समाज

जौनसार बावर: जहाँ सामूहिकता और सामुदायिकता जिन्दा है

जौनसार-बावरः अतीत से भविष्य तक
–सुभाष तराण

सुदूर उत्तर भारत के पहाडी प्रदेश उत्तराखंड में यमुना अपने उद्गम से लगभग सौ मील चल कर जब देहरादून जिले के पुरातन स्थल कालसी पहुँचती है तो वहाँ उसका मिलन उस टौंस नदी से होता है जो उसको अकूत जलराशि प्रदान कर उसके अस्तित्व को गंगा में विलीन होने तक बचाए और बनाए रखती है. टौंस और यमुना के बीच का भूभाग, जिसे जौनसार बावर कहा जाता है, अपनी सरल सांस्कृतिक, सामाजिक और आर्थिक मान्यताओं के चलते अपने आप में विशिष्ट पहचान रखता है. यदि हम इस क्षेत्र के हर पहलू पर गौर करें तो उत्तराखंड और हिमाचल में फैले इस वृहत भूभाग को महासू सभ्यता कहना ज्यादा सार्थक और उचित लगता है. इस इलाके के मेले-ठेले हों, बार-त्यौहार हों, दुख-दर्द हों या खुशी-गमी – आप सब जगह महासू देवता और उनके नायबों को शामिल पाएँगे. कृषकों और पशुपालकों के यह स्थानीय देवता यहाँ के समाज और संस्कृति में बहुत गहरे समाए हुए है. यह कहना ज्यादा सार्थक होगा कि इस क्षेत्र के निवासी और महासू देवता एक दूसरे का वजूद तय करते हैं. इस पुरातन सभ्यता के आराध्य महासू देवताओं और उनके नायबों की देवठी (मन्दिर) वैसे तो लगभग इस क्षेत्र के हर गाँव में मौजूद है लेकिन इनका मूल देवालय उसी टौंस नदी, जो यमुना की सहायक है, के तट पर हनोल नामक स्थान पर स्थित है.

यदि हम इसकी ज़मीनी पड़ताल करें तो हम पाएँगे कि इस क्षेत्र का सामाजिक और सांस्कृतिक ताना-बाना यहाँ के बाशिन्दों के आराध्य महासू देवताओं और उनके नायबों के इर्द गिर्द ही घूमता हुआ मिलता है. यह सामाजिक और सांस्कृतिक ताना बाना जौनसार बावर और देवघार के अलावा हिमाचल के सिरमौर और शिमला जिलों के एक बड़े भाग से लेकर उत्तराखंड के उत्तरकाशी के बंगाण, पर्वत, रंवाई और टिहरी के जौनपुर तक फैला हुआ है. एक जमाने में जब हिमाचल पंजाब प्रांत का हिस्सा था तो उस समय हिमाचल का एक बडा भाग महासू के नाम से विख्यात था, और तब यह एक जिला हुआ करता था. महासू क्षेत्र के गाँव घर मे मनाए जाने वाले बार-त्यौहारों के अलावा साल में दो बार, एक बैसाख माह में बीशू की ढाल (आराधना) और दूसरे भादों के महीने में जागरे की ढाल, दो प्रदेशों के लगभग पाँच जिलों में रहने वाले बाशिन्दो द्वारा हनोल देवालय के प्रांगण में रात गुजार कर अर्पित की जाती है.

यह इस महासू क्षेत्र का दुर्भाग्य रहा कि आजादी के बाद के उदासीन राजनीति और संवेदनहीन प्रशासन ने इसके सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक पहलुओं को नजर अंदाज कर इसे अलग प्रदेशों और जिलों में विभक्त कर दिया. भले ही आज के आधुनिक दौर में न्याय और स्वास्थ्य जैसी मूलभूत समस्याओं को देश और प्रदेश की सरकारें अपनी जिम्मेदारी बताती हों लेकिन इस क्षेत्र का श्रमजीवी समाज आज भी अपनी समस्याओं के निवारण हेतु महासू और उनके नायबों के अदृश्य प्रशासन पर ही भरोसा करता है. यह बात अलग है कि अब यहाँ चुनाव जीतना और ठेकेदारी में ज्यादा से ज्यादा मुनाफ़ा कमाना भी इसमे ही शामिल हो चुका है.

मध्य हिमालय के जिस क्षेत्र जौनसार बावर से हम आते है, संयुक्तता वहाँ के समाज की विशेष पहचान और परंपरा रही है. इस क्षेत्र का टुकड़ों में बिखरा इतिहास बताता है कि बर्बर और बहशी अतीत के दौरान टौंस यमुना का यह आदिम देश अपने समाज और संस्कृति के अस्तित्व को संगठन के बल पर ही बचाए रखने में कामयाब रहा है. यदि कोई चाहे तो आज भी इस क्षेत्र के गाँवों में जाकर सामूहिकता और सामुदायिकता को देख और सीख सकता है. शादी-ब्याह, तीज-त्यौहार, ख़ुशी-गमी के दौरान निस्वार्थ भाव से एक दूसरे के लिए समर्पित रहने वाले यहाँ के समाज में बहुत सारी कमियां हो सकती हैं लेकिन इसकी अपनी अनेकों ऐसी विशेषताएं हैं जो बिखराव के दौर में गुजर रही बाकी दुनिया के लिए भी एक सबक बन सकती हैं.

                       जौनसार का सूदूर गांँव ख़ारसी

रोज के रोज रोजीरोटी के लिए जंगल और जमीन से जूझने वाला जौनसार बावर का उत्सवधर्मी समाज, जो हमेशा किसी मामले या मसले पर मिल बैठ कर ही कोई राय कायम करता आया है, आज शहर में आकर एकाकी होने की राह पर अग्रसर है. ऐसा देखने और सुनने में आने लगा है कि जब नौकरी और व्यवसाय के लिए घर से निकला कोई व्यक्ति वापस अपने घर आता है तो आय के आधार पर परिवार में अपना आकलन करने लग जाता है. आर्थिक असमानता के चलते परिवार में वर्गभेद होना निश्चित है. हालांकि यह बाजारवाद के वैश्विक प्रभाव हैं लेकिन फिर भी मिल-बैठ कर अपनी उन पुरानी परंपराओं को संरक्षित रखने और पुनर्जीवित करने को लेकर चिंतन मनन होना चाहिए जो हमारे परिवार और समाज को सहस्राब्दियों एक सूत्र में पिरो कर रखती आई है.

हमारे इस जनजातीय क्षेत्र से जो लोग नौकरी पेशा या व्यवसाय में है वे तो आर्थिक रुप से समृद्ध हैं लेकिन जो लोग किसी कारणवश पढ़-लिख नहीं पाए या जो लोग अपढ़ रहकर गाँव में ही खेती बाड़ी और पशुपालन से जुड़े हैं, बड़ी चिंता उनकी है. वैसे जौनसार बावर के संयुक्त परिवारों से नौकरी या व्यवसाय के लिए पलायन कर चुके अधिकतर लोग अपने परिवारों से जुड़े रहते हैं लेकिन पिछले कुछ समय से जौनसार बावर के समाज में भी अलगाव की घटनाएं देखने सुनने को मिलने लगी हैं. उदाहरण के लिए यदि दो सगे भाई अपनी क्षमताओं के आधार पर क्रमश: नौकरी और कृषि के क्षेत्र मे जाते हैं तो अगले कुछ सालों में उन दोनो की जीवनशैली में जमीन आसमान का अंतर हो जाता है. एक समय जौनसार का शहर में नौकरी या व्यवसाय कर रहा एक भाई भी गाँव के खेतों और पशुओं में खट रहे अपने भाईयों के बच्चों को भी शहर में पढाता था लेकिन अब ऐसा कम ही दिखाई या सुनाई देता है. जौनसार बावर के जो संयुक्त परिवार पहले अपनी एकजुटता के लिए जाने जाते थे अब वही परिवार खामोशी के साथ घर-बाहर में बंटने लगे हैं. उपभोग की संस्कृति के चलते दो सगे भाईयों के बच्चों के पहनावे और रहन सहन में यह फर्क साफ तौर पर देखा जा सकता है.

खेत-पशुओं और कृषि बागवानी के अलावा आज की तारीख में जौनसार बावर एक ठेकेदार बाहुल्य क्षेत्र है जिसमे एक बड़ा हिस्सा ऐसे अर्द्धशिक्षित छुटभैयों का है जो राष्ट्रीय दलों के नेताओं के लिए खाद पानी का काम करते हैं. ऐसे लोग आपको कुतर्कों के भोथरे दम पर यहाँ-वहाँ आपस में सींग लड़ाते मिल जाएंगे. हमारे यहाँ से बहुत सारे लोग पढ़ लिख कर छोटी मोटी नौकरियों के अलावा अपनी काबिलियत के बूते पर राजकीय तथा केन्द्रीय संगठनों में अच्छे ओहदेदार भले ही हो गए हो लेकिन हम अभी तक अपने क्षेत्र को कुछ भी ऐसा लौटाने की स्थिति में नहीं है जो स्थानीय समाज और संस्कृति को समृद्ध कर पाए. देश भर में महत्वपूर्ण प्रशासनिक पदों पर पहुँचने के बाद भी हमारे लोग सरकार की नीतियों को अपने दायरों में रहकर ही लागू करवा सकते हैं. जबकि आज हमारे समाज और क्षेत्र के लिए स्थानीय संसाधनो को मद्देनजर रखते हुए कुछ अलग और कुछ हटकर करने वालों की आवश्यकता है.

जौनसार के स्थानीय त्यौहार नुणाई के दौरान मायके आई     लड़कियां मेहमान नवाजी के लिए जाती हुई

वैश्वीकरण के चलते दुनिया की लाखों बोलियां और भाषाएं अपनी सँस्कृति समेत या तो खत्म हो चुकी हैं या फिर विलुप्ति की कगार पर हैं लेकिन फिलहाल तक जौनसार बावर का सामाजिक और साँस्कृतिक वजूद बरकरार है. इसलिए हमारी पहली जरूरत आज यह है कि सबसे पहले जातीय और लैंगिक दुराग्रहों को दरकिनार करते हुए ईमानदारी के साथ अपनी परंपराओं को पढ़ा जाय और मानवीय आधार पर ख़रा उतरने वाली सभी परंपराओं को समय रहते उनके संरक्षण पर जोर दिया जाए. यह भले ही एक लंबी और जटिल प्रक्रिया है लेकिन कोई मुश्किल काम नही है. यह कैसे संभव हो और इसके लिए क्या जरूरी कदम उठाने चाहिए, पढ़े-लिखे, बौद्धिक और आर्थिक रुप से संपन्न तबके का इसके लिए आगे आना बहुत जरूरी है.

जौनसार बावर के गाँवों से भले ही अभी तक पलायन नही हुआ हो लेकिन वर्तमान परिस्थितियों में वह पलायन की कगार पर खड़ा है. गढवाल और कुमाऊं के उजड़े गाँवों का हश्र हमारे सामने है. वहाँ के लोग भले ही बड़े नामधारी और ओहदेदार हो गये हो लेकिन वे कई पीढ़ी पहले अपनी जड़ों से उखड़ चुके हैं. अभी जौनसार बावर के गाँवों में उसकी संस्कृति और समाज की जड़े हरी हैं. शिक्षा और रोजगार के लिए बाहर जाना कोई बुरी बात नहीं है. बिना बाहर गए कुछ भी देखा और सीखा नहीं जा सकता. लेकिन यदि हम कहते हों कि हमे अपनी संस्कृति, समाज और भाषा से प्यार है तो हमे वापस अपनी जड़ों को लौटना पड़ेगा. उसका फायदा यह होगा कि बाहर रह कर आया व्यक्ति अपने परिवेश मे लौटने के बाद अपने समाज को एक नई दिशा दे सकता है. वह दुनिया भर से बहुत कुछ देख और सीख कर आता है. वह अपने साथ बहुत कुछ नया लाता है. बाहरी दुनिया के संपर्क में रह कर आए व्यक्तियों के साथ रहने से परंपराएं और धारणाएं विकृत होने से बची रहती हैं. भले बुरे की परिभाषाएं वक्त के साथ बदलती रहती हैं. बोली-भाषा और संस्कृति के अस्तित्व के लिए स्थानीय परिवेश और एक शिक्षित समाज का होना बहुत जरूरी है. हम देहरादून, दिल्ली, मुंबई में रहकर अपनी संस्कृति, बोली और बार त्यौहारों को नही बचा सकते. इसका वर्चस्व तभी कायम रह सकता है जब यह लोक से जुड़ी हो और यह बिलकुल स्पष्ट है कि लोक का सृजन वैश्विक नहीं हो सकता, लोक तो परिवेश आधारित होता है.

               जौनसार के पशु पालक

जौनसार बावर का समाज सहस्राब्दियों से अपने संसाधनों पर निर्भर रहता आया है. जौनसार बावर के लोग तब भी तो जीवन यापन करते थे जब उसका बाहर की दुनिया से कोई लेना देना नहीं था. प्राकृतिक आपदाओं के चलते जहाँ हिमालय के बाकी इलाके और लोग अनेकों बार तहस नहस हुए वहीं टौंस और यमुना के बीच का यह प्रायद्वीपीय क्षेत्र प्राकृतिक वरदान के चलते अपनी आदिम संस्कृति के साथ सहस्राब्दियों से आज तक आबाद है. दुनिया भर में वही सभ्यताएं और समाज अपना अस्तित्व बचाने में कामयाब रहे हैं जिन्होने वक्त के साथ अपनी परंपराओं का निष्पक्ष अवलोकन किया है. जौनसार बावर की जरुरत भी यही है. मानव समाज में पशु और कृषि उत्पादों की माँग हमेशा रहेगी और जौनसार बावर के लोग इस क्षेत्र में परंपरागत ररूप से जुड़े हुए है. बेमौसमी जैविक सब्जियों, फ़लों और पशु उत्पादों के लिए प्रसिद्ध इस क्षेत्र की जरुरतें बिलकुल सपष्ट है कि कैसे स्थानीय संसाधनों के दोहन के तरीकों को उन्नत और आधुनिक बनाया जाए और इसके लिए हम क्या कर सकते हैं इस पर विचार करना बहुत जरुरी है. नौकरियों के लिए पलायन करने के बाद जौनसार बावर की संस्कृति, बोली और बार त्यौहार को बचाने की बात बिलकुल बेमानी है. इसके लिए स्थानीय स्तर पर जागरूकता और शोध की बहुत ज्यादा जरुरत है. आजीविका के क्षेत्र में पर्यटन एक नया उद्योग है जिसमें समृद्ध रोजगार की अपार संभावनाएं हैं. किसी भी क्षेत्र की पहचान उसकी बोली भाषा, बार-त्यौहार और रहन-सहन से होती है. यह पहचान तभी है जब वहाँ लोग रहते हो. यही लोग उस क्षेत्र की संस्कृति के वाहक होते हैं. ये लोग कैसे समृद्ध हों, इस बात पर जोर देने की जरुरत है. हम लोग इसके लिए अब तक सरकारों के भरोसे रहते आए हैं लेकिन अब वक्त आ गया है कि हम सरकार के भरोसे रहने की बजाय अपने लोगों को आत्म निर्भर बनाने के लिए कमर कस लें. हमारे लोग समृद्ध होंगे तो हमारी संस्कृति समृद्ध और दीर्घायु होगी.

इस में कोई दो राय नहीं है कि जौनसार बावर का समाज जातिवाद और अंधविश्वास जैसी कुरीतियों से आज भी ग्रस्त है. दुनिया भर के प्रत्येक समाज में तो थोड़ी बहुत खामियां तो होती ही हैं लेकिन वह तभी दूर हो पाती हैंहै जब उस समाज के लोग उसकी बेहतरी के लिए चिंतन मनन करें. हमे यह बात हमेशा याद रखनी चाहिए कि जौनसार बावर को जनजाति का दर्जा देश की संवैधानिक व्यवस्था ने दिया है यह किसी देवता का चमत्कार नहीं है. दुनियादारी को समझने के लिए अंधविश्वास की बजाय वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाया जाना चाहिए. उन मुद्दों पर खुल कर बात होनी चाहिए जो मनुष्यों-मनुष्यों में भेद करते हैं. दूसरों की बात भी संयम के साथ सुनी जानी चाहिए और किसी निष्कर्ष पर पहुँचने के बाद उस पर अमल किया जाना चाहिए.

हमें एक बात हमेशा याद रख़नी होगी कि एक मानवीय और संवेदनशील समाज के लिए लगातर संवाद और वैचारिक मंथन बहुत जरूरी है.

स्वयं को “छुट्टा विचारक, घूमंतू कथाकार और सड़क छाप कवि” बताने वाले सुभाष तराण उत्तराखंड के जौनसार-भाबर इलाके से ताल्लुक रखते हैं और उनका पैतृक घर अटाल गाँव में है. फिलहाल दिल्ली में नौकरी करते हैं. हमें उम्मीद है अपने चुटीले और धारदार लेखन के लिए जाने जाने वाले सुभाष काफल ट्री पर नियमित लिखेंगे.

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  • बहुत ही बढ़िया लेख। हम सबकी सांझा विरासत, हमारी संस्कृति सच में खतरे में है।बेहद सरल और सटीक शब्दों में हमारी विशेषताओं और समस्याओं को सांझा करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद सर।

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