कला साहित्य

मानव जीवन और जीविका के संघर्ष की सशक्त अभिव्यक्ति ‘जीवन जैसे पहाड़’

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये क्लिक करें – Support Kafal Tree

जून डुबि, तारा डुब्या, रात यो सखत
कॉं उसा मानुष रैगीं कॉं उसो बखत.

चांद डूबा, तारे डूबे, रात बड़ी सख्त है. कहां रहे वैसे मनुष्य और कहां रहा वो समय, एक कुमाउंनी लोकगीत (न्यौली)
(Jeevan Jaise Pahad Book Review)

किस्सागोई देबी (देवेन्द्र मेवाड़ी) ने ‘मेरी यादों का पहाड़’ किताब में अपने बचपन और किशोरावस्था तो ‘पीछे छूटा पहाड़’ में नौजवानी की झर-फर के साथ लिखाई-पढ़ाई और शुरूआती साहित्य सृजन की कथा-व्यथा लगाई थी.

यादों की इन किताबों ने यह भी बताया कि देबी लड़कपन में ही बखूबी जान गया था कि उसके जीवन की राह आसान नहीं है. तभी तो, पग-पग पर मिले कष्टों ने उसे कच्ची उम्र में ही उनसे निपटना भी सिखा दिया था. और, स्वभाव से संकोची देबी कब समझदार और जिम्मेदार बन गया उसे भी पता नहीं चला.

एक तरफ उसके दिल में समाये पहाड़ के छूटने का दर्द उसे सताये जा रहा था तो दूसरी तरफ जीवन की विकटताओं के पहाड़ उसकी प्रतीक्षा में थे. देखने वाली बात यह है कि इन विकटताओं से उसकी जीवन-भर मुलाकात-दर-मुलाकात होनी वाली थी.
(Jeevan Jaise Pahad Book Review)

नौजवानी से सयाने होने तक के इन कठिन दिन-रातों को साहित्यकार देबी ने लिपिबद्ध किया तो उसे लगा कि वे उसके जीवन में फिर से जीवंत हो गए हैं. उसके जीवनीय कष्टों से उपजी इन यादों को नाम देने की बात आई तो परम मित्र ने सटीक नाम दिया ‘जीवन जैसे पहाड़’.

‘…फिर पूछा उनसे मैंने – ‘मृदुल जी, मेरी यह नई पुस्तक शहरों में नौकरी की जद्दोजहद पर केन्द्रित है. इसमें शहर लखनऊ में बिताए मेरे नौकरी के तनाव भरे दिन हैं, दिल्ली की अथाह दौड़-भाग है और हैं चंडीगढ़ के कुछ उजले दिन. फिर दिल्ली के दुर्दिन हैं. और, फिर एक दिन रिटायर होकर घर वापसी. इस सब के बीच पहाड़ की यादें तो हैं ही. तो, बताइए मेरी इस किताब का नाम क्या हो?’

उनका जवाब आया – जीवन जैसे पहाड़

देवेन्द्र मेवाड़ी की देश-दुनिया में यायावर लेखक और विज्ञान किस्सागो के रूप में लोकप्रिय पहचान है. वैज्ञानिक जानकारियों को साहित्यिक शैली में लिखने में वे पारंगत है. उनका रचना संसार बहुआयामों में चर्चित हुआ है.

आम जन में विज्ञान के लोकप्रियकरण के केन्द्र में उनकी 20 पुस्तकों के साथ 30 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं. इनमें विज्ञान और हम, विज्ञाननामा, मेरी विज्ञान डायरी, राही मैं विज्ञान का, विज्ञान वेला में, विज्ञान बारहमासा, कथा कहो यायावर, सौर मंडल की सैर, नाटक-नाटक में विज्ञान, विज्ञान की दुनिया, विज्ञान जिनका ऋणी है आदि विशेष उल्लेखनीय हैं.
(Jeevan Jaise Pahad Book Review)

‘किसान भारती’ पत्रिका के वे संपादक रहे हैं. प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में लेखन और आकाशवाणी एवं टेलीविजन में लेखक और वार्ताकार के रूप में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहता है.

देवेन्द्र मेवाड़ी बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी हैं. वे विज्ञान लेखक, साहित्यकार, अध्येयता, घुमक्कड़, प्रशिक्षक और मोटीवेटर हैं. जिंदादिल, जिम्मेदार और जानकार व्यक्तित्व में किस्सागोई की गज़ब की प्रतिभा ने उनको सामाजिक दायित्वशीलता को निभाने में मदद की है. इसीलिए, 80 साल की उम्र में भी वे अपने जीवनीय ज्ञान, हुनर और अनुभवों को देश के दूर-दराज के स्कूलों में जाकर बच्चों और युवाओं सुनाते और समझाते हैं. यह उनकी जीवंत सक्रियता है कि वे अब तक एक लाख से अधिक बच्चों और युवाओं को विज्ञान की कहानियां सुना चुके हैं.

देवेन्द्र मेवाड़ी को उत्कृष्ट विज्ञान लेखक और साहित्यकार के बतौर कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से नवाज़ा गया है. इनमें आत्माराम पुरस्कार, भारतेंदु हरिश्चंद्र पुरस्कार, ज्ञान प्रौद्योगिकी सम्मान, राष्ट्रीय विज्ञान लोकप्रियकरण पुरस्कार, विज्ञान भूषण सम्मान, शिक्षा पुरस्कार, मेदिनी पुरस्कार, वनमाली विज्ञान कथा सम्मान आदि उल्लेखनीय हैं.

सम्मानों की प्रतिष्ठित श्रृंखला में देवेन्द्र मेवाड़ी केन्द्रीय साहित्य अकादमी के ‘बाल साहित्य पुरस्कार-2022 से विभूषित हुए हैं. देवेन्द्र मेवाड़ी को उनके संस्मरणों और यात्रा वृतांतों से विशेष ख्याति मिली है. ‘मेरी यादों का पहाड़’ उनके बचपन और किशोरावस्था के संस्मरणों की खूबसूरत धरोहर है. नेशनल बुक ट्रस्ट आफॅ इंडिया की प्रकाशित पुस्तकों में सर्वाधिक बिकने वाली किताबों की सम्मान सूची में ‘मेरी याद का पहाड़’ शामिल है.

‘छूटा पीछे पहाड़’ पुस्तक उनके युवा अवस्था की आत्मकथात्मक दास्तान की दूसरी कड़ी के रूप में संभावना प्रकाशन से विगत वर्ष – 2022 में प्रकाशित हुई है. इसी क्रम में संभावना प्रकाशन से हाल ही में तीसरी पुस्तक ‘जीवन जैसे पहाड़’ प्रकाशित हुई है.

पंतनगर विश्वविद्यालय में बिताये आखिर दिनों की मुश्किलों से जूझते देबी (देवेन्द्र मेवाड़ी) की विकट हालातों से यह किताब शुरू हुई है. जीवन की मुश्किलों से बखूबी परिचित देबी के लिए ये दौर नई चुनौतियों से भरा था.

चुनौतियां भी ऐसी दुष्कर कि जिनसे देबी का अवाक हो जाना लाजिमी था. उसके लिए, बड़े भाई की असमय मृत्यु के रीतेपन के डर से उभरना संभव नहीं था. ऐसे में, मित्र डा. कक्कड़ ने प्रेरक बनकर सलाह दी कि ‘मनोवैज्ञानिक डर से बाहर निकलने का सबसे अच्छा रास्ता है-अपनी ज़िम्मेदारी को पहचान कर अपनी सामर्थ्य के अनुसार उसे पूरी निष्ठा के साथ निभाना. यह निश्चय करने पर आपका मन शांत रहेगा और अपनी ज़िम्मेदारी निभाने का संतोष भी मिलेगा.’ (पृष्ठ-24)

देबी ने डा. कक्कड़ से मिले इस जीवन-मंत्र को ताउम्र जीवन में आत्मसात किया. और, जीवन में आये इस रीतेपन को भरने के लिए बडे़ भाई के उसके लिए देखे सपनों को साकार करने में लगा दिया. ये जरूर है कि वो रीतापन आज भी 80 वर्षीय देबी के मन के सबसे नाजुक कोनों को भिगाता रहता है. इस खालीपन से उभरने के लिए ‘उन्हीं का स्वप्न हूं मैं, आज जो कुछ भी हूं.’ देबी यह हमेशा याद रखता है.

तभी तो, व्यवहारिक जीवन में पारिवारिक ही नहीं सामाजिक दायित्वों को वह बखूबी निभा पाया है. हमारी सामाजिक व्यवस्था में प्रत्येक युवा के लिए अपने और परिवार की उससे उम्मीदों के मध्य तालमेल बनाना आसान नहीं होता है.
(Jeevan Jaise Pahad Book Review)

मध्यमवर्गीय परिवारों के युवाओं के लिए तो पारिवारिक जिम्मेदारियों के निर्वहन करते हुये उलाहना मिलना भी आम बात है. देबी और उसके पिता के बीच के संवाद की बानगी देखिए –

एक बार बाज्यू की चिठ्ठी मिली कि ‘तू वहां नौकरी कर रहा है. यहां घर की भी फिकर किया कर.’ मैं चौंका, मैं क्या नहीं कर रहा हूं? पूरे परिवार में अब एक मात्र में ही तो कमाने वाला सदस्य था. छोटी-सी तनखा मिलती थी… जवाब में मैंने उन्हें लिखा-‘पिताजी आपको तो खुशी होनी चाहिए कि आपने मेरे रूप में एक छोटा-सा पौधा लगाया जो आज एक पेड़ बन गया है और वह अपनी जड़ों पर खड़ा है.

लौटती डाक से बाज्यू का उत्तर मिला – बेटा, तुम्हारी चिठ्ठी मिली. तुमने लिखा है, कि आपका लगाया पौधा अब पेड़ बन गया है. हां, मुझे बहुत खु़शी है कि वह पौधा अब एक पेड़ बन गया है. लेकिन, बेटा क्या करूं, वह पेड़ फल ही नहीं देता.

बाज्यू का तुर्की-ब-तुर्की जवाब पाकर पहले तो ज़ोर से हंस पड़ा, फिर अपनी मजबूरी पर रोना आ गया. काश, मुझे वेतन में इतने पैसे मिलते कि मैं घर को भी, बच्चों को भी और अधिक पैसे भेज पाता और शहर में आसानी से परिवार का ख़र्चा भी चला सकता.’ (पृष्ठ-132-133)

देबी और उसके पिता के बीच चिठ्ठियों के माध्यम से हुआ संवाद उस दौर का आम पारिवारिक मिज़ाज था. गांव से जीवकोपार्जन के लिए शहर गए युवा को इस कसमसाहट से गुजरना ही होता था. इन अर्थों में ‘जीवन जैसे पहाड़’ का हमारा देबी बीती सदी के 70 के दशक के मध्यमवर्गीय परिवारों के युवाओं का प्रतिनिधि है.
(Jeevan Jaise Pahad Book Review)

पंतनगर, दिल्ली, लखनऊ, चंडीगढ़ में गाहे-बगाहे मिले जीवनीय अनुभवों को देवेन्द्र मेवाड़ी ने बेहद रोचक तरीके से सार्वजनिक किया है. शहर-दर-शहर कभी अन्जानों की तटस्थता, कभी अन्जान बने अपनों से मिली कडुवाहट, तो कभी अजनबियों से मिली आत्मीयता की मीठी-खट्टी बातें हैं, इस किताब में.

पंतनगर विश्वविद्यालय में अप्रैल, 1978 का गोली कांड, इल्म-ओ-अदब की दुनिया लखनऊ के अंदाज, नाटकों की दुनिया, मेले-ठेले की रंगत, सपेरे, नट और जादूगरों की संगत, बागियों से रोमांचक मुलाकात, राजनेताओं के चक्कर, आफिसकर्मियों का अपनत्व और आपसी दांव-पेंच का सामना करते हुए मेवाड़ी जी ने यही माना कि निरंतर बदलते समय की धड़कनों को बेहद आत्मीयता से सुनते रहना चाहिए. यही आत्मीयता की दौलत व्यक्ति को विकट स्थिति से निपटने में मददगार साबित होती है.

‘…यह सोचकर कि अगर हद से गुजर जाएगी तो नौकरी से इस्तीफा दे दूंगा. कुछ नहीं तो गांव चला जाऊंगा जहां हमारी ज़मीन भी है और मकान भी. बड़ा बल मिलता था यह सोच कर. लेकिन, अगले ही पल मन में सवाल उठने लगते कि बच्चों की पढ़ाई का क्या होगा? कहां पढ़ाऊंगा उन्हें? खेती करना आता नहीं, आमदनी का जरिया है नहीं तो घर कैसे चलाऊंगा? फिर सोच में डूब जाता… इसलिए चुपचाप नौकरी करता रहा… शैलेश मटियानी जी की बात याद आती रहती – ‘देवन, सदा पेड़ की तरह बढ़ना जो अपनी जड़ों पर खड़ा रहता है.’(पृष्ठ-142)

‘…चेहरे पर मुस्कराहट आ रही थी. मुस्कराहट इसलिए आ रही थी कि आदमी ओहदे के साथ-साथ शायद इसी तरह अलग होकर बदलता होगा. कुछ खास और ऊंचे ओहदे पर पहुंचते ही उसे दूसरों से कुछ अलग होने का गुमान हो जाता होगा. फिर ऊंचे उठते जाते ओहदे के साथ-साथ वह गुमान भी बढ़ता जाता होगा. कानों में गूजंता होगा-‘नाउ बिहेव एज अ सीनियर ऑफीसर’. लेकिन, मेरे कानों में तो ‘सगीना’ फिल्म का गीत गूंज रहा था-‘साला मैं तो साहब बन गया.’ (पृष्ठ-178-179)
(Jeevan Jaise Pahad Book Review)

एक शोधार्थी से संपादक और उसके बाद लोकसंपर्क में अपनी जीविका की डोर पकड़े देवेन्द्र मेवाड़ी का लेखन जीवन में कैसी भी स्थिति रही हो कभी रुका नहीं, थका नहीं. जीवन के सुखद क्षणों के आनंद को उनकी लेखनी ने और आनंददायी बना कर उन्हें मंत्रमुग्ध किया. दूसरी ओर, निराशा के समय में उनके लेखन ने उन्हें उस अवसाद से उभारने में जबरदस्त साथ दिया है.

‘ठीक कह रहे हो तुम देबी. सुबह-शाम पार्कों में जाकर नकली हंसी तो हंसूंगा नहीं, न तालियां बजाऊंगा, न रिटायर हुए बुजुर्गों के साथ गोल घेरे में बैठ कर बार-बार, सैकड़ों बार एक ही नाम या दोहा जप कर टाइम पास करूंगा क्योंकि समय बेशकीमती है. उसका सदुपयोग करूंगा. बस, मुझे तो अब यह तय करना है कि इस नए जन्म में मैंने करना क्या है? अपने किस पिछले अर्जित अनुभव को साथ लेकर आगे कदम बढ़ाऊं?’ (पृष्ठ- 212)

जीवन की राह में कितने लोग मिले, कितनी जगहें देखी, सबकी अपनी-अपनी आप-बीती थी और देबी आत्ममुग्ध होकर उनकी सुनता हुआ, अपनी कहता हुआ, ज़िन्दगी के ढ़ब-बेढ़ब रंग-ढंग देखता उनका मीठा-कडुवा स्वाद लेता रहा. और, नौकरी से अलविदा लेते ही देबी ने एक ही लक्ष्य चुना कि बस यही करूंगा, लिखूंगा और लिखता रहूंगा.

हमारे देबी दा (देवेन्द्र मेवाड़ी जी) का यह खूबसूरत और प्रेरणादाई रचना संसार निरंतर जारी रहे.
(Jeevan Jaise Pahad Book Review)

संभावना प्रकाशन से प्रकाशित ‘जीवन जैसे पहाड़’ पुस्तक यहां से मंगा सकते हैं – जीवन जैसे पहाड़.

– डॉ. अरुण कुकसाल

हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें: Kafal Tree Online

वरिष्ठ पत्रकार व संस्कृतिकर्मी अरुण कुकसाल का यह लेख उनकी अनुमति से उनकी फेसबुक वॉल से लिया गया है.

लेखक के कुछ अन्य लेख भी पढ़ें : 1 मई और रुद्रप्रयाग का बाघ

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Kafal Tree

Recent Posts

भूत की चुटिया हाथ

लोगों के नौनिहाल स्कूल पढ़ने जाते और गब्दू गुएरों (ग्वालों) के साथ गुच्छी खेलने सामने…

13 hours ago

यूट्यूब में ट्रेंड हो रहा है कुमाऊनी गाना

यूट्यूब के ट्रेंडिंग चार्ट में एक गीत ट्रेंड हो रहा है सोनचड़ी. बागेश्वर की कमला…

15 hours ago

पहाड़ों में मत्स्य आखेट

गर्मियों का सीजन शुरू होते ही पहाड़ के गाड़-गधेरों में मछुआरें अक्सर दिखने शुरू हो…

2 days ago

छिपलाकोट अन्तर्यात्रा : जिंदगानी के सफर में हम भी तेरे हमसफ़र हैं

पिछली कड़ी : छिपलाकोट अन्तर्यात्रा : दिशाएं देखो रंग भरी, चमक भरी उमंग भरी हम…

2 days ago

स्वयं प्रकाश की कहानी: बलि

घनी हरियाली थी, जहां उसके बचपन का गाँव था. साल, शीशम, आम, कटहल और महुए…

3 days ago

सुदर्शन शाह बाड़ाहाट यानि उतरकाशी को बनाना चाहते थे राजधानी

-रामचन्द्र नौटियाल अंग्रेजों के रंवाईं परगने को अपने अधीन रखने की साजिश के चलते राजा…

3 days ago