Featured

एक जमाने में डाकुओं का गढ़ था भाबर

बदरीदत्त पाण्डे ने ‘कुमाऊँ का इतिहास’ में ऐतिहासिक सामग्री के आधार पर बयान किया है कि पहाड़ में जो गंभीर अपराधी थे, उन्हें भाबर भेज दिया जाता था ताकि वे यहाँ की अस्वास्थ्यकर जलवायु में अपने कर्मों का फल भुगतें. उन्नीसवीं शताब्दी के आरम्भ में भी भाबर डाकुओं और अपराधियों के गढ़ के रूप में कुख्यात था और डाकुओं के आतंक के कारण ही उजाड़ हो गया था. कुमाऊँ के पहले कमिश्नर जॉर्ज विलियम ट्रेल ने भी अपने नोट्स में भाबर को डकैतों का अड्डा बताया है.

बीसवीं शताब्दी के आरम्भिक वर्षों में भी हल्द्वानी और उसके आसपास डकैतों की भारी समस्या थी. वे झोपड़ियों में आग लगा देते थे और जो कुछ मिलता, उसे लूट लेते थे. इनमें से अधिकतर बांस के डंडों पर खपच्चियाँ फंसा कर लम्बे डग भरते हुए रातों रात चालीस पचास मील का फासला तय कर लेते थे. अतः पुलिस के लिए इन्हें पकड़ना संभव नहीं होता था.

समय के साथ-साथ जैसे-जैसे हल्द्वानी का नगरीकरण होता गया अंग्रेजों ने यहाँ की आतंरिक सुरक्षा व्यवस्था को चाक चौबंद करने के अनेक उपाय किये.

1940 से हल्द्वानी में रह रहे समाजसेवी श्री नित्यानंद जी ने लेखिका को बतलाया था कि ब्रिटिश शासन में आंतरिक सुरक्षा के विचार से हल्द्वानी में बड़ा अमन चैन था. पुलिस के नाम पर एक थाना और दो चौकियां थीं. थाने में एक दरोगा और चार सिपाही नियुक्त थे. एक पुलिस चौकी मंगल पड़ाव में भी थी और दूसरी बाजार में उस स्थान पर थी जहाँ वर्तमान में दूसरे तल पर प्राथमिक पाठशाला है. दुकानों में दरवाजों के नाम पर बांस की खपच्चियों की बाड़ हुआ करती थी. पहाड़ों से जाड़ों में धूप सेंकने के लिए भाबर आने वाले लोग झोपड़ों में रहते थे लेकिन किसी को भी चोरी का डर नहीं था. नगर के निवासियों में अधिकतर लोग पर्वतीय थे. बंजारों का सम्बन्ध ग्रामीण कृषकों और पर्वतीय उपभोक्ताओं से था अतत दोनों समुदायों में बड़ा भाईचारा था.

सड़क पर यातायात बहुत कम था. बाद तक भी अधिकतर लोग या तो पैदल चलते थे या साइकिलों पर लेकिन आज तो यातायात की जगह सड़कों पर रेलमपेल ही अधिक दिखाई देती है.

पहले की अपेक्षा आज हल्द्वानी बहुत असुरक्षित नगर के रूप मन उभर रहा है. चोरी, बटमारी, मारपीट यहाँ तक कि आपसी रंजिश के कारण हत्या कर शव को नाहर में फेंक देने की घटनाएं होती रहती हैं. अभिभावक और उनके पाल्य मोटरसाइकिल को सामाजिक प्रतिष्ठा का प्रतीक मान बैठे हैं और कहीं-कहीं बच्चों के हठ के आगे अभिभावक लाचार दिखाई देते हैं.

(डॉ. किरन त्रिपाठी की पुस्तक ‘हल्द्वानी: मंडी से महानगर की ओर’ से साभार)    

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Kafal Tree

Recent Posts

भूत की चुटिया हाथ

लोगों के नौनिहाल स्कूल पढ़ने जाते और गब्दू गुएरों (ग्वालों) के साथ गुच्छी खेलने सामने…

24 hours ago

यूट्यूब में ट्रेंड हो रहा है कुमाऊनी गाना

यूट्यूब के ट्रेंडिंग चार्ट में एक गीत ट्रेंड हो रहा है सोनचड़ी. बागेश्वर की कमला…

1 day ago

पहाड़ों में मत्स्य आखेट

गर्मियों का सीजन शुरू होते ही पहाड़ के गाड़-गधेरों में मछुआरें अक्सर दिखने शुरू हो…

2 days ago

छिपलाकोट अन्तर्यात्रा : जिंदगानी के सफर में हम भी तेरे हमसफ़र हैं

पिछली कड़ी : छिपलाकोट अन्तर्यात्रा : दिशाएं देखो रंग भरी, चमक भरी उमंग भरी हम…

2 days ago

स्वयं प्रकाश की कहानी: बलि

घनी हरियाली थी, जहां उसके बचपन का गाँव था. साल, शीशम, आम, कटहल और महुए…

3 days ago

सुदर्शन शाह बाड़ाहाट यानि उतरकाशी को बनाना चाहते थे राजधानी

-रामचन्द्र नौटियाल अंग्रेजों के रंवाईं परगने को अपने अधीन रखने की साजिश के चलते राजा…

3 days ago