस्सा और खीझ आने लगे.
इच्छा तो आपको यह जानने की होनी चाहिए कि ये बच्चे दिन भर सड़क किनारे धूप में खड़े “काफल ले लो काफल” क्यों कर रहे हैं जबकि उन्हें स्कूल में होना चाहिए था या अपने खेलों में मसरूफ.
ये बड़े सवाल हैं जिनसे हम आदतन कतराते हैं. खैर छोड़िये साहब. हम तो काफल की बात कर रहे हैं. दिल्ली-बंबई में किसी पहाड़ी से काफल का जिक्र तो कर के देखिये! फिर उसका चेहरा देखिएगा.
काफल एक नोस्टाल्जिया का नाम है. और कुछ नहीं!
(आलेख: अशोक पाण्डे)
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जयमित्र सिंह बिष्ट
अल्मोड़ा के जयमित्र बेहतरीन फोटोग्राफर होने के साथ साथ तमाम तरह की एडवेंचर गतिविधियों में मुब्तिला रहते हैं. उनका प्रतिष्ठान अल्मोड़ा किताबघर शहर के बुद्धिजीवियों का प्रिय अड्डा है. काफल ट्री के अन्तरंग सहयोगी.
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