(पिछली क़िस्त का लिंक – जोहार घाटी का सफ़र -3)
हमने नर बहादुर को ढूंढने में खुद के खो जाने की बात बताई तो उन्होंने बताया कि पहले जब ये गांव आबाद था तो करीब पांचेक मवासे यहां रहते थे. यहां नई—नवेली बहू के साथ इस भूलभलैया वाले गांव में कहीं जाने—आने के लिए कई दिनों तक घर का एक सदस्य साथं ही रहता था.
रोटी—सब्जी स्वादिष्ट लगी. खाना खाने के बाद हम तीनों बातें करते रहे. स्टोव को जलाए रखना मजबूरी थी शंकरदा की वजह से. मैंने और गोविंद ने आज की रात ड्यूटी करने की बात कह राजदा को आराम करने को कहा तो लेटे—लेटे वो उनींदे से सो ही गए. हम दोनों के भी एक बजे के बाद से सिर हिलने लगे तो नमक निकाल लिया गया. नमक चाटते ही नींद काफूर. ढ़ाई बजे तक साथ देने के बाद गोविंद भाई भी लुड़क लिए. उसके बाद चार बजे तक मैं रेडियो के कान उमेठता रहा. उस वक्त रेडियो में विदेशी भाषाओं की आवाज से लग रहा था कि साथं में कोई है. राजदा उठ गए तो मैं स्लीपिंग बैग में घुस गया.
आज शंकरदा के घर वाले आने वाले थे. उन लोगों ने अपनी चाल तेज कर एक पढ़ाव पार कर लिया था. दोपहर में हम तीनों ने थोड़ा—थोड़ा दाल—चावल बनाकर खा लिया और बाहर दीवार की आढ़ लिए लेट गए. दो बजे के आसपास दसेक जवानों की आवाजों से त्रंदा टूटी. वो लोग खड़े होकर कह रहे थे कि गांधीजी आ रहे हैं.. चलों यार! उन्हें लेने चलते हैं. थक गए होंगे वो भी.
उनकी गांधीजी वाली बातें पल्ले नही पड़ी. ऐसा लग रहा था कि वो हमसे बोलना तो चाहते हैं लेकिन साहब के निर्देश का पालन करने को वो मजबूर थे. कुछेक जवान आगे को निकल गए. रहा नहीं गया तो उनसे गांधीजी के बारे में पूछ ही लिया. उन्होंने हंसते हुए बताया कि ‘सेलरी’ आ रही है न.. तो नोट में गांधीजी तो हुए. वो भी कुछ आगे निकल मैदान में गोल घेरा बना बैठ गए. घंटे भर बाद पोर्टरों के साथ जवान खुश होते हुए वापस आते दिखे.
यहां ड्यूटी में तैनात जवानों की ‘गांधीजी’ वाली ये कहानी समझ में नहीं आई. हर महीने इन्होंने सेलरी रूपी गांधीजी का इंतजार करना हुवा और फिर दूसरे या तीसरे दिन गांधीजी को नीचे ढांक से अपने घरों को भेजना हुवा. गांधीजी ने लाठी टेकते हुए पिथौरागढ़, मुनस्यारी, लीलम, रड़गाड़ी, रिलकोट होते हुए मिलम आना हुवा और फिर वापस नीचे को दौड़ लगानी ठैरी.
इन पोर्टरों में से शंकरदा के ताउ का लड़का भी था. वो आईटीबीपी का सामान ला रहा था रास्ते में उसका सामान ढांक ला रहे पोर्टर से बदल कर उसे ढांक का सामान दे दिया था, ताकि वो मिलम एक दिन पहले पहुंच सके. उन्हें कैंप की ओर जाते हुए हम चुपचाप देखते रहे. घंटेभर बाद राजदा भी कैंप की ओर गए. वापस आने पर उन्होंने बताया कि गांव के लोग कल दोपहर बाद तक पहुंचेगे. वो भी सामान ला रहे हैं. शंकर का भाई अभी मिलम गांव में गया है शाम तक यहां आएगा.
अंधेरा घिरने लगा तो हम सभी कमरे में स्टोव के अगल—बगल बैठ शंकरदा के भाई के आने का इंतजार करने लगे. कुछ पलों बाद कमरे का दरवाजा खुला तो एक अधेड़ सा दिखने वाला शख्स अंदर को आए. उनके साथ हमारा पोर्टर नर बहादुर भी था.
स्ट्रेचर में कंबल हटाकर उन्होंने शंकर को कुछ पल देखा और फिर जमीन में उकडू सा बैठ कुछ देर तक सुबकते रहे. हमारे नजदीक आकर बैठने के बाद बीढ़ी भरते हुए बड़बड़ाते हुए वो कहने लगे.. सेपजी इसने ऐसे ही जाना होगा.. क्या कहें डाक्टर ने मना किया था इसे हिमाल में जाने को.. .
बीढ़ी सुलगाते हुए वो बोले.. गरीबी की मार ऐसी ही होने वाली ठैरी सेपजी.. चार—पांच बच्चे हुए इसके.. सोचा होगा पैंसों के साथ ही कुछ लत्ते—कपड़े मिल जाएंगे आप लोगों से.. अब अपना ही चला गया.. आप भी परेशान हो गए ठैरे..
शंकरदा के भाई की बातों से हमारी सांसे लौट आई. आईटीबीपी के झूठ पर उसने विश्वास नहीं किया. मैं उनके लिए चाय बनाने लगा. वो तब तक दूसरी बीढ़ी भरने में लग गए थे. चाय पीते हुए वो बोले.. सेपजी आप सब इतने दिनों से परेशांन हैं.. आप आराम करो.. मुझे जागने की आदत है.. मुर्दे की पहरेदारी के लिए आग के साथ जागना जरूरी ठैरा हो.. नहीं तो मुर्दा उड़ जाने वाला ठैरा हो..
खाना हमने बनाना था नहीं तो चुपचाप स्लीपिंग बैगों में घुस उससे बतियाने लगे. उन्हें बताया कि कैसे क्या कुछ हुवा. बीढ़ी पीते हुए वो चुपचाप सिर हिलाते रहे.
दस बज चुके थे तो वो फिर बोले.. सेपजी आप सो जाओ मैं नहीं सोउंगा.. आप बेफ्रिक होकर सो जाओ..
मैं स्टोव के बगल में बैठे रेडियो के कान उमेठने में लगा था. कुछ देर बाद मैं भी सो गया. लेकिन नींद नहीं आ रही थी. मुझे शंकरदा के भाई को देख डर लग रहा था कि कहीं ये सो न जाए और जलते स्टोव से कोई कहीं और बबाल न हो जाए. एक बजे के आसपास मेरी नींद खुली तो स्टोव बुझने को था और शंकरदा का भाई भी अपने कंबल में लेटा दिखा. मैं उठा तो उनकी आवाज आई.. मैं जगा ही हूं.. सो जाओ सेपो आप..
मैंने मोमबत्ती जलाई और स्टोव को बंद कर उसमें मिट्टीतेल डाल उसे फिर से जलाया. तब तक वो भी बैठ बीढ़ी सुलगाने लगे. मैंने उनसे चाय के लिए पूछा तो वो बोले… अरे! ना.. ना सैपजी.. खाली रहने दो हो…
मुझे लगा कि उनका मन तो है लेकिन झिझक की वजह से वो कह नहीं पा रहे हैं. खाली स्टोव जल ही रहा है तो बन जाती है कह मैंने चाय चढ़ाई. ‘दम’ की महक फिर से कमरे में महकने लगी थी. उन्होंने मेरी ओर बीढ़ी बढ़ाई भी लेकिन पुराने अनुभव याद कर मैंने गर्दन हिला दी.
चाय का गिलास पूरा भर मैंने उन्हें दिया तो वो सूडूकते हुए पीने लगे. डेढ़ बज गए तो रेडियो के पुराने गानें भी बंद हो गए. मैं फिर आराम से सो गया कि जो होगा देखा जाएगा.
पौ फटने पर हम सभी उठे. चाय पीने के बाद हम बाहर निकल आए. नीचे गोरी नदी के किनारे किलोमीटर भर मैदान सा दिखा जिनमें कुछों में कुछ फसल भी दिख रही थी. राजदा ने बताया कि मिलम गांव के लोगों के ये खेत हुवा करते थे. लोग पलायन कर गए तो खेत भी बंजर होते चले गए. अब आईटीबीपी ही कुछ खेतों में अपने लिए उगा लेती है.
शंकरदा का भाई ‘दोपहर तक आता हूं तब तक गांव वाले भी आ जाएंगे’ कह गांव की ओर निकल गए. हम सबके लिए एक—एक पल काटना बहुत मुश्किल हो रहा था. बारह बज चुके थे. राजदा ने राशन की पोटली में से चावल, चीनी, बादाम, घीं निकाला और कुकर में मीठा भात जैसा कुछ बनाना शुरू कर दिया. इस प्रक्रिया में एक घंटा निकल गया. थोड़ा—थोड़ा सा बर्तनों में डाल खाना शुरू ही किया था कि आईटीबीपी के जवान नीचे रास्ते को जाने लगे. देखा तो दूर पोर्टरों का कारवां धीरे—धीरे आ रहा था. खाने का मन भर गया. तीन दिन के इस माहौल से हमें मुक्ति चाहिए थी. पोर्टर कैंप में गए तो राजदा भी उन्हीं के साथं चले गए. आधेक घंटे बाद राजदा आए उन्होंने बताया कि शंकर की बॉडी को मुनस्यारी ले जा पाना संभव नहीं है. खुद गांव वाले ही कह रहे हैं. यहीं अंतिम क्रिया करेंगे. पेड़ यहां हैं नहीं. आईटीबीपी वाले कुछ जरकिन मिट्टीतेल देने की बात कर रहे हैं. राजदा ने हमें सामान पैक करने को कहा तो हम कमरे में सामान समेटने में लग गए. थोड़ी देर बाद शंकरदा का भाई और गांव के बिरादर सिर घुटाकर आए और उन्होंने शंकरदा को नीचे गोरी किनारे के घाट में ले जाने के लिए तैंयार कर दिया. राजदा भी उनके साथं एक फावड़ा लेकर चले गए. दो घंटे के बाद सभी वापस आए. गौरी नदी के किनारे शंकरदा की ‘कब्र’ सी बना वो सभी वापस लौट आए थे.
राजदा ने कहा कि अब यहां नहीं रूकते हैं. आगे रिलकोट को चल पड़ते हैं. परमिट की परमिशन और कैमरे के लिए हम आईटीबीपी के कैंप में गए. उनके कैमरे देने में आनाकानी करने के बाद हम सब उनके अधिकारी से भिड़ गए. उन्हें दुनियां जहांन की सुनाई कि वो हमारे बारे में क्या—कुछ बक रहे थे.. हमें तो उन्होंने हत्यारा भी साबित कर दिया. सिटपिटाए अधिकारी ने कैमरे से रील और कैसेट निकाल हमें सामान देने के आदेश दे दिए. राजदा के साथीं ने हमें आश्वासन दिया कि वो कैसेट जरूर ले आएगा. कैसेट में उनकी भी वीडियो थी जिसे वो अपने घर में दिखाना चाहते थे. और वादानुसार बाद में वो कैसेट ले भी आए.
छह बज गए थे. मिलम की घाटियां अंधेरे में घिरने लगी थी. हमने रूकसेक कांधों में लादे और चल पड़े वापसी की ओर. यहां के माहौल से मुक्त होने की वजह से कई दिनों बाद आज हमारी चाल में तेजी थी. दोएक किलोमीटर बाद मिलम की ओर देखा तो दूर पीछे से शंकरदा के गांव वाले भी आते दिखे.
नर बहादुर कह रहा था. ‘साहब! हमने इतना कुछ किया शंकर के लिए लेकिन ये सब कह रहे थे कि हमने उसे उप्पर—नीचे दौड़ाया जिस वजह से वो मर गया.’
राजदा ने उससे हमारा साथं छोड़ जाने के बारे में पूछा तो वो बहाने बनाने लगा. बमुश्किल उसने बताया कि उसे डर लग गई थी. मुर्दे को उल्टा करके रखते हैं आप लोगों ने तो उसे नीचे रखा था.
हंसते हुए राजदा ने कहा, ‘खाली में तेरा नाम नर बहादुर रखा ठैरा! तेरा नाम तो ‘डर बहादुर’ होना चाहिए..’ हम सब हंस पड़े. आज काफी दिनों बाद हमारे चेहरों में मुस्कान आई थी. घुप्प अंधेरे में बिना टार्च के चलने में मजा आ रहा था. एक धार से रिलकोट के होने का आभास हुवा तो राहत सी मिली. रास्ते में कहीं भी हम रूके नहीं थे. सायद साढ़े दस बज चुके थे.
रिलकोट में एक दुकान में आवाज लगाई तो उन्होंने दरवाजा खोल दिया. रहने की बात पर उन्होंने दोमंजिले का चाख दे दिया. इस घर के नीचे के एक हिस्से में दुकान और उसी के बगल में उनका ठिकाना था. उन्होंने हमसे पूछा कि और भी कोई आ रहें हैं क्या. हमने उन्हें बताया कि गांव के छह—सात लोग हैं पीछे, बस पहुंचने वाले होंगे.
राजदा ने स्टोव जलाकर दिन का बचा हुवा मीठा भात गर्म करना शुरू कर दिया. नीचे आवाजें आने लगी थी. दुकान स्वामी ने उनके लिए दाल—भात बनाने के लिए लकड़ी का चूल्हा जलाना शुरू कर दिया था. इन क्षेत्रों में रोटी मिलनी बहुत मुश्किल होती है. दाल—भात सुविधाजनक और सर्वसुलभ है.
हमने मीठा भात खाना शुरू कर दिया. नीचे आवाजें तेज हो गई थी. थकान के मारे गांव वाले दुकान स्वामी की ‘चकती’ से अपने गलों को तर करने में जुट पड़े थे. बारह बजे तक उनकी सुरामय आवाजें लहराती हुवी आ रही थी. हमें अपने खोल में नींद आ गई थी. आज रात में जागने की ड्यूटी खत्म हो गई थी.
सुबह अलसाये से उठे और दुकान स्वामी को ही नाश्ता जैसा जो भी हो बनाने को कह हमने अपना सामान बांधना शुरू कर दिया. नाश्ते के नाम पर दाल—चावल ही मिला. इन जगहों में नाश्ते का मतलब भी भर पेट भोजन करना ही होता है.
गांव वालों से राजदा ने बात कर कहा कि उन्होंने भी मुनस्यारी ही जाना है तो कुछ हमारा सामान ले लें जो मजदूरी होगी दे देंगे. कुछ देर बाद वो राजी हो गए. रूकसेकों से भारी सामान निकाल उन्हें दे दिया. उन्होंने उन सामानों की पोटली बना आपस में बांट लिया. हमारा बोझ भी अब काफी कम हो गया था तो चाल में भी काफी तेजी आ गई थी. आज हमने मुनस्यारी पहुंचने की ठान ली थी. कई दिन हो गए थे. नहाना तो छोड़ो ढंग से मुंह भी नहीं धोया था. मुनस्यारी में टीआरसी में कमरा लेकर नहाने की कल्पना में हम उड़ते जैसे जा रहे थे.
दोपहर में रड़गाड़ी में एक दुकान में दाल—भात पेट में उड़ेला. कुछ देर सुस्ताने के बाद फिर आगे की राह को नापना शुरू कर दिया. लीलम गांव पहुंचने तक सांझ हो गई थी. एक बार मन किया कि यहीं गोठ में ही पसर जाएं. कल की कल देखी जाएगी.
‘चलें फिर’ आवाज गूंजी तो गोठ में पसरने का ख्याल को वहीं छोड़ना पड़ा. नीचे जिमीगाढ़ तक उतार था तो पांव को सिर्फ आगे को फैंक जैसा देना हुवा, शरीर अपने आप आगे को खिसक जाने वाला ठैरा!
जिमीघाट से मुनस्यारी तक तिरछी चढ़ाई भी अब एवरेस्ट जैसी लगने लगी थी. पसीने से शरीर बास मार था. आठ बजे के आसपास कच्ची सड़क मिली तो लगा मुनस्यार आ गए अब तो. सड़क किनारे सामान फैंका और उसीके किनारे लधर गए. डर बहादुर को साथं लेकर राजदा आसपास किसी जीप वालों की ढूंढ खोज में निकल गए. आधे घंटे बाद आए तो हमें लगा सायद कोई हैलीकाप्टर जैसी कोई जीप के दर्शन भी होंगे. लेकिन उन्हें कुछ भी नहीं मिला.
डर बहादुर ने एक शॉटकट रास्ते के बारे में बताया तो सामान लाद उसी के पीछे चल दिए. गांवों के बीच से होते हुए यह रास्ता मुनस्यारी बाजार में मिलता था. अंडर गारमेंटस में पसीने की रगड़ से मुनस्यारी में पहुंचने तक मेरी चाल चौपाया की तरह हो गई थी. साढ़े दस बज चुके थे. सिर्फ वीरू भाई का बुग्याल रेस्टोरेंट खुला मिला. उसे ही कुछ खाने को देने के लिए कह रहने के ठिकाने के बारे में बंदोबस्त करने को कहा. होटल, टीआरसी सब बंद हो गए थे. रूकने का कुछ भी ठिकाना न होने पर वीरू भाई के दो मंजिले के त्रिभुजाकार पीसीओ को ठिकाना बनाना तय कर लिया.
खाना बन गया था. भोजन कर ही रहे थे कि हमारे साथ पीछे से आ रहे गांव वालों में से तीनेक जन लहराते हुए होटल में घुसे. इधर—उधर बैठते ही वो हमें सुनाने लगे.
शंकरदा को इन्होंने ही मार डाला हो. आज ही देख लो. ये रिलकोट से सीधे मुनस्यार आ गए ठैरे! हमारे तीन साथीं तो थककर लीलम गांव में ही रूक गए हैं. हमने भी कहा देखते हैं ये कहां भाग के जाते हैं. छोड़ेंगे नहीं. अब कहां जाओगे रे सैप लोगो. सैप ठैरे तुम लोग. हमारे भाई को मार दिया!
बागेश्वर में रहने वाले केशव भट्ट पहाड़ सामयिक समस्याओं को लेकर अपने सचेत लेखन के लिए अपने लिए एक ख़ास जगह बना चुके हैं. ट्रेकिंग और यात्राओं के शौक़ीन केशव की अनेक रचनाएं स्थानीय व राष्ट्रीय समाचारपत्रों-पत्रिकाओं में छपती रही हैं. केशव काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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