जगमोहन रौतेला

जनान्दोलनों के संघर्ष का प्रतीक था – त्रेपन चौहान की तेरहवीं पर जगमोहन रौतेला की भावभीनी श्रद्धांजलि

उत्तराखण्ड के जनान्दोलनों व जनसरोकारों के लिए काम करने वाली धारा को गत 13 अगस्त 2020 को तब गहरा आघात लगा है, जब उत्तराखण्ड में वर्तमान दौर में जनांदोलनों के प्रतीक बन चुके व चर्चित उपन्यासकार त्रेपन सिंह चौहान का लम्बी बीमारी के बाद प्रात: लगभग 6.30 बजे देहरादून के सिनर्जी अस्पताल में निधन हो गया. पिछले लगभग तीन महीने से स्वास्थ्य अधिक खराब होने से त्रेपन अस्पताल में भर्ती था. उसके चाहने वाले सभी मित्र, दोस्त व प्रशंसक उसके शीघ्र स्वस्थ्य होने की कामना कर रहे थे. पर नियति को यह मंजूर नहीं था और हमारे बीच का एक सबसे जीवट, लड़ाकू व चिंतनशील लेखक का लगभग 49 साल की उम्र में आकस्मिक निधन हो गया. आज 25 अगस्त 2020 को उसकी तेरहवीं हैं. आज के बाद वह अब सनानत परम्परा के अनुसार पित्रों में शामिल हो गया है. Jagmohan Rautela Remembers Trepan Singh Chauhan

त्रेपन के साथ मेरी मुलाकात लगभग तीन दशक पुरानी थी. उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन के दौरान ही 1992 में उससे टिहरी में पहली मुलाकात हुई थी. बाद में आन्दोलन के दौरान ही लगातार होते रहने वाली मुलाकात कब गहरी मित्रता में बदल गई पता ही नहीं चला. शायद इसका कारण वैचारिक तौर पर दोनों की सम्यता रहा हो. बाद में जब कभी लम्बे समय तक मिल नहीं पाते तो फोन से सम्पर्क अवश्य बना रहा. कभी -कभी तो एक -डेढ़ घंटा फोन में बात करते हुए कब बीत जाता पता ही नहीं चलता था. इस बीच उससे आखिरी मुलाकात गत 31 दिसम्बर 2019 को देहरादून में ही उसके घर पर हुई थी. तब लगभग डेढ़ घंटे तक मैं और राष्ट्रीय सहारा के पत्रकार मित्र अरविन्द शेखर उसके पास बैठे रहे थे. वह उठकर बैठने में भले ही असमर्थ था, लेकिन लेटे -लेटे ही वह अस्फुट स्वर से बात करता रहा. तब तक उसकी बीमारी का असर उसके मुँह पर भी हो गया था और वह स्पष्ट तौर पर नहीं बोल पा रहा था.

चेतना आन्दोलन के प्रेरक त्रेपन सिंह चौहान की जिंदादिली देखकर हैरत से मुँह खुला का खुला रह जाता था. उसका हौसला देख कर कोई भी हैरत में पड़ जाता. जब ढलती दोपहर में 31 दिसम्बर 2019 को हम त्रेपन से मिलने पहुँचे तो वह लेटा हुआ था. अपनी अस्फुट आवाज में वह मुझसे लगातार बात करता रहा. तब उसने बताया कि नेहरु कॉलोनी वाले मकान में धूप नहीं आती थी, जिसकी वजह से यहॉ आना पड़ा. बातचीत के दौरान मैंने उससे कहा कि वह अपना उपन्यास जल्द ही पूरा करेगा यह मेरा विश्वास है. यह सुनकर वह बोला था कि हॉ, मेरी कोशिश तो यही है. उसके तुरन्त बाद उसने लेपटॉप के सामने बैठने की इच्छा जाहिर की. उसके परिवार ने उसे लैपटॉप के सामने बैठाया. पिछले लगभग एक साल से त्रेपन अपनी ऑखों की पुतलियों के सहारे चलने वाले ऐप के सहारे ही लेपटॉप पर लिखता और पढ़ता था. Jagmohan Rautela Remembers Trepan Singh Chauhan

लेपटॉप के सामने बैठकर अपनी ऑखों को सेट करने में उसे बहुत मेहनत करनी पड़ती थी. उस समय उसके बच्चे व पत्नी जिस तरह से धैर्य के साथ उसकी मदद करते थे, वह मुझ जैसे व्यक्ति की ऑखों में ऑसू ले आता. तब त्रेपन की असली जिंदादिली व जीवटता देखने को मिलती. उस दिन जब त्रेपन की ऑखों का तकनिकी सम्पर्क लेपटॉप से नहीं हो रहा था तो उस सम्पर्क को जोड़ने के लिए जो धैर्य व हिम्मत वह दिखा रहा था, उससे उसको सौ – सौ बार सलाम करने की इच्छा मन में पैदा हो रही थी. ऐसी जीवटता मैंने अपने जीवन में नहीं देखी. ऑखों से कम्प्यूटर पर लिखते समय एक तरह का जो संघर्ष उसे करना पड़ता था वह देखा है मैंने. कभी – कभी दस- पन्द्रह मिनट तक लग जाते थे उसे ऑखों को सैट करने में. तब उसका जीवन से लड़ना साफ दिखाई देता था.

जब वह ऑखों का सम्पर्क कायम करने में सफल हो गया तो उसने तुरन्त ही लैपटॉप की स्क्रिन पर अपने लिखे जा रहे उपन्यास को दिखाना शुरु किया. वह उपन्यास का काफी हिस्सा लिख चुका था और हर रोज उसे पन्ना – दर – पन्ना आगे बढ़ा रहा था. उपन्यास का कुछ पढ़ाने के बाद उस दिन भी वह उसका अगला हिस्सा लिखने में जुट गया. और मैं उसे लिखता हुआ देख कर अरविन्द के साथ वापस लौट गया. अपने हौंसले से लबालब मेरा मित्र त्रेपन सिंह चौहान बहुत जल्द ही अपना उपन्यास पूरा कर लेगा, यह दृढ़ विश्वास था मेरा. पर मौत ने ऐसा न होने दिया.

त्रेपन का जन्म 4 अक्टूबर 1971 को केपार्स गॉव, बासर पट्टी – भिलंगना ( टिहरी गढ़वाल ) में हुआ. उनकी मॉ का नाम श्रीमती श्यामा देवी चौहान व पिता का नाम कुन्दन सिंह चौहान था. त्रेपन ने गढ़वाल विश्वविद्यालय के टिहरी परिसर से स्नातक और डीएवी कालेज देहरादून से इतिहास में एमए किया था. वह पॉच भाई – बहनों में सबसे छोटा था. उसके बड़े भाइयों के नाम सबल सिंह, अबल सिंह और बहनों के नाम दर्शनी देवी, बिशा देवी हैं. इनका गॉव काफी तलाव खेती वाला है। इसी कारण इनके पिता कुन्दन सिंह चौहान ने खेती -किसानी से ही अपने परिवार का लालन -पालन किया और अपने सभी बच्चों को शिक्षित किया. स्कूल – कालेज के समय से ही सामाजिक व सांस्कृतिक गतिविधियों में सक्रिय रहने वाले त्रेपन को उत्तराखण्ड आन्दोलन ने बहुत प्रभावित किया और वह 1986 में उत्तराखण्ड क्रान्ति दल से जुड़ गया. उक्रान्द के राज्य आन्दोलन से जोड़ने में टिहरी के वरिष्ठ पत्रकार विक्रम बिष्ट की महत्वपूर्ण भूमिका रही. जो खुद भी उस दौर में उक्रान्द के तेज तर्रार युवा नेता थे. उक्रान्द द्वारा उत्तराखण्ड राज्य की मॉग को लेकर 23 नवम्बर 1987 को दिल्ली के वोट क्लब में जो विशाल जनसभा और रैली की थी त्रेपन ने उसमें भी भागीदारी की थी. वह स्कूली छात्र था. इससे पहले 1985 में त्रेपन का सम्पर्क घनसाली ( टिहरी ) में किसी कार्यक्रम के दौरान उत्तराखण्ड के गॉधी कहे जाने वाले इन्द्रमणि बडोनी के साथ हुआ. उसके बाद तो लगभग एक दशक तक त्रेपन राज्य आन्दोलन में न केवल बहुत सक्रिय रहा, बल्कि बडोनी जी के साथ उसकी बहुत निकटता बनी रही. राज्य आन्दोलन के दौरान बडोनी जी व उक्रान्द के दूसरे वरिष्ठ नेता काशी सिंह ऐरी व त्रेवेन्द्र पंवार जब भी टिहरी जिले के भ्रमण पर होते तो वह बिना त्रेपन चौहान की मौजूदगी के पूरी नहीं होती थी. Jagmohan Rautela Remembers Trepan Singh Chauhan

राजनैतिक व सामाजिक सक्रियता के दौरान ही त्रेपन ने अपने गॉव व भिलंगना ब्लॉक में विकास कार्यों में घपले घोटालों को बहुत नजदीक से देखा. जिसने त्रेपन के जीवन की दिशा को एक तरह से बदल दिया. राज्य आन्दोलन में सक्रिय रहने के साथ ही उसने भ्रष्टाचार से लड़ाई लड़ने की ठान ली और उसके लिए ब्लॉक स्तर पर धरने व प्रदर्शनों का दौर प्रारम्भ किया. यह बात 18 मार्च 1996 की है, जब भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज बुलन्द करते हुए त्रेपन ने चेतना आन्दोलन के अपने साथियों के साथ भिलंगना ब्लॉक मुख्यालय पर तालाबंदी की थी. तब विकास कार्यों पर खर्च कि गए 11 लाख 33,000 हजार रुपए तक की जानकारी मॉगी थी। जिसमें सिर्फ़ 3,00000 रुपए तक के भुगतान हुए थे। बाकी पूरा गबन था। इसी तरह की कई जानकारियाँ मॉगी गई थी। इस मामले में उस समय त्रेपन और उसके कई साथियों को कई फर्जी केसों में फँसाया गया था। इन लोगों ने तब डीआरडी ( जिला ग्रामीण विकास कार्यालय ) टिहरी से सूचना मॉगी थी। हर जिले में यह कार्यालय होता था. इस लड़ाई में तब धूम सिंह जखेड़ी, गजेन्द्र सिंह, धनपाल बिष्ट, जगदेई रावत, गंगा रावत, काफी लोग थे।

डीआरडी सारे विकास कार्यों का सबसे बड़ा सरकारी ठेकेदार था। काफी लड़ाई हुई टिहरी तत्कालीन जिलाधिकारी प्रताप सिंह से और काफी जन दबाव के बाद उन्हें सूचना देनी पड़ी थी। देश को सूचना का अधिकार इसके दस साल बाद मिला और त्रेपन ने अपने साथियों के साथ मिलकर संघर्ष की बदौलत बिना किसी कानून के सूचना प्राप्त करने में सफलता पा ली थी. यह उनके जनसरोकारों के प्रति लड़ने और भिड़ने की जीवटता को दिखाता है. संघर्ष की पहली लड़ाई जीत लेने के बाद त्रेपन ने फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा और उसके बाद तो ‘जल-जंगल-जमीन हमारी, नहीं सहेंगे धौंस तुम्हारी’ की जनचेतना और नारे के साथ आन्दोलनों का एक लम्बा सिलसिला ही प्रारम्भ हो गया.

भ्रष्टाचार के खिलाफ व जनता के हितों को मुकाम तक पहुँचाने के लिए ही ” चेतना आन्दोलन ” के नाम से एक संगठन का निर्माण किया गया. चेतना आंदोलन की नींव 6 जून 1995 को रखी गई थी। कार्ययोजना बहुत स्पष्ट थी, विकास कार्यों के नाम पर पिछले कुछ वर्षों से भ्रष्टाचार काजो बड़ा खेल हुआ था, उसके खिलाफ आवाज उठाना जरूरी था. इसका असर भी काफी हुआ.घनसानी के एक गॉव में लोग ग्राम प्रधान से 2,00000 लाख रु वसूल करने में सफल रहे। बाद के वर्षों में टिहरी जिले में ” चेतना आन्दोलन ” भ्रष्टाचार के खिलाफ व जनहितों के पक्षों में लड़ने वाला एक बड़ा संगठन बनकर सामने आया. इसी संगठन के नीचे फलिण्डा में जल विद्युत परियोजना की एक लम्बी लड़ाई लड़ी गई. जिसके फलस्वरूप गॉव के लोगों को छटी विद्युत इकाई लगाने का वैधानिक अधिकार प्राप्त हुआ. अपने को पूरी तरह चेतना आन्दोलन को समर्पित कर देने के बाद 1996 में उसने उक्रान्द के केन्द्रीय कमेटी की सदस्यता के साथ ही उसकी प्राथमिक सदस्यता से भी त्यागपत्र दे दिया. उसके बाद त्रेपन फिर किसी राजनैतिक दल का सदस्य नहीं रहा. 

रुग्ण त्रेपन सिंह चौहान के साथ लेखक जगमोहन रौतेला

इसके बाद उसका रुझान जनान्दोलनों के साथ ही लेखन की ओर भी होने लगा. इसी दौरान उसने सृजन नव युग (उपन्यास),  उत्तराखण्ड आन्दोलन : एक सच यह भी (विमर्श), पहले स्वामी फिर भगत अब नारायण (कहानी), सारी दुनिया मागेंगे (जनगीतों का संकलन व सम्पादन), टिहरी की कहानी (कहानी संग्रह -कन्नड़ में अनुदित) पुस्तकें लिखी. पर त्रेपन को एक संवेनशील कथाकार के तौर पर पहचान अप्रैल 2007 में प्रकाशित उपन्यास “यमुना ” ने दिलायी.जो उत्तराखण्ड आन्दोलन की पृष्ठभूमि पर लिखा गया पहला  उपन्यास है. जो आन्दोलन में शामिल रही एक अनाम महिला “यमुना ” के माध्यम से आन्दोलन के दौरान किए गए अनेक राजनैतिक षडयंत्रों का पर्दाफाश करती है. तब हिन्दी संसार के आलोचकों ने भी (विशेषकर उत्तराखण्ड के) इसे कम चर्चित लेखक की कृति समझते हुए इस पर कोई ध्यान नहीं दिया. एक तरह से यमुना जैसे संवेदनशील उपन्यास को खारिज करने की कोशिस की.

पर त्रेपन इससे हतोत्साहित नहीं हुआ. उसने आलोचकों की ओर ध्यान देने की बजाय अपना अगला उपन्यास “भाग की फांस” लिखा. जो 2013 में प्रकाशित हुआ. जो टिहरी के एक गॉव की महिला के जीवन संघर्ष की बहुत ही मार्मिक कथा है. इसके अगले ही वर्ष 2014 में त्रेपन का उत्तराखण्ड में पूँजी से राजनीति की विषभरी यारी की औपन्यासिक दास्तान पर आधारित उपन्यास “हे ब्वारी !” प्रकाशित हुआ. जो एक तरह से उत्तराखण्ड आन्दोलन की पृष्ठभूमि पर लिखे गए पहले उपन्यास “यमुना ” से आगे की कहानी ही है. “हे ब्वारी ! ” की नायिका भी यमुना ही है. यह उपन्यास आलोचकों व समीक्षकों में बहुत चर्चित रहा. हे ब्वारी की चर्चा के बहाने ही फिर आलोचकों व समीक्षकों की नजर सात पहले लिखे गए उपन्यास “यमुना ” पर पड़ी और उसके बाद ही यमुना चर्चा में आया. इसके बाद तो त्रेपन के तीनों उपन्यास यमुना, भाग की फांस और हे ब्वारी की काफी मॉग पाठकों के बीच रही और एक उपन्यसकार के तौर पर त्रेपन को एक नई पहचान भी मिली. 

भाग की फांस को लिखने से पहले ही त्रेपन को कैंसर जैसी बीमारी का भी सामना करना पड़ा. पैनक्रियाज में 2010 में कैंसर ने हमला किया। एम्स में उसका आपरेशन हुआ. तब उसे पैनक्रियाज का 45 प्रतिशत भाग गँवाना पडा़ था. डॉक्टर टीएन चटर्जी के नेतृत्व में पॉच डॉक्टरों की टीम ने ऑपरेशन किया था। उस समय काफी मित्रों ने उसकी हर तरह की मदद की थी. जिनमें मुम्बई फ्रेंड ग्रुप के अलावा दिल्ली के साथियों श्रुति, प्रो. प्रिथा चंद्रा, रामेन्द्र कुमार, रोहित जैन, प्रो.रवी कुमार, प्रत्यूष चंद्रा, शंकर गोपाल कृष्णन, प्रो. एसएच शिव प्रकाश, राजीव कुमार,सुश्री कनिका सत्यानन्द आदि शामिल हैं. कैंसर से लड़ाई जीत लेने के बाद त्रेपन ने दो महत्वपूर्ण उपन्यास लिखे और सामाजिक आन्दोलनों में खुद को पूरी तरह से झौंक दिया. Jagmohan Rautela Remembers Trepan Singh Chauhan

इस बीच उसने शंकर गोपाल कृष्णन जैसे अपने कुछ साथियों की मदद से देहरादून में असंगठित मजदूरों को एक बैनर “उत्तराखण्ड नव निर्माण मजदूर संघ” के तले एकत्र करने का महत्वपूर्ण कार्य किया और उन्हें उनके मानवीय अधिकार दिलाने की लड़ाई भी बहुत मजबूती के साथ लड़ी। जिसके बाद ही दबाव में आई उत्तराखण्ड सरकार को असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के हित में कई कदमों की घोषणा करनी पड़ी. इसके लिए तीन कार्यशालाएँ, मजदूरों की साइकिल रैली व सम्मेलन भी देहरादून में आयोजित हुए. त्रेपन का इरादा मजदूरों को संगठित करने के बाद उत्तराखण्ड की राजनीति में एक सार्थक हस्तक्षेप का था,ताकि उत्तराखण्ड को लूट – खसोट की राजनीति से मुक्त किया जा सके और यमुना जैसी सैकड़ों /हजारों नायिकाओं व नायकों ने जिस बेहतर उत्तराखण्ड राज्य का सपना देखा था, उसे धरातल पर उतारा जा सके.

उत्तराखण्ड में हुए अनेक जनान्दोलनों में वह नेतृत्वकारी भूमिका का हिस्सा रहा. उत्तराखण्ड आन्दोलन में वह उत्तराखण्ड क्रान्ति दल का टिहरी जिले का पदाधिकारी होने के नाते टिहरी में आन्दोलन का नेतृत्व करता रहा. टिहरी बांध से प्रभावित फलेण्डा गॉव के आन्दोलन का नेतृत्व ही उसने किया. वह आन्दोलन उसकी पहल पर प्रारम्भ हुआ और अपने मुकाम तक पहुँच कर ही खत्म हुआ. भ्रष्टाचार के खिलाफ सूचना के अधिकार के आन्दोलन में भी वह अग्रिम पंक्ति में शामिल रहा. शराब बंदी आन्दोलनों में भी वह जगह -जगह गया और लोगों को शराब के विरुद्ध जागरूक भी करता रहा. अल्मोड़ा जिले के नैनीसार आन्दोलन में भी उसकी सक्रियता लगातार बनी रही. इसके अलावा वह देश के विभिन्न राज्यों मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, कर्नाटक, उड़ीसा आदि में वन वासियों के जंगल और भूमि के आन्दोलनों में भी शामिल होता रहा. उत्तराखण्ड के विभिन्न आन्दोलनों के अनुभवों से जहॉ वह वहॉ के आन्दोलनों को एक नई धार देता था वहीं वहॉ के आन्दोलनों के तौर -तरीकों से वह उत्तराखण्ड के जनान्दोलनों को एक अलग ताकत देता था.

पर त्रेपन उत्तराखण्ड में बदलाव की राजनीति पर कोई सार्थक व निर्णायक हस्तक्षेप कर पाता उससे पहले ही वह पॉच -छह वर्ष पहले तंत्रिका तंत्र से सम्बंधित “मोटर न्यूरॉन डिजीज” जैसी विश्वभर में लाइलाज बीमारी से ग्रसित हो गया था. यह लगभग वही बीमारी थी, जिससे प्रख्यात नोबल वैज्ञानिक स्टीफन हॉकिंस भी पीड़ित हुए थे। इसकी चिकित्सा के लिए दिल्ली एम्स से लेकर केरल में पंचकर्म और प्राकृतिक चिकित्सा तक करवाई जा चुकी थी. विदेश में रहने वाले उसके दोस्त कनाडा और अमेरिका में भी उसकी बीमारी को लेकर विशेषज्ञ डॉक्टरों से सलाह ले चुके थे. डॉक्टरों की सलाह और बेहतर इलाज से समय – समय पर उसे आंशिक स्वास्थ्य लाभ भी होता रहा. पर लगभग दो साल पहले घर में ही गिरने से उसे सिर में गम्भीर चोट लगी. तब वह देहरादून के ही एक निजी अस्पताल सिनर्जी में भर्ती रहा. वहॉ के डॉक्टर को उसकी तंत्रिका तंत्र से सम्बंधित बीमारी के बारे में पूरी तरह से पता था. अपनी जीवटता, अपने परिवार के प्यार व असंख्य मित्रों की शुभकामनाओं के बीच वह तब लगभग 10 दिन कौमा में रहने के बाद मौत को मात देकर घर वापस आया. इसके कुछ समय बाद वह अपने पुरानी जीवन चर्या में लौट गया था. शरीर के कमजोर होने के बाद भी उसने सामाजिक चेतना की गतिविधियों व लेखन में अपनी सक्रियता फिर से शुरु कर दी थी. 

उसकी बीमारी ने सबसे बड़ा हमला त्रेपन के तंत्रिका तंत्र पर किया था. जिसके कारण पहले उसके बॉया हाथ, फिर दाहिना हाथ और उसके बाद उसके पैरों को गम्भीर तौर पर प्रभावित हो गए। इससे उसकी सामाजिक व लेखन की गतिविधियॉ भी बहुत प्रभावित हुई. पर जीवटता के धनी भाई त्रेपन चौहान ने हारने व मायूस होने की बजाय अपनी गम्भीर बीमारी से दवाओं, डॉक्टरों के अलावा अपनी मजबूत मानसिक इच्छा शक्ति व पत्नी निर्मला और बेटे अक्षर व बेटी परिधि के सहारे लड़ने का निर्णय किया. वह मोबाइल के सहारे अपने निकट के लोगों व चाहने वालों के निरन्तर सम्पर्क में भी रहा. साथ ही उत्तराखण्ड, देश व दुनिया की हर तरह की गतिविधियों व उसकी हलचलों की जानकारी भी रखता रहा.  Jagmohan Rautela Remembers Trepan Singh Chauhan

इसी के बीच तंत्रिका तंत्र के गम्भीर तौर पर प्रभावित होने से जब उसके हाथों ने उसका कहना मानने से इंकार कर दिया तो उसने निराश होकर हार नहीं मानी और मोबाइल के बोल कर लिखने वाले एप के सहारे वह इस बीच लगातार लेखन कार्य करता रहा. साथ ही सोशल मीडिया में भी निरन्तर सक्रिय रहा। पर उसके जीवन की कठिन परीक्षा अभी बाकी थी. पिछले लगभग एक साल से भाई त्रेपन को बोलने में भी परेशानी होने लगी थी. जिसकी वजह से मोबाइल के बोलकर लिखने वाले एेप ने भी त्रेपन का साथ छोड़ दिया. इसके बाद तो त्रेपन का अपने समय और समाज से निरन्तर सम्पर्क बनाए रखने का महत्वपूर्ण साधन भी हाथ से जाता रहा. 

शारीरिक तौर पर इतनी भीषण परिस्थियों के बाद भी जो हार न मानने की ठान ले वही तो त्रेपन था. उसने जीवन के इस सबसे कठिन व भीषण समय से भी सीधी टक्कर लेने का प्रण किया और आँखों की पुतलियों के सहारे लिखने वाले ऐप को अपना निकट का साथी बनाया. उसी ऐप के सहारे वह अपने साथियों के साथ सोशल मीडिया से सम्पर्क में था। इसमें हैरत अंगेज बात यह है कि इस ऐप के सहारे वह अपना एक नया उपन्यास भी इन दिनों निरन्तर लिख रहा था. जो उत्तराखण्ड आन्दोलन की एक अनाम नायिका के जीवन संघर्ष पर लिखे गए इससे पहले लिखे गए उपन्यास ‘यमुना’ की तीसरी कड़ी का उपन्यास था. जिसका कुछ अंश नैनीताल समाचार में प्रकाशित भी हुआ. इसकी दूसरी कड़ी का उपन्यास ‘हे ब्वारी’ पहले ही लिखा जा चुका है. त्रेपन के उत्तराखण्ड आन्दोलन की पृष्ठभूमि पर लिखे गए ये दोनों ही उपन्यास बेहद चर्चित रहे हैं. जिन्हें हिन्दी साहित्य के आलोचकों की भी खूब सराहना मिली है। पर अफसोस इस उपन्यास को पूरा करने की उसकी जिद मौत ने पूरी नहीं होने दी. वह अपने संघर्ष और लड़ाई के दिनों के मित्रों पर आधारित एक पुस्तक “टुकड़ों -टुकडों में अतीत” भी इसके साथ ही लिख रहा था. जिसका अधिकतर हिस्सा वह लिख चुका था. Jagmohan Rautela Remembers Trepan Singh Chauhan

इस बीच पिछले लगभग चार महीने से उसे सांस लेने में परेशानी होने लगी थी. जिसके बाद जांच के लिए उसे सिनर्जी अस्पताल में ले जाया गया. जहाँ जांच के उपरान्त पता चला कि बीमारी का हमला इस बार उसके फेफड़ों पर हुआ था. जिसके कारण वे सिकुड़ने लगे थे और पूरी सांस न ले पाने के कारण उसे पूरी ऑक्सीजन नहीं मिल पा रही थी. जिसकी वजह से उसे ऑक्सीजन सपोर्ट सिस्टम पर रखा गया. इस दौरान वह ठीक होकर दो-एक बार घर भी आया, पर फेफड़ों के लगातार कमजोर होते जाने के कारण उसे फिर अस्पताल में भर्ती करवाना पड़ता. इस दौरान वह ऑक्सीजन की नली लगे होने के बाद भी अस्पताल में अपने कम्प्यूटर पर काम भी करता रहा. उसका मस्तिष्क पूरी तरह से चेतनाशील रहा. परिवार के लोगों से वह अपने इशारों में बात भी करता रहा. शायद वह समझ गया था कि जीवन की डोर लगातार छोटी होती जा रही है और इसी कारण वह जीवन के अंतिम दिनों में भी लेखन में सक्रिय रहा और अपनी मानसिक ऊर्जा उसने वैसी ही बना कर रखी जैसी उसकी जनान्दोलनों में सक्रियता के दौरान थी. ऐसी जीवटता किसी भी व्यक्ति में विरल ही दिखाई देती है.

अपनी गम्भीर बीमारी के बाद भी पांच साल पहले 2015 में उसने अपने चेतना आन्दोलन के बैनर के तले चमियाला – घनसाली ( टिहरी गढ़वाल ) में गांव के महिलाओं की घसियारी प्रतियोगिता (घास काटो प्रतियोगिता) ‘घसियारी हो या मजदूर, श्रम का सम्मान हो भरपूर’ नारे के तहत करवाई. ऐसा इसलिए किया गया ताकि गांव की महिलाओं को भी उनके घास काटने के दैनिक काम को भी समाज में एक सम्मान प्राप्त हो सके. यह महिलाओं के श्रम को सामाजिक सम्मान देने की एक अनोखी पहल थी। इसमें पहले स्थान पर आने वाली महिला को एक लाख रुपए नकद सम्मान राशि व चांदी का मुकुट प्रदान किया गया. दूसरे स्थान पर आने वाली महिला को 51 हजार और तीसरे स्थान पर आने वाली महिला को 21 हजार रुपये का पुरस्कार दिया गया.

यह अनोखी व प्रेरणादायी प्रतियोगिता दिसम्बर 2015 में शुरु हुई और 6 जनवरी 2016 को कोठियाड़ा (चमियाला -टिहरी) में सम्पन्न हुई. इसमें भिलंगना ब्लॉक (टिहरी गढ़वाल) की 112 ग्राम सभाओं की 600 से अधिक महिलाओं ने भाग लिया. प्रतियोगिता केवल दो मिनट की होती है. जिसमें नियमानुसार घास काटना पड़ता है. घास काटने में इस बात का विशेष ध्यान रखना पड़ता है कि कोई उपयोगी पौधा इस दौरान न कटे. प्रतियोगिता के तीन चरण होते हैं. पहले ग्राम सभा स्तर पर, उसके बाद न्याय पंचायत के स्तर पर और फिर अंत में ब्लॉक स्तर पर. पहली प्रतियोगिता के उत्साहजनक परिणाम के बाद दूसरी “घसियारी प्रतियोगिता” 22 दिसम्बर, 2016 को अखोड़ी गॉव (टिहरी गढ़वाल) में तीन चरणों के बाद पूरी हुई. Jagmohan Rautela Remembers Trepan Singh Chauhan

पूरे भिलंगना ब्लॉक स्तर पर आयोजित की जाने वाली इस प्रतियोगिता का पूरा खर्चा किसी बिना किसी सरकारी मदद के किया गया. प्रतियोगिता के आयोजन व सम्मान राशि में जो भी खर्चा हुआ वह सब स्थानीय स्तर पर ही जनसहयोग से पूरा हुआ. यह त्रेपन के अपने व्यक्तित्व की छाप थी कि लोगों ने बिना कोई सवाल किए ही आयोजन पर होने होने वाले पूरे खर्चे को आपसी सहयोग से पूरा किया. टिहरी गढ़वाल के भिलंगना ब्लॉक में इस महिला श्रम के सम्मान की प्रतियगिता के प्रेरित होकर बागेश्वर जिले के गरुड़ क्षेत्र में भी महिलाओं की घसियारी प्रतियोगिता होने लगी है। गॉव की महिलाओं को उनके काम का सामाजिक सम्मान इस तरह से देने के बारे में त्रेपन जैसा व्यक्ति ही सोच सकता था. जो निरन्तर उनके बीच उनकी तरह रहकर ही सामाजिक व राजनैतिक चेतना जगाने का कार्य करता रहा हो. त्रेपन के इस अनोखे विचार को बहुत सराहना व चर्चा हर तरह से मिलती रही. त्रेपन का मानना था कि पहाड़ की महिलाएँ ही असली इकोलाजिस्ट हैं. वह महिलाओं को “बेस्ट इकोलाजिस्ट ” कहता था. वह कहता था कि अगर हमारे घर -गॉव की महिलाएँ परिस्थितिकी तंत्र की बेहतरीन समझ नहीं रखती तो आज हमारे पास गंगा, यमुना, सरयू, रामगंगा, काली जैसी सदाबहार नदियॉ, जंगल, जड़ी -बूटियां व ग्लेशियर न होते और यह सब न होता तो हिमालय न होता. हिमालय को यदि हजारों वर्षों से किसी ने सहेज कर रखा है तो वह पहाड़ की महिलाएँ ही हैं. चाहे वह देश का कोई भी पहाड़ हो.

मित्र त्रेपन की पत्नी निर्मला, बेटा अक्षर व बेटी परिधि हमेशा उसकी निरन्तर देखभाल में लगे रहे. दुख व पीड़ा की इस खड़ी को सहन करने की ताकत उन्हें मिले, यह कामना है. त्रेपन जो करता या सोचता था उसके सामाजिक संस्कार भी उसके बच्चों को मिले हैं. माले नेता इन्द्रेश मैखुरी ने 13 अगस्त 2020 को अपनी फेसबुक वॉल पर लिखा कि जब ने त्रेपन भाई को कैलाश गेट (मुनि की रेती) से अंतिम विदाई देने के बाद वापस देहरादून को लौट रहे थे तो उनका 14 साल का बेटा अक्षर चौहान बातचीत में कहने लगा कि पापा कहते थे कि जीवन में कुछ बनो या न बनो, पर एक बेहतर इंसान अवश्य बनना. वास्तव में आज इस दुनिया को प्रसिद्ध लोगों की नहीं, बल्कि बेहतर इंसानों की आवश्यकता अधिक है. जीवटता और संघर्ष के प्रतीक मित्र तुम हमेशा हमें याद रहोगे और जनान्दोलनों में हमेशा प्रेरणा का काम करोगे. तुम्हें भावपूर्ण विदाई, दोस्त ! Jagmohan Rautela Remembers Trepan Singh Chauhan

-जगमोहन रौतेला

(सभी फोटो: जगमोहन रौतेला व अरविन्द शेखर)

यह भी पढ़ें: थल का बालेश्वर मन्दिर: जगमोहन रौतेला का फोटो निबंध

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काफल ट्री के नियमित सहयोगी जगमोहन रौतेला वरिष्ठ पत्रकार हैं और हल्द्वानी में रहते हैं. अपने धारदार लेखन और पैनी सामाजिक-राजनैतिक दृष्टि के लिए जाने जाते हैं.

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