मेदिनीधर के बड़े भाई थे, वंशीधर. वंशीधर भाई पढ़ने में बहुत होशियार थे. न जाने कब उन्हें उपन्यास पढ़ने की आदत पड़ी, जो धीरे-धीरे लत में बदलती चली गई. यहाँ तक कि वे फिजिक्स की क्लास में भी जेबी-जासूसी संस्करणों में डूबे रहते. कर्नल रंजीत-केशव पंडित-सुरेंद्र मोहन पाठक-वेदप्रकाश शर्मा-जेम्स हेडली चेइज के संपूर्ण संस्करण. ड्रेकुला जब रिलीज हुआ तो रिलीज डेट पर उनके पास उसकी प्रति मौजूद थी. उससे छोटे बच्चों को डराते थे. चूँकि उस पर डिस्क्लेमर छपा हुआ था – ‘कमजोर दिल वाले न पढ़ें.’ हालांकि उनके छोटे भाई का नजरिया था कि, ऐसी कोई बात नहीं है, यह बस प्रचार का तरीका है. वंशीधर भाई भैंस चराते हुए भी जासूसी दुनिया में तल्लीन रहते थे. बच्चे उनकी भैंसों को फसल के खेतों से हाँक आते थे. स्पीड उनकी बहुत तेज थी. कुछ ही घंटों में उपन्यास पार.

इस तरह से घर पर उनके गुप्त संग्रह में थ्रिलर-सस्पेंस सीरीज के उपन्यासों का विराट संग्रह मौजूद था. उधर मेदिनीधर शरीर से थुलथुल थे. हलवाई जैसी काया. उनके दोस्तों के मुताबिक उनका दिमाग उनके शरीर से हू-ब-हू मैच करता था.

जब आसपास साधन मौजूद हों तो साधना में कितनी देर लगती है. अतः वे भी चोरी-छिपे बड़े भाई के सीक्रेट कलेक्शन का मजा लेने लगे. हालांकि पढ़ते रुक-रुककर थे, अटक-अटककर. रर-पप करके. जिसका उन्हें कोई मलाल नहीं रहता था. इसके विपरीत धीमी आंच में पढ़ने के कई लाभ गिनाते जाते थे. उन्हें नॉवेल के पूरे के पूरे सीन और समूचे डायलॉग याद रहते. यही नहीं उन्होंने किसी नॉवेल से एक जोरदार प्लान उड़़ाया. किसी शुभ घड़ी में उसको अमली जामा पहनाने का निश्चय भी कर लिया.

योजना के मुताबिक सबसे पहले उन्होंने एक गिरोह बनाया. हथियार-औजार जुटाने अथवा संसाधन प्रशिक्षण देने की किसी किस्म की जरूरत महसूस नहीं की गई. न किसी तरह की कवायद, न निशानेबाजी का अभ्यास. बस, दो-तीन आवारा छोकरों को प्लान बताकर और अपना नाम ‘जग्गा डाकू’ बताकर ही गिरोह को संगठित मान लिया गया. तत्पश्चात् शिकार के रूप में किसी सॉफ्ट टारगेट की तलाश की गई. एक खाते-पीते किसान को इस भूमिका के लिए उपयुक्त पाया गया. दरअसल उस किसान का एक पुत्र था, जो भारी मनौतियों के बाद पैदा हुआ था. जग्गा डाकू ने देर नहीं की और अपने अंदाज में फिरौती की चिठ्ठी लिख मारी- “आने वाली अमावस की रात को जमींदार के खंडहर वाले मकान में डेढ़ हजार रुपया नकद पहुँचा दो. हम बखूबी जानते हैं कि, तुमने औलाद का मुँह बहुत मुश्किल से देखा है. पुलिस को या किसी और को इत्तिला देने की कोशिश की तो उससे पहले अंजाम सोच लेना. हस्ताक्षर- जग्गा डाकू.”

फिरौती की चिठ्ठी में वर्तनी संबंधी त्रुटियों की भरमार थी. अमावस को ‘अमानत’, खंडहर को ‘खंडन’, इत्तिला को ‘इत्यादि’ जैसा लिखा गया था. यहाँ तक कि, हस्ताक्षर में भी जग्गा डाकू के स्थान पर ‘जग डाक’ पाया गया. एक तो गिरोह नया-नया था, ऊपर से ढीला-ढाला. हरकारे थे नहीं, इसलिए फिरौती की चिठ्ठी की डिलीवरी करने, जग्गा डाकू को खुद जाना पड़ा. उसने निजी हाथों से इस काम को अंजाम दिया. मौका देखकर किसान की गौशाला के आले में फिरौती का संदेश फेंक दिया गया. जैसा कि उसने उपन्यास से सीखा था, कि इसके बाद दम साधकर चुप रहना पड़ता है. कुछ दिन, शिकार की प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा की जाती है, रिएक्शन टाईम. दो-तीन दिन उसने इंतजार किया. उधर किसान दंपत्ति अंगूठा टेक निकले. अव्वल तो गौशाला के आले की तरफ उनका ध्यान ही नहीं गया.

इधर जग्गा डाकू का संयम जबाव देता जा रहा था. अतः वह बिना वेश बदले उस दिशा में गया और आसपड़ोस में पूछताछ कर आया, “आजकल आस-पास कोई चिठ्ठी-पत्री तो नहीं आई. कोई खतरे की बात तो नहीं.” पड़ताल से निराश होकर वह वापस चला आया.

उसी शाम गौशाला के बाहर कुछ बच्चे खेल रहे थे. किसी बच्चे का ध्यान आले पर पड़ा. इस विधि से किसान को फिरौती की चिठ्ठी मिल गई और डाकू का मनोरथ पूर्ण हुआ.

चिठ्ठी हाथोंहाथ लिए उसे पढ़वाने के इरादे से किसान आसपड़ोस में गया. जब किसी को भी पढ़ना नहीं आया तो आखिर में वह एक ऐसे घर में गया, जहाँ एक नौजवान लड़का था, जो कुछ लोगों के मुताबिक पढ़-लिख रहा था. उसने नौजवान से उस कागज को पढ़ लेने की विनती की.

नौजवान ने उच्च स्वर में चिठ्ठी पढ़ी ही नहीं, वरन् व्याख्या सहित उसका अर्थ भी बताया. साथ ही यह खुलासा भी किया कि, “चिठ्ठी के लेखक श्री मेदिनीधर पुत्र विश्वंभर दत्त हैं.” किसान ने अविश्वास के साथ पूछा कि, ‘तुम इतने विश्वास के साथ कैसे कह सकते हो.’ तो उसने गर्व के साथ कहा, “कक्षा तीन से वह मेरा क्लासफेलो है. उसकी हैंडराइटिंग मैं नहीं पहचानूँगा, तो कौन पहचानेगा. हमारी क्लास में इतना अशुद्ध, उसके सिवा और कोई नहीं लिख सकता.”

इस तरह से इस गूढ़ रहस्य की सबको इत्तिला होती चली गई. गाँवभर में कोहराम मचा. खूब हंगामा हुआ. फिर मेगापंचायत बैठी. डाकुओं के सरदार को पंचायत में पेश किया गया. पंचों ने चर्चा शुरू की और शुरुआत में ही उसे अपराधी मान लिया गया. चूँकि वे उसके खिलाफ लबालब भरे हुए थे. उनकी नजर में वह पहले से ही हाथ से निकला हुआ था. मोटी बात यह थी कि, वह मोटे-मोटे उपन्यास पढ़ता था. उस दौर में जो भी उपन्यास-पाठक दिखता था, उसे खत्मशुदा माना जाता था और उसके सुधरने की गुंजाइश नामुमकिन बताई जाती थी.

अतएव पूरी पंचायत उसकी जान के पीछे पड़ गई. केवल एक आदमी उसके पक्ष में था, हीरामणि-उसका चचेरा भाई. हीरामणि भाई, पंचों में मत-मतांतर-वैभिन्य पैदा करने की कोशिश में जुटे हुए थे. वे पंचों से बहस में उलझे हुए थे. वे अपने पूर्वज्ञान से एक नया एंगल ढूँढ़ लाए, “शब्दों पर मत जाइए सरपंच जी. सत्य, उसके कहीं पीछे है. मेदिनी ऐसा नहीं है. वह सबकुछ कर सकता है, बस ऐसा घटिया काम नहीं कर सकता. उससे, जरूर किसी ने लिखवाया होगा.”

पंचायत ने उसके किए की कड़ी निंदा की. गाँव के बिगड़ती आबोहवा पर चिंता जाहिर की. इस प्रकार डाकू और उसके चचेरे भाई की काफी रगड़ाई हो चुकी थी. जैसा कि पंचायतों में अक्सर होता था, लानत-मलानत के बाद समाधान होना ही चाहता था. पंच इतनी देर से उनको हीन सिद्ध करते-करते संतुष्ट होने ही जा रहे थे कि, मेदिनीधर का मस्तिष्क गरम होने लगा. लंबा लेक्चर सुनते-सुनते उसका व्यक्तित्व कुंठित होने लगा. बात वह साफ करता था. गिचिर-पिचिर उसे पसंद नहीं थी. अकस्मात् उसके भीतर का डाकू जाग उठा. वह खड़ा हुआ और सीना ठोककर बोला, “हाँ, मैने लिखी. किसी माई के लाल में दम है तो अब मुझे टोककर दिखाए.”

यह कहकर उसने मामले की सच्चाई घुसेड़कर रख दी. जो पंच अभी तक उसके खिलाफ मुखर होकर बोल रहे थे, यह सुनकर सन्नाटे में आ गए. उन्होंने सहायता की दृष्टि से हीरामणि की तरफ देखा. हीरामणि गायब. कब गायब हुए, किसी को पता तक नहीं चला. शायद इकबालिया बयान के समय गायब हुए. उनके लिहाज से यह जरूरी भी था, चूँकि यह बयान उनके स्थापित सिद्धांत से मेल नहीं खाता था. वैसे भी ऐसे में वहाँ रुकना नुकसानदेह साबित हो सकता था. उनकी मुसीबत का सबब बन सकता था.

जब वह पंचायत से निपटने की अपनी क्षमता जता चुका, तब जाकर उसे सेकेंडरी ऐलीमेंट्स का खयाल आया. उसके पिता इंपीरियल पुलिस में दारोगा भर्ती हुए थे. अतः वे चाबुक से खाल उतारने के शौकीन थे. रिटायरमेंट के बाद भी स्पीड से कोड़ा बरसाते थे. इस कार्रवाई में अपने-पराये का भेद नहीं रखते थे. सपसपाहट करनेवाला उनका कोड़ा, हरदम खूँटी से टँगा रहता था. उनकी जिंदगी का आधा हिस्सा डाकुओं से मुठभेड़ करने में गुजरा था. ‘घर पर अपना ही सपूत डाकू बनने की ख्वाहिश पाले बैठा है’ का खयाल उनके लिए काफी जज्बाती था. मेदिनीधर जानता था कि, परिवार की छवि को वे जान से बढ़कर मानते थे. दो-चार दिन से वे परदेश गए हुए थे, आज ही लौटने वाले थे. इस बीच मँझले ने डाकू-डाकू का खेल कर दिया. यह सोचते ही ‘डाकू’ की सारी अकल हवा हो गई. भरी पंचायत में उसकी कलई खुल चुकी थी. जज्बाती होकर उसने खुद ही खोल दी थी.

पिताजी से पार पाना इतना आसान नहीं था. उसे यकीन था कि वे ‘जग्गा डाकू’ को न्योछावर करके ही मानेंगे. यह सोचकर उसके मन का संशय जाता रहा. ‘मरता क्या न करता’ मुहावरे से उसने मरने की ठान ली. अतः जीवनलीला समाप्त करने के इरादे से उसने समय गँवाए बिना विषाक्त पदार्थ गटक लिया. फिर हो-हल्ला मचा. आस-पड़ोसी जुटे. उसके नवगठित गिरोह के छोकरे जबतक पहुँचे, तबतक उनका सरदार मुँह से फेना फेंक रहा था. आननफानन में वे अपने सरदार को साईकिल में टाँगकर किसी झोलाछाप की डिस्पेंसरी में फेंक आए. गरमपानी और न जाने कैसे-कैसे काढ़े-अर्क पिला-पिलाकर उसे मुंदा लिटाया गया. एक रबड़ के पाईप के सहारे, वह विषमुक्त हुआ. तबतक गिरोह के सदस्य रोते-कलपते रहे. झोलाछाप उनको बीच-बीच में डाँटता रहा. सोचने की बात यह थी कि, सरदार की जान बचाने के सिवा, गिरोह ने और कोई काम अभी तक हाथ में नहीं लिया था. अभी तक की सारी चुनौती सरदार को अकेले ही झेलनी पड़ी. बहरहाल, इस एपीसोड से ‘अगवा-प्रकरण’ का पटाक्षेप हो गया. कुछ महीनों में बात धीरे-धीरे ‘सबसाईड’ होती चली गई. हालांकि घटना पूरी तरह भुलाई न जा सकी. समाज में एकाध विरोधी ‘भरे बैठे रहते हैं’, ‘अब मेरा मुँह न खुलवाओ’ वाले पोज में. पीठ पीछे कुछ लोग रह-रहकर इस घटना का जिक्र करते रहे.

इधर वंशीधर भाई अच्छी नौकरी में सेटल हो चुके थे. उनकी शादी धूमधाम से हुई. मेहमान विदा हो चुके थे. एक शाम अचानक उनके घर ‘पतरोल’ आया. उपलक्ष्य था, शादी का. लक्ष्य था, सौ-पचास झटकना. दरअसल उसने यह ट्रेंड पकड़ा हुआ था. जिस भी घर में कार्यक्रम हो, दो-चार हफ्ते में अकस्मात् हाजिर हो जाना. जंगल की लकड़ी ईंधन में काम आती थी. पेड़-छपान से निगाह फेरने अथवा सलाह-सहूलियत-सुविधा देने के एवज में वह इस रकम पर अपना अधिकार समझता था.

खैर घरवालों ने उसकी आवभगत की. उसे चाय-मठरी पेश की. उसने चाय का प्याला मुँह से सटाया ही था कि, मेदिनीधर उर्फ जग्गा डाकू आँखें मलते हुए बाहर आए . पतरोल ने जैसे ही उसे देखा, उसे भारी विस्मय हुआ. प्याला नीचे रखकर उसने बाहर की ओर दौड़ लगाई. आँगन फलाँगते हुए बोला, “सौ रुपल्ली नहीं देनी थी, न देते. इतनी छोटी सी बात में ‘जग्गा’ को बुलाने की क्या जरूरत थी.”

उस बेचारे को यह मालूम नहीं था कि, ‘जग्गा’ इसी घर के लाडले हैं. कुलदीपक अपने ही घर में तो सोएगा और आँखें मलते हुए बाहर भी निकलेगा. बहरहाल, गिरोह के पूर्व फुटकर सदस्यों को इस बात की खुशी हुई कि, चलो गिरोह खत्म होने के बाद भी गिरोह का कोई तो नामलेवा है. कहीं तो उनके सरदार के नाम का रोब गालिब हुआ है.

ललित मोहन रयाल

उत्तराखण्ड सरकार की प्रशासनिक सेवा में कार्यरत ललित मोहन रयाल का लेखन अपनी चुटीली भाषा और पैनी निगाह के लिए जाना जाता है. 2018 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘खड़कमाफी की स्मृतियों से’ को आलोचकों और पाठकों की खासी सराहना मिली. उनकी दो अन्य पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य हैं. काफल ट्री के नियमित सहयोगी.

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