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लोक द्वारा विस्मृत लोकगायिका कबूतरी देवी का इंटरव्यू

कुमाऊनी लोकगायिका कबूतरी देवी (1945 – 7 जुलाई, 2018) ने  सत्तर के दशक में अपने लोकगीतों से अपने लिए अलग जगह बनाई. साल 2016 में उत्तराखंडी लोक संगीत में अभूतपूर्व योगदान के लिए उत्तराखण्ड सरकार द्वारा कबूतरी देवी को ‘लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड’ से नवाजा गया. इससे पहले भी ढेरों सम्मान पा चुकी बीते ज़माने की यह लोकप्रिय गायिका अंतिम दिनों में तकरीबन गुमनाम जीवन गुजारने पर विवश हुईं.  एक ज़माना था जब वे रेडियो की दुनिया की स्वर सम्राज्ञी थी. 70 और 80 के दशक में आकाशवाणी के नजीबाबाद, लखनऊ, रामपुर और चर्चगेट मुंबई केन्द्रों से उन्होंने ढेरों गीत गाये. वे उत्तराखण्ड और संभवतः उत्तर भारत की पहली गायिका थीं जिन्होंने आकाशवाणी के लिए गाया. उनके गाये गीत “आज पनी ज्यों-ज्यों, भोल पनी ज्यों-ज्यों पोरखिन न्हें जोंला..”, “पहाड़ों को ठंडो पाणी के भली मीठी बाणी..” आज भी कुमाउनी लोक संगीत की आत्मा माने जाते हैं. उनकी गुमनामी और अभाव की ज़िन्दगी जातीय और लैंगिक कारणों से एक नैसर्गिक प्रतिभा के असमय नष्ट हो जाने की दुर्भाग्यपूर्ण दास्तान है. कबूतरी देवी उत्तराखण्ड की शिल्पकार जाति (अनुसूचित जाति) की उपजाति गन्धर्व/मिरासी परिवार में जन्मी थीं. यह जाति पीढ़ी-दर-पीढ़ी लोकगीत गाकर ही जीवन यापन किया करती थी. उनके पास कुमाउनी लोकगीतों की वह दुर्लभ विरासत थी जो उन्होंने पुश्तैनी रूप से पायी थी. गायन की औपचारिक शिक्षा न होने के बावजूद उनके गीतों में देशी व पहाड़ी रागों का अद्भुत संसार दिखाई पढता है. संरक्षण के अभाव में बहुत कुछ है जो उनके साथ ही नष्ट हो गया. पति की मृत्यु के बाद वे पिथौरागढ़ में अपनी बेटी के घर पर ही ज्यादातर रहीं.

मृत्यु के कुछ माह पूर्व उनसे पिथौरागढ़ में सुधीर कुमार ने एक लम्बी बातचीत की थी. प्रस्तुत है.

अपने बचपन और संगीत की प्रारंभिक शिक्षा के बारे में जरा जानकारी दीजिए.

मेरा जन्म 1945 में काली कुमाऊ जिला चम्पावत के लेटी गाँव में हुआ. पिता देव राम बेहतरीन साजिंदे थे. वह हारमोनियम, सारंगी, हुड़का, तबला इत्यादि बहुत अधिकार के साथ बजाते थे. माँ देवकी देवी उस्ताद और बहुत अच्छी गिदार थी. बहुत अच्छे गीत बनाती और गाती थी. माँ नाना-नानी के लिखे गीत भी गाया करती थी. घर की अर्थव्यवस्था छोटी खेती से ही चला करती. बचपन बहुत अभाव में बीता. नौ बहनों और एक भाई में मेरा नंबर तीसरा था. प्राथमिक विद्यालय तक गाँव से 14-15 किमी दूर पुलहिंडोला में था सो लड़के भी 5वीं कक्षा तक ही पढाई कर पाते थे. लिहाजा मैंने स्कूल का मुंह नहीं देखा. घर में गीत-संगीत का माहौल था सो बचपन से ही साज हाथों में पकड़ लिया और गाने-बजाने की शुरुआत हुई.

उस समय लड़कियों की शादी कम उम्र में ही कर दी जाती थी. 14 साल की उम्र में मुझे भी पिथौरागढ़ के विकासखंड मूनाकोट में क्वीतढ़ गाँव के दीवानी राम के साथ ब्याह दिया गया. उस ज़माने में यह संयोग न जाने कैसे बैठा. मायके और ससुराल के बीच बहुत ज्यादा दूरी थी. कभी-कभी 2 दिनों तक पैदल चलकर भी मायके आना-जाना होता था, जो धीरे-धीरे ख़त्म हो गया.

आपको अन्य किस-किससे संगीत की शिक्षा और प्रेरणा मिली?

मेरे माता-पिता ही मेरे गुरु और संगीत शिक्षक रहे. उनके अलावा किसी से भी मैंने संगीत की किसी भी तरह की शिक्षा नहीं ली, न ही इसका अवसर मिला. मैंने सुना है कि भानु राम सुकोटी को कहीं मेरा गुरु बताया जा रहा है. यह ग़लत है. भानु राम जी मेरे ककिया ससुर थे. वो बहुत अच्छे साजिंदे और गायक थे. मैं उनका बहुत सम्मान करती हूँ. उन्होंने खुद के लिखे कुछ गाने जरूर मुझे गाने के लिए दिए. शायद उनको लगा हो कि ये गाने मेरी आवाज में अच्छे लगेंगे. मगर वो मेरे गुरु नहीं रहे न ही मेरी संगीत शिक्षा में उनका कोई अन्य योगदान ही रहा. विवाह के बाद मेरे पति ने जरूर मेरा मार्गदर्शन किया. उन्होंने मुझे आकाशवाणी की दहलीज़ तक पहुँचाया. माता-पिता के अलावा उनका ही मेरी संगीत यात्रा में योगदान है.

शादी के बाद वैवाहिक जीवन कैसा रहा और संगीत का सफ़र कैसे आगे बढ़ा?

ससुराल की आर्थिक स्थिति भी बेहद ख़राब थी. पति फक्कड़ स्वभाव के थे और उनको राजनीति का बहुत जुनून था. वे घर की जिम्मेदारियों से मुंह मोड़े रहते. यहाँ खेती के लिए जमीन भी नहीं थी. मैंने किसी तरह मेहनत-मजदूरी कर घर का खर्च चलाया. दूसरों के खेतों में मजदूरी कर अनाज भी जुटाती थी. रेता-बजरी और पत्थर ढोकर घर के कमरे भी बनाए.

ससुराल में गाने-बजाने का ख़ास माहौल तो नहीं था मगर सबको मेरा गाना अच्छा लगता था. नेताजी (पति) को जब मेरे शौक के बारे में पता चला तो उन्होंने भी मुझे बढ़ावा दिया. वो खुद तो नहीं गाते थे मगर मेरे साथ नए गाने बहुत शौक के साथ बनाया करते थे. वह अपने राजनीति के शौक की वजह से दूर देश घूमने भी जाया करते थे. उनके इसी शौक ने आखिरकार मुझे दुनिया के सामने लाने में भूमिका निभाई. उन्हीं को आकाशवाणी में गाये जाने की प्रक्रिया की जानकारी थी या शायद उन्होंने इसे इकठ्ठा किया.

28 मई 1979 को मैंने आकाशवाणी की स्वर परीक्षा उत्तीर्ण की और अपना पहला गीत आकाशवाणी के लखनऊ केंद्र से गाया. यह सिलसिला चल पड़ा और मैंने आकाशवाणी के नजीबाबाद, रामपुर और बम्बई केन्द्रों से भी गाया. मेरे गीतों का आकाशवाणी के कई अन्य केन्द्रों से भी प्रसारण हुआ. हर गीत की एवज में मुझे 50 रुपए तक मिल जाया करते थे. उस वक़्त आकाशवाणी तक पहुँचने के लिए हमें बहुत रास्ता पैदल चलकर फिर बस या ट्रेन पकडनी होती थी. सात लोगों के परिवार के भरण-पोषण के लिए यह पैसा नाकाफी था तो मुझे मेहनत-मजदूरी भी करनी पड़ती थी. मेरी जानकारी में उस वक़्त पिथौरागढ़ तो क्या बहुत दूर तक कोई पुरुष गायक भी नहीं था जो लोकप्रिय हो.

1984-85 में पति दीवानी राम की असमय मृत्यु हो गयी. उनकी मौत के बाद मेरा और ज्यादा कष्टप्रद जीवन शुरू हो गया. तीन बच्चों की जिम्मेदारी मेरे सर पर आ पड़ी. मैंने बहुत कष्ट भोगकर दोनों लड़कियों की शादी की. लड़का मजदूरी के लिए बम्बई चला गया. वह इतना ही कमा पाता है जिससे उसका गुजारा हो जाये. इसके बाद गाना-बजाना बिलकुल ही ख़त्म सा हो चला.

बाद का समय कैसे गुजरा?

एक गायिका के रूप में मेरा सफ़र पति की मौत के बाद ख़त्म ही हो गया. मैं बहुत अभाव की ज़िन्दगी जी रही थी और मानसिक तौर पर भी बहुत परेशान थी. मेरा शरीर कई बीमारियों का शिकार हो चला था. डेढ़ दशक की गुमनामी के बाद पिथौरागढ़ शहर के संस्कृतिकर्मी हेमराज बिष्ट ने मुझे ढूंढ निकाला. उनके मुझ पर कई अहसान हैं. उन्होंने नष्ट होने की स्थिति में पहुँच चुके मेरे दस्तावेजों को सहेजा. उन दस्तावेजों की मदद से संस्कृति विभाग द्वारा दी जाने वाली पेंशन की कार्रवाई शुरू की. उन्होंने ही मुझे अरसे बाद मंचासीन किया और पिथौरागढ़ के सांस्कृतिक मेले में गाना गवाया. उनकी ही वजह से मेरा गायिका के रूप में पुनर्जन्म संभव हुआ. मेरा वजूद पहचाना गया. दुनिया को पता लगा कि कबूतरी देवी जिंदा है. उसके बाद समाज से मेरा कोई-न-कोई संपर्क बना ही रहा.

सरकारों और विभिन्न संस्कृतिक संस्थाओं से आपको क्या सहयोग मिला?

पति की मौत के बाद मुझे किसी से कोई सहयोग नहीं मिला. किसी ने मेरी सुध लेना भी जरूरी नहीं समझा. हाँ! हेमराज बिष्ट द्वारा मुझे मंच से गवाने और एक दफा दोबारा दुनिया के सामने ले आने के बाद मुझे विभिन्न संस्थाओं से सम्मानित किये जाने का सिलसिला सा चल पड़ा. साल में दो-एक दफा किसी न किसी मंच से सम्मानित किया ही जाता है. लेकिन सम्मानों से भला मेरी दिक्कतें-परेशानियों क्या कम होंगी. काश ये सम्मानपत्र दो वक़्त की रोटी भी दे पाते. रही सरकार की बात तो मुझे सरकार तीन हजार रुपए की मासिक पेंशन दी जाती है. उससे शरीर की बीमारियाँ ही नहीं संभलती, बूढ़ा शरीर है बीमारियों का घर. जब बीमारियाँ गंभीर हो जाती है, अस्पताल में भर्ती होना पड़ता है तब भी सरकार के कान में जूं नहीं रेंगती. हर बार मीडिया के मुद्दा उठाने के बाद ही सही इलाज़ शुरू होता है. उसके बाद मंत्री-मुख्यमंत्री तक मिलने आये हैं और जोर-शोर के साथ घोषणाएं भी की जाती रही हैं. अभी तक कुछ अमल तो नहीं हुआ है. जब मेरा नाती पवनदीप राजन ‘वोइस ऑफ़ इडिया’ बना तो एसडीएम खुद मेरी बेटी के घर आये थे, जहाँ मैं अक्सर रहती हूँ.  और गाँव वालों के सामने कई घोषणाएं कीं. बाद में उनको फोन किया तो बोले कि ‘मेरा तबादला हो चुका है अब मैं कुछ नहीं कर सकता.’ सरकारों को लोक की सुध कहाँ.

इस वक़्त की आपकी दिक्कतें क्या हैं?

एक कलाकार के लिए इससे बड़ा कष्ट और क्या हो सकता है कि उसको मंच न मिले, उसकी आवाज गुम होकर रह जाए. सालों से मंच पर गाने को न मिलना सबसे बड़ा कष्ट है. रियाज़ के लिए अच्छी हारमोनियम भी नहीं है. उसके बाद गरीबी, खराब स्वास्थ्य वगैरह तो हैं ही. सभी बच्चे ख़राब आर्थिक हालातों में हैं तो कोई मदद नहीं कर पाते. इलाज़ कराने के लिए पैसा नहीं है. सुनाई नहीं देता. सरकारी मदद से 6 साल पहले मिली कान की मशीनें खराब हो चुकी हैं, खरीदने के लिए पैसा नहीं है. दुःख-तकलीफ तो खैर हमेशा से ही लगे रहे हैं.

सरकारों से चाहती हूँ कि अपने कलाकारों की सुध ले. हमारे लिए व्यवस्था करे कि हमारे पास जो भी है उसे अगली पीढ़ी को सिखा सकें. हमारे पास मौजूद लोकसंगीत को रिकॉर्ड कर संरक्षित किया जाना चाहिए. कम-से-कम सरकारी मेलों और अन्य आयोजनों में तो हमको बुलाया ही जाना चाहिए. मेरे पास खुद के रिकार्डेड गाने तक नहीं हैं. लोग आते हैं कुछ रिकॉर्ड करके ले जाते हैं, वादा करते हैं कि भेज देंगे मगर कोई नहीं भेजता. यही चाहती हूँ कि हमें कलाकार के रूप में जीवित रखा जाये और सम्मानजनक जीवन का बंदोबस्त किया जाना चाहिए.

(नोट: कबूतरी देवी को खुद के जन्म से लेकर अभी तक की कोई भी महत्वपूर्ण तिथि याद नहीं है. उनके पास आकाशवाणी में पास की गयी स्वर-परीक्षा का सर्टिफिकेट मौजूद है. इसमें अंकित तारीख के आधार पर ही अन्य तारीखें अनुमानतः लिखीं गयी हैं.) 

सुधीर कुमार हल्द्वानी में रहते हैं. लम्बे समय तक मीडिया से जुड़े सुधीर पाक कला के भी जानकार हैं और इस कार्य को पेशे के तौर पर भी अपना चुके हैं. समाज के प्रत्येक पहलू पर उनकी बेबाक कलम चलती रही है. काफल ट्री टीम के अभिन्न सहयोगी.

आज उत्तराखण्ड की लोकगायिका कबूतरी देवी की पहली पुण्यतिथि है

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