जोहर घाटी में मिलम गांव भूले नहीं भूलता है. दो बार हो आया जोहार की इन घाटियों में. फिर भी न जाने ये क्यों खींचती सी हैं अभी भी. पहली बार 1998 में गया था तो मुनस्यारी से आगे जाते—जाते ये घाटियां रहस्मयी लगी. बचपन में काफी कॉमिक्स पढ़ी थी. बार—बार उन कॉमिक्सों के चित्र इन घाटियों से मिलते से दिखे. दर्रा क्या होता है मालूम नहीं था. किताबों में पढ़ा था कि दर्रों के रास्तों को पार कर व्यापार होता था करके. इतिहास पटा पढ़ा था दर्रों की अबूझ किस्से कहानियों से. सोचता था कि कभी जाउंगा हिमालय में तो दर्रों को भी पार करूंगा. बचपन में दर्रों की एक इमेज बन गई दिमाग में. उंची हिमालय की चोटियों के बीचों बीच संकरा सा कोई रास्ता होता होगा जिसे चुपचाप सरक—सरक के पार करना होता होगा.
माउंटेनियरिंग के पथ प्रदर्शक साथी आलोक साहजी जिन्हें हम सभी राजदा बुलाते हैं, की दुकान बागेश्वर के चौक बाजार में ‘जीवन गांधी एंड संस’ के नाम से है. अक्सर उनके पास बैठना होता था. वो हिमालय के ट्रेकों की रहस्यमयी और रोचक कहानियां सुनाते थे. बातों—बातों में मैं, राजदा और मित्र गोविंद साह मिलम से उंटा धूरा दर्रा के पार मलारी को जाने को तैंयार हो गए. हम दोनों नौसीखिये थे तो राजदा पर ही सारी जिम्मेदारी लाद दी गई. घर में बहाने बनाके ईजा को मना लिया गया. वैसे भी पहले जब कहीं ट्रेक में जाना होता था तो मैं बीसेक दिन पहले से ही ट्रेकिंग का सामान निकाल कर धूप दिखाने लगता था. घरवालों के मुंह फूलके कुप्पा सा हो जाते थे. घरवाले इंतजार में रहते कि कब मैं उनके पास आके ट्रेक के बारे में कहूं और कब वो मुझ पर ड्रैकूला की तरह अपने गुस्से की लपटें फैंके. मैं चुपचाप अपना काम करने में लगा रहता था. मसलन आज स्लीपिंग बैग सूखाया तो अगले कुछ दिनों तक मैट्रस, गर्म कपड़े, जूते, छाता आदि.
इस तरह कई दिन बीत जाते और घरवालों के ड्रैकूला वाली आग बिन पानी के ही फुस्स हो जाती थी. फिर ईजा ही पूछ देने वाली हुवी, ‘कां जान छे रे य बार.’ इसका मतलब होता था ‘जा भाज जा’ जिस दिन जाना होता था उसकी पहली रात सामान पैक कर उसे छुपा दिया जाता था. रात में नींद भी नहीं आती थी. सुबह बाबूजी और भाईसाहब के उठने से पहले भागना होता था. करीब साढ़े तीन बजे के आसपास. ईजा से रात को विदा ले ली जाती थी. कभी गेट फांदकर तो कभी चुपचाप बिना आवाज किए हुए दबे कदमों से घर की बाउंड्री से निकलना होता था. रोड़ में आते ही चौक बाजार को फुर्र.
कई बार देर से आने पर सजा के तौर पर कुछ सामान ज्यादा ढोना पड़ता था. हम सभी दुकानों से जुड़े होते थे तो ट्रेकिंग के लिए अकसर 16 श्राध्दों में ही हिमालय की ओर दौड़ लगाते थे. तब से अब तक हमेशा 16 श्राध्दों का बड़ी बेसब्री से इंतजार रहता है. मिलम से ऊंटाधूरा पास होते हुए मलारी जाने के लिए भी सितंबर में श्राध्दों के दूसरे—तीसरे दिन को चुना गया. हम लोगों का एक क्लब था, अभी भी है – ‘हिमालियन माउंटेनियर्स’.
बागेश्वर से हम तीनों जन सुबह ही बस से थल और थल से जीप से मुनस्यारी पहुंचे. यहां टीआरसी के रेस्ट हाउस में एक कमरा ले लिया. मदकोट में अध्यापन के कार्य में विजयदा अपनी नौकरी बजा रहे थे. उन्हें राजदा ने जबाव भिजवा दिया मिलने के लिए. विजयदा मेरे पहले ट्रेक, ‘नामिक, हीरामणी, कफनी ग्लेशियर’ अभियान में साथी रहे थे. वो काफी खुशदिल मिजाज वाले हैं. उनके मस्त-मौलापन से उनका नामकरण ‘जैकी चैन’ कर दिया गया था.
मुनस्यारी से जोहार जाने के लिए इनर लाइन परमिट बनाना पड़ता है. जो कि बहुत टेड़ी खीर है. यहां की तहसील वालों को न जाने क्यों हर हमेसा ‘मिलम’ के नाम पर मिर्च सी लग जाती है और उंटा धूरा के नाम पर तो फिर आईटीबीपी की भी चरण वंदना करनी हुवी. आईटीबीपी तो परमिट चाहने वाले को ऐसे नजर से देखती है जैसे वो कोई जासूस या भगोड़ा हो. मुनस्यारी में परमिट बनाने में दो दिन बर्बाद हो गए. तहसील से एसडीएम साहब गायब हो गए थे. दूसरे दिन विजयदा भी आ गए. रिमझिम बारिश ने पीछा नहीं छोड़ा. रेस्ट हाउस के कमरे में ही स्टोव—राशन निकाल दो टाइम पेट पूजा हो रही थी. इस बीच राजदा और विजयदा ने दो पोर्टर अभियान के लिए तैंयार कर लिए. शंकर राम पहले भी इस रूट में गया था तो वो हमारा पोर्टर और गाइड दोनों हो गया. दूसरे का नाम नर बहादुर था. हमारा परमिट बन चुका था तो तीसरे दिन विजयदा मदकोट को निकले और हम भी अपना पिठठू लाद जोहार के रास्ते को निकल पड़े.
ट्रेकिंग में राजदा के नियम—कानून काफी सख्त और कड़े हुवा करते थे. लीलम गांव से थोड़ा आगे निकले ही थे कि रास्ते में खूबसूरत झरने स्वागत करते मिले. आगे क्या होगा की चाहत में कदम तेजी से बढ़ते चले जाते थे. नीचे गोरी का शोर खूब था. कहीं संकरा रास्ता तो कहीं घने जंगल से गुजरना ऐसा लगता था कि जैसे बच्चे को उसका मन पसंद खिलौना मिल गया हो और वो उसमें डूब—उतर रहा हो. कई जगहों में पुराना रास्ता नदी ने खा लिया था. नये बने रास्ते में कई जगहों पर उप्पर से आ रहे खच्चर और आगे को जाते हम लोग डिस्को डांस जैसा करते रहे. आपस में हंसना मना था. हां! अंदर चुपचाप ‘खीं-खीं’ की मनाही नहीं थी.
नीम अंधेरे हम बोगड्यार पहुंचे. यहां रिंगाल की झोपड़ी में ही रात बिताई. तब मुझे ये झोपड़ी कम एक तरह से महल जैसा लगा. एल सेप में बनी इस रिंगाल की झोपड़ी में एक कोने में रसोई बनी थी और दूसरी ओर रेलवे की स्लीपिंग बर्थ की तरह रिंगाल की छोटी—छोटी चारपाईयां खूबसूरत ढंग से बनी थी. तीनेक अंग्रेज भी यहां रूके थे. उनमें से एक गिटार में मस्त हो गया तो मैं भी अपना माउथ आर्गन लेकर कूद पड़ा. ‘खाना खा लें फिर.. कल सुबह जल्दी जाना है.’ राजदा की आवाज पर ही संगीत से त्रंदा टूटी. दिनभर की थकान के बाद खाना इतना स्वादिष्ट लगा कि चुपचाप कढ़ाई तक चाट ली. सुबह रास्ते में हजारों भेड़ों का कारवां मुनस्यारी की ओर लौटते मिला. राजदा ने बताया कि आज मार्तोली तक जाएंगे. अरे! ले चलो जहां तक. हमें क्या. दिन—रात चलते रहो. ऐसा मजा तो यहीं इन्हीं वादियों में मिलने वाला हुवा. नीचे तो हर रोज की वही खटपट ठैरी!
शरीर से राजदा हल्के—फुल्के हुए. उप्पर से योग वाले अलग. चिड़िया की तरह फुर्र करके उड़ते हुए जैसा जाने वाले हुए. उनकी स्पीड पकड़ने में मेरा सांस उखड़ जाने वाला हुवा. इस पर खड़े—खड़े ही ‘एचएमटी’ की घड़ी के मुताबिक तीन मीनट का रेस्ट मिलने पर घुटनों में हाथ रख कमर टेड़ी कर राहत पा लेनी हुवी. वैसे रास्ते में राजदा की फसक से थकान का पता ही नहीं लगता था. साथ चल रहे पोर्टर नर बहादुर को छेड़ते हुए उन्होंने नेपाली रेडियो में आने वाली कई सारी एडवटाइजों का जिक्र किया तो सबमें हंसी फूट पड़ी.’भेल फाटन्यौ को, कपड़ा नी फाटन्यौ क हजूर’ जैसे कई बातों पर नर बहादुर तर्क करने वाला भी हुवा, जिससे माहौल और हसोड़ वाला हो जाने वाला हुवा.
रिलकोट पहुंचने पर गोरी नदी का शोर थम गया था. इस जगह में नदी शांत सी डेल्टा आकार में अपनी ओर खींच रही थी. आगे मार्तोली को हल्की चढ़ाई में बुग्याली घास के बीचों बीच हम चलते रहे. मार्तोली में शाम को जल्दी पहुंच गए थे. राजदा के छूट देने पर मार्तोली से पहले रस्ते में मखमली बुग्याल में तो आधेक घंटे की तफरी भी मार ली. मार्तोली में दो एक परिवार ही थे. बांकी मकानों में ताले लटके पड़े दिखे तो कुछ खंडहर बनने की कगार में थे. एक घर में रहने की व्यवस्था हुई तो सामान वहीं छोड़ गांव के उप्पर नंदा देवी मंदिर को निकल पड़े. वहां से हर ओर के पहाड़ खींचने से लगे थे.
इस उंचाई पर नंदा देवी का मंदिर काफी भव्य लगा. राजदा ने बताया कि यहां से ल्वां गांव के लिए ये रास्ता जाता है. ल्वां गांव से आगे ल्वां ग्लेशियर है, जहां पिंडारी ग्लेशियर के शीर्ष में ट्रेल दर्रे से पहले दानपुर और जोहार में व्यापार के सिलसिले में 18वीं सदी में आना—जाना होता था बल. अब तो केवल पर्वतारोही दल ही पिंडारी ग्लेशियर से ट्रेल दर्रे को पार कर ल्वां की ओर निकलते हैं. मंदिर से उप्पर को फैले बुग्याल में भोज के पेड़ों का घना जंगल दिख रहा था.
नीचे दूर तीखी चट्टानों के बीच में ल्वां गाड़ फनफनाते हुए सांप की तरह दिख रही थी. मंदिर से नीचे गांव में आए तो किनारे—किनारे नीचे को खंडहर होते गांव की गलियों में घुसते चले गए. इन गलियों से पहले मिलम घाटी की ओर के रास्ते में कई जगहों पर ‘खंदकें’ बनी दिखी. दुश्मन से बचने और उस पर नजर रखने के लिए सेना जमीन में बड़े गड्डे बनाती हैं जिसे ‘खंदक’ कहा जाता है. ये खंदकें 1962 में चीन के आक्रमण के वक्त भारतीय सेना ने उनसे मुकाबला करते वक्त बनाई थीं. मिलम के रास्ते में शहीद हुए सैनिकों की वीरगाथा के बारे में कई शिलापट्ट भी तब दिखे थे.
मार्तोली गांव के बारे में कहा जाता है कि ये गांव कभी तीनेक सौ मवासों का था. कितना सही था पता नही. लेकिन मकानों की तादात और उनके खिड़की—दरवाजों के अवशेषों को देखकर लग रहा था कि कभी ये गांव भी खूब आबाद रहा होगा.
फरफरी हवा चल रही थी. हवा में ठंडक बहुत थी तो बसेरे की ओर तेज चाल में दौड़ जैसी लगा दी. दो मंजिले के चाख में भांडे—बर्तन निकाल कर दाल—भात जैसा कुछ बना तो फटाफट पेट में उड़ेल कर स्लीपिंग बैग में घुस गए. सुबह गांव से थोड़ा दूर फारिग होने के बाद सामान समेटना शुरू कर मार्तोली से नीचे तीखे ढलान से उतरने लगे. गाईड शंकर राम इधर—उधर छिटके गांवों के नाम बता रहा था. सुंतो, सुमटियाल, टोला, टोलिया और सामने बिल्जू, गनघर, पांचू.
बिल्जू गांव में थोड़ी देर सुस्ताने का आर्डर मिला तो रूकसैक फैंक पसर गए. आसमान में नजर गई तो छितराए बादलों की तरह ही यहां के गांव भी छितराए से महसूस होने लगे. दूर पांचू गांव के बगल में पांचू नदी ने गोरी नदी से मिलने के लिए दौड़ जैसी लगा रखी थी. ‘चलें..’
इस आवाज से कल्पनाओं से बाहर निकला. राजदा ने वस्तुस्थिति देख कहा, ‘अरे! आगे तो अभी खजाना पड़ा है यहीं रहोगे क्या.’ तो मन खुश हो गया. मिलम गांव सामने दिख रहा था लेकिन कई घंटों के बाद भी ऐसा लगा कि हम सब ‘मोर्निंग वाकर’ में चल रहे हों. मिलम गांव जैसे पास आने को राजी नहीं था.
शाम हो गई मिलम गांव पहुंचनें में. यहां आईटीबीपी के वहां परमिट दिखाए. उन्होंने सामान को उलट—पलट कर देखा और मलारी जाने के नाम पर मुंह सिकोड़ जैसा लिया. हमें हिदायत दी कि उप्पर को जाने से पहले एक बार फिर हाजिरी दें.
(जारी )
बागेश्वर में रहने वाले केशव भट्ट पहाड़ सामयिक समस्याओं को लेकर अपने सचेत लेखन के लिए अपने लिए एक ख़ास जगह बना चुके हैं. ट्रेकिंग और यात्राओं के शौक़ीन केशव की अनेक रचनाएं स्थानीय व राष्ट्रीय समाचारपत्रों-पत्रिकाओं में छपती रही हैं. केशव काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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