मध्य हिमालय के भारत तिब्बत सीमा में स्थित मिलम ग्लेशियर से निकलने वाली गोरीगंगा की सुरम्य जोहार घाटी का प्राकृतिक सौन्दर्य जितना अलौकिक है, उतनी ही विशिष्ट रही है वहां की शौका संस्कृति और उस संस्कृति के संवाहक विद्वतजनों की उद्यमता और समाजसेवा के प्रति समर्पण. 3060 से 3452 मीटर तक ऊंचाई में बसे वहां के 14 गांवों तक पहुंचने का मार्ग आज भी जितना दुरूह है उसे देखकर आश्चर्य होता है कि प्राचीन काल में लोग वहां तक पहुंचते कैसे होंगे और वहां पहुंचने के लिये इतनी कष्टकर यात्रा क्यों करते होंगे. क्या वहां के गावों की प्राकृतिक सुंदरता उनको अपनी ओर आकर्षित करती थी या फिर तीनधूरा के विकट दर्रे से होकर किया जाने वाला तिब्बत व्यापार मार्ग इतना लाभकर लगा कि वे अपनी जान जोखिम में डालकर भी जून से सितम्बर तक के चार माह उन गांवों में निवास करते हुए तिब्बत व्यापार का संचालन करते थे और ऊन की कताई-बुनाई के घरेलू उपयोग के साथ ही थोड़ी बहुत खेती और जड़ी-बूटी संग्रह का कार्य करते थे. कारण जो भी रहा हो वे तमाम प्राकृतिक विपदाओं को जीवन का अंग मानते हुए ऐसे जीते थे मानो इससे इतर कोई दुनिया है ही नहीं.
अपने परिवेश से प्यार और जीवन यापन ही नहीं जीवन जीने के लिए प्राकृतिक कठिनाइयों पर विजय पाने की आवश्यकता ने ही यहां के निवासियों को कर्मठ और उद्यमी बनाया. मूल रूप से राजस्थान के रहने वाले धाम सिंह रावत 15 वी शताब्दी के उत्तरार्ध में जब गढ़वाल और तिब्बत होकर जोहार आए तो अपने साथ न केवल पश्चिमी तिब्बत के प्रशासक बोद्छोगेल तिब्बत व्यापार हेतु अनेक अनेक सुविधाएं या यूं कहें कि एकाधिकार लाए बल्कि वैदिक धर्म की परंपराएं व मान्यताएं भी लाए. धार्मिक आस्था ने जोहार वासियों को जहां समाज की ओर उन्मुख किया वहीं तिब्बत व्यापार से अर्जित आर्थिक संपन्नता ने उन्हें इस योग्य बनाया कि वे समाज में अपना श्रम व धन अर्पित कर सकें. जोहार की छोटी सी आबादी ने जिस तरह नैन सिंह व किशन सिंह जैसे महान अन्वेषक, बाबू राम सिंह जैसे विचारक युगदृष्टा, अनगिनत स्वतंत्रता सेनानी व समाजसेवी व अनेकानेक उद्यमी दिए वह अविश्वसनीय सा लगता है. इन्हीं परंपराओं के महान निर्वाहक थे मिलम निवासी धरमु यानी धर्म सिंह, जिसे समाज ने उसकी संपन्नता के लिए सेठ और निस्वार्थ समाज सेवा के लिए राय उपनाम दिया और उनका नाम हो गया सेठ धरम राय.
धर्म राय का जन्म जून 1889 में भारत तिब्बत के अंतिम और तत्कालीन अल्मोड़ा जिले के सबसे बड़े गांव मिलम में जेठुवा के घर में हुआ. माता-पिता ही नहीं बल्कि दो-दो पत्नियों की मृत्यु हो जाने से उनका प्रारंभिक जीवन गरीबी में बीता. परिस्थितियों पर विजय पाने के उनके संघर्ष ने ही उन्हें समाज सेवा की ओर उन्मुख किया. अपने श्रम, व्यापार कौशल और सत्य निष्ठा से तिब्बत व्यापार में उन्होंने जो सफलता पाई उसी ने उनको इस योग्य बनाया की अपना धन व श्रम दोनों समाज सेवा को अर्पित कर सकें. अपनी युवा अवस्था में ही वे दमे के कारण तिब्बत जाने को असमर्थ हो गए. लेकिन उनके सुयोग्य पुत्रों ने उनके व्यापार को न केवल संभाला बल्कि परिवार को आर्थिक रूप से इतना संपन्न बनाया कि धर्म राय को अपने सामाजिक कार्यों के लिए किसी से आर्थिक सहयोग मांगने की आवश्यकता नहीं रही.पैसा उधार देने का कार्य भी उन्होंने धन अर्जन से अधिक लोगों और छोटे व्यापरियों के आर्थिक कष्ट निवारण के लिये किया.
धर्म राय बचपन से ही धार्मिक प्रवृत्ति के थे. सत्य निष्ठा उनके जीवन का मूल मंत्र था. ‘ रघुवर रीत सदा चलि आई, प्राण जाए पर बचन न जाई’ वे न केवल मंत्रोचार की तरह कहते रहते थे वरण व्यापारिक व व्यक्तिगत दोनों मामलों में उसपर अमल भी करते थे चाहे उससे उनको कितनी ही व्यक्तिगत या आर्थिक हानि हो. इसी धार्मिक आस्था के कारण उन्होंने कैलाश यात्रियों की सेवा का बीड़ा उठाया और 1962 में भारत तिब्बत सीमा बंद होने तक उसका सफलतापूर्वक निर्वहन किया. हिंदू धर्म की मान्यता के अनुसार मंदिर की परिक्रमा पश्चिम से पूर्व की ओर की जाती है क्योंकि जोहार कैलाश के पश्चिम में है इसलिए उन दिनों अधिकांश यात्री यहीं से कैलाश यात्रा प्रारंभ करते थे और लिपूलेख दर्रे से होकर वापस आते थे. जो यात्री अपने साथ टेंट लाते वे मिलम प्राथमिक विद्यालय से पीछे मैदान में डेरा डालते, अन्य यात्री, जिनमें अधिकांश साधु होते, मिलम पांगती कचहरी (मिलन केंद्र) में टिकते. उनके पहुंचने का कोई निश्चित समय नहीं होता. धरम राय नित्य प्रातः और सायं काल इन दोनों स्थानों में जाते और यात्रियों से अनुरोध करते कि मिलम प्रवास के दौरान उनके घर में भोजन-पानी करें .साधु लोग उनका आतिथ्य सहर्ष स्वीकार करते, अधिकांश यात्री भी कम से कम एक बार का भोजन या जलपान करने आते. कुछ संपन्न यात्री जो पानी तक अपने साथ लिए चलते थे उनका अनुरोध स्वीकार करने में सादर असमर्थता व्यक्त करते. ऐसे यात्रियों से धरम राय करबद्ध प्रार्थना करते कि यदि वे भोजन के लिए नहीं आ सकते तो कम से कम जलपान के लिए अवश्य आएं अन्यथा उनका कैलाश यात्रियों की सेवा का व्रत भंग हो जाएगा. इस पर वे भी जलपान के लिए मान जाते. यह क्रम जून से सितंबर तक चलता रहता. साधु की वे तीनधूरा ( तीन पहाड़ियों वाला दर्रा) की यात्रा के लिये गुड़पापडी (भूने हुये आटे में गुड़ मिलाकर बनाया गया कलेवा) यह कहकर देते कि तीनधूरा की यात्रा एक ही दिन में पूरी करनी होती है और वहां कुछ भी खाने को नहीं मिलता और ऐसे में वह कलेवा उनके काम आयेगा.
कैलाश यात्रा से कुछ लोग, मुख्य रूप से साधु लोग, वापसी भी जोहार के रास्ते ही करते. यह क्रम अक्टूबर तक भी चलता. धरम राय तब भी उनकी सेवा करते. ऐसे ही एक साधु, जिसने मौन धारण कर रखा था और जो मौनी बाबा के नाम से प्रसिद्ध थे, ने जब जोहार में ही बसने की इच्छा जताई इच्छा जताई तो धरम राय ने ला से गिरगांव की चढ़ाई में ला से एक मील ऊपर पुरदम नाम के स्थान में 15 नाली जमीन खरीदी और मौनी बाबा के लिये वहां एक कुटिया और यात्रियों के लिये धर्मधाला का निर्माण किया. उनका अवशेष और वहां लगे सुंदर सुरई और पीपल के पेड़ आज भी विद्यमान हैं.
विकट रास्तों में सामान लदे घोड़ों व बकरियों के साथ यात्रा करना किसी त्रासदी से कम नहीं था. लेकिन तिब्बत व्यापार के संचालन के लिए उसे छोड़ा भी नहीं जा सकता था. दुर्घटना और उससे होने वाली जनधन की हानि आम बात थी. इनसे बचने के लिए जोहार का पूरा समाज जागरूक था. मुनस्यारी से मिलम ही नहीं उसके बाद तीनधूरा से पहले पड़ने वाले पड़ाव दुंग तक के रास्तों व पुलों का रख-रखाव विभिन्न गांवों व वर्गों में बांटा गया था. बाद के वर्षों में जिला बोर्ड द्वारा भी कुछ हद तक यह कार्य किया जाने लगा. लेकिन कार्य कठिन और यह प्रयास अपर्याप्त थे. इसलिए अनेकानेक समाजसेवी इस कार्य हेतु आगे आए. उनमें प्रमुख थे मानी बूढ़ा रावत जिन्होंने 90 अंश की खड़ी विशाल एकल चट्टान से सटकर बहने वाली गोरी गंगा की धारा को नहर काटकर चट्टान से सटा रास्ता निकाला. इस स्थान का नाम ही तब से नहर हो गया. उसके बाद भी एक ऐसी ही एक विकट समस्या रह गई.
वह समस्या थी नहर से कुछ आगे मापांग में इसी तरह गोरी गंगा के विशाल पहाड़ के चट्टान से सटकर बहने के कारण ऊंची पहाड़ी पार कर दूसरी ओर पहुंचने की मजबूरी. यात्रियों का यह कष्ट धरम राय से देखा नहीं गया. उन्होंने वर्ष 1933-34 में चट्टान से सटाकर सीढ़ीनुमा रास्ता बना कर वह कार्य कर दिखाया जिसे लोग संभव समझ रहे थे. इसके लिए 1935 में मिलम आए अल्मोड़ा के जिलाधीश डब्लू. डब्लू. फिनले ने 20 जून 1935 को उन्हें प्रशस्ति पत्र प्रदान किया. इससे प्रोत्साहित होकर उन्होंने मानी बूढ़ा की तरह ही मापांग में नदी की धारा को ही बदलने की ठान ली. इसके लिए उन्होंने पूरे वर्ष भर कुलियों का गैंग लगाया. लेकिन दुर्भाग्य से सफलता नहीं मिली क्योंकि चट्टान का विस्तार अधिक होने के साथ-साथ ही दूसरे छोर की जमीन ऊंची और विस्तृत थी. फिर भी धरम राय ने हार नहीं मानी. उन्होंने सड़क सुधार का कार्य जारी रखा. उनका कुलियों का गैंग कई वर्षों तक मुनस्यारी जोहार सड़क का रखरखाव करता रहा. तल्ला जोहार में भी यात्रियों को कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था. उनमें प्रमुख था सामा-बांखरधार की सूखी कम्मर (पहाड़ी के ढलान का सीधा रास्ता) में यात्रियों का पानी के अभाव में प्यास से तड़पना. इसके लिए उन्होंने कई वर्षों तक बांख़रधार में एक प्याऊ लगाया जहां यात्रियों को पानी पिलाने के लिए एक आदमी रहता था.
क्षेत्र में और भी कई समस्याएं थी. उनमें प्रमुख था मिलम में पीने की पानी की समस्या. मिलम के पूर्व में गोंखा नदी और पश्चिम में पूरी गंगा बहती है. फिर पानी की समस्या कैसी? समस्या दो तरह की थी. दोनों नदियां गांव से काफी दूर हैं और महिलाओं को वहां से घड़े में पानी लाने में बहुत कष्ट होता था. दोनों नदियों के पानी में अत्यधिक मिट्टी का होना लेकिन इनका कोई समाधान नहीं था. दूध सी सफेद दिखने वाली एकमात्र स्वच्छ जल की धारा पश्चिम में गोरी गंगा के पार की पहाड़ी में थी. जब नदी पार करना ही कठिन हो तो फिर वहां से पानी को गांव लाया कैसे जाए. कठिन और असंभव कार्य करने वाले का नाम ही तो धरम राय. एक दिन उन्होंने ठान लिया कि वे दूधपानी को गांव में लाएंगे. उन्होंने जब अपना इरादा लोगों से साझा किया तो उनकी प्रतिक्रिया थी कि यह काम असंभव है. उनका कहना था कि मापांग की सफलता से धरम राय का दिमाग खराब हो गया है.
फिर लोगों ने सोचा कि धरम राय अपना पैसा बर्बाद करने पर तुले हैं तो हमें क्या आपत्ति है. यह असंभव लगने वाला कार्य धरम राय ने आखिर में 1951 में कर दिखाया. मिलम गांव में स्वच्छ जल लाना गंगा के धरा में आरोहन का एक लघु स्वरूप जैसा ही था.लेकिन इस जल को निर्बाध नहीं रखा जा सका. पाइप व सीमेंट को वहां तक पहुंचाना संभव नहीं था. छेल्चान (बर्फ के चट्टानों के टूटने से बने कंकरों से ढकी पहाड़ियां) में बनी गुलें जाड़ों की बर्फबारी और हिमस्खलन से टूट गई. धरम राय ने दूसरे वर्ष उसके सुधार का प्रयास किया पर बहुत सफलता नहीं मिली. उनकी दमे की बीमारी भी गंभीर हो गई. इसी बीच 1962 के भारत चीन युद्ध के बाद तिब्बत व्यापार समाप्त हो गया और शौकाओं ने जोहार जाना बंद कर दिया और धरम राय के इस सपने को साकार करने की आवश्यकता नहीं रही.
जोहार की धरा और शौका समाज ने जिन अनगिनत विभूतियों को जन्म दिया उन्होंने जीवन की विभिन्न क्षेत्रों में अनेकानेक कीर्तिमान स्थापित किए. लेकिन धरम राय उनमें सबसे विशिष्ट थे क्योंकि वे जीवनपर्यंत समाज सेवा को समर्पित रहे. जीवन उनके लिए समाज सेवा का ही पर्याय था. 1964 में मृत्यु तक वह समाज सेवा को एक मिशन की तरह करते रहे. उनकी विशिष्टता इसमें भी थी कि वे समाजसेवा के सभी कार्य अपने दम पर और अपने खर्चे से करते थे. उन्होंने उसमें कभी भी जनभागीदारी या सहयोग की कामना नहीं की. संभवत यही उनकी समाज सेवा की निरंतरता का रहस्य था. आशा की जाती है कि उनसे प्रेरणा लेकर समाज के आज की कुछ संपन्न और प्रबुद्ध व्यक्ति समाज सेवा हेतु आगे आएंगे.
-गजेन्द्र सिंह पांगती
मूल रूप से जोहार घाटी के मिलम गांव के रहने वाले गजेन्द्र सिंह पांगती वर्तमान में हल्द्वानी में रहते हैं. 1941 में जन्में गजेन्द्र सिंह पांगती की पुस्तक ‘संक्रमण’ 2011 में प्रकाशित हुई. ‘संक्रमण’ के माध्यम से उन्होंने शौका इतिहास और समाज का एक प्रमाणिक चित्रण दिया है. 2012 में उनकी पुस्तक ‘जोहार किंकर : बाबू राम सिंह‘ प्रकाशित हुई और 2014 में ‘चैती नखराली’ प्रकाशित हुई. ‘चैती नखराली’ शौका इतिहास व संस्कृति को प्रदर्शित करने वाली ऐसी कहानियों पर आधारित है जो जनश्रुतियों आधारित हैं. उनकी नवीनतम पुस्तक ‘छिला ज्वार छिल’ उनके संस्मरणों पर आधारित है.
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